पारंपरिक रंगमंच के विभिन्न रूप
मानव इतिहास में सबसे पुराने कला रूपों में से एक, नाटक के महत्व को रेखांकित करने और लोकप्रिय बनाने के लिए 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है। इस दिन की शुरुआत अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान ने मूल रूप से नाटक और ललित कलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए द्वारा वर्ष 1961 में की गई थी।
मानवीय भावनाओं के करीब होने के कारण, रंगमंच में विचारों को प्रभावित करने और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता है। यह दिन हमें मानव जीवन में रंगमंच के महत्व को भी रेखांकित करता है क्योंकि यह न केवल दर्शकों का मनोरंजन करता है बल्कि दुनियाभर में मौजूद संस्कृति और परंपरा को भी दर्शाता है। नाटक अपने आप में कला का एक संपूर्ण रूप है। इसकी रूपरेखा में अभिनय, संवाद, कविता, संगीत आदि शामिल हैं।
भारत और रंगमंच
नाटक की सजीव परम्परा का भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्रमुख स्थान है। रंगमंच युगों से, समाज के आदर्शों, मानव अस्तित्व, लोकाचार, भावनाओं, मानवीय संवेदनाओं आदि के प्रति दृढ़ संकल्प को प्रतिबिंबित करता आया है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में, त्योहारों और उत्सवों के दौरान पारंपरिक नाट्य रूपों को प्रस्तुत किया जाता है। पारंपरिक रंगमंच के विभिन्न रूप आम आदमी के सामाजिक दृष्टिकोण और धारणाओं को दर्शाते हैं जो क्षेत्रीय, स्थानीय और लोक कला के रूप में प्रकट होती हैं। पारंपरिक रंगमंच में सादगी के रूप में एक समान विशिष्टता पाई जाती है और पारंपरिक नाट्य रूपों का विकास ऐसी ही स्थानीय और क्षेत्रीय विशेषताओं पर आधारित है।
भारतीय रंगमंच, जिसका इतिहास 5000 साल से भी अधिक पुराना है, ने कई उदार मंच कला रूपों को जन्म दिया है और प्रसिद्ध कलाकारों को जन्म दिया है। रंगमंच ने देश की सांस्कृतिक विरासत को अत्यधिक समृद्ध किया है। आइए, भारत में पारंपरिक रंगमंच के विभिन्न रूपों पर एक नजर डालें।
भांड पाथेर
कश्मीर का यह पारंपरिक नाट्य रूप नृत्य, संगीत और अभिनय का अनूठा संगम है। हास्य सृजित करने के लिए व्यंग्य, बुद्धि और पैरोडी को प्राथमिकता दी जाती है। भांड पाथेर लोक नाट्य का लोकप्रिय रूप है और भांड शब्द 'विदूषक' के लिए है, जबकि पाथेर का अर्थ 'नाटक' है। इस नाट्य रूप में सुरनई, नगाड़ा और ढोल के साथ संगीत दिया जाता है। चूंकि भांड पाथेर के कलाकार मुख्य रूप से कृषक समुदाय से हैं, इसलिए उनके रहन-सहन, आदर्शों और संवेदनाओं का प्रभाव देखा जा सकता है।
स्वांग
यह नाट्य रूप मुख्यतः संगीत पर आधारित था। धीरे-धीरे गद्य ने भी संवादों में अपनी भूमिका निभाई। भावनाओं की कोमलता, रस की सिद्धि के साथ-साथ चरित्र का विकास इस नाट्य रूप में देखा जा सकता है। स्वांग की दो महत्वपूर्ण शैलियाँ रोहतक और हाथरस की हैं। रोहतक की शैली में हरियाणवी (बांगरू) तथा हाथरस की भाषा ब्रजभाषा है।
नौटंकी
रंगमंच का यह रूप आमतौर पर उत्तर प्रदेश से जुड़ा हुआ है। इस पारंपरिक रंगमंच के सबसे लोकप्रिय केंद्र कानपुर, लखनऊ और हाथरस हैं। इसमें मुख्य रूप से जिन छंदों का इस्तेमाल किया जाता है उनमें दोहा, चौबोला, छप्पई, बेहर-ए-तबील शामिल हैं। एक समय था जब नौटंकी में सिर्फ पुरुष ही अभिनय करते थे लेकिन आजकल महिलाएं भी इसमें हिस्सा लेने लगी हैं। इस विधा में कानपुर की गुलाब बाई अत्यंत लोकप्रिय हैं, जिन्होंने इस पुरातन नाट्य रूप को एक नया आयाम दिया है।
रासलीला
रंगमंच का यह रूप विशेष रूप से भगवान कृष्ण की कथाओं पर आधारित है। ऐसा माना जाता है कि कृष्ण के जीवन पर आधारित शुरुआती नाटक नंद दास ने लिखे थे। इस नाट्य रूप में कृष्ण की लीलाओं के बारे में, गद्य में संवादों को गीतों एवं दृश्यों के साथ खूबसूरती से जोड़ा गया है।
भवाई
यह गुजरात का पारंपरिक नाट्य रूप है। इस रूप के केंद्र कच्छ और काठियावाड़ हैं। भवई में प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्र हैं- भुंगल, तबला, बांसुरी, पखावज, रबाब, सारंगी, मंजीरा आदि। भवई में भक्ति और रोमांटिक भावनाओं का दुर्लभ संश्लेषण होता है।
जात्रा
देवताओं के सम्मान में मेले, या धार्मिक अनुष्ठानों और समारोहों में उनकी रूपरेखा के भीतर संगीतमय नाटक होते हैं जिन्हें जात्रा के रूप में जाना जाता है। इस रूप का जन्म और पोषण बंगाल में हुआ था। चैतन्य के प्रभाव से कृष्ण जात्रा लोकप्रिय हुई। परंतु, बाद में, सांसारिक प्रेम कहानियों को भी जात्रा में जगह मिली। जात्रा का पुराना रूप संगीतमय रहा है। बाद के चरण में इसमें संवाद जोड़े गए। दृश्य परिवर्तन, घटनास्थल आदि का वर्णन स्वयं अभिनेता करते हैं।
माच
यह मध्य प्रदेश का पारंपरिक नाट्य रूप है। माच शब्द का प्रयोग मंच के लिए और नाटक के लिए भी किया जाता है। इस नाट्य रूप में संवादों के बीच में गीतों को प्रमुखता दी जाती है। इस रूप में संवाद के लिए शब्द बोल है और कथन में तुकबंदी को वनाग कहा जाता है। इस नाट्य रूप की धुनों को रंगत के नाम से जाना जाता है।
भाओना
यह नाट्य रूप असम के अंकिया नाट की प्रस्तुति है। भाओना में असम, बंगाल उड़ीसा, मथुरा और बृंदावन की सांस्कृतिक झलक देखी जा सकती है। सूत्रधार, या कथाकार पहले संस्कृत में और फिर ब्रजबोली या असमिया में कहानी शुरू करता है।
तमाशा
महाराष्ट्र का एक पारंपरिक लोक रंगमंच, तमाशा गोंधल, जागरण और कीर्तन जैसे लोक रूपों से विकसित हुआ है। रंगमंच के अन्य रूपों के विपरीत, तमाशा में महिला अभिनेत्री नाटक में नृत्य भंगिमाओं की प्रमुख प्रतिपादक होती है। उसे मुरकी के नाम से जाना जाता है। शास्त्रीय संगीत, बिजली की गति से चलने वाले फुटवर्क, और विशद हावभाव नृत्य के माध्यम से सभी भावनाओं को चित्रित करना संभव बनाते हैं।
दशावतार
यह कोंकण और गोवा क्षेत्रों का सबसे विकसित नाट्य रूप है। कलाकार संरक्षा और रचनात्मकता के देवता भगवान विष्णु के दस अवतारों को चित्रित करते हैं। दस अवतार मत्स्य (मछली), कूर्म (कछुआ), वराह (सूअर), नरसिम्हा (शेर-आदमी), वामन (बौना), परशुराम, राम, कृष्ण (या बलराम), बुद्ध और कल्कि हैं। शैलीबद्ध श्रृंगार के अलावा, दशावतार कलाकार लकड़ी और कागज़ की लुगदी के मुखौटे पहनते हैं।
कृष्णाट्टम
केरल का यह लोक रंगमंच 17वीं शताब्दी के मध्य में कालीकट के राजा मनवादा के संरक्षण में अस्तित्व में आया। कृष्णाट्टम लगातार आठ दिनों तक किए जाने वाले आठ नाटकों की एक श्रृंखला है। ये नाटक हैं - अवतारम, कालियामंदना, रस क्रीड़ा, कामसवधा, स्वयंवरम, बाना युधम, विविध वधम और स्वर्गारोहण। विभिन्न कड़ियां भगवान कृष्ण के जन्म, बचपन की शरारतें और बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाने वाले विभिन्न रूपों पर आधारित हैं।
मुड़ियेट्टु
केरल का एक अन्य पारंपरिक लोक रंगमंच वृश्चिकम (नवंबर-दिसंबर) के महीने में मनाया जाता है। इसका आयोजन आमतौर पर केवल केरल के काली मंदिरों में देवी के लिए बलिदान के रूप में किया जाता है। इसमें असुर दरिका पर देवी भद्रकाली की विजय को दर्शाया गया है। मुदियेट्टु के सात पात्र - शिव, नारद, दारिका, दानवेंद्र, भद्रकाली, कुली और कोइम्बिदर (नंदीकेश्वर) सभी विशाल रूप में तैयार किए जाते हैं।
कूडियाट्टम्
केरल के सबसे पुराने पारंपरिक थिएटर रूपों में से एक, कूडियाट्टम संस्कृत रंगमंच परंपराओं पर आधारित है। इस नाट्य रूप के पात्रों में चाक्यार या अभिनेता, नांबियार, वाद्य वादक और नांग्यार, जो महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, शामिल हैं। सूत्रधार या कथावाचक और विदुषक या विदूषक नायक हैं। विदुषक ही हैं जो संवादों का उच्चारण करते हैं। हाथ के इशारों और आंखों की हरकतों पर जोर इस नृत्य और रंगमंच को अद्वितीय बनाता है।
यक्षगान
यह पौराणिक कथाओं और पुराणों पर आधारित कर्नाटक का पारंपरिक नाट्य रूप है। सबसे लोकप्रिय कड़ियां महाभारत यानी द्रौपदी स्वयंवर, सुभद्रा विवाह, अभिमन्यु वध, कर्ण-अर्जुन युद्ध और रामायण यानी राज्याभिषेक, लव-कुश युद्ध, बाली-सुग्रीव युद्ध और पंचवटी से हैं।
थेरुकुथु
यह तमिलनाडु के लोक मंच का सबसे लोकप्रिय रूप है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'नुक्कड़ नाटक'। यह ज्यादातर एक समृद्ध फसल प्राप्त करने के लिए मरिअम्मन (वर्षा देवी) के वार्षिक मंदिर उत्सवों के समय किया जाता है। थेरुकुथु के व्यापक प्रदर्शनों के केंद्र में, द्रौपदी के जीवन पर आधारित आठ नाटकों की एक श्रृंखला है। सूत्रधार कट्टियाकरण, थेरुकुथु नाटक का सार दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करता है और कोमली अपने मसखरेपन से दर्शकों का मनोरंजन करती है।
स्रोतः पीआईबी/सांस्कृतिक संसाधन एवं प्रशिक्षण केंद्र