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विशेष लेख


Issue no 36, 04 -10 December 2021

अफगानिस्तान पर दिल्ली क्षेत्रीय सुरक्षा बैठक का भू-राजनीतिक महत्व

साक्षात्कार

भारत ने अफगानिस्तान के बारे में अपने वैध दावे के बावजूद अंतरराष्ट्रीय चर्चा से अपनी स्पष्ट अनुपस्थिति पर अटकलों को खारिज करते हुए, हाल में अफगानिस्तान पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की क्षेत्रीय सुरक्षा बैठक की मेजबानी की. इसे, अफगानिस्तान के बारे में किसी भी स्थायी समाधान पर भारत के बिना, चर्चा की संभावना की धारणा को नकारने के भारत के मजबूत प्रयास के रूप में देखा गया है. रूस, ईरान, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान की भागीदारी वाली इस बैठक से यह भी दिखाया गया है कि इस महत्वपूर्ण समय में क्षेत्रीय देश कितनी मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं ताकि इस युद्धग्रस्त राष्ट्र में स्थिरता लाने और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का मुकाबला करने की आवश्यकता को रेखांकित किया जा सके. चीन और पाकिस्तान को भी इसमें आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे इसमें शामिल नहीं हुए. सम्मेलन में, शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए अफगानिस्तान के लोगों को आवश्यक समर्थन देने और सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के उपायों पर विचार-विमर्श किया गया.

रोज़गार समाचार ने, सुरक्षा विश्लेषक श्री कबीर तनेजा से इस संवाद के महत्व और इस पर बातचीत की कि क्या इसने अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के साथ भारत की नीति के लिए नजरिया निर्धारित किया है. श्री कबीर तनेजा, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम के लेखक और फेलो हैं. उनका शोध पश्चिम एशिया के साथ भारत के संबंधों, विशेष रूप से घरेलू राजनीतिक प्रभावकारिता, आतंकवाद, गैर-सरकारी उग्रवाद और क्षेत्र के सामान्य सुरक्षा प्रतिमानों पर केंद्रित है.

प्रश्न: हाल में भारत द्वारा अफगानिस्तान पर आयोजित क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद को आप किस रूप में देखते हैं?

कबीर तनेजा: दिल्ली क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता एक अच्छा कदम था. भारत कुछ समय से अफगानिस्तान पर चर्चा से बाहर हो गया है और यह स्थिति अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के साथ उभरी है. इस स्थिति के कारण क्षेत्रीय सुरक्षा पर चर्चा के महत्व को देखते हुए भारत ने सभी प्रमुख हितधारकों को एक साथ लाने के लिए उन्हें इस मंच पर आमंत्रित किया. हालांकि यह कदम देर से उठाया गया है. मुझे लगता है कि यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था. भारत, अफगानिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उस पर प्रतिक्रिया करने में और अधिक फुर्ती दिखा सकता था, लेकिन कभी न करने से, देर से करना बेहतर है, इसलिए यह एक अच्छी पहल है. निष्कर्ष यह है कि इससे यह स्थापित किया गया है कि अब क्या करना है, इस पर और अधिक चर्चा की आवश्यकता है? मेरे विचार में इस समय मुख्य चिंता का विषय अफगानिस्तान में बढ़ रहा मानवीय संकट होना चाहिए क्योंकि अगर वहां स्थिति बेकाबू होती है तो आतंकवाद, उग्रवाद और अन्य प्रकार की अस्थिरता बढ़ने की बड़ी संभावना है जो कि सामान्य रूप से क्षेत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है.

प्रश्न: तालिबान सभी पड़ोसी देशों के साथ निष्पक्ष और पारदर्शी संबंधों के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराता रहा है. क्या आप ऐसा होता देख रहे हैं?

कबीर तनेजा: फिलहाल तालिबान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता के लिए तरस रहा है. अफगानिस्तान में 1996 में जब तालिबान सत्ता में आया था, उस समय की स्थिति से यदि तुलना करें तो आप पाएंगे कि तब उसे तीन देशों-सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने  मान्यता दी थी. इस बार तालिबान अफगानिस्तान पर शासन करने की योजना के बारे में 'अधिक उदार स्थितिÓ में होने के बावजूद, वास्तव में बदतर हालत में है, क्योंकि कोई भी देश उसके समर्थन में सीधे आगे नहीं आया और किसी ने भी उसके शासन को मान्यता नहीं दी है. वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता हासिल करने के लिए बेताब दिख रहा है. हालांकि पाकिस्तान ने तालिबान अधिकारियों को पाकिस्तान में उसके दूतावास और वाणिज्य दूतावास चलाने की स्वीकृति दे दी  है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान ने आगे बढ़कर तालिबान शासन को आधिकारिक तौर पर मान्यता दे दी है. इसलिए हम आने वाले समय में इसके बारे में बहुत कुछ सुन सकते हैं कि तालिबान कह रहे हैं कि वे अधिक उदार प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था की दिशा में काम कर रहे हैं जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए अधिक सुखद होने वाली है. इसलिए हमें इंतजार करना होगा और स्थिति पर नजर रखनी होगी. इस समय कुछ कहना बहुत मुश्किल है, लेकिन इतना आवश्यक है कि तालिबान किसी भी तरह से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से वैधता के लिए जोर देगा.

प्रश्न: तालिबान यह तर्क देता रहा है कि अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार समावेशी है और दुनिया में कहीं भी ऐसी सरकार नहीं है जहां विपक्ष की बराबर हिस्सेदारी हो. आप इस टिप्पणी को कैसे देखते हैं, क्योंकि बड़ी शक्तियां, अफगानिस्तान में अधिक समावेशी सरकार बनाने पर जोर दे रही हैं?

कबीर तनेजा: तालिबान वास्तव में यह बात उठा सकते हैं कि अमरीका में राष्ट्रपति जो बाइडन की डेमोक्रेट सरकार में कितने रिपब्लिकन हैं? और भारत में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में कांग्रेस के कितने नेता हैं? यह एक वैध सैद्धांतिक तर्क है, लेकिन वास्तव में यह टिक नहीं सकता. सम्मेलनों या सार्वजनिक संवाद में ऐसा कहना बहुत अच्छा लगता है. लेकिन, तालिबान का राजनीतिक विरोधी कौन है? क्या यह ताजिक, उज्बेक या पूर्ववर्ती लोकतांत्रिक सरकार है जिसे तालिबान ने बलपूर्वक हटा दिया है. तालिबान विपक्ष का तर्क देकर इसे जिस तरह पेश कर रहा है, उसमें दम नहीं लगता. वे यह भी कह सकते हैं कि उनकी राजनीतिक संरचना के हिस्से के रूप में ताजिक, उज्बेक और शिया हजारा के कुछ लोग हैं. लेकिन वे सभी बाहरी इलाके के हैं. बड़े पैमाने पर यह पश्तून के नेतृत्व वाला शासन है जिसने इसे संभाला है और यहां तक कि यह हक्कानी और कंधारियों के बीच है, एक प्रश्न यह भी उठता है कि इसमें मुल्ला बिरादर कहां है? वह उप प्रधानमंत्री और तालिबान आंदोलन का सह-संस्थापक है. लेकिन हम उन्हें किसी भी रूप में शायद ही कभी सुनते या देखते हैं. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो तालिबान कह सकता है, जो सैद्धांतिक दृष्टिकोण से समझ में आती हैं लेकिन यह दुनिया के साथ चलने के अनुरूप नहीं हैं. यह बात तालिबान को भी पता होगी.

प्रश्न: भारत द्वारा अगली दिल्ली क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता के लिए तालिबान को आमंत्रित करने की क्या संभावना है? यदि हां, तो इसके क्या निहितार्थ होंगे?

कबीर तनेजा: मुझे लगता है कि भारत को तालिबान से बातचीत करनी चाहिए और वे ऐसा करते रहे हैं. लेकिन इसके लिए दोहा में बातचीत करना बेहतर स्थिति होगी और  मुझे नहीं लगता कि इस समय भारत को क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता में तालिबान को आमंत्रित करने की आवश्यकता है. निश्चित रूप से अब परस्पर व्यवहार का तरीका  बदल सकता है क्योंकि संवाद हो चुका है. हमें अब भी इंतजार करना होगा और देखना होगा कि तालिबान, राजनीतिक व्यवस्था को आखिरकार किस तरह मजबूत करता है. आपको याद रखना होगा कि अफगानिस्तान में वर्तमान सरकार तालिबान के शब्दों में एक अंतरिम सरकार है. इसलिए, आगे संचालन के लिए एक स्थायी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता है और हम देखेंगे कि यह अगले कुछ महीनों में सामने आ जाएगा. जब तक समावेशी और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए स्वीकार्य  किसी ऐसी उचित राजनीतिक व्यवस्था का कोई स्वरूप सामने नहीं आता, मेरे विचार से तब तक तालिबान को भारत में आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि अगर तालिबान को भारत आमंत्रित किया जाता है, तो इसमें भारत यह नहीं चुन सकता कि कौन आए. तालिबान कह सकता है कि खलील हक्कानी के साथ आ रहे हैं क्योंकि वह उनके मंत्रिमंडल का हिस्सा है और फिर अगर भारत इसके लिए राज़ी नहीं होता है, तो बातचीत अपने आप टूट जाएगी. इसलिए, मुझे लगता है कि सबसे अच्छा है कि तालिबान को एक खुले चैनल- दोहा प्रक्रिया के माध्यम से जोड़े रखा जाए जो पहले से मौजूद है. हमने यह भी देखा है कि काबुल में अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व कतर में दूतावास के माध्यम से किया जा रहा है. मुझे लगता है कि कतर एक अच्छा मध्यस्थ है. जब इस तरह के मुद्दे सामने आए हैं तो वह एक अच्छा मध्यस्थ बना रहा है.

प्रश्न: क्या अमरीका के करीब दिखने से क्षेत्रीय स्तर पर भारत की छवि प्रभावित हो रही है?

कबीर तनेजा: इसके कुछ प्रतिप्रभाव होने वाले हैं ... प्रतिप्रभाव नहीं बल्कि अन्य के उदाहरण के लिए विशेष रूप से रूस और ईरान के संदर्भ में कुछ हो सकता है, लेकिन, दूसरी ओर, वे यह भी जानते हैं कि अमरीका के साथ भारत की नजदीकी काफी हद तक हिंद-प्रशांत मोर्चे से संबद्ध है जिसका अफगानिस्तान से कोई लेना-देना नहीं है. ऐसे विश्लेषक हैं जो यह प्रचार करते रहे हैं कि हिंद-प्रशांत फ्रेमवर्क को अफगान की सुरक्षा स्थिति पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन मुझे लगता है कि यह बहुत ही खतरनाक है. हिंद-प्रशांत भौगोलिक रूप से परिभाषित क्षेत्र और मुद्दा है. उदाहरण के लिए, मुझे नहीं लगता कि क्वाड फ्रेमवर्क का भी अफगानिस्तान के साथ बहुत कुछ लेना-देना होगा. बेशक, वे अफगानिस्तान के मुद्दे के विस्तारित सुरक्षा निहितार्थों पर चर्चा कर सकते हैं, लेकिन जब तालिबान के साथ अधिक क्षेत्रीय या द्विपक्षीय संबंधों या तालिबान के साथ बातचीत या क्षेत्रीय हितधारकों और तालिबान के बीच बातचीत की बात आती है, तो मुझे नहीं लगता कि भारत-अमरीका के बीच संबंध बहुत बड़ा मुद्दा बन सकता है.

प्रश्न: आप क्या सुझाव देते हैं कि भारत को अब चीन के साथ अपने संबंधों का प्रबंधन कैसे करना चाहिए, यह देखते हुए कि यह अफगानिस्तान और अन्यत्र भारत की विदेश नीति को प्रभावित कर रहा है?

कबीर तनेजा: जब चीन की बात आती है, तो भारत को इस बारे में यथार्थवादी होना चाहिए. चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और इसकी दूसरी सबसे बड़ी सेना है. चीन भारत के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं है. चीन का अमरीका से मुकाबला है. हमें इसके बारे में बहुत स्पष्ट होना होगा. आप जानते हैं कि भारत, चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में है लेकिन चीन, भारत के साथ प्रतिस्पर्धा में नहीं है, यहां तक कि जब सीमा पर झड़प और गालवान घटना जैसे मुद्दों की बात आती है तब भी नहीं. हम चीन से संबंध नहीं तोड़ सकते. महामारी के दौरान भी, भारत-चीन व्यापार बढ़ा है, खासकर अर्थव्यवस्थाओं के थोड़ा खुलने के बाद. भारत इसके साथ-साथ कुछ सही उपाय कर रहा है. आत्मनिर्भरता संबंधी नीतियों को बढ़ावा मिला है. भारत की रक्षा खरीद कम से कम एक निश्चित स्तर तक स्वदेशी विनिर्माताओं से ही किया जाना सुनिश्चित करने की प्रवृत्ति बढ़ी है. रातों-रात ऐसा करना बहुत मुश्किल भी है. यह एक लंबी प्रक्रिया है लेकिन कम से कम उस लक्ष्य की ओर कुछ शुरुआत तो हुई है. चीन एक वास्तविकता है और हमें धमकी से नहीं बल्कि बारीकियों को ध्यान में रखते हुए उससे निपटना होगा और मुझे लगता है कि सरकार भी यह जानती है. चीन 15 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है और हम 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था हैं. इस समय चीन जैसे देश के साथ बड़े पैमाने पर संघर्ष की स्थिति में हमारे पास चीन की तुलना में खोने के लिए बहुत कुछ है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप अपनी चौकसी कम कर दें, साथ ही आपको चीन पर भी दबाव बनाए रखना होगा.

प्रश्न: बदली परिस्थितियों में अफगानिस्तान भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण है? तालिबान सरकार से निपटने के लिए भारत को कैसे आगे बढ़ना चाहिए?

कबीर तनेजा: अफगानिस्तान अपने भूगोल और भारत के साथ अपने सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक संबंधों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. सुरक्षा के लिहाज से भी अफगानिस्तान काफी अहम है. यदि अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद, कट्टरवाद, उग्रवाद का केंद्र बनता है तो भारत की सुरक्षा पर इसका सीधा प्रभाव पड़ने वाला है. जब पाकिस्तान, चीन और इन दिनों यहां तक कि म्यांमार की बात आती है तो हमारी सीमाओं पर पहले से ही जबरदस्त दबाव है. अफगानिस्तान की स्थिति के कारण,  भारत के लिए गंभीर सुरक्षा निहितार्थ होंगे. इससे पाकिस्तान को भौगोलिक, रणनीतिक गहराई के साथ भारत विरोधी गतिविधियों को संचालित करने और चीन जैसे देश को आर्थिक तथा राजनीतिक गतिविधियों के लिए इस क्षेत्र में अधिक मजबूती से पैर जमाने का मौका मिल सकता है. जैसा कि मैंने पहले कहा, भारत  ने इसमें बहुत देर की है और अब भारत के लिए समय है कि वह वास्तव में कुछ करे. उम्मीद है कि आने वाले महीनों में हम अफगानिस्तान और तालिबान से निपटने के लिए कुछ ठोस नीतिगत उपाय कर पाएंगे और यह निश्चित रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तालिबान किस तरह का पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करता है. इसलिए फिलहाल प्रतीक्षा और नजर रखने की नीति उचित है, लेकिन यदि तालिबान काफी समय तक सत्ता में बने रहने में कामयाब रहता है तो अफगानिस्तान से निपटने के तरीके के बारे में और अधिक यथार्थवादी कदम उठाने की जरूरत है.

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं.