पार्वती गिरि - पश्चिमी ओडिशा की मदर टेरेसा
तमन्ना महापात्र
भारत अत्याचारी ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के 75 वर्ष मना रहा है और यह याद रखना उचित होगा कि आज हम जिस स्वतंत्रता का आनंद ले रहे हैं उसके संघर्ष में पुरुषों और महिलाओं ने समान रूप से योगदान किया था. यद्यपि अनेक महान देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का दर्जा प्राप्त किया है लेकिन कई ऐसे विस्मृत नायक हैं जिनका स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अतीत में दफन हो गया. ओडिशा की पार्वती गिरि एक ऐसी ही विस्मृत नायिका हैं.
पार्वती गिरि का जन्म 19 जनवरी 1926 को ओडिशा के बारगढ़ के समलीपदार गांव में स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार में हुआ था. उनके चाचा रामचंद्र गिरि संबलपुर क्षेत्र के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे. वह एक संपन्न वातावरण में पली-बढ़ीं. उन्हें महान नेताओं से मिलने/बातचीत करने का अनूठा अवसर मिला, जिसने उनकी मानसिकता और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बदलने का मार्ग प्रशस्त किया. स्वतंत्रता आंदोलन की सिपाही बनने के लिए उन्होंने बहुत ही कम उम्र में स्कूल छोड़ दिया और आस-पास के गांवों में चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी ली. लक्ष्मी नारायण मिश्रा, दुर्गा प्रसाद गुरु, भागीरथी पटनायक और जंबोबती पटनायक ने उन्हें अपने शुरुआती सैनिक दिनों में प्रेरणा और परामर्श प्रदान किया था. मालती देवी और नवकृष्ण चौधरी के क्रांतिकारी भाषणों ने 12 वर्षीय पार्वती गिरि के कोमल मन को स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में छलांग लगाने के लिए प्रेरित किया. 1938 में, पार्वती गिरि ने जबर्दस्त आपत्तियों और अपने परिवार से कोई समर्थन नहीं मिलने के बावजूद, मालती देवी की सलाह के अनुसार, बारी आश्रम की कठिन यात्रा शुरू की. रमा देवी ने बारी आश्रम में रहने के दौरान पार्वती गिरि को प्रशिक्षित किया, जिससे उन्हें विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक पहलों में उत्साहपूर्वक भाग लेने में मदद मिली. बारी आश्रम में दो साल तक मिले मार्गदर्शन ने पार्वती गिरि को स्वतंत्रता सेनानी और एक समाज सुधारक के रूप में परिवर्तित किया. उन्होंने पूरी लगन से गांधीवादी सिद्धांतों का पालन किया; इसलिए उन्होंने संबलपुर लौटकर खादी और स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में बहुत योगदान दिया.
भारत छोड़ो आंदोलन 1942 के दौरान, पार्वती गिरि ने औपनिवेशिक शासन और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने के लिए कई लोगों को लामबंद किया. वह अन्य नेताओं के साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ नारेबाजी करने के आरोप में जेल गईं. उस समय नाबालिग होने के कारण उसे जल्द ही रिहा कर दिया गया था. इससे पार्वती गिरी के हौसले पस्त नहीं हुए. उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्थानीय लोगों को एकजुट करते हुए और अधिक जोरदार लड़ाई के लिए कमर कस ली. नतीजतन, उन्हें 2 साल जेल की सजा सुनाई गई थी. इसके बावजूद, वह एक चट्टान की तरह खड़ी रहीं, जिसने स्थानीय समुदायों को मजबूत करने के लिए, विशेष रूप से महिलाओं और अस्पृश्यता के खिलाफ, सभी प्रकार के भेदभाव के विरोध में सामाजिक सुधारों के एक स्पेक्ट्रम की शुरुआत की. स्वतंत्रता के बाद की अवधि में, पार्वती गिरी ने अपना जीवन समाज के कमजोर वर्गों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया. उनकी करुणा और दया ने लोगों का दिल जीत लिया जब उन्होंने ओड़िशा के अकाल के दौरान जरूरतमंद लोगों को राहत प्रदान करने के लिए अथक परिश्रम किया. पार्वती गिरी ने कस्तूरबा गांधी महिला निकेतन की स्थापना की, अनाथों और निराश्रितों को आश्रय और अन्य सहायता प्रदान की. उन्होंने जेल सुधार, कुष्ठ उन्मूलन, ग्रामीण शिक्षा और महिला सशक्तिकरण तथा सभी प्रकार की सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए भी काम किया.
राजनीतिक दलों की ओर से राज्यसभा सांसद बनाए जाने या राज्य विधानसभा में सीट दिए जाने के प्रस्तावों के बावजूद, पार्वती देवी ने जानबूझकर एक समाज सुधारक बने रहने का फैसला किया. उन्होंने 1995 में अंतिम सांस ली. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मातृभूमि भारत में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें प्यार से 'पश्चिमी ओडिशा की मदर टेरेसा कहा जाता था.
(लेखक, ढेंकनाल ओडिशा के हैं, ई-मेल: iamtamma125@gmail.com )