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विशेष लेख


Volume 46

वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण की मुख्य विशेषताएं

डॉ. कृष्ण राम

आर्थिक सर्वेक्षण वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित एक वार्षिक दस्तावेज है, जो वित्त मंत्री द्वारा संसद में केंद्रीय बजट प्रस्तुत करने से एक दिन पहले प्रस्तुत किया जाता है. इस वर्ष वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली ने वर्ष 2016-17 का आर्थिक सर्वेक्षण 31.01.2017 को संसद में पेश किया. आर्थिक सर्वेक्षण में पिछले वित्तीय वर्ष के समग्र आर्थिक परिदृश्य और अल्पावधि से मध्यम अवधि तक अर्थव्यवस्था की भावी संभावनाओं की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है. 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण की मुख्य विशेषताएं नीचे दी गई हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 की शुरूआत भारत के बारे में 8 दिलचस्प और महत्वपूर्ण तथ्यों के वर्णन से की गई है. इसके अलावा वर्ष 2016 की 2 सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख इसमें किया गया है. इन दो घटनाओं में सबसे महत्वपूर्ण लंबे समय से प्रतीक्षित और ऐतिहासिक वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) का कार्यान्वयन है. दूसरी घटना रु. 500 और रु. 1000 के करेंसी नोटों के विमुद्रीकरण से संबंधित है. सर्वेक्षण में दोहराया गया है कि विमुद्रीकरण और जीएसटी से आर्थिक और सामाजिक लाभ होंगे. सर्वेक्षण में कहा गया है कि विमुद्रीकरण की लागत अल्पावधि संक्रमणकालीन है, लेकिन इसमें अर्थव्यवस्था के लिए दीर्घावधि में व्यापक लाभ परिलक्षित होते हैं. इन लाभों में खपत में कमी, अर्थव्यवस्था का व्यापक डिजिटीकरण, बचत में बढ़ोतरी और भारतीय अर्थव्यवस्था का रूपांतरण शामिल है. इन सभी की अंतिम परिणति सकल घरेलू उत्पाद - जीडीपी में बढ़ोतरी, बेहतर कर अनुपालन और बेहतर कर राजस्व के रूप में होगी.

जीएसटी से एक साझा भारतीय बाजार का विकास होगा, कर अनुपालन में सुधार आएगा, निवेश और विकास को बढ़ावा मिलेगा. इन दो घटनाओं के अलावा, सर्वेक्षण में कई अन्य कार्यक्रमों का उल्लेख किया गया है, जैसे जनधन-आधार मोबाइल (जेएएम), द नेशनल पेमेंट कॅार्पोरेशन अॅाफ इंडिया (एनपीसीआई), यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस (यूपीआई) और कई अन्य उपाय शामिल हैं, जो भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था में अग्रणी स्थान दिला सकते हैं. भारत विश्व की सर्वाधिक तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिसका आधार स्थिर बृहद अर्थव्यवस्था, मुद्रास्फीति में कमी और विदेशी भुगतान संतुलन है.

केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी किए गए प्रथम अग्रिम अनुमानों के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था के कार्य निष्पादन के मूल्यांकन के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष 2016-17 में 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान है. सर्वेक्षण में अनुमान व्यक्त किया गया है कि आगामी वित्त वर्ष 2017-18 के लिए जीडीपी की वृद्धि दर 6.75 से 7.5 प्रतिशत के बीच रहेगी.

वर्ष 2014-15 में भारत की वास्तविक जीडीपी बढ़ोतरी 7.2 प्रतिशत दर्ज हुई, जो वर्ष 2015-16 में और भी बढक़र 7.6 प्रतिशत पर पहुंच गई. वृद्धि दर में कमी का प्रमुख कारण निर्धारित निवेश में कमी आना है, जो 2015-16 के 3.9 प्रतिशत से घटकर 2016-17 में भारी कमी के साथ (-) 0.2 प्रतिशत दर्ज हुई है.

स्थिर बुनियादी मूल्यों पर सकल मूल्य संवर्धित वृद्धि दर (जीवीए) की क्षेत्रगत संघटना पर विचार करें, तो हम यह पाते हैं कि प्राथमिक क्षेत्र (यानी कृषि और अनुषंगी क्षेत्र) की वृद्धि दर 2016-17 में 4.1 प्रतिशत रही, जो 2015-16 की तुलना में काफी अधिक है. इसका श्रेय चालू वर्ष में सामान्य मानसून को जाता है, जबकि पिछले वर्ष मानसून सामान्य से कम रहा था.

परंतु, माध्यमिक क्षेत्र (उद्योग) की वृद्धि दर में कमी आई और 2015-16 की 7.4 प्रतिशत की तुलना में यह घट कर 2016-17 में 5.2 प्रतिशत रह गई.

तृतीयक क्षेत्र (सेवा) की वृद्धि दर 2016-17 में 8.8 प्रतिशत होने का अनुमान है, जो 2015-16 की तुलना में 0.1 प्रतिशत कम है. सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में कमी का मुख्य कारण वैश्विक उत्पादन और व्यापार में कमी आना है.

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर नियंत्रण में रही है और पिछले लगातार 2 वित्तीय वर्षों से यह भारतीय रिज़र्व बैंक के 5 प्रतिशत के लक्ष्य से नीचे रही है. अगले 2 वर्षों के लिए यह प्रवृत्ति जारी रहने की संभावना है. वर्ष 2014-15 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की औसत मुद्रास्फीति 5.9 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में घटकर 4.9 प्रतिशत और अप्रैल-दिसंबर, 2016 की अवधि में और भी घटकर 4.8 प्रतिशत हो गई. थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति में कमी का रुख बदल गया जो अगस्त, 2015 में (-) 5.1 प्रतिशत थी, वह दिसंबर, 2016 के अंत तक बढक़र 3.4 प्रतिशत हो गई. इसका आंशिक कारण कच्चे तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में बढ़ोतरी था और आंशिक कारण प्रतिकूल बुनियादी प्रभाव भी रहा. 2016 में हालांकि समग्र उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में वर्ष 2015 की तुलना में कमी आई, परंतु बुनियादी मुद्रास्फीति (भोजन और ईंधन समूह को छोड़ कर) इस वित्तीय वर्ष के दौरान स्थिर रही.

विदेश क्षेत्र की बात करें, तो विश्व व्यापार और उत्पादन की वृद्धि दर निम्न रहने के कारण भारत के निर्यात में वर्ष 2014-15 में 1.3 प्रतिशत और वर्ष 2015-16 में 15.5 प्रतिशत की कमी आई. नकारात्मक वृद्धि दर का सिलसिला अप्रैल-दिसंबर, 2016 की अवधि में बदला और निर्यात में 2015-16 की तुलना में इस दौरान 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई. भारत के प्रमुख निर्यात लक्ष्यों में अमरीका और उसके बाद संयुक्त अरब अमीरात तथा हांगकांग शामिल हैं. आयात की बात करें, तो आयात के मूल्य में भी कमी आई. आयात का मूल्य वर्ष 2014-15 में 448 अरब अमरीकी डॉलर था, जो वर्ष 2015-16 में घटकर 321 अरब अमरीकी डॉलर रह गया. इसका मुख्य कारण कच्चे तेल के मूल्यों में कमी आना था, जिससे पेट्रोलियम, तेल और लुब्रीकेंट्स (पीओएल) के आयात में कमी दर्ज हुई. वर्ष 2016 की पहली छमाही के दौरान निवल सेवा प्राप्तियों में भी कमी आई. निवल निजी संप्रेषित राशि में भी इस अवधि के दौरान 4.5 अरब अमरीकी डॉलर की कमी आई. भारत की समग्र चालू खाता स्थिति वर्ष 2016-17 में बेहतर रही. भारत का चालू खाता घाटा 2013-14 से निरंतर घट रहा है. 2013-14 में चालू खाता घाटा जीडीपी का 1.7 प्रतिशत था जो 2015-16 में घट कर 1.1 प्रतिशत रह गया. 2016-17 की प्रथम छमाही में यह और भी घट कर 0.3 प्रतिशत पर आ गया. जो 2015-16 की इसी छमाही के दौरान 1.5 प्रतिशत था.

राजकोषीय आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार पिछले वर्षों की तुलना में बेहतर स्थिति में है. केंद्र का राजकोषीय घाटा 2016-17 में घटकर जीडीपी का 3.5 प्रतिशत रह गया है. यह 2013-14 के बाद सबसे कम है. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि सरकार राजकोषीय घाटे को 3 प्रतिशत के आसपास बनाए रखने के प्रति वचनबद्ध है. राज्यों का समेकित राजकोषीय घाटा हाल के वर्षों में निरंतर बढ़ता गया है. 2013-14 में राज्यों का समेकित घाटा जीडीपी का 2.5 प्रतिशत था, जो 2015-16 में बढक़र 3.6 प्रतिशत हो गया.

भारत युवा लोगों का देश है और इन युवाओं को स्वस्थ एवं पर्याप्त शिक्षित तथा समुचित रूप में प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है ताकि वे राष्ट्र निर्माण में अनुकूलतम योगदान कर सकें. इस वजह से इन क्षेत्रों पर सरकारी खर्च अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है. यदि हम सामाजिक सेवाओं पर खर्च की बात करें, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सामाजिक सेवाओं पर खर्च शामिल है, तो हम यह पाते हैं कि इन सेवाओं पर केंद्र और राज्यों का संयुक्त रूप से व्यय 2016-17 में जीडीपी का 7 प्रतिशत रहा, जो 2015-16 के व्यय की तुलना में 0.1 प्रतिशत अधिक है. कुल खर्च में, शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च 2016-17 में क्रमश: 2.9 और 1.4 प्रतिशत रहा. सकल घरेलू उत्पाद में शिक्षा की प्रतिशत भागीदारी 2015-16 और 2016-17 के दौरान स्थिर रही है. परंतु स्वास्थ्य क्षेत्र का खर्च जो 2015-16 में 1.3 प्रतिशत था, वह 2016-17 में बढक़र 1.4 प्रतिशत हो गया.

शिक्षा क्षेत्र के बारे में सर्वेक्षण में इस बात पर जोर दिया गया है कि शिक्षा तक पहुंच और स्कूल में विद्यार्थियों के ठहरने की स्थिति में सुधार आया है, लेकिन अधिसंख्य विद्यार्थियों के शिक्षण परिणाम अभी भी चिंता का विषय बने हुए हैं. इसके लिए सर्वेक्षण में पहचान किए गए कुछ कारणों में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के स्तर में गुणवत्ता में कमी का कारण शिक्षकों की अनुपस्थिति और व्यावसायिक दृष्टि से प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है. सर्वेक्षण में बताया गया है कि सर्व शिक्षा अभियान में शिक्षक घटक की कुल भागीदारी के लिए बजट 2011-12 और 2014-15 के बीच 35 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया लेकिन शिक्षकों की अनुपस्थिति और कमी के मुद्दे बने रहे.

स्वास्थ्य क्षेत्र के परिणामों की बात करें, तो सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि शिशु मृत्यु दर और अपरिपक्व मृत्यु दर में पर्याप्त कमी आई है. कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2014 के दौरान 2.3 (ग्रामीण 2.5, और शहरी 1.8) थी. शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) 2011 में प्रत्येक 1000 जीवित जन्मों पर 44 थी, जो 2015 में घट कर प्रत्येक 1000 जीवित जन्मों पर 37 रह गई. परंतु, ग्रामीण (1000 जीवित जन्म पर 41) और शहरी (1000 जीवित जन्म पर 25) क्षेत्रों के बीच आईएमआर का अंतराल बहुत बड़ा है, जो नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय है. प्रसूति मृत्यु दर 2011-13 के दौरान घटकर प्रति 1000/167 रह गई, जो 2001-03 की अवधि में प्रति 1000/301 थी. प्रसूति मृत्यु दर के मामले में राज्यवार व्यापक विषमताएं हैं. असम (प्रति 1000/300), उत्तर प्रदेश (285), राजस्थान (244), ओडीशा (222), मध्य प्रदेश (221) और बिहार (208) में प्रसूति मृत्यु दर अखिल भारतीय दर (प्रति 1000/167) की तुलना में बहुत अधिक है. इसके अलावा 15 से 49 वर्ष की आयु समूह की महिलाओं में रक्त की कमी का स्तर भी बहुत ऊंचा है, जिसका प्रसूति मृत्यु दर के साथ सीधा संबंध है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के अंतर्गत सरकार ने महिलाओं में रक्त की कमी की समस्या के लिए विशेष कार्यक्रम बनाया है.

अद्यतन रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण, 2015-16 में अनुमान लगाया गया है कि सामान्य सिद्धांत स्तर के आधार पर अखिल भारतीय स्तर पर श्रमिक भागीदारी दर (एलएफपीआर) 50.3 प्रतिशत रही है. एलएफपीआर की तुलना पुरुष और महिलाओं तथा राज्यों के बीच करें तो हम पाते हैं कि महिलाओं का एलएफपीआर (23.7 प्रतिशत) पुरुषों (75.0 प्रतिशत) की तुलना में बहुत कम है और इसमें राज्यवार अंतराल और भी गहरे हैं. उत्तरी राज्यों की तुलना में दक्षिणी राज्यों का एलएफपीआर सामान्यत: अधिक है. सर्वेक्षण रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि ग्रामीण और शहरी दोनों की क्षेत्रों में महिलाओं में अधिक बेरोजगारी है. क्षेत्रगत और श्रेणीगत रोजगार पर विचार करें, तो 2011-12 और 2015-16 की अवधि के बीच प्राथमिक क्षेत्र से माध्यमिक और तृतीयक क्षेत्र में रोजगार परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. परंतु, श्रेणीवार रोजगार में वृद्धि से पता चलता है कि कैजुअल और अनुबंध आधारित श्रमिकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. इससे पता चलता है कि नियोक्ताओं की प्राथमिकता नियमित या औपचारिक रोजगार देने की नहीं रही है. औद्योगिक विकास और रोजगार सृजन के मार्ग की रुकावटों में अधिसंख्य श्रम कानूनों और उनके अनुपालन में कठिनाई शामिल है.

गरीबी कम करने के प्रयासों के अंतर्गत विभिन्न समाज कल्याण कार्यक्रमों के विकल्प के रूप में सर्वेक्षण में सार्वभौम बुनियादी आय (यूबीआई) की धारणा व्यक्त की गई है. सर्वेक्षण में यूबीआई के लाभों और लागत का ब्यौरा दिया गया है. 6 प्रमुख कल्याण कार्यक्रमों - पीएमएवाई, एसएसए, एनडीएम, पीएमजीएसवाई, मनरेगा और एसबीएम के आधार पर सर्वेक्षण में कहा गया है कि गरीब और जरूरतमंद जिलों में वही जिले शामिल हैं, जहां समृद्ध जिलों की तुलना में सरकारी संसाधन कम पहुंचते हैं. सर्वेक्षण में इस बात का संकेत दिया गया है कि संसाधनों के अनुचित आवंटन के कारण पात्र निर्धन और जरूरतमंद जिले सरकारी कल्याण कार्यक्रमों का लाभ नहीं उठा पाते हैं, अत: रिसाव होता है और भ्रष्टाचार बढ़ता है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि यूबीआई में बर्हिवेशन की त्रुटि की आशंका कम है क्योंकि इसमें कौन गरीब है और कौन नहीं है, इस जटिल और अक्सर थकाऊ कार्य का प्रशासन का बोझ कम हो जाता है. इससे व्यवस्था से बाहर रिसाव में भी कमी आती है और धन सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में अंतरित किया जा सकता है.

सर्वेक्षण में इस बात पर जोर दिया गया है कि यूबीआई के सफल कार्यान्वयन के लिए कारगर वित्तीय समावेशन की आवश्यकता है, जिसमें मौजूदा जेएएम (जन-धन, आधार और मोबाइल) कार्यक्रम महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा. दूसरे, इस कार्यक्रम के लिए केंद्र और राज्यों के बीच लागत में साझेदारी की जानी चाहिए.

यूबीआई के अलावा सर्वेक्षण में सुझाव दिया गया है कि एक केंद्रीकृत सार्वजनिक क्षेत्र परिसंपत्ति पुनर्वास एजेंसी की स्थापना की जाएगी ताकि ट्विन बैलेंसशीट (यानी द्वि-तुलनपत्रक)/ओवर लीवरेज्ड कंपनियों और खराब ऋण की समस्या का सामना कर रहे बैंकों की समस्याओं का समाधान किया जा सके, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ती है.

 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय, शिवाजी कॅालेज में सहायक प्रोफेसर हैं. ईमेल: mrkrishnaram@gmail.com आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)