महापरिनिर्वाण दिवस पर विशेष
डॉ. बी. आर. आंबेडकर की पुण्य तिथि को महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में प्रत्येक वर्ष ६ दिसंबर को मनाया जाता है. परिनिर्वाण संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ मृत्यु के बाद मुक्ति या स्वतंत्रता. उन्होंने धर्म का गहन अध्ययन किया, बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वे आगे चलकर बौद्ध नेता और गुरु के रूप में पहचाने गए. उनके इस कद को सम्मान देने के लिए उनकी पुण्य तिथि को महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है.
पुस्तक अंश
आंबेडकर की इस बात के लिए प्रशंसा की गई कि उन्होंने निष्ठा और अत्यधिक परिश्रम के साथ संविधान सभा में स्वतंत्र भारत के संविधान को पारित कराया. उनकी विद्वतापूर्ण वक्तृताओं की अनेक लोगों ने प्रशंसा की है और शब्द इस विधि-विभूति के प्रति आभार प्रकट करने में समर्थ नहीं है. यह कहा गया है कि वे अपने-आपको केवल अनुसूचित जातियों का नेता ही न समझें बल्कि कांग्रेस में शामिल होकर उनके हाई कमान में स्थान प्राप्त करें जो उनके संकुचित समुदाय के नेतृत्व से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.
अनेक सदस्यों ने आंबेडकर को 'आधुनिक महापुरुष बताया और उनके योगदान ने उनके संबंध में सारी भ्रांतियों और आशंकाओं को तिरोहित कर दिया. वे देश के सर्वोच्च राष्ट्र भक्तों के दल में गिने गए. एस.सहाय ने कहा: ''स्वाधीनता का श्रेय महात्माजी को दिया जाएगा और इसके संहिताबद्ध करने का सेहरा बंधेगा उनके कटुतम आलोचक के सिर अर्थात हमारे महान संविधान के महान शिल्पी डॉ. आंबेडकर के सिर पर. उन्होंने आगे कहा- ''उन्हें न केवल इस सदन में आभार का सौभाग्य प्राप्त है, वरन् पूरा राष्ट्र उनका आभारी है..... जिस खूबी से उन्होंने विधेयक का संचालन किया वह न केवल इस संतति के लिए स्मरणीय है बल्कि आगे आने वाली पीढ़ियां भी उन्हें याद रखेंगी. प्रारूप समिति के सदस्य अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर ने अपने भाषण का उपसंहार इस प्रकार किया- ''यदि मैं सहयोगी माननीय डॉ. आंबेडकर की कुशलता और योग्यता के प्रति सम्मान प्रकट नहीं करूंगा तो मैं अपने कर्त्तव्य पालन से मुकरना समझूंगा. आंबेडकर ने जिस योग्यता से इसका संचालन और जिस परिश्रम से इसकी संरचना की, वह प्रशंसनीय है. गोबिंद बल्लभ पंत ने उन्हें 'पंडित कहकर पुकारा और कहा- ''संविधान का प्रारूप तैयार करने में और उसकी व्यवस्थाओं की सदन में व्याख्या करने से उनकी विद्वता का परिचय मिलता है. डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने कहा- ''इस विलक्षण और विशद कार्य में उन्होंने जिस विद्वता का परिचय दिया है मैं उसकी ओर उनका ध्यान दिलाना चाहता हूं....जो उन्होंने उचित समझा वह कहा चाहे उसका परिणाम कुछ भी हो. पं. कुंजरू ने प्रारूप समिति की प्रशंसा की कि उसने इतनी कुशलता तथा सोच-विचार के साथ इस कार्य को संपन्न किया.
डॉ. के.वी. राव का कथन था कि डॉ. आंबेडकर संविधान के जनक नहीं, उसकी 'जननी हैं. उनके अनुसार आंबेडकर का इस संबंध में हुए निर्णयों में कोई हाथ नहीं था, वे इसकी नीतियों के भी निर्धारक नहीं थे, उन्हें अपने-आपसे समझौता करना पड़ा, वे अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए बल्कि दूसरों की नीतियों की वकालत करनी पड़ी. उन्होंने राष्ट्रपति कार्यपालिका की पुष्टि की थी, किंतु बाद में संविधान सभा में उन्हें स्वयं इस प्रणाली का विरोध करना पड़ा. डॉ. के.वी. राय ने आगे कहा कि नेहरू और पटेल को 'राष्ट्र का पिता कहा जा सकता है पर मैं उन्हें प्रमुख देवता कहना पसंद करूंगा जो संविधान के वास्तविक जनक थे. आंबेडकर को संविधान की जननी कहा जा सकता है.
डॉ. पीली ने अपनी पुस्तक में उन्हें संविधानवेत्ता के रूप में इस प्रकार देखा ''आंबेडकर ने अपना कार्य श्रेष्ठता, पांडित्य, विद्वता, कल्पना शक्ति, तर्क और अनुभवों के आधार पर किया. प्रारूप की व्यवस्थाओं पर आलोचनाओं का उत्तर देने के लिए जब भी खड़े हुए तभी उन व्यवस्थाओं की ऐसी ठोस और स्पष्ट व्याख्या उन्होंने की कि मानो भ्रांतियों की घटा छंट गई हो.
जॉन ड्यूवी से प्रेरणा
जातियों के बारे में अपने प्रबंध में डॉ. आंबेडकर ने अपने अध्यापक जॉन ड्यूवी का ज़िक्र किया जिनके प्रति वे आभार प्रकट करते रहे हैं. भारत के लगभग सभी विचारक और नेता इंग्लैंड की उदार विचारधारा से प्रभावित थे, लेकिन डॉ. आंबेडकर ही मात्र ऐसे नेता थे जिनका प्रेरणास्रोत अमरीका था. उन्होंने अपने को जॉन ड्यूवी का ऋणी बताया है. जॉन ड्यूवी का दर्शन यथार्थवाद पर टिका है. वे परिणाम को महत्व देते हैं, सिद्धांत को नहीं. वास्तविकता अनुभवों से ही प्रकाश में आती है. यह आशावादी दर्शन है.
एक मूल्यांकन
आंबेडकर एक विख्यात विद्वान, विशिष्ट शिक्षाविद्, पारंगत राजनेता, प्रभावशाली वक्ता, साहसी त्राता, प्रामाणिक संविधानवेत्ता, योग्य प्रशासक, क्रांतिकारी परिवर्तनों के प्रसिद्ध पक्षधर और दलितों के निर्भीक हिमायती थे. आंबेडकर के स्वभाव में संस्कृति, विवेक, व्यंग्य, मानवता, तर्कशक्ति, बुद्धिवाद, असमानता के विरुद्ध विक्षोभ, और अन्याय तथा अंधविश्वास के प्रति रोष का सही संतुलन था. उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी. गांधीजी उन्हें निडर कहा करते थे.
डॉ. आंबेडकर ने धार्मिक ग्रंथों के उन अंशों को उद्धृत किया जिनसे समाज के उच्च शिखर पर बैठे लोगों ने ऐसा कुचक्र चलाया कि भेदभाव हमारे धर्म का अंग बन गया और उससे समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को शोषण के गर्त में धकेल दिया गया.
उन्होंने कहा था कि स्वाधीनता संग्राम में भी महत्वपूर्ण अछूतों की सामाजिक स्वाधीनता है. गांधीजी ने कहा था उस समय तक स्वराज्य व्यर्थ है जब तक अस्पृश्यता का कलंक हमारे माथे से नहीं हटता. फिर राष्ट्रीय आंदोलन भी इसी आधार पर चला.
डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्यों को संगठित किया. उन्हें मनुष्यों का दर्जा दिलाया और भारतीय समाज तथा राजनीति में स्थान दिलाया. उनके नेतृत्व के फलस्वरूप एक शिक्षित वर्ग पैदा हुआ और सरकारी सेवाओं में लगा हालांकि इसकी सीमाएं हैं. उनके विचार में लोकतंत्र में अस्पृश्यों का राजनैतिक शत्रु ब्राह्मण नहीं है, (हालांकि वह ब्राह्मण विरोधी थे) बल्कि शक्तिशाली कृषक जातियां हैं. उन्होंने महारवतन समाप्त किए जाने पर ज़ोर दिया और ज़मीदारी प्रथा तोड़ने की चेष्ठा की.
डॉ. आंबेडकर की जो स्मृतियां शेष हैं उनमें तीन संस्थाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं- (1) पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी, 1945 और उसके कॉलेज, (2) बुद्धिस्ट सोसायटी ऑ$फ इंडिया, 1953 और रिपब्लिकन पार्टी ऑ$फ इंडिया (उनके सिद्धांतों पर उनके निधन के उपरांत बनी). उन्होंने अनुभव किया कि सुरक्षित स्थानों को समाप्त किया जाए. पहले आम चुनावों में उन्होंने शिड्यूल्ड कास्ट्स फ़ेडरेशन और सोशलिस्टों के साथ समझौता कराया. लेकिन सोशलिस्टों ने शिड्यूल्ड कास्ट्स फ़ेडरेशन के उम्मीदवारों को वोट नहीं दिए. उनके राजनैतिक दल की आस्था अपनी जाति तक ही सीमित थी. क्रिप्स के सामने उन्होंने कहा था कि मैं मज़दूर नेता होने की अपेक्षा अपने समुदाय का नेता होना पसंद करूंगा. वे प्रत्येक व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से करते थे कि परिगणित जातियों के लिए उसने क्या किया है.
उन्होंने केंद्रीयकृत सरकार की स्थापना के लिए संघर्ष किया जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए आवश्यक थी. उन्होंने संविधान सभा में संविधान के प्रारूप को पास कराने के लिए विलक्षण क्षमता दिखाई. पर बाद की कुछ घटनाओं से वे कुंठित हो उठे और उन्हें कहना पड़ा कि- ''संविधान तैयार करते समय मैं भाड़े का टट्टू था. 1952 के आम चुनावों में उनकी संपूर्ण पराजय से उन्हें बहुत निराशा हुई. आम धारणा यह बनी कि आंबेडकर का कोई ख़ास राजनैतिक प्रभाव नहीं है परंतु उनके विचारों का सम्मान किया जाता रहा. इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिलता कि उन्होंने अपने आपको एक संप्रदाय का नेता क्यों कहा, श्रमिक नेता क्यों नहीं कहा? आंबेडकर का स्वभाव उदारवादी था. उन्होंने संसदीय लोकतंत्र और राज्य समाजवाद पर बल दिया.
आंबेडकर ने प्रमाणित कर दिया कि वे एक निर्भीक बुद्धिवादी होने के साथ-साथ एक महान राजनीतिज्ञ भी थे.
उन्होंने भारतीय राजनीति को संकीर्णता, परंपरावाद एवं धर्मवाद से मुक्त कराने की चेष्टा की. उन्होंने देश को वैधानिक ढांचा प्रदान किया और लोगों को स्वतंंत्रता का आधार प्रदान किया. भारत में ब्रिटिश शासन के अंतिम दौर में, जब भारत प्रभुत्तासंपन्न गणराज्य बनने जा रहा था उस समय के देश के सामाजिक-राजनैतिक इतिहास और संविधान के विकास में उनका नाम प्रमुखता से लिया जाएगा. भारतीय राजनीति के इतिहास में एक राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी भूमिका और बौद्धिक योगदान सदा अमर रहेगा. उन्होंने महत्वपूर्ण राजनैतिक फै़सलों में हाथ बंटाया और उनकी रचनात्मक राजनीतिमत्ता संविधान रचना के दौरान स्वत: प्रस्फुटित हुई.
आंबेडकर ने भाऊराव गायकवाड़ से कहा कि वे महारवतन बिल के संबंध में अपना संघर्ष स्थगित कर दें क्योंकि वे सोचते थे कि इससे सवर्ण लोग रुष्ट हो सकते हैं. उन्होंने कहा कि इस संघर्ष में महारों के हितों को नुकसान पहुंचेगा. उन्होंने सोचा कि बेकार जेल भरने से कोई लाभ नहीं. उन्होंने अपने अनुयाइयों से कहा कि वे सत्याग्रह का मार्ग त्याग दें. उन्होंने कहा कि सरकार के सामने अस्पृश्यों की मांग प्रस्तुत की जाए और इस आंदोलन को सामूहिक सत्याग्रह का रूप न दिया जाए. वे सोचते थे कि विधि-सम्मत शासन में न केवल क्रांति के खूनी तरीके निकृष्ट हैं बल्कि सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह भी अवांछनीय हैं. यद्यपि आंबेडकर ने पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त की थी किंतु वे नेहरू के समान पश्चिमपरस्त नहीं थे. उन्होंने घोषणा की कि अछूतों के दो शत्रु हैं: ब्राह्मण और पूंजीवाद, पर इनसे लड़ने का उनका तरीका क्या था. न केवल संसदीय साधनों को अपनाकर बल्कि अन्य समान विचार वाले दलों के सहयोग से वर्ग युद्ध छेड़ना. उनकी राजनैतिक विचारधारा की यह सबसे बड़ी कमज़ोरी थी.
डॉ. जाटव ने आंबेडकर के विचारों को सामाजिक मानवतावाद बताया. इनमें निम्नांकित सिद्धांत थे: (1) मानव जाति में समानता, (2) प्रत्येक मानव एक इकाई के रूप में, (3) प्रत्येक मानव को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, (4) प्रत्येक मानव को अभावों और भय से मुक्ति दिलाना, (5) स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व और मानव का मानव द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा तथा राष्ट्रका राष्ट्र द्वारा अत्याचार एवं शोषण बंद करना, (6) संसदीय प्रणाली पर आधारित शासन के अंतर्गत लोकतांत्रिक समाज की स्थापना, (7) सामाजिक सुधार में अहिंसा का मार्ग और वर्ग संघर्ष या गृहयुद्ध से बचने के लिए समझाने-बुझाने का तरीका, (8) किसी भी 'वाद सिद्धांत का विश्वास की अति से बचना, (9) आध्यात्मिक अनुशासन की आवश्यकता और (10) विश्व प्रेम, समानता और भ्रातृत्व की स्थापना, जिसका उद्देश्य बुद्ध ने दिया.
आंबेडकर की राजनैतिक विचारधारा के सिद्धांत इस प्रकार है: राष्ट्रीयता की व्यावहारिक शक्तियों को मान्यता, स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के आधार पर सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक मुक्ति के लिए धर्म युद्ध, किसी प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक साम्राज्यवाद का विरोध, मात्र संवैधानिक तरीकों का उपयोग, हिंसा का त्याग, न्याय और शांति प्रेम, लोकतांत्रिक गत्यात्मकता की ओर झुकाव, मानवतावाद जिसके अनुसार मानव सभ्यता और संस्कृति का निर्माता माना जाता है और प्रेम एवं ज्ञान के आधार पर प्रगति की क्षमता रखने वाला समझा जाता है.
बाद में आंबेडकर द्वारा पृथक मतदान की मांग त्यागना और राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ समझौता करना महत्वपूर्ण बातें थीं.
डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व वाले लोगों ने संस्कृतिकरण की अपेक्षा पाश्चात्यीकरण का मार्ग अपनाया. आंतरिक जातीय सुधार, जातिवर्ग के भीतर ही नेतृत्व पर ज़ोर, राजनीतिक मांगें, पौराणिक धर्म की अस्वीकृति आदि ने उनके इस आंदोलन को एक निश्चित दिशा प्रदान की. पृथकतावादी तत्व पहले भी विद्यमान थे और अब भी हैं किंतु एकतावादी तत्वों की सहायता से उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है.
स्वाधीन भारत के भावी संविधान में अस्पृश्यों की सुरक्षा के लिए राजनैतिक संरक्षण के संबंध में उन्होंने गोलमेज़ सम्मेलन में एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था. उन्होंने मांग की थी : (१) समान नागरिकता और अस्पृश्यता को गैर-कानूनी मानते हुए मूल अधिकार, (२) समानता के अधिकारों का मुक्त प्रयोग जिसके लिए समुचित संवैधानिक व्यवस्था हो, (३) भेदभाव के विरुद्ध संरक्षण, (४) अनुसूचित जातियों को विधायिकाओं में यथोचित प्रतिनिधित्व, दस वर्ष तक इन वर्गों के लिए पृथक मतदान और व्यस्क अधिकार, (५) सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व, (६) दुराग्रह तथा अवहेलना से संरक्षण, शिक्षा सुविधाएं आदि, (७) विशेष विभागीय देखभाल, विशेष मंत्री और कल्याण ब्यूरो, और (८) भावी मंत्रिमंडल में स्थान यदि हम उपर्युक्त मांगों का विवेचन करें तो हम पाएंगे कि सब पर अमल हो रहा है जिसका श्रेय आंबेडकर और भारतीय राष्ट्रीयता की प्रगतिशील प्रजातांत्रिक प्रकृति को है. मूल अधिकारों के संबंध में कराची कांग्रेस अधिवेशन में अप्रैल १९३१ में प्रस्ताव पास किया गया था. गांधीजी ने अपने राष्ट्रीय आंदोलन में अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम को शामिल किया. उन्होंने १९२० में कहा 'इस कलंक को धोए बिना स्वराज्य निरर्थक है.
भारत में सामाजिक आदर्शवाद एवं राजनैतिक आदर्शवाद एक-दूसरे से विरोधी रहे हैं. आंबेडकर समझते थे कि बहुमत का राजनैतिक आदर्शवाद सभी का सामाजिक आदर्शवाद बन जाएगा. उनके अखिल भारतीय नेतृत्व में उनके अपने संप्रदाय के प्रति उनकी आस्था प्रकट होती है. उन्होंने अपने वर्ग की स्वतंत्रता एवं कल्याण को स्वराज्य से भी अधिक महत्व दिया. परंतु जब स्वराज्य की प्रगति निकट आई तो उन्होंने राष्ट्रीय नेतृत्व से समझौता कर लिया. राजनीति में उनका प्रभुत्व तो नहीं जमा किंतु उन्होंने महत्वपूर्ण निर्णयों को नवीन दिशा प्रदान की यद्यपि वे अपने समुदाय के नेता थे तथापि उन्होंने भारतीय राजनीति को धर्म निरपेक्ष बनाने की चेष्टा की. भारतीय राजनीति को धर्म निरपेक्षता की ओर अग्रसर करने वाले तत्व थे: पश्चिम का प्रभाव, कानून का शासन, नागरिकों को समानता, विधि रचना और नीति निर्णयों में राजनीतिज्ञों का सहयोग, राजा राममोहन राय, रानाडे, फूले, आगरकर तथा अन्य समाज सुधारकों के व्यापक आंदोलन, प्रजातांत्रिक उदारता और बालिग मताधिकार. भारतीय संविधान की भूमिका इसका अभूतपूर्व उदाहरण है. डॉ. आंबेडकर भी उक्त विचारधारा के एक परिपोषक थे.
राष्ट्रीय अखंडता एक ज्वलंत समस्या थी. शिक्षा, आर्थिक विकास, तर्क संगत दृष्टिकोण, आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलोजी, सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों को धर्म निरपेक्ष स्वरूप और संवैधानिक उद्देश्य कुछ ऐसे तत्व थे जिन्होंने राष्ट्रीय एकता की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया. भारतीय राष्ट्रीय जीवन को उन्होंने नवजीवन प्रदान किया. राष्ट्र निर्माताओं की शृंखला मेें डॉ. आंबेडकर को स्थान दिलाने में उनकी रचनात्मक राजनीतिमत्ता का बहुत सहयोग है.