कुछ सफल महिलाओं के प्रेरक विचार
देश जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तो उसकी 75 साल की वह यात्रा याद आती है जिसमें उसने सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में एक राष्ट्र के रूप में महत्वपूर्ण प्रगति की है. आज हम जिस आजादी का आनंद ले रहे हैं, उसे हासिल करने के लिए महिलाओं सहित हजारों देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी. ये बहादुर देशभक्त दूरदर्शी भी थे जिन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां महिलाओं को समान अधिकार और कड़ी मेहनत से हासिल की गई स्वतंत्रता के लाभ तक समान पहुंच प्राप्त हो. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नीति-निर्माताओं, कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और स्वयं भारतीय महिलाओं सहित सभी हितधारकों की ओर से दृढ़ता दर्शाने की आवश्यकता थी. रोज़गार समाचार ने ऐसी उपलब्धियां हासिल करने वाली कुछ महिलाओं से बातचीत की, जिन्होंने अपने विशिष्ट तरीकों से, भारतीय महिलाओं को न केवल समान अधिकारों का आनंद लेने में मदद की और प्रेरित किया, बल्कि राष्ट्र निर्माण में भी समान भागीदार बनीं.
पद्म श्री करिवेप्पिल राबिया
यह स्वीकार करना कि आप कौन हैं, एक बात है, लेकिन अपनी कमजोरियों को स्वीकार करना और उनका उपयोग स्वयं के उत्थान के लिए करना आपको अलग बनाता है. ऐसी है करिवेप्पिल राबिया की कहानी, जिनका नाम पद्म श्री 2022 के लिए नामित किया गया है. पोलियो के कारण उन्हें व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ा और कॉलेज छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. राबिया ने अपने प्रयासों से वयस्क साक्षरता मिशन शुरू किया. बाद में 1990 में केरल सरकार ने भी राज्य साक्षरता अभियान प्रारंभ किया जिसमें राबिया ने महत्वपूर्ण योगदान दिया. 14 साल की उम्र से पोलियो के कारण व्हीलचेयर तक सीमित रहने के बावजूद, राबिया केरल की महिलाओं और विशेष रूप से दिव्यांग आबादी सहित कमजोर वर्गों के बीच साक्षरता का प्रसार करके सार्थक जीवन व्यतीत कर रही हैं. राबिया एक स्वयंसेवी संगठन, चालनम की संस्थापक और अध्यक्ष भी हैं, जो शारीरिक रूप से विकलांग और मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए छह स्कूल चलाता है. कैंसर को भी मात देने वाली राबिया के प्रयासों को भारत सरकार ने कई मौकों पर राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी है. 1994 में, उन्हें राष्ट्रीय युवा पुरस्कार प्रदान किया गया. जनवरी 2001 में, उन्हें महिलाओं के उत्थान और सशक्तिकरण में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 1999 के लिए पहले कन्नगी स्त्री शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. जनवरी 2022 में उन्हें पद्म श्री के लिए नामित किया गया. राबिया ने रोज़गार समाचार से बातचीत में, अपनी शारीरिक अक्षमता के कारण कॉलेज छोड़ने से लेकर केरल के साक्षरता अभियान का शुभंकर बनने तक की अपनी यात्रा के बारे में बताया.
प्रश्न: आपको सामाजिक कार्य करने की प्रेरणा कैसे मिली और इसमें आपको किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
करिवेप्पिल राबिया: बचपन से ही मैं एक उत्साही पाठक थी और विज्ञान, साहित्य, इतिहास तथा धर्म ग्रंथों के साथ-साथ उपन्यास और कविताओं की कई किताबें पढ़ी थीं. मैंने उन व्यक्तित्वों की आत्मकथाएं भी पढ़ीं जिन्होंने मुझे बहुत प्रेरित किया. इस प्रकार, निरक्षरों को पढ़ाने जैसी ज्ञान-साझाकरण गतिविधियों में संलग्न होना मेरे लिए स्वाभाविक था. बाद में, मैंने इसे मिशन मोड में लिया और अपने क्षेत्र की निरक्षर महिलाओं, दिव्यांगों और वयस्क साक्षरता कार्यक्रमों के लिए स्कूल शुरू किए. प्रारंभ में, जब मैंने सामाजिक कार्य शुरू किया, तो मुझे कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ा. मेरी शारीरिक अक्षमता उनमें सबसे बड़ी रुकावट थी. इसके अलावा, 25 साल की उम्र में, मुझे कैंसर होने का पता चला था. मेरा बहुत सारा समय अस्पताल में भर्ती होने और इलाज में लग गया. कई कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी और सर्जरी के बाद, ठीक होने पर मैंने फिर से काम शुरू कर दिया. लेकिन एक और अप्रत्याशित स्वास्थ्य संकट आया जब मेरी रीढ़ की हड्डी में चोट आई और मैं अपनी व्हीलचेयर पर सिमट कर रह गई. इसके बावजूद मैंने हार नहीं मानी और रिमोट नियंत्रित खाट तथा व्हीलचेयर की मदद से काम करना जारी रखा. कामकाज में एक बड़ी समस्या दिव्यांगों के प्रशिक्षण जैसी विभिन्न गतिविधियों के लिए वित्त की कमी थी. प्रशिक्षण सुविधाओं की स्थापना, प्रशिक्षकों का वेतन और भोजन सभी पर काफी खर्च आता है. चंदा लेने के लिए सहायता समूह बनाए गए हैं. हम चालनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तकों को बेचकर भी धन इकट्ठा करते हैं. हमें कुछ लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन मैं उनके प्रति कोई द्वेष नहीं रखती क्योंकि अधिकांश लोग, विशेष रूप से मेरे सहयोगी बहुत मददगार हैं.
प्रश्न: आप भारतीय समाज में महिला सशक्तिकरण की प्रगति का आकलन कैसे करती हैं?
करिवेप्पिल राबिया: साक्षरता अभियान के शुरुआती दिनों में नौकरशाह अक्सर कक्षाओं का दौरा करते थे. उनके दौरे के दौरान, महिलाएं, खासकर मुस्लिम महिलाएं दूसरों के पीछे छिप जाती थीं. वे इस बात को लेकर संशय में थी कि साक्षरता से वे क्या हासिल कर सकती हैं. मैंने उन्हें वी टी भट्टाथिरीपाद और कस्तूरबा गांधी जैसी सफल और सम्मानित महिलाओं की कहानियां सुनाईं. कुछ महिलाओं ने साक्षरता का विरोध भी किया और हमसे बहस की. उन्हें अपने दायरे से बाहर निकलने और परिवर्तन को अपनाने के लिए राज़ी करने के वास्ते बहुत प्रयास और अनुनय करना पड़ा. हमने उन्हें आश्वस्त किया कि नौकरशाहों से डरने की जरूरत नहीं है और वे हमारी सेवा के लिए हैं. हमने उन्हें यह भी सिखाया कि सम्मानजनक तरीके से अपनी बातों को कैसे रखा जाए. समय के साथ, वही महिलाएं सकारात्मक प्रतिक्रिया देने लगीं. वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुईं. बाद में, कई लोग प्रतिक्रिया देने और बोलने के अधिकार के प्रति जागरूक हुए और इनका समर्थन करने लगे. आज परिदृश्य काफी बदल गया है. शिक्षा के क्षेत्र में महिलाएं आगे बढ़ रही हैं. पुराने समय में, एक महिला कॅरियर बनाने के दौरान परिवार की देखभाल करने की कल्पना नहीं कर सकती थी. आज महिलाएं दोनों काम कर रही हैं. इससे उन्हें न केवल स्वयं को, बल्कि अपने परिवार को भी बेहतर जीवन-शैली देने में मदद मिली है. (साक्षात्कारकर्त्ता केरल के पत्रकार गोपाकुमार पी. हैं)
पद्म श्री एली अहमद
एली अहमद लेखक, पटकथा लेखक, निर्देशक, गीतकार, पोशाक डिज़ाइनर, अभिनेत्री, साथ ही साथ सामाजिक कार्यकर्ता-एली अहमद को पूर्वोत्तर में पहली और एकमात्र महिला पत्रिका-ओरानी के प्रकाशन का श्रेय प्राप्त है. 1970 के दशक से, ओरानी ने विशिष्ट व्यवसायों और पृष्ठभूमि से समुदाय की प्रभावशाली और प्रेरणादायक महिलाओं के जीवन और उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए, पूर्वोत्तर विशेष रूप से असम में महिला सशक्तिकरण में बहुत योगदान दिया है. एली अहमद को साहित्य और शिक्षा में योगदान के लिए 2017 में भारत सरकार ने पद्म श्री से सम्मानित किया था. एली अहमद ने पनी प्रेरणादायक कहानी साझा की कि कैसे उन्होंने पूर्वोत्तर की महिलाओं को शिक्षित, प्रेरित और सशक्त बनाने के लिए ओरानी और साहित्य के अन्य रूपों का उपयोग किया.
प्रश्न: कृपया ओरानी की परिकल्पना करने और उसे क्रियान्वित करने की प्रक्रिया के बारे में अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें. इस पत्रिका के सफर के बारे में भी बताएं.
एली अहमद: 1970 की बात है, जब मेरे दिमाग में एक महिला पत्रिका के प्रकाशन का विचार आया. उस समय असमिया भाषा में कोई भी महिला पत्रिका उपलब्ध नहीं थी. उस समय, सार्वजनिक परिवहन की सीमित सुविधाओं वाले स्थान पर पत्रिका प्रकाशित करना एक बड़ी चुनौती थी. कभी-कभी, मुझे पत्रिका के प्रायोजकों की तलाश में सिल्पुखुरी से खानापारा तक पैदल चलना पड़ता था. प्रारंभ में, मैं लेखों के संकलन से लेकर प्रूफरीडिंग तक पत्रिका से संबंधित हर काम को बिना किसी सहायक की मदद के अकेले ही देखती थी.
प्रश्न: पत्रिका के लिए सामग्री के संकलन और रचना में आप किन बातों पर ध्यान देेती हैं और विभिन्न माध्यमों में आप इसका लेखन के लिए कैसे अनुवाद करती हैं?
एली अहमद: दरअसल, महिला केंद्रित पत्रिका प्रकाशित करना मेरी मूल योजना में नहीं था. बल्कि, कविताओं और लघु कथाओं के साथ एक पत्रिका प्रकाशित करने का विचार था. लेकिन बाद में, उस समय के समाज कीे आवश्यकताओं को महसूस करते हुए, मैंने अपना विचार बदला और केवल असम की महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया. ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता ममोनी रायसोम गोस्वामी सहित कई प्रसिद्ध हस्तियों ने ओरानी के लिए लेख लिखे. ओरानी के कई विशेष मुद्दों ने प्रेरणादायक असमिया महिलाओं जैसे नलिनीबाला देवी, ऐदेउ हांडिक आदि की उपलब्धियों को उजागर किया. इसी तरह, डॉक्टर, इंजीनियर, गायिका, अभिनेत्री के रूप में पहचान बनाने वाली असमिया महिलाएं अक्सर मेरे विषयों में शामिल रही हैं. अब तक, एक वर्ष में ओरानी के चार अंक निकलते हैं और प्रत्येक अंक विशेष रूप से उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल करने वाली महिलाओं और वर्तमान समय में महिलाओं के सामने आने वाली विभिन्न कठिनाइयों और संघर्षों पर केंद्रित होता है. लॉकडाउन के दौरान, पत्रिका में विभिन्न क्षेत्रों की महिलाओं के संघर्षों के बारे में लेख प्रकाशित किए गए. पत्रिका का एक हालिया अंक महिला पुलिस पर प्रकाशित हुआ था. अब मैं छोटे-मोटे कामों में लिप्त महिलाओं पर एक विशेष अंक प्रकाशित करने की तैयारी कर रही हूं. मेरा दृढ़ विश्वास है कि साहित्य, महिलाओं को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
प्रश्न: भारत आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. इंडियाञ्च १०० के बारे में खासकर महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में आपका क्या दृष्टिकोण है?
एली अहमद: आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाना हमारे लिए गर्व का क्षण है. मैं बहुत छोटी थी जब हमारे देश ने आज़ादी हासिल की थी. 15 अगस्त 1947 को फहराया गया तिरंगा आज भी मेरे पास है. यह मेरे लिए एक अमूल्य खजाना है. अगले 25 वर्षों में, हमें महिला सशक्तिकरण के लिए निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए और अधिक प्रभावी नीतिगत रूप से काम करने की आवश्यकता है. समाज के सर्वांगीण विकास के लिए हमें देश की हर महिला को सशक्त बनाने पर जोर देना होगा. मेरा दृढ़ विश्वास है कि महिलाओं के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए केवल सेमिनार या जनसभाएं आयोजित करने से हम कभी सशक्त नहीं होंगे. महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य तभी पूरा होगा जब हर महिला निडर होकर अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाएगी. खासकर दुष्कर्म के मामले तो बढ़ते ही जा रहे हैं, लेकिन बहुत कम महिलाएं ही इस तरह के अपराध के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं. महिलाओं की बेड़ियों को तोड़ने का एक तरीका उन्हें अपनी प्रतिभा को निखारने के लिए प्रोत्साहित करना है जैसा कि मैं लंबे समय से असम में करती आ रही हूं. उनमें स्वतंत्रता और विश्वास पैदा करके हम हर महिला को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करने में सक्षम होंगे. मेरी कामना है कि जब भारत, आज़ादी के 100 साल पूरे करेगा तो भारत की हर महिला आत्मनिर्भर होगी. स्वतंत्रता का आनंद लेने के लिए प्रत्येक महिला को अवसर मिलना चाहिए. (साक्षात्कारकर्त्ता असम के पत्रकार हेमंत बोरा हैं)
पद्म श्री द्रौपदी घिमिरे
द्रौपदी घिमिरे, सिक्किम में पिछले चार दशकों से, दिव्यांगों के लिए अथक रूप से काम कर रही हैं. अपने स्वयंसेवी संगठन- सिक्किम विकलांग सहायता समिति के माध्यम से, उन्होंने कई लोगों के जीवन को बदल दिया है. द्रौपदी घिमिरे की समर्पित सामाजिक सेवा के लिए, उन्हें वर्ष 2017 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था. उनका संगठन शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को कृत्रिम अंग प्राप्त करने में सहायता करता है ताकि वे अन्य व्यक्तियों की तरह सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें. अब तक, उन्होंने राज्य के बाहर के विशेषज्ञों की मदद से जरूरतमंदों को निशुल्क 2,500 से अधिक कृत्रिम अंग उपलब्ध कराए हैं और 600 से अधिक प्लास्टिक सर्जरी तथा कई पोस्ट बर्न सर्जरी कराई हैं. 2014 से, समिति कॉलेज पार्क हेल्थकेयर इंडिया, गुड़गांव में मेयो इलेक्ट्रिक अपर लिम्ब प्रोस्थेसिस की फिटिंग के लिए जरूरतमंदों की मदद कर रही है. यह कार्यक्रम सिक्किम सरकार के स्वास्थ्य विभाग द्वारा प्रायोजित है. घिमिरे ने दिव्यांग व्यक्तियों को कौशल विकास प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए दक्षिण सिक्किम के रेसिप में एक समग्र पुनर्वास केंद्र (सीआरसी) शुरू करने की भी योजना बनाई है.
प्रश्न: आपको सिक्किम विकलांग सहायता समिति की स्थापना के लिए किससे प्रेरणा मिली?
द्रौपदी घिमिरे: इस स्वयंसेवी संगठन की स्थापना से पहले, मैं भारतीय सेना में नर्स के रूप में कार्यरत थी. मैं भारत-बर्मा सीमा के पास तैनात थी. इस अवधि के दौरान, मेरे पिता के पैर में गैंग्रीन हो गया और उसे काटना पड़ा. इलाज के दौरान मुझे घर पर ही रहना पड़ा क्योंकि मेरे छोटे भाई-बहन बहुत ही कम उम्र के थे. अपने पिता की देखभाल के लिए मुझे सेना से इस्तीफा देना पड़ा. यह 1982 के आस-पास की बात है. बड़ी मुश्किलों और देरी के बाद मेरे पिता ने लखनऊ में एक कृत्रिम अंग लगवाया, लेकिन यह सहज नहीं था. बाद में, हम उन्हें लखनऊ ले गए, जहां अंत में उन्हें एक बहुत हल्का कृत्रिम अंग लगा दिया गया, लेकिन जल्द ही त्रासदी हुई और हमने उन्हें खो दिया. इस घटना से मैं बहुत परेशान हो गई और मैंने सामाजिक कार्यों में एकांत खोजने की कोशिश की.
प्रश्न: सिक्किम जैसे दूर-दराज के राज्य के लिए काम करना आपके लिए कितना मुश्किल था?
द्रौपदी घिमिरे: मैंने कृत्रिम अंगों की जरूरत वाले व्यक्तियों की पहचान करने के लिए राज्य भर के स्कूलों और अन्य संस्थानों का दौरा करके शुरुआत की. यह अपने आप में एक कठिन कार्य था. फिर मैं ऐसे रोगियों को गंगटोक में डॉ. अजय अधिकारी के पास लेकर आई, जिन्होंने प्रत्येक रोगी का निरीक्षण किया और सलाह दी कि उन्हें किस तरह की सर्जरी और उपकरणों की जरूरत है. इसके बाद हमने ऐसे मरीजों को कृत्रिम अंग और सर्जरी कराने में मदद करने के लिए राज्य के समाज कल्याण विभाग से संपर्क किया. वर्ष 1991 में, मैं कृत्रिम अंग प्राप्त करने के लिए तीन लोगों के पहले जत्थे को जयपुर लेकर गई. हालांकि, राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता पर्याप्त नहीं थी. लेकिन मैंने किसी तरह से मामूली धन जुटाना जारी रखा और रोगियों को जयपुर में भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति में लेकर गई. हमारे पास रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी. मैंने समिति के एक डॉक्टर को अपनी कठिनाई बताई, उन्होंने हमें जयपुर में गुजराती समाज का पता दिया, जिसने मेरे रोगियों को कृत्रिम अंग उपलब्ध कराए. यह सिलसिला कुछ समय तक चलता रहा. ऐसे ही एक दौरे के दौरान मुझे नई दिल्ली में तत्कालीन सांसद श्रीमती दिल कुमारी भंडारी से मिलने का अवसर मिला. उन्होंने मेरे काम के बारे में पूछा और मैंने पूरी कहानी सुनाई. इसके बाद उन्होंने स्वास्थ्य विभाग से बातचीत कर आर्थिक सहायता बढ़ाने में मदद की. हालांकि, इस तरह के दौरों की व्यवस्था करना अपने आप में एक कठिन काम था. मैंने 1996 में सिक्किम के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री पवन चामलिंग से संपर्क किया और सिक्किम में ही कृत्रिम अंग केंद्र स्थापित करने का निर्णय लिया गया. मुझे जयपुर फुट की नई दिल्ली शाखा से प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर मिला. मैं वहां गयी और कृत्रिम अंग फिटिंग के सभी पहलुओं को सीखने में तीन महीने का समय लगा. 15 से 30 मई, 1996 तक सिक्किम में एक शिविर का आयोजन किया गया और चिह्नित 437 लाभार्थियों में से 337 को कृत्रिम अंग लगाए गए थे. हालांकि इस शिविर का आयोजन एक बड़ी सफलता थी, लेकिन कई छोटी-छोटी समस्याएं पैदा हुईं जैसे कि नट या नेल का ढीला होना आदि. तब मैंने डॉ सावित्री हमल, डॉ शशि प्रधान और 3-4 नर्सों के साथ मिलकर दिव्यांगों के लिए एक सोसायटी बनाने का फैसला किया और इसका नाम सिक्किम विकलांग सहायता समिति रखा. कृत्रिम अंग प्रदान करने के अलावा, हम लोगों को कटे-फटे होंठों की मुफ्त सर्जरी कराने में भी मदद करते हैं. गंभीर रोगियों को आगरा के एक अस्पताल में भेजा जाता है. हाल ही में, सिद्धि बैंक ने उच्च तकनीक वाले कृत्रिम अंग बनाने वाली एक जर्मन-अमेरिकी मशीन को प्रायोजित करने की पेशकश की है. मई 2022 से, हम अपने केंद्र को गंगटोक से बरमियोक में स्थानांतरित कर देंगे, जहां जयपुर फुट और जर्मन-अमेरिकी तकनीक पर आधारित प्रोस्थेटिक्स दोनों का इस्तेमाल किया जाएगा. हम दिव्यांग व्यक्तियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण की दिशा में भी काम कर रहे हैं.
प्रश्न: चूंकि देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, भारतीय महिलाओं की वर्तमान स्थिति के बारे में आपकी क्या धारणा है?
द्रौपदी घिमिरे: साठ साल पहले, जब लड़कियां स्कूल में दाखिला लेना चाहती थीं, तो उन्हें परिवार से इस बहाने अनुमति नहीं मिलती थी कि वे लड़कों को प्रेम पत्र लिखना सीखेंगी, लेकिन अब समय बदल गया है. पूर्वोत्तर राज्यों के संदर्भ में, हम लड़कियों को जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्ट पाते हैं, चाहे वह शिक्षा, व्यवसाय या प्रशासन हो. हमारे समय में शिक्षा इतनी आसान नहीं थी. हालांकि हमने शिक्षा तक पहुंच के मामले में काफी प्रगति की है, लेकिन ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन पर हमें अपना ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. लड़कियां लापता हो जाती हैं और हम उनका पता नहीं लगा पाते हैं. साइबर बुलिंग बढ़ी है. कम उम्र में शादी एक और मुद्दा है जिस पर हमें गौर करने की जरूरत है. इसके अलावा, मुझे लगता है कि महिलाओं के समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है. सामान्य तौर पर महिलाओं के प्रयासों और सफलता की सभी को प्रशंसा करने और प्रोत्साहन देने की जरूरत है. (साक्षात्कारकर्त्ता सिक्किम के पत्रकार शोवन कुमार मित्रा, डी आर दुलाल हैं)
पद्म श्री दीपा मलिक
मन में विश्वास और दिल में जुनून के साथ दीपा मलिक ने खेल शब्द को एक नया अर्थ दिया. एक दुर्घटना को अपने पूरे जीवन को परिभाषित नहीं करने देने वाली दीपा मलिक 2016 में आयोजित ग्रीष्मकालीन पैरालिंपिक में शॉट पुट में रजत पदक हासिल कर पैरालिंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय बनीं. उन्होंने तैराकी में पदक जीते हैं, मोटर स्पोर्ट रैलियों में भाग लिया है और शॉटपुट, भाला फेंक तथा डिस्कस थ्रो में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की. उन्हें 2012 में भारतीय खेल जगत के लिए सर्वोच्च सम्मान माने जाने वाले- अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्हें 2017 में पद्मश्री प्रदान किया गया. स्वच्छ भारत की ब्रांड एंबेसडर के साथ-साथ विकलांगता समावेशी सुलभ बुनियादी ढांचे की प्रबल समर्थक, दीपा मलिक ने कई रूढ़ियों को तोड़ा है और एक प्रतिष्ठित भारतीय महिला के रूप में पहचान बनाई है.
प्रश्न: आपकी नज़र में एक सशक्त महिला की परिभाषा क्या है?
दीपा मलिक: एक सशक्त महिला न केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ती है बल्कि समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को भी समझती है. भारत का संविधान पुरुषों और महिलाओं के समान अधिकारों की गारंटी देता है और सभी प्रकार के भेदभाव को रोकता है. अब यह हम पर है कि हम एक महिला और समान नागरिक के रूप में, शिक्षा और कौशल विकास से आगे बढ़ते हुए खुद को आत्मनिर्भर बनाएं, इस प्रकार बड़े पैमाने पर देश की अर्थव्यवस्था और अपने परिवारों के कल्याण में योगदान दें. सफल आधुनिक महिलाओं के रूप में उभरने के लिए, हमें आंखें मूंदकर पश्चिम का अनुसरण करने की जरूरत नहीं है. वास्तव में एक स्वतंत्र महिला वह है जो जीवन और कार्य में संतुलन बनाकर चलती है और भारतीय मूल्यों तथा संस्कृति को संजोए रखते हुए राष्ट्र के निर्माण में योगदान देती है.
प्रश्न: इंडिया@100 साल के बारे में आपका क्या दृष्टिकोण है?
दीपा मलिक: इंडिया@100 के बारे में मेरा दृष्टिकोण एक सर्व समावेशी, संपूर्ण सहजगम्य और एक ऐसा भारत है जो दुनिया की खेल महाशक्ति है. मैं भारत को ओलंपिक की मेजबानी करते देखना चाहती हूं. साथ ही, मैं भारत को तीसरी दुनिया का देश नहीं, बल्कि एक मजबूत अर्थव्यवस्था, तीव्र गति से विकासमान, पूर्णरूपेण विकसित और अपनी विरासत तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने, संरक्षित करने और बढ़ावा देने में एक विश्व नेता के रूप में देखना चाहती हूं. (साक्षात्कारकर्त्ता दिल्ली के पत्रकार सिद्धार्थ झा हैं)
रजत कमल ताराली सरमा
भारतीय मनोरंजन जगत के इतिहास में पुरुषों का वर्चस्वे रहा है. और तो और आज भी समूचे संगीत, टीवी और फिल्म जगत में महिला- पुरुष असमानता काफी हद तक मौजूद है. यह सब बदलने की शुरुआत हो चुकी है. धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से, महिलाएं मनोरंजन जगत में अपने हुनर का दावा करते हुए शीर्ष पर पहुंच रही हैं। असम की सुप्रसिद्ध महिला संगीतकार ताराली सरमा इसी तथ्य की प्रतीक हैं. अपनी सुमधुर आवाज़ के लिए बेहद लोकप्रिय, बहुमुखी प्रतिभा की धनी ताराली न केवल गाती हैं, बल्कि अपने संगीत की रचना भी खुद करती हैं, अपने गीत स्वयं लिखती हैं. उनके गहरे अर्थपूर्ण गीत दिल को छू लेते हैं, जिसकी बदौलत वर्ष 2003 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायन के लिए उन्हेंं भारतीय राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार-रजत कमल सहित कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. रोज़गार समाचार के साथ बातचीत करते हुए, ताराली सरमा ने एक साधारण, आत्मविश्वास की कमी वाली स्ट्रगलर से मजबूत और प्रतिभाशाली कामयाब इंसान बनने की अपनी यात्रा की यादें साझा कीं.
प्रश्न: आप दो दशक से अधिक समय से संगीत जगत से जुड़ी हैं, इन वर्षों में आप इस संगीत जगत में महिलाओं की प्रगति और उपलब्धियों को कैसे देखती हैं?
ताराली सरमा: मुझे लगता है कि बीते कुछ वर्षों में, लोगों ने महिलाओं को न केवल गायिका के रूप में, बल्कि संगीत निर्देशक और गीतकार के रूप में भी स्वीकार करना शुरू कर दिया है, जो यकीनन स्वागत योग्य संकेत है. मैं 20 वर्षों से अधिक समय से इस इंडस्ट्री में हूं और शुरुआती दौर में मैं जिस अंदाज से काम करती थी, वह मेरे स्वयं के नजरिये के साथ-साथ इस इंडस्ट्री और जनता के नजरिये से भी, मौजूदा समय में मेरे काम करने के अंदाज से भिन्न था. शुरुआती दौर मैं खुद को असुरक्षित महसूस करती थी. मैं नहीं जानती थी कि लोग मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं. मेरे भीतर अपने सपनों को पूरा करने का जुनून था, इसलिए मैंने कभी हार नहीं मानी. मुझे हमेशा से संगीत बनाना, गाना और लिखना पसंद था, लेकिन अब मैं इसे अलग तरह से करती हूं, और पहले से कहीं अधिक आत्मविश्वास के साथ करती हूं. आज, मेरे साथी संगीतकार, सहकर्मी, श्रोता और बड़े पैमाने पर समाज मुझे स्वीकार कर चुका है और यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है. वे न केवल एक व्यक्ति के रूप में, बल्कि एक ऐसी प्रोफेशनल के रूप में भी मेरा सम्मान करते हैं, जो उस सम्मान और पहचान की हकदार है.
प्रश्न: आपको अपने श्रोताओं से जो प्यार और सराहना मिलती है, उसे पाकर आप कितना सशक्त महसूस करती हैं?
ताराली सरमा: मुझे हर तरफ से सिर्फ और सिर्फ सकारात्मक अनुभूति मिलती है. लोगों में मेरे प्रति सम्मान का भाव है, प्रशंसा है और मेरे काम तथा मेरी तरह के संगीत के लिए प्यार है. यह बात बहुत ही उत्साहवर्धक और प्रेरणादायक है. मुझे लगता है कि यह सकारात्मक होने, सशक्त होने का सुंदर संकेत है. प्रत्येक महिला सम्मान पाने की हकदार है चाहे वह वकील हो, खिलाड़ी हो या फिर गृहिणी हो, महिलाएं भी अपने पुरुष समकक्षों जितनी ही महत्वपूर्ण हैं.
प्रश्न: भारत इस साल आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. इंडियाञ्च१०० के बारे में विशेषकर महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में आपका क्या विज़न है?
ताराली सरमा: मुझे इस बात का बहुत गर्व है कि भारत आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. आज़ादी के 100 वर्ष पूरे होने पर मैं एक ऐसे भारत की परिकल्पना करती हूं, जहां प्रत्येक व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति का सम्मान करे. प्रत्येक व्यक्ति का अपना दायरा हो, लेकिन साथ ही साथ एक सामूहिक मंच हो, जहां प्रत्येक व्यक्ति को अपनी राय व्यक्त करने का समान अवसर मिले. हमें प्रत्येक जाति, जेंडर और वर्ग के बीच पूरी तरह समानता की स्थिति हासिल करनी चाहिए. मैं यह भी चाहती हूं कि मेरे साथी नागरिक प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाते हुए अधिक दयालु और सहिष्णु बनें. महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में, मुझे लगता है कि एक समय ऐसा भी आना चाहिए, जब किसी व्यक्ति को पुरुष या महिला के रूप में नहीं, बल्कि समान सम्मान के हकदार इंसान के रूप में देखा जाए.
(साक्षात्कारकर्त्ता शांतनु रोमुरिया शिलांग स्थित पत्रकार हैं)