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विशेष लेख


अंक संख्या 32, 05-11नवम्बर ,2022

 

सरदार वल्‍लभभाई पटेल और राष्‍ट्रीय एकता

डॉ. अश्विन पारिजात अंशु

विश्‍व में अपना न्‍यायसंगत स्थान लेने को तत्‍पर एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का उदय उन पुरुषों और महिलाओं की दास्‍तान है, जो अपना समूचा जीवन अपनी निजी-धार्मिक या अन्‍य इच्‍छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु व्‍यापक मानवता की आवश्‍यकताओं को उनकी पूरी जटिलता के साथ स्वीकार करते हुए जीने को तैयार थे ।भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल आधुनिक भारत के ऐसे ही निर्माताओं के उत्‍कृष्‍ट प्रतिनिधियों में से एक थे।वह गांधी के विश्‍वसनीय लेफ्टिनेंटथे, जिन्होंने अपने नेतृत्वकारी गुणों के माध्यम से उनके विचारों को अमली जामा पहनाया, वह एक ऐसे कर्मठ व्यक्ति थे, जिनका एकीकृत भारत का विज़न वह आधार बना, जिस पर स्वतंत्र राष्ट्र का उदय हुआ और जिसके विकास का सिलसिला अनवरत जारी है।

वफादार अनुयायी

यदि गांधी भारतीय मानस से गोरासाहेब  की श्रेष्ठता की अवधारणा को खारिज कर ब्रिटिश आधिपत्य को शक्तिशाली चुनौती पेश कर सके, तो इसका कारण काफी हद तकसरदार पटेल जैसे वफादार अनुयायियों का  समर्थन था,जिन्होंने उनके आह्वान का जवाब उसी प्रकार दिया जैसे कोई सैनिक अपने जनरल को देता है। 1918 के खेड़ा सत्याग्रह के संचालन के लिए गांधी के मदद के आह्वान का जवाब देने के अपने फैसले का उल्लेख करते हुए सरदार पटेल ने 1938 में कहा, “ जब मैं गांधीजी के साथ जुड़ा, तो मैंने जलावन की कुछ लकड़ी एकत्र की, आग जलाई और अपने परिवार, अपने करियर,अपनी प्रतिष्ठा के सभी विचार और अपना  सब कुछ उसी आग में झोंक दिया। मुझे नहीं पता कि राख के सिवा इन सब में से क्या बचेगा।” किसी के द्वारा अपने सांसारिक सपनों को इस तरह बलिदान कर देने के महत्व की सराहना करने के लिए, इस बात पर गौर करना जरूरी है कि उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल अहमदाबाद के प्रमुख फौजदारी वकीलों में से एक थे और अपने तेज दिमाग और सम्मान की भावना के लिए बहुत प्रतिष्ठित थे। खेड़ा सत्याग्रह के समापन परगांधी ने किसानों के सामने अपने भाषण में, वल्लभभाई को अपना 'डिप्टी कमांडर' स्‍वीकार करते हुए कहा, “यदि उनकी सहायता नहीं होती, तो यह अभियान इतनी सफलतापूर्वक नहीं चलाया जा सकता था। गांधी ने पटेल को उनके जीवन का मिशन दे दिया था,“ उनके साथ रहकर मुझे विश्वास हो गया कि भारत को मुक्ति उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलने से ही मिलेगी।

जन नायक का उदय

असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के बाद के वर्षों में सभी वर्गों के लोगों के मनोबल में कमी स्‍पष्‍ट रूप से देखी गई और इससे भी बुरी बात यह हुई कि समाज में सांप्रदायिक मतभेद की शुरुआत हो गई। कुछ लोगों का गांधी के नेतृत्व से मोहभंग हो गया, जबकि कुछ अन्य लोगों को कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारधाराएं ज्‍यादा आकर्षक लगने लगीं।  कांग्रेस के भीतर 'परिवर्तनवादी यानी प्रो-चेंजर्स' और 'अपरिवर्तनवादी यानी नो-चेंजर्स' के बीच मतभेद उभर रहे थे और विभाजन का खतरा बहुत बड़ गया था। इन्‍हीं वर्षों के दौरान सभी में सद्भाव की भावना कायम करने की सर्वोच्च क्षमता से युक्‍त  'सरदार' जन नायक का उदय हुआ।

इन महत्वपूर्ण वर्षों में, सरदार पटेल ने न केवल उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के मनोबल को कमजोर पड़ने से रोकने की कोशिश की, बल्कि कांग्रेस और बड़े पैमाने पर समाज के भीतर विभाजन को मजबूत होने से भी रोका। तीन सत्याग्रह अभियानों-नागपुर (1923), बोरसाद (1923) और सबसे बढ़कर बारडोली (1928) के दौरान केवल किसानों और राष्ट्रवादी जनता के अधिकारों के लिए ब्रिटिश आधिपत्य को कमजोर करने में ही महत्वपूर्ण जीत हासिल नहीं हुई, बल्कि ब्रिटिश राज के खिलाफ संयुक्त संघर्ष में समाज के विभिन्न वर्गों को भी शामिल करने का प्रयास किया गया। इस प्रकार 1922 में, सरदार पटेल के आग्रह पर काठियावाड़ राजनीतिक कांग्रेस ने अस्पृश्यता के उन्मूलन का आह्वान किया।इस बात को बखूबी समझते हुए कि बहुत से परंपरावादी पाटीदार इस उद्देश्य के प्रति अनुकूल रुख नहीं अपनाएंगे, उन्होंने स्‍वयं एक गौरवशाली पाटीदार होते हुए अस्‍पृश्‍य लोगों के लिए निर्धारित स्‍थान में बैठकर एक मिसाल कायम की।

बारडोली संघर्ष का एक प्रकरण ऐसा भी है, जिसमें सरदार पटेल की संगठनात्मक क्षमताएं  उभरकर सामने आईं और इस बात का पता चला कि उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता की कितनी परवाह थी। उन्होंने बेहद उत्तेजित पाटीदारों के एक समूह को धरना देने वाले एक सत्याग्रही पर हमला करने वालेएक मुस्लिम शराब विक्रेता से बदला लेने से रोका। उन्‍होंने पाटीदारों से दोषी विक्रेता की सार्वजनिक माफी स्वीकार कराई, जिससे यह मुद्दा सौहार्दपूर्ण ढंग से हल हो गया। इससे पहले भी, 1920 में गांधीजी के खिलाफत आंदोलन का समर्थन करते हुएभारतीय मुस्लिम भावनाओं के प्रति एकजुटता व्यक्त करने के लिए उन्होंने कहा था:भारतीय मुसलमानों के लिए यह हृदय विदारक प्रकरण रहा है और अपने साथी देशवासियों को इस तरह तकलीफ में देखकर हिंदू कैसे अप्रभावित रह सकते हैं ।

 

पटेल हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से दूर होता नहीं देख सकते थे। वह भारत के विभाजन से बहुत आहत थे, जिसे उन्होंने केवल मुस्लिम लीग की हठ, कैबिनेट मिशन योजना की अनुपयोगिता, गृहयुद्ध की आशंका और अखंड भारत का केंद्र कमजोर रहने की स्थिति में भारत के छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाने के आसन्न खतरे को देखते हुए एक अपरिहार्य तथ्य के रूप में स्वीकार किया था। संविधान सभा में अल्पसंख्यकों और मौलिक अधिकारों से संबद्ध सलाहकार समिति के अध्यक्ष के रूप मेंपटेल ने बहुत ही भरोसे और कुशल युक्ति के साथ मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले चतुराई भरे कदम को निष्‍फल कर दिया।

 

शासनकला में निपुण

अलग-अलग स्‍वरूप और आकार वाली लगभग 565 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय कराना- निश्चित रूप सेपटेल का वह महान योगदान है, जिसने भारत के इतिहास में उनका नाम हमेशा –हमेशा के लिए अमिट बना दिया। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 1952 में सरदार पटेल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा था: "सोचने और चर्चा के लिए जो भारत मौजूद है, वह काफी हद तक सरदार पटेल की शासनकला  और दृढ़ प्रशासन के कारण है। भारत के पूर्व राष्ट्रपतिके.आर.नारायणन ने 14 अगस्त, 1998 के अपने भाषण में कहा: यदि नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी, उसके आर्थिक, औद्योगिक और वैज्ञानिक बुनियादी ढांचे का निर्माण किया और भारत की भावनात्मक एकता कायम करने की कोशिश की, तो सरदार पटेल ने भारत को असंगठित प्रांतों और रियासतों की संरचना से बाहर निकाल कर एक संघ में परिवर्तित किया। उन्हें भारत का बिस्मार्क कहा जा सकता है; जिन्होंने देश को "ताकत के बलपर" नहीं, बल्कि अपनी दृढ़  इच्छाशक्ति और चतुर शासन-कला के बल पर एकता के सूत्र में पिरोया।

पूर्णतया साम्राज्यवादी विंस्टन चर्चिलने कभी भी संयुक्त भारत की संभावना पर गौर नहीं किया, जो कि एक ऐसी संभावना थी, जो द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटेन के गंभीर रूप से कमजोर हो जाने से बहुत वास्तविक लग रही थी। उन्होंने अपनी ही तरह साम्राज्यवादी विचारधारा को मानने वाले वैवेल को भारत को हिंदुस्तान, पाकिस्तान और एक "प्रिसेंसस्‍तान" में बांटने के अपने विचार - भारत को कई अलग-अलग इकाइयों में विभाजित करने और इस तरह उसे हमेशा के लिए कमजोर करने की योजना के बारे में बताया था।20 फरवरी 1947 को जब क्लेमेंट एटली ने घोषणा की कि 'महामहिम की सरकार ब्रिटिश भारत की किसी भी सरकार को सर्वोच्चता के तहत अपनी शक्तियों और दायित्वों को सौंपने का इरादा नहीं रखती', तो कई राज्यों के शासकों ने दावा किया कि 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन समाप्त होते ही वे स्वतंत्र हो जाएंगे!

 

पटेल  देशी रियासतों के दावों से उत्पन्न खतरे के प्रति काफी सचेत थे और नवगठित राज्यों के विभाग का प्रभार ग्रहण करते हुए वी.पी. मेनन से कहा, "इस स्थिति में खतरनाक संभावनाएं हैं और अगर हमने इसे तुरंत और प्रभावी ढंग से नहीं संभाला, तो मेहनत से हासिल की गई हमारी आजादी राज्यों के दरवाजे से ओझल हो सकती है।"पटेल की प्रेरक कूटनीति, दृढ़ता और चतुर शासन कला ने अधिकांश रियासतों का 15 अगस्त 1947 तक भारत में विलय सुनिश्चित किया। जब त्रावणकोर के दीवानसर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने यह दलील पेश की कि कोई भी त्रावणकोर के भारत में विलय के लिए बातचीत नहीं कर सकता, क्योंकि त्रावणकोर में रक्षक देवता श्री पद्मनाभ नाम पर और उनकी ओर से शासन किया जाता है,तोसरदार ने भेदपूर्ण मुस्‍कुराहट के साथ कहा "क्‍या ऐसा है ? तो कृपया मुझे बताएं कि त्रावणकोर के शासकों ने भगवान पद्मनाभ को ब्रिटिश राज के अधीन कैसे होने दिया?"के.आर. नारायणनने ऊपर उल्लिखित भाषण में इसका उल्‍लेख किया था।जूनागढ़ और हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल का'लौहपुरुष' वाला पहलू पूरी तरह प्रदर्शित हुआ। उन्होंने जनमत संग्रह कराकर जूनागढ़ पर पाकिस्तान के दावे को बेअसर कर दिया, जबकि हैदराबाद में, भारतीय सेना को भेजा गया और जब उसका शासक अन्‍य सभी साधनों से हताश हो गया, तो निज़ाम16 सितंबर 1948 को भारत में विलय स्वीकार करने के लिए विवश हो गया।

 

अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन

अनेक भारतीय नेता ब्रिटिश शासन -जोकि व्यावहारिक रूप से आईसीएस (भारतीय सिविल सेवा) अधिकारियों द्वारा चलाया गया था - के अपने अनुभवों के कारण किसी अखिल भारतीय सिविल सेवा द्वारा प्रशासनिक अधिकार का उपयोग किए जाने के प्रति आशंकित थे। लेकिन सरदार पटेल के पास पूर्ण संवैधानिक संरक्षण वाली एक अखिल भारतीय सिविल सेवा की परिकल्पना करने की दूरदर्शिता थी, जो 'भारत की ढाल' के रूप में कार्य सके, जैसा कि वास्तव में बाद में इस सेवा ने स्‍वयं को साबित किया है। संविधान सभा से अखिल भारतीय सिविल सेवाओं को भारतीय राष्ट्र के लिए बाधा के स्‍थान पर एक संपत्ति के रूप में देखने का अनुरोध करते हुए उन्होंने 10 अक्टूबर 1949 को कहा, "संघ  नहीं रहेगा, यदि आपके पास अच्छी अखिल भारतीय सेवा नहीं होगी, तो आपके पास संयुक्त भारत नहीं होगा”।21 अप्रैल 1947 को आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) के पहले बैच के अधिकारियों को संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने याद दिलाया कि पूर्व आईसीएस न तो भारतीय थी, न ही सिविल थी और न ही वह सेवा की भावना से ओत-प्रोत थी।इसके विपरीत उन्होंने नए रंगरूटों को सलाह दी, "आपके पूर्ववर्तियों की परवरिश ऐसी परंपराओं में हुई थी, जिसमें उन्होंने ... खुद को जनसाधारण से अलग-थलग रखा था। भारत में आम आदमी के साथ अपनों सा व्‍यवहार करना ​​आपका परम कर्तव्य होगा।

 

जॉन स्ट्रैचीनाम के एक ब्रिटिश सिविल सेवक ने 1888 में कहा था कि "भारत के बारे में जानने वाली पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि न तो कोई भारत है और न ही कभी रहा है।" सरदार पटेल के नेतृत्व और विज़न के तहत अखिल भारतीय सेवाओं ने न केवल स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के महत्वपूर्ण वर्षों में भारत का कायम रहना सुनिश्‍चित किया ,जब उसे विकट चुनौतियों का सामना करना पड़ा, बल्कि वह एक आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भी विकसित हुआ।इस वर्ष (31 अक्टूबर) को जब कृतज्ञ राष्ट्र सरदार वल्लभभाई पटेल की 147वीं जयंती मना रहा है, तो वह इस महान 'धरती के सपू' को फिर से सम्मानित कर रहा है।

 

(लेखक जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। उनसे ashwinparijat@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)