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विशेष लेख


Issue no 34, 20-26 November 2021

बिरसा मुंडा

आदिवासी लोकनायक और स्वतंत्रता सेनानी

 

उन्नीसवीं सदी के अंत में जब अंग्रेज शासकों के विरुद्ध आदिवासियों ने आवाज उठायी तो यह एक अप्रत्याशित घटना नहीं थी. बिरसा मुंडा का व्यक्तित्व छोटानागपुर के परिवेश में कुछ इस तरह विकसित हुआ कि उस पर यहां के तत्कालीन जीवन के सभी पहलुओं का प्रभाव पड़ा.

 

बिरसा मुंडा २५ वर्ष की छोटी आयु में ही छोटानागपुर के आदिवासियों के आर्थिक और सामाजिक शोषण से पूर्णत: अवगत थे. उनका व्यक्तित्व और उनका विद्रोह, जिसे उन्होंने 'उलगुलान कहा, एक लंबे इतिहास की परिणति थी. बिरसा के व्यक्तित्व ने मुंडा और अन्य आदिवासी समाज पर ही नहीं, बल्कि शोषकों के ऊपर भी एक अमिट छाप छोड़ी. वह मात्र एक विद्रोही नेता नहीं रहे, एक पूरे समुदाय के पुनर्जागरण के प्रतीक बन गए.

 

बिरसा मुंडा का जन्म एक मुंडा परिवार में हुआ था और बचपन से ही उन्हें इस बात का आभास होने लगा कि आर्थिक-सामाजिक और धार्मिक कोई भी पहलू शोषण से मुक्त नहीं रह सके. अत: बिरसा मुंडा का आंदोलन बहुमुखी था और इन सभी पहलुओं में बिरसा ने मुंडाओं की अस्मिता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया.

 

सन् १८९० के अंत तक 'सरदार आंदोलन कमजोर हो चला था और अधिकतर नेता गिरफ्तार हो चुके थे. इससे छोटानागपुर के प्रभावित क्षेत्रों में (सिंहभूम, पंचपरगना और रांची के आसपास के इलाकों में) शांति स्थापित हो गई थी. परंतु भीतर ही भीतर असंतोष की आग सुलग रही थी. मुंडा और अन्य आदिवासियों का विश्वास ईसाई मिशनरियों से उठ गया था. उन्हें ऐसा लगने लगा था कि अंग्रेज शासकों, जमींदारों, जागीरदारों और ठेकेदारों के अन्याय से मुक्ति दिलाने में मिशनरी सफल नहीं हो सकते.

 

यह धारणा आदिवासियों में घर करने लगी थी कि किसी स्तर पर मिशनरियों, शासकों और उनके संरक्षण में पनपते हुए अत्याचारियों के बीच कोई समझौता है. असंतोष और अविश्वास के इस चौराहे पर मुंडा जाति को एक नेता की आवश्यकता थी, और यह नेतृत्व बिरसा मुंडा ने दिया. बिरसा मुंडा के प्रारंभिक जीवन और व्यक्तित्व से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह शोषित और पीड़ित आदिवासियों को राह दिखाने में सक्षम थे.

 

बिरसा ने जब अपना आंदोलन आरंभ किया, तब उनकी आयु बीस वर्ष के लगभग थी. मुंडा समाज में जन्म और मृत्यु आदि घटनाओं के स्मरण रखने की कोई सुव्यवस्थित पद्धति नहीं थी इसलिए बिरसा का जन्मदिवस और जन्मस्थान दोनों के विषय में विवाद होना स्वाभाविक है.

 

चाईबासा उच्च शिक्षा का केंद्र था, इसलिए उस समय खूंटी, तमाड़, बुंडू आदि क्षेत्रों से विद्यार्थी वहां जाते थे. बिरसा की मां बिरसा को अपने घर से दूर नहीं भेजना चाहती थी क्योंकि बचपन से ही बिरसा का विचित्र बातों से और बिरसा के अंशात स्वभाव से वह आशंकित रहती थी परंतु बिरसा की इच्छा देखकर उसके पिता उसे चाईबासा ले गए. यद्यपि बिरसा और उसके साथी, कुंडारी के दाऊद, प्रचारक के बेटे इसहाक और लांडीलुहनी के जोना का बेटा अभिराम प्रवेश तिथि समाप्त होने के बाद चाईबासा पहुंचे, फिर भी बिरसा की लगन और चाईबासा तक पैदल चलने से उसके पांव के उठे फफोलों के कारण पादरियों ने उसे स्कूल में भर्ती कर लिया. चाईबासा में ही ७ मई, १८८६ को ईसाई धर्म में बिरसा का कन्फर्मेशन हुआ. बिरसा के प्रारंभिक जीवन में यह पहली सुनिश्चित लिखित तिथि है.

बिरसा को चाईबासा के छात्रावास में भी स्थान मिला. बिरसा का कन्फर्मेशन रेवरेन्ड डोडलॉक्स ने किया. चाईबासा में बिरसा डेडलॉक के शिष्य भी थे. उस समय जर्मन मिशन के अध्यक्ष रेवरेन्ड नाट्रोट थे जिनकी प्रतिष्ठा दूर-दूर तक फैली हुई थी. बिरसा नाट्रोट के निकट संपर्क में भी आए. बिरसा चाईबासा के विद्यालय में सन् १८८६ से १८९० तक रहे.

 

सन् १८९० में, १५-१६ वर्ष की आयु में जब बिरसा ने चाईबासा का छात्रावास छोड़ा तो वह एक परिपक्व मानव बन चुके थे. अत्याचार और शोषण की प्रक्रिया को वह समझ गए थे. मुंडा जाति की संस्कृति, समाज और धर्म पर जो प्रहार हो रहे थे, उनके प्रति बिरसा के मन में तीव्र आक्रोश था. बिरसा आंदोलन की पृष्ठभूमि रेखांकित हो चुकी थी. बिरसा एक कर्मयोगी का रूप धारण करने के लिए पूर्णत: सक्षम हो चुके थे.

 

सन् १८९० में चाईबासा छोड़ने के पश्चात् बिरसा और उसके परिवार के सदस्यों ने जर्मन मिशन से नाता तोड़ लिया था. सरदारों का आंदोलन उस समय जर्मन मिशनरियों के विरुद्ध केंद्रित था. कुछ समय तक बिरसा कैथोलिक मिशनरियों के अनुयायी रहे. परंतु शीघ्र ही उन्होंने अपने परिवार के साथ ईसाई धर्म से संबंध विच्छेद कर लिया और मुंडा 'आदिधर्म ग्रहण किया.

 

सन् १८९० में ही बिरसा बंदगांव चले गए, जो खूंटी और चक्रधरपुर के बीच में है. बंदगांव उन दिनों एक प्रभावशाली जमींदार जगमोहन सिंह के अधीन था. बिरसा जमींदार जगमोहन सिंह के यहां मुंशी का काम करने वाले आनंद पॉड़ के संपर्क में आए. आनंद पॉड़ को हिंदू धर्म की पौराणिक गाथाओं का ज्ञान था. बिरसा और आनंद पॉड़ का संबंध कुछ अर्थों में गुरु-शिष्य संबंध बन गया था. आनंद पॉड़ के प्रभाव से बिरसा शाकाहारी बन गए. इसी समय बंदगांव सरदार आंदोलन का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया था. बिरसा ने अपने को सरदार आंदोलन से दूर रखने की आवश्यकता महसूस नहीं की. अंग्रेजों ने इसी समय जमींदारों और जागीरदारों के उकसाने पर जंगल की संपदा से मुंडा जाति के पुश्तैनी अधिकारों को संकुचित और सीमित करने का अभियान छेड़ा. जुलाई, १८९४ में अंग्रेजों ने एक नया कानून बनाया जिससे जंगल के अधिकार बहुत कुछ जमींदारों के पक्ष में चले गए. मुंडाओं में आक्रोश की एक नई लहर दौड़ गई. क्षेत्र में फैलती हुई अशांति से बिरसा अपने को अक्षुण्ण नहीं रख पाए और अपने तीन-चार वर्षों के बंदगांव प्रवास को छोड़ते हुए पॉड़ परिवार से विदा ली. यह घटना सन् १८९३-९४ की है. बंदगांव से बिरसा खटंगा गए और वहां से अपने पैतृक गांव चालकद पहुंचे.

 

सन् १८९३-९५ की अवधि से बिरसा के व्यक्तित्व में चमत्कारिक परिवर्तन आया. तत्कालीन विवरणों से ज्ञात होता है कि बिरसा एक सुंदर और गौरवशाली देह सौष्ठव के धनी थे. उनके वार्तालाप, भंगिमा और हाव-भाव से लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे. इसी काल में बिरसा के जीवन में अनेक चमत्कारिक घटनाएं घटीं. बिरसा के व्यक्तित्व को निखारने, बिरसा की लोकप्रियता की नींव रखने और एक साधारण व्यक्ति से जननायक तक का सफर तय करने में इन घटनाओं की अहम भूमिका रही.

 

धार्मिक प्रकृति के लोगों की तुलना बिरसा ने 'उर्वर भूमि से की और दुष्टों को 'कांटों से भरी पगडंडी की संज्ञा दी. वे अपने को 'धरती आबा कहने लगे. यहां तक कि जब बिरसा की माता ने उनका नाम लिया, तब उन्हें भी बिरसा ने धरती आबा के नाम से संबोधित करने का आग्रह किया.

 

सन् १८९५ के उत्तरार्द्ध में पहली बार बिरसा आंदोलन की गंभीरता को सरकार ने समझा. छह अगस्त, १८९५ को चौकीदारों ने तमाड़ के थाने में यह सूचना दी कि बिरसा नामक मुंडा ने इस बात की घोषणा की है कि सरकार के राज्य का अंत आ गया है. बिरसा के यहां जाने वाले जन-समुदाय के निरीक्षण के लिए उसी दिन एक सिपाही (हेड कांस्टेबल) को चालकद भेजा. यह कांस्टेबल आठ अगस्त की शाम को चालकद पहुंचा और नौ अगस्त की सुबह उसने बिरसा को गिरफ्तार कर लिया. परंतु वहां इकट्ठी हुई भीड़ ने बिरसा को छुड़ा लिया.

 

बिरसा की प्रसिद्धि दूर-दूर के गांवों में फैलने लगी. उनके दर्शन के लिए आने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गई. बिरसा के उपदेश सुनने के लिए चालकद में अपार जन-समुदाय उमड़ने लगा. अपने घर के पास एक बड़े आम के वृक्ष के नीचे बिरसा ने अपना आसन बनाया और आसन के चारों और पवित्र धागों का एक घेरा बनाया. यहीं बैठकर वह प्रवचन करते थे. कुछ ही समय में ईश्वर के दूत के स्थान पर वह भगवान माने जाने लगे.

 

सन् १८९५ तक बिरसा वैद्य से धार्मिक आंदोलन के प्रवर्तक बन चुके थे और अब इस आंदोलन का राजनीतिकरण भी होने लगा था. 'सरदार आंदोलन के नेता जो मिशनरियों से संबंध विच्छेद के बाद निराश होने लगे थे, उन्हें भी लगा कि बिरसा जैसा प्रभावशाली और लोकप्रिय व्यक्ति, जिन्हें सामान्य लोग भगवान मानने लगे थे, उनके आंदोलन को नया जीवन प्रदान कर सकेगा.

 

सन् १८९६-९७ और फिर १८९९-१९०० में इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा. वर्ष १८९७ के उत्तरार्द्ध में बिरसा मुंडा जेल से बाहर आ गए थे और वे अपने अनुयायियों के साथ अकाल पीड़ितों की सेवा में लग गए. सन् १८९८-९९ के बिरसा आंदोलन का प्रारंभ धार्मिक विचारों से पूर्णत: प्रभावित था. इस विद्रोह को बिरसा ने 'उलगुलान की संज्ञा दी. 'उलगुलान आज अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष और आदिधर्म के प्रति आस्था का पर्यायवाची शब्द बन गया है. आज भी छोटानागपुर में उलगुलान शब्द के उच्चारण मात्र से इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय आदिवासी मानस में उदित होता है.

 

बिरसा की गिरफ्तारी के बाद जब कमिश्नर को इसकी सूचना दी गई, तब कमिश्नर ने आदेश दिया कि बिरसा को रांची लाया जाए. इस आदेश का पालन करते हुए डिप्टी कमिश्नर खूंटी होकर बिरसा को रांची ले गए. बिरसा की जेल यात्रा से बिरसा आंदोलन का पटाक्षेप हो गया. बिरसा की जेल यात्रा के साथ आदिवासियों द्वारा डेढ़ सौ वर्षों से चले आ रहे सशस्त्र विद्रोहों के सिलसिले को विराम मिला. बीसवीं सदी में जनजीवन तेजी के साथ बदल रहा था. अंग्रेज शासक छोटानागपुर की समस्याओं को कुछ-कुछ समझने लगे थे. शिक्षा का प्रसार भी द्रुत गति से होने लगा था. बिरसा आंदोलन का प्रभाव अनेक पहलुओं और संदर्भों में फैलने लगा.

 

बिरसा जेल से नहीं लौटे. बिरसा को अकेले ही जेल की कोठरी में रखा गया. गिरफ्तारी के लगभग तीन महीने पश्चात् ३० मई, १९०० को जब प्रात: पांच बजे बिरसा को भोजन दिया गया, तो उन्होंने मना कर दिया. अन्य कैदियों के साथ बिरसा को भी अदालत ले जाया गया. अदालत में ही बिरसा अस्वस्थ हो गए और उन्हें जेल वापस ले जाया गया.

 

बिरसा तीन दिनों तक बीमार रहे और एक जून, १९०० को डिप्टी कमिश्नर को सूचना मिली कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके बचने की संभावना कम है. परंतु आठ जून की प्रात: बिरसा की हालत फिर बिगड़ने लगी. नौ जून की सुबह बिरसा को खून की उल्टी हुई और वह मूर्छित हे गए. मूर्छावस्था में नौ बजे प्रात: बिरसा की मृत्यु हो गई.

 

(प्रस्तुत अंश आधुनिक भारत के निर्माता शृंखला की बिरसा मुंडा पुस्तक से लिए गए हैं.  पुस्तक बिक्री के लिए ऑनलाइन और ऑफलाइन उपलब्ध है. पी-बुक प्रकाशन विभाग के विक्रय काउंटर से खरीदी जा सकती है और यह देशभर के अधिकृत एजेंट तथा  प्रकाशन विभाग की वेबसाइट www.publicationsdivision.nic.in से भी खरीदी जा सकती है.)