भारत पर ब्रेक्जिट का असर
प्रतिभा मिश्रा
डेवलपमेंट बैंक ऑफ सिंगापुर (डीबीएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रेक्जि़ट से उन दूसरे यूरोपीय देशों को भी प्रोत्साहन मिल सकता है जो यूरोपीय संघ से नाता तोडऩे के लिये अपने यहां जनमत संग्रह कराना चाहते हैं. यदि अन्य यूरोपीय देश भी ब्रिटेन की राह पर चलते हैं तो कमज़ोर एशियाई मुद्राओं (जापान के येन को छोडक़र सभी मुद्राएं) को झटका लग सकता है. निवेशकों पर भी ऐसे समय परिसंपत्तियों के लिये जोखि़म उठाने को लेकर विपरीत प्रभाव हो सकता है.
आइए देखते हैं ब्रेक्जि़ट भारत के लिये क्या मायने रखता है:
भारतीय रुपये पर प्रत्यक्ष व्यापार प्रभाव सीमित होने की संभावना है
भारतीय रुपये को प्रत्यक्ष व्यापार प्रभाव से बहुत अधिक नुकसान नहीं पहुंचने की संभावना है, जब यह ब्रिटेन में आता है, परंतु निकट भविष्य में निस्संदेह यह वैश्विक जोखि़म से प्रभावित हो सकता है. कोटेक इकॉनामी रिपोर्ट पहले ही 2016-17 के लिये औसत अमरीकी डॉलर लक्ष्य को रु. 67.9 से रु. 68.5 संशोघित कर चुकी है.
यह ध्यान देने की बात है कि ब्रेक्जि़ट के एक सप्ताह बाद विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों का उत्प्रवाह बढक़र रु. 539 करोड़ हो गया. घरेलू सांस्थानिक निवेशकों ने वित्तीय बाज़ारों में स्थिरता के लिये 1068 करोड़ रुपये झोंके परंतु यदि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक उत्प्रवाह जारी रहता है तो ये धनराशि पर्याप्त नहीं हो सकती है. वैश्विक बाज़ार को प्रभावित करने वाले दो अन्य प्रमुख घटनाक्रम हैं - अमरीकी फेडरल रिज़र्व द्वारा ब्याज दरों में संभावित वृद्धि, और विदेशी मुद्रा अनिवासी सावधि जमा प्रतिदान का हम पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं हो सकता, यदि भारतीय रिज़र्व बैंक ने पर्याप्त विदेशी मुद्रा रिज़र्व संचित करके रखी है.
पिछले कुछ सत्रों में विदेशी सांस्थानिक निवेशक अपनी इक्विटी की बिक्री करके और रुपये ऋण से अपने भारत जोखि़म में पहले ही कटौती कर चुके हैं. यह दूरगामी रूप से भारत के पक्ष में कार्य कर सकता है क्योंकि इसके लिये पहले ही व्यापक सुधार की आवश्यकता थी.
कोटेक म्युचुअल फंड में मुख्य निवेश अधिकारी - ऋण लक्ष्मी अय्यर का कहना है कि ‘‘वित्तीय बाज़ारों में न्यूनतम उतार चढ़ाव रखने के लिये केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप से इन्कार नहीं किया जा सकता है. चूंकि वैश्विक नकदी की स्थिति में शीघ्र सुधार होने की संभावना है, ब्याज़ दरों का सकारात्मक प्रभाव देखा जा सकता है.’’ यद्यपि भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा तेज़ी से ब्याज दरों में कटौती शीघ्र होने की संभावना नहीं दिखाई देती है क्योंकि इससे मुद्रा कमज़ोर हो सकती है और मुद्रास्फीति बढ़ सकती है जिसके कारण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और थोक बिक्री मूल्य सूचकांक तेज़ी के साथ ऊपर चढ़ सकते हैं.
यह देखा गया है कि मुद्रा में प्रत्येक 100 आधार बिंदुओं (बीपीएस) अवमूल्यन से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बढक़र 1720 आधार बिंदुओं तक और थोक बिक्री मूल्य सूचकांक बढक़र 225 आधार बिंदुओं तक ऊपर उठ जाता है.
इस वर्ष भारत का सकल घरेलू उत्पाद थोड़ा सा नीचे रह सकता है
नोमुरा रिपोर्ट के अनुसार, एशिया के लिये 2016 जीडीपी वृद्धि अनुमान (जापान को छोडक़र) 5.9 प्रतिशत से कम होकर 5.6 प्रतिशत हो गया है. भारत के लिये, वृद्धि अनुमान 7.6 प्रतिशत से घटकर 7.3 प्रतिशत कर दिया गया. यद्यपि भारतीय निवेशकों से इसेे लेकर बहुत अधिक चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हम दुनिया में सबसे तेज़ी से विकसित हो रही प्रमुख अर्थव्यवस्था बने रहेंगे.
सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति के उदारीकरण सहित जीडीपी में वृद्धि तेज़ करने के लिये अनेक कदम उठाये हैं. नागर विमानन, रक्षा और औषधीय क्षेत्र को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये खोले जाने को इस संबंध में सकारात्मक कदम के तौर पर देखा जा रहा है.
दीर्घकालिक दृष्टिकोण से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत अच्छा काम कर रही है और इस प्रकार निवेशकों के लिये डर जैसी कोई बात नहीं है. दीपेन शाह, वरिष्ठ उपाध्यक्ष, प्राइवेट क्लायंट ग्रुप रिसर्च का कहना है, ‘‘भारतीय बाज़ारों का प्रदर्शन ज़्यादातर उभरते बाज़ारों अथवा यहां तक कि विकसित बाज़ारों से बेहतर रहने की संभावना है.‘‘
भारत के निर्यात पर भी विपरीत असर हो सकता है
यूरोपीय संघ के देशों में अनिश्चितता और चीन, जापान तथा अन्य एशियाई देशों ने इस क्या प्रतिक्रिया दी-इसका भारतीय निर्यात पर नकारात्मक प्रभाव हुआ है. चीन की मुद्रा -रेनमिनबि-पूंजी उत्प्रवाह के कारण अवमूल्यन का सामना कर रही है. चीन के लिये यूरोपीय संघ सबसे बड़ा निर्यात क्षेत्र है. यदि चीन के उद्योग प्रभावित होते हैं, इससे भारत का घरेलू उद्योग भी अवश्य प्रभावित हो सकता है.
यूरोक्षेत्र लंबी मंदी के दौर से 2014 में जाकर उभरा है. व्यापक आधार वाली बहाली, जो यहां देखी जा रही थी, ब्रिटेन के जनमत संग्रह के परिणामों के कारण प्रभावित हो सकती है जो क्षेत्र में व्यापार और घरेलू अर्थव्यवस्था दोनों पर असर डाल सकता है. यूरोक्षेत्र में घरेलू निजी खपत के बढऩे के कारण आयात में वृद्धि हो रही थी. अमरीका, चीन, जापान और भारत से निर्यात में वृद्धि हो रही थी. यदि यूरो क्षेत्र को मंदी का सामना करना पड़ता तो भारत का निर्यात भी प्रभावित हो जायेगा.
भारत का आधे से अधिक निर्यात उभरते बाज़ारों में होता है और इस प्रकार चीन में मंदी से भारत भी प्रभावित होगा.
भारत पर क्षेत्र वार प्रभाव
भारतीय व्यापार की ब्रिटेन से संचालन किये जाने को वरीयता दी जाती है क्योंकि इसकी भाषा और कानून हमारी तरह से हैं. वहां से ठोस मुद्रा वित्तपोषण प्राप्त करना आसान होता है और वहां से यूरोप तक आसानी से पहुंच कायम की जा सकती है. अब व्यापार पर प्रभाव पड़ सकता है. उन्हें अब दूसरे यूरोपीय देशों में कार्यालय स्थापित करने की आवश्यकता होगी और उनके बाज़ारों तक पहुंच कायम करने के लिये उनकी स्थानीय भाषाएं सीखनी होंगी.
ब्रिटेन के साथ द्विपक्षीय व्यापार में भारत 3.64 अरब अमरीकी डॉलर अतिरिक्त अर्जित करता है. वित्तीय वर्ष 2016 में, भारत का निर्यात 8.83 अरब अमरीकी डॉलर मूल्य का था जबकि इसका आयात 5.19 अरब अमरीकी डॉलर का था. अप्रैल 2016 माह में ब्रिटेन के लिये निर्यात हमारे कुल निर्यात का 17.66 प्रतिशत था, जबकि ब्रिटेन से आयात माह के दौरान हमारे निवल आयात का मात्र 1.45 प्रतिशत था.
ब्रिटेन का प्रमुख निर्यात टेक्सटाइल और वस्त्र का है इसके बाद मशीनरी तथा ऑटो कलपुर्जे आते हैं.
फार्मा सेक्टर में भारत के प्रमुख गंतव्य स्थान क्रमानुसार अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप हैं.
जैसे कि डॉलर के मुकाबले पाउण्ड की दर में गिरावट आती है ब्रिटेन और यूरोप से आय अर्जित करने वाली सभी कंपनियों पर कम से कम अल्पावधि प्रभाव तो होगा ही. अत: रुपये में भी गिरावट आ रही है.
जो कंपनियां मुख्यत: यूरोपीय बाज़ारों से आय अर्जित कर रही हैं उन पर व्यापक असर पड़ सकता है. दूसरी तरफ ब्रिटेन से आयात सस्ता हो सकता है और इनमें मुख्यत: अल्कोहल और बग़ैर कटाई वाले कठोर हीरे शामिल हैं.
मोटे तौर पर बे्रक्जि़ट के बहुत से दुष्प्रभाव होंगे जिससे बहुत से ऐसे बदलाव भी हो सकते हैं कि दुनिया में व्यापार और वित्त किस तरह से काम करेंगे. यहां ऐसी कुछ बातों का जिक्र किया गया है जिनके बारे में हमें जानकारी होनी चाहिये.
ब्रेक्जि़ट का ब्रिटेन और दूसरे यूरोपीय देशों पर प्रभाव
ब्रिटेन निर्यातक की अपेक्षा आयातक अधिक है. यद्यपि यह एक प्रमुख अर्थव्यवस्था है, लेकिन यहां संसाधन कम हैं. यह अपनी घरेलू मांग को पूरा करने के लिये चीन, भारत और बाकी यूरोप पर निर्भर रहता है. यूरोपीय संघ से बाहर होने का अर्थ यह हो सकता है कि यह अपने व्यापार नेटवर्क को मज़बूत करने के लिये चीन और भारत जैसे उभरते बाज़ारों की तरफ देख रहा होगा. यह अपनी मांग को पूरा करने के लिये अन्य यूरोपीय देशों के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौते कर सकता है. ब्रिटेन को एग्जिट संबंधी औपचारिकताओं को पूरा करने और पुन: पटरी पर लौटने में दो वर्षों का समय लग सकता है.
अन्य यूरोपीय देश लंदन को अपना वित्तीय हब मानते हैं क्योंकि यहां से उनके लिये दुनिया के पूंजी बाज़ारों में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त होता है. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ को छोडऩे से उनकी पूंजी बाज़ार में सीमित पहुंच हो जायेगी.
वर्तमान में ब्रिटेन यूरोपीय संघ की सदस्यता फीस के तौर पर कऱीब 8.5 अरब पाउण्ड (ख़र्चों की कटौती करने के उपरांत) का भुगतान करता है. देश अब इस राशि की बचत कर पायेगा जिसके परिणामस्वरूप शुल्कों का अतिरिक्त संग्रह हो सकता है जो कि ब्रिटेन अपने आयातों पर लगाता है.
अभी ये कहना जल्दबाज़ी होगा कि ब्रिटेन पर यूरोपीय संघ से अलग होने का क्या प्रभाव होगा. इसे अभी यूरोपीय संघ और शेष दुनिया के साथ अपने संबंधों को लेकर बातचीत करनी होगी. यह संभव है कि यदि ब्रिटेन में मंदी छाई तो यह अपने साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी ले डूबेगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था में अस्थाई रूप से थोड़ी परेशानी महसूस हो सकती है परंतु हमारे सीमित जोखि़म हमें दीर्घकालिक प्रभावों से अवश्य सुरक्षित रखा सकेंगे.
(लेखक द्वारा व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)