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विशेष लेख


अंक संख्या 36,03-9दिसम्बर ,2022

 

समावेशी विकास और प्रगति की ओर

डॉ. शशि रानी

अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग्जन दिवस हर वर्ष 3 दिसंबर को विश्व स्तर पर मनाया जाता है। इसके आयोजन का उद्देश्य बाधाओं के संभावित क्षेत्रों  की पहचान करना, संवेदनशील नीतियों का निर्माण, समावेशी समाज के लिए पक्ष समर्थन और अभियान संचालित करना है। यह सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के अनुरूप है, जो जनवरी 2016 में लागू हुए थे, और ये 2030 तक संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) नीति और वित्त पोषण का मार्गदर्शन करते रहेंगे। भारत ने इस पर हस्‍ताक्षर किए हैं और वह वैश्विक स्तर पर सभी रूपों में असमानता कम करने के लिए सामाजिक एजेंडा के लिए प्रतिबद्ध है।    सतत विकास लक्ष्यों में गरीबी, भेदभाव समाप्त करने और शांति तथा सभी की भलाई सुनिश्चित करने के वैश्विक प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।  समावेशन के संदर्भ में सतत विकास का लक्ष्य 10 "देशों के भीतर और देशों के बीच असमानता को कम करना" है। सतत विकास का लक्ष्य 16,  सतत विकास के लिए शांतिपूर्ण और समावेशी समाजों को बढ़ावा देने, सभी के लिए न्याय तक पहुंच के प्रावधान और सभी स्तरों पर प्रभावी, जवाबदेह संस्थानों के निर्माण के लिए समर्पित है।

संयुक्त राष्ट्र ने 2019 में अशक्‍तता समावेशन रणनीति शुरू की। जनसंख्या में अशक्‍तता एक बहुआयामी मुद्दा है। इसे आम तौर पर जैव चिकित्‍सा दृष्टिकोण से परिभाषित किया जाता है लेकिन इसके साथ-साथ कई सामाजिक आर्थिक दृष्टिकोण भी हैं जो विकलांगता के क्षेत्र में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। डब्ल्यूएचओ ने विकलांगता को "एक छत्र शब्द के रूप में परिभाषित किया है, जिसमें दुर्बलता, गतिविधि की सीमाएं और भागीदारी प्रतिबंध शामिल हैं। दुर्बलता शरीर के कार्य या संरचना में एक समस्या है; एक गतिविधि संबंधी सीमा किसी कार्य या क्रिया को निष्पादित करने में किसी व्यक्ति के समक्ष पेश आने वाली कठिनाई है; जबकि भागीदारी प्रतिबंध एक ऐसी समस्या है जिसका अनुभव किसी व्यक्ति द्वारा जीवन स्थितियों में शामिल होने में किया जाता है। इस प्रकार विकलांगता एक जटिल घटनाक्रम है, जो किसी व्यक्ति के शरीर की विशेषताओं और उस समाज की विशेषताओं के बीच परस्पर क्रिया को दर्शाती है जिसमें वह रहता है। इसके अलावा विश्‍व स्वास्थय संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में छह सौ मिलियन से अधिक लोग पुरानी बीमारियों, चोटों, हिंसा, संक्रामक रोगों, कुपोषण और गरीबी से संबंधित अन्य कारणों से विभिन्न प्रकार की अक्षमताओं के साथ जीवन जीते हैं।

 

विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के अनुसार भारत में, " दिव्यांग्जन " का अर्थ दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी दुर्बलता वाले ऐसा व्यक्ति है, उसकी बातचीत में बाधाएं, समाज में समान रूप से उसकी  अन्‍य के साथ पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में रूकावट डालती है और "बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्ति" का अर्थ है एक निर्दिष्ट विकलांगता है, जो कि चालीस प्रतिशत से कम नहीं है, जहां निर्दिष्ट विकलांगता को मापने योग्य शर्तों में परिभाषित नहीं किया गया है और इसमें ऐसा दिव्यांग्जन शामिल है, जहां प्रमाणन प्राधिकरण से प्रमाणित निर्दिष्ट विकलांगता को मापने योग्य शर्तों में परिभाषित किया गया हैअधिनियम के तहत अशक्‍तताओं की सीमाएं बढ़ाई गई हैं और इसमें परिभाषित दिव्यांग्ता की लगभग 21 श्रेणियों को शामिल किया गया। इस अधिनियम में निर्दिष्ट अक्षमताएँ दृष्टिबाधिता, कम दृष्टि, कुष्ठ रोग से ठीक हुए व्यक्ति, श्रवण हानि (बधिर और सुनने में कठिनाई), गतिविषयक विकलांगता, बौनापन, बौद्धिक दुर्बलता, मानसिक बीमारी, आत्मकेंद्रित स्पेक्ट्रम विकार, सेरेब्रल पाल्सी, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी, क्रोनिक न्यूरोलॉजिकल शामिहैं। विशिष्ट सीखने की अक्षमता, मल्टीपल स्केलेरोसिस, स्पीचऔर लेंग्‍वेज अशक्‍तता, थैलेसीमिया, हीमोफिलिया, सिकल सेल रोग, बधिर-अंधापन, एसिड अटैक पीड़ित और पार्किंसंस रोग सहित कई अशक्तताएं आदि हैं। केंद्र सरकार के पास अतिरिक्त अशक्तताएं शामिल करने की शक्ति है।

 

स्वास्थ्य और विकलांगता को मापने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण

कामकाज, विकलांगता और स्वास्थ्य का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण, जिसे आमतौर पर आईसीएफ के रूप में जाना जाता है, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य संबंधी डोमेन का वर्गीकरण है। आईसीएफ व्यक्तिगत और जनसंख्या दोनों स्तरों पर स्वास्थ्य और दिव्यांग्ता के आकलन के लिए डब्‍ल्‍यूएचओ का ढांचा है। 22 मई 2001 को स्वास्थ्य और विकलांगता का वर्णन करने और आकलन करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानक के रूप में 54वीं विश्व स्वास्थ्य सभा में सभी 191 डब्‍ल्‍यूएचओ सदस्य देशों ने आईसीएफ का आधिकारिक तौर पर समर्थन किया था। चूंकि किसी व्यक्ति की कार्यप्रणाली और अक्षमता एक संदर्भ में होती है, आईसीएफ में पर्यावरणीय कारकों की एक सूची भी शामिल होती है। आईसीएफ ने कुछ व्यापक घटकों जैसे शरीर के कार्यों और संरचना, गतिविधियों (किसी व्यक्ति द्वारा कार्यों और कार्रवाइयों से संबंधित) और भागीदारी (जीवन की स्थिति में भागीदारी), और गंभीरता और पर्यावरणीय कारकों पर अतिरिक्त जानकारी शामिल की।

सामाजिक-जनसांख्यिकीय कारक और दिव्यांग्ता की व्यापकता

भारत की जनगणना (2011) के अनुसार, 26.8 मिलियन लोग दिव्यांग्जनो की श्रेणी के अंतर्गत पाए गए हैं, यह भारत की कुल जनसंख्या का 2.21 प्रतिशत है। चिंता का विषय यह है कि दिव्‍यांग व्यक्तियों की जनसंख्या में वृद्धि हुई है, यह 2001 में 21.9 मिलियन से बढ़कर 2011 में 26.8 मिलियन हो गई। 2011 की जनगणना के अनुसार, महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है। 11.9 मिलियन महिलाओं की तुलना में 14.9 मिलियन पुरुष दिव्यांग हैं। दिव्‍यांग पुरुषों का प्रतिशत महिलाओं में 2.01 के मुकाबले 2.41 प्रतिशत है। दिव्यांग व्यक्तियों की आबादी में शहरी और ग्रामीण अंतर ग्रामीण क्षेत्रों में 18.0 मिलियन और शहरी क्षेत्रों में 8.1 मिलियन से अधिक है। सामाजिक समूहों में डेटा से पता चला कि 2.45 प्रतिशत अनुसूचित जाति (अजा), 2.05 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति (अजजा) से संबंधित हैं और 2.18 प्रतिशत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से अलग हैं।

 

सीमांतीकरण और बहिष्करण

यह ज्ञात है कि विभिन्न क्षेत्रों में दिव्यांग्जनो के समक्ष कई तरह की बाधाएं होती हैं, उन्हें व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक जीवन तक कई कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कामकाज, विकलांगता और स्वास्थ्य का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण, डब्ल्यूएचओ की रूपरेखा मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित है, प्रत्येक भाग में दो घटक हैं। सबसे पहले, कामकाज और विकलांगता सहित -शारीरिक कार्य और संरचनाएं और गतिविधियां और भागीदारी। दूसरा, प्रासंगिक कारक सहित - पर्यावरणीय कारक और व्यक्तिगत कारक है। इस ढाँचे के दृष्टिकोण से दिव्यांग्जन हमेशा सामाजिक बाधाओं के कई बोझ तले दबे होते हैं, पहला अपनी कठिनाइयों के कारण और दूसरा सामाजिक कारकों के कारण। नियमित जीवन की चुनौतियाँ आम तौर पर सार्वजनिक डोमेन में नहीं होती हैं और समाज ऐसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नज़रअंदाज़ कर देता है जो नीति निर्माण के लिए चिंता का विषय हो सकते हैं। इसलिए, जो सामाजिक समूह हाशिए पर हैं जैसे कि ऐसे दिव्यांग्जन जीवित रहने, शिक्षा, रोजगार, वृद्धि और विकास के लिए अपने मूल अधिकारों से वंचित होने के लिए अधिक संवेदनशील हैं। समावेशी अवसंरचनात्मक व्यवस्था, सहायता, संसाधनों की कमी और भागीदारी तथा जुड़ाव के अवसरों के अभाव में राष्ट्र के विकास और प्रगति के लाभ उन तक समान रूप से नहीं पहुंच रहे हैं। दिव्यांग्जन भारतीय समाज के अन्य प्रभावी समूहों की तुलना में हाशिए पर हैं और समान अवसरों से वंचित हैं। सुभेद्यता की दृष्टि से आयु, लिंग, वर्ग, जाति और क्षेत्र कुछ प्रासंगिक कारक हैं जो जीवन की कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए व्यक्ति की क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं। दिव्यांग्जन के मामले में, वे न केवल सामाजिक बाधाओं, कलंक और भेदभाव के शिकार हैं, बल्कि उनकी सामाजिक पहचान के कारण भी हैं। यह जीवित रहने के लिए बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए शैक्षिक और रोजगार के अवसर तक पहुंचने की उनकी क्षमता को बाधित करता है।

यदि हम अक्षमता को लैंगिक दृष्टिकोण से देखें, तो पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के कारण हमारे समाज में मौजूद संरचनात्मक असमानताएँ महिलाओं पर उनके लिंग के कारण कई प्रतिबंध लगाती हैं। मजबूत सामाजिक और कानूनी सुरक्षा के अभाव में उनके व्यक्तिगत और सामाजिक अधिकारों की अनदेखी की जा रही है और उनका उल्लंघन किया जा रहा है। महिलाओं से अपेक्षित लैंगिक भूमिकाएं विकलांग महिलाओं को अन्य महिलाओं और पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील बनाती हैं। स्वास्थ्य, उत्तरजीविता, शिक्षा, विवाह, कामुकता, प्रजनन, रोजगार और सार्वजनिक जीवन जैसे सभी संभव व्यक्तिगत और सामाजिक मामलों में, दिव्‍यांग महिलाओं को उनके मूल अधिकारों के उल्लंघन की अधिक संभावना है। वे न केवल जीवित रहने और विकास के उचित अवसरों से वंचित हैं बल्कि गरिमा के साथ गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने से भी वंचित हैं।        

 

सामाजिक भागीदारी और जुड़ाव के साथ गुणवत्तापूर्ण जीवन का अधिकार

जीवन की गुणवत्ता का अधिकार एक बहुत व्यापक अवधारणा है और इसमें गरिमा की भावना तथा स्वस्थता की स्थिति में बने रहने के लायक जीवन के विभिन्न पहलू शामिल हैं। एक गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने के लिए जीवन के विभिन्न पहलुओं की व्यक्तिपरक और वस्तुनिष्ठ व्याख्या दोनों महत्वपूर्ण हैं और यह किसी के मनोसामाजिक संदर्भ, संस्कृति, विश्वास और मूल्य प्रणाली पर निर्भर करता है। दिव्यांग्जन के मामले में जीवन की गुणवत्ता के आयाम से इसमें कुछ महत्वपूर्ण कारक शामिल हो सकते हैं जैसे कार्यात्मक क्षमता के बारे में धारणा और विश्वास, मनोसामाजिक समर्थन और मान्यता, वृद्धि और विकास के अवसरों की उपलब्धता और पहुंच आदि। सकारात्मक संस्थागत प्रतिक्रिया और राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। हम कह सकते हैं कि इन सभी कारकों की सकारात्मक उपस्थिति के साथ राज्य को सशक्त बनाने की भावना गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने का साधन है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकर्त दिव्यंग्ज़्नों के अधिकारों पर कन्वेंशन (सीआरपीडी) -2006 की प्रस्तावना में विकलांगता का वर्णन किया गया है कि "विकलांगता विकलांग व्यक्तियों और व्यवहारिक तथा पर्यावरणीय बाधाओं के बीच बातचीत से उत्पन्न होती है जो दूसरों के साथ समान आधार पर समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में बाधा डालती है."  इसलिए यदि हम आलोचनात्मक रूप से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और पहचान का विश्लेषण करते हैं तो यह गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने में प्रमुख बाधा बन सकता है या यह समान सामाजिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने का एक शक्तिशाली स्रोत हो सकता है। ये सामाजिक पहचान लोगों के दूसरे समूह के प्रति लोगों की सामाजिक प्रतिक्रिया और दृष्टिकोण पर निर्भर करती हैं। जो सामान्य और असामान्य है वह पूरी तरह से सामाजिक रूप से निर्मित घटना है, इस प्रकार लोग अक्सर क्षमता और अक्षमता की सामाजिक रूप से स्वीकृत परिभाषा के जाल में फंस जाते हैं। यह कई लोगों के लिए एक प्रमुख सामाजिक बाधा बन जाता है यदि  इसे सक्षम होने के किसी वैज्ञानिक या तर्कसंगत विचार के बिना स्वीकार किया जाएगा। इसके अलावा, इस प्रकार की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ विकलांग लोगों को सामाजिक भागीदारी और कार्यकलापों से बाहर कर देती हैं।

 

सामाजिक कलंक, भेदभाव, अज्ञानता और स्वीकार्यता की कमी व्यक्ति के दूसरों के साथ तत्काल और दीर्घकालिक संबंधों और भलाई की भावना को प्रभावित करती है। अक्सर यह देखा गया है कि समाज से नकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण दिव्यांग्जन समाज में पूरी तरह से भागीदार बनने और संलग्न होने में सक्षम नहीं होते हैं। साथ ही यह नियमित जीवन को बनाए रखने के लिए उपलब्ध सहायक प्रणालियों की पहुंच को बाधित करता है। सामाजिक भागीदारी और जुड़ाव के लिए सामाजिक आर्थिक और ढांचागत बाधाएं हैं; देखभाल और सहायता के लिए दुर्गमता, सहानुभूति की कमी, निर्णयात्मक और भेदभावपूर्ण व्यवहार, संसाधनों और अवसरों की कमी। उदाहरण के लिए, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं में, आम तौर पर दिव्‍यांगजनों को सार्वजनिक कार्यों, सामाजिक मेलजोल, खेल या मनोरंजक गतिविधियों में नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। इस संदर्भ में मजबूत नीति उपायों के साथ विभिन्न स्तरों पर ढांचागत समर्थन, शैक्षिक जागरूकता कार्यक्रम दिव्‍यांगजनों की भागीदारी और स्वीकृति की प्रक्रिया को विस्तारित संवेदनशीलता के साथ सुगम बना सकते हैं। 

 

भारत सरकार द्वारा विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण पहल

भारत का संविधान समावेशी दृष्टिकोण के साथ अपने नागरिकों के सर्वोत्तम हित में सेवाएं प्रदान करने के लिए मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से सुरक्षा की भावना के साथ सभी नागरिकों को एक समान सूत्र में बांधता है। संवैधानिक ढांचे के दृष्टिकोण से, यह सरकार का कर्तव्य है कि वह विभिन्न नीतियों, रणनीतियों और हस्तक्षेपों के साथ समाज के हाशिए पर आने वाले और समाज के बहिष्कृत वर्गों के सामाजिक और आर्थिक हितों की रक्षा करे। भारत सरकार  ने विशेष रूप से दिव्यग्ज़्नोंके लिए समाज के सीमांत वर्गों पर ध्यान केंद्रित करके समावेशी समाज बनाने के लिए सरकारी नीति और कार्यक्रमों के माध्यम से कई पहल की हैं। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, अपने कार्यक्रमों और नीति निर्माण के माध्यम से दिव्‍यांगजनों के सशक्तिकरण की सुविधा प्रदान करता है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय तथा शिक्षा मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के साथ मिलकर काम करता है। दिव्‍यांगजनों के लिए मिलकर काम करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण मंत्रालय स्‍तरीय गठबंधन है।

दिव्यांग्जन व्यक्ति अधिकार (आरपीडब्‍ल्‍यूडी) अधिनियम, 2016 में प्रत्येक जिले में विशेष न्यायालय स्थापित करने का प्रावधान है। दिव्यांग्जनो के कल्याण के लिए राज्य स्तरीय कोष के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के कोष की घोषणा की गई है। राज्य सरकारों को जिला स्तरीय समितियों का गठन करना है और दिव्यांग्जनो के लिए कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक अलग राज्य कोष की व्यवस्था है। अधिनियम में केंद्रीय और राज्य स्तर के समन्वय की भी परिकल्पना की गई है। इन प्रयासों के अलावा, भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017, ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहु-विकलांगता वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम, 1999 है।

भारत सरकार की प्रमुख पहलों में, दिव्‍यांगजनों के लिए सहायक और अन्य उपकरणों की खरीद/फिटिंग के लिए सहायता हेतु एक योजना है। दिव्‍यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, निर्मित पर्यावरण, परिवहन और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) पारिस्थितिकी तंत्र में दिव्‍यांगजनों के लिए सार्वभौमिक पहुंच बनाने के लिए सुगम्य भारत अभियान (एआईसी)। विशिष्ट दिव्यांग्ता पहचान परियोजना का उद्देश्य पीडब्ल्यूडी के लिए राष्ट्रीय डेटाबेस बनाना है, जिससे सभी को विकलांगता प्रमाण पत्र के साथ विशिष्ट दिव्यांग्ता आईडी (यूडीआईडी) कार्ड जारी किया जा सके। ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहु-विकलांगता वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय ट्रस्ट और समावेशी भारत पहल शुरू की गई। भारतीय सांकेतिक भाषा अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्र (आईएसएलआरटीसी), नई दिल्ली द्वारा विकसित 3000 शब्दों का पहला भारतीय सांकेतिक भाषा शब्दकोश है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर जनता की जानकारी और जागरूकता के लिए विभिन्न कार्यशालाएं और कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

 

देखभाल करने वालों के लिए सहायता और समर्थन की आवश्यकता

दिव्‍यांगजनों को आम तौर पर महत्वपूर्ण देखभाल करने वालों से समर्थन और सहायता की आवश्यकता होती है। अलग-अलग उम्र के लोगों को देखभाल करने वालों से अलग तरह की सहायता प्रणाली और ध्यान की आवश्यकता होती है, देखभाल करने वालों की सहायता और समर्थन के लिए उनका उन्मुखीकरण और प्रशिक्षण महत्वपूर्ण उपकरण हो सकता है। साथ ही अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य कर्मियों को तनावपूर्ण स्थिति से उबरने के लिए देखभाल करने वालों की मदद करनी चाहिए। इस स्थिति में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि तत्काल देखभाल करने वालों को व्यक्तिगत मामले के दृष्टिकोण से दिव्‍यांगजनों की आवश्यकता और समर्थन के बारे में अवगत कराया जाए। समर्थन प्रणाली की पहचान करने की प्रक्रिया में कई बार आवश्यकता का निष्पक्ष मूल्यांकन और यथार्थवादी दृष्टिकोण छूट जाता है। साथ ही सभी देखभाल करने वाले शिक्षित और सशक्त नहीं हो सकते हैं लेकिन इस अंतर को भरने के लिए चिकित्सा उपचार की योजना बनाते समय परामर्श बहुत महत्वपूर्ण है। परामर्श व्यक्तियों और परिवार को अलग-अलग और एक साथ अनिवार्य रूप से प्रदान किया जाना चाहिए। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों द्वारा परिवार के साथ परामर्श के नियमित सत्र आयोजित करने के लिए एक सहायक प्रणाली बनाने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा। इसे ग्रामीण और शहरी दोनों व्‍यवस्‍थाओं में लागू किया जा सकता है।

 

प्रौद्योगिकी और डिजिटल सहायता का उपयोग

प्रौद्योगिकी के उपयोग से वैश्विक समाज एक हो जाता है। तकनीकी जागरुकता और उसके उपयोग से भौतिक और सामाजिक दूरियां सिमट जाती हैं। कोविड-19 महामारी में हमने देखा है कि कैसे तकनीक मनुष्य को व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक बाधाओं को दूर करने में मदद करती है। टेलीमेडिसिन, हेल्पलाइन नंबर और टेलीकंसल्टिंग का बहुत अधिक उपयोग हो रहा है और यह तकनीक के उपयोग से ही संभव हो सकता है। चाहे वह व्यवसाय, स्वास्थ्य, शिक्षा का मामला हो या सभी उद्देश्यों के लिए दिन-प्रतिदिन की सेवाएं, केवल प्रौद्योगिकी के माध्यम से इन्‍हें प्राप्त करना संभव है। दिव्‍यांगता के क्षेत्र में यह सेवाओं, सुरक्षा और संरक्षा तक पहुँचने के लिए एक जीवनरक्षक उपकरण हो सकता है। प्रौद्योगिकी में अक्षमता वाले लोगों के लिए सक्षम वातावरण बनाने की क्षमता है, किसी भी दुर्बलता और शारीरिक अक्षमता के मामले में, यह दैनिक जीवन की गतिविधियों को करने के लिए तत्काल सहायता प्रदान कर सकती है। यह स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार क्षेत्रों में आर्थिक रूप से व्यवहार्य समाधान भी प्रदान कर रही है। यह व्यक्ति से व्यक्ति के बीच की खाई को कम कर रही है और इसके अलावा सामाजिक भागीदारी, सार्थक जुड़ाव और एकजुटता में एक दूसरे के लिए खड़े होने के लिए मंच तैयार कर रही है। इसका उपयोग स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं, देखभाल करने वालों, शिक्षाविदों, अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं, नीति निर्माताओं और अन्य महत्वपूर्ण हितधारकों के लिए ज्ञान प्रसार, अभिविन्यास, प्रशिक्षण के लिए किया जा सकता है। प्रौद्योगिकी के उपयोग से चल रहे कार्यक्रमों की निगरानी और मूल्यांकन समयबद्ध तरीके से संभव है और यदि आवश्यक हो तो संसाधनों के इष्टतम उपयोग के साथ क्षेत्र में हस्तक्षेप की योजना बनाई जा सकती है।  

 

आगे का मार्ग

अंत में, हमें नीतिगत मामलों का उचित कार्यान्वयन सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक और संस्थागत सेवाओं की पहुंच बढ़ाने के लिए उचित बुनियादी ढांचा तैयार करना समय की मांग है। बुनियादी ढांचे के डिजाइन और योजना में नवाचार की आवश्यकता है। योजना, कार्यान्वयन और निगरानी के लिए प्रशासनिक तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है। सभी हितधारकों विशेष रूप से परिवारों, स्थानीय प्रशासनिक और शैक्षिक निकायों, नागरिक समाज संगठनों और मीडिया की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है, दिव्‍यांगजनों के समावेशन के लिए व्यवहार संबंधी बाधाओं को दूर करने और समावेशी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रमुख कर्मियों का उन्मुखीकरण और प्रशिक्षण एक महत्वपूर्ण कारक है। दिव्‍यांगजनों के लिए सरकारी नीतियों और योजनाओं के बारे में जागरूकता पैदा करने और प्रचार करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में सूचना, संचार और प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के सभी संभव साधनों का उपयोग आवश्यक है। अशक्तता का क्षेत्र हस्तक्षेपों के बड़े दायरे के साथ बहुत व्‍यापक है। इस प्रकार, हमें जवाबदेही की भावना के साथ सामाजिक समावेश की सार्थक नीतियां बनाने के लिए सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनशील दृष्टिकोण उत्पन्न करने की आवश्यकता है।

 

(लेखिका समाज कार्य विभाग, दिल्ली विशवविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। उन से shashi.socialwork@gmail.com से संपर्क किया जा सकता है।)

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।