रोज़गार समाचार
सदस्य बनें @ 530 रु में और प्रिंट संस्करण के साथ पाएं ई- संस्करण बिल्कुल मुफ्त ।। केवल ई- संस्करण @ 400 रु || विज्ञापनदाता ध्यान दें !! विज्ञापनदाताओं से अनुरोध है कि रिक्तियों का पूर्ण विवरण दें। छोटे विज्ञापनों का न्यूनतम आकार अब 200 वर्ग सेमी होगा || || नई विज्ञापन नीति ||

विशेष लेख


Issue no 25, 18-24 September, 2021

 

हेलेन लेप्चा उर्फ साबित्री देवी  

वह सेनानी जिसने सिक्किम, उत्तरी बंगाल में स्वदेशी का समर्थन किया

और नेताजी को यूरोप जाने में मदद की

 

खगेंद्रमणि प्रधान

 

हेलेन लेप्चा शायद तत्कालीन सिक्किम राज्य की एकमात्र महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं. 1902 में दक्षिण सिक्किम के असंगथांग के पास संगमू में अचुंग लेप्चा की तीसरी संतान के रूप में जन्मी हेलेन का परिवार शिक्षा और रोज़गार के बेहतर अवसरों की तलाश में पश्चिम बंगाल के कुर्सिओंग में प्रवास कर गया था. 1920 में बिहार की बाढ़ के दौरान हेलेन लेप्चा को प्रसिद्धि मिली, जहां राहत कार्य में उनकी समर्पित सेवा महात्मा गांधी के ध्यान में लाई गई, गांधीजी ने न केवल उनसे मुलाकात की और उनकी प्रशंसा की, बल्कि उन्हें साबरमती आश्रम आने के लिए भी आमंत्रित किया.

 

साबरमती आश्रम की उनकी यात्रा पर, गांधीजी ने महसूस किया कि उनका नाम आंदोलन की भावना के अनुरूप नहीं है और इसलिए उनका नाम सावित्री देवी रखा गया, यह नाम बंगाल और बिहार प्रांत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गूंजता रहा. बिहार और उत्तर प्रदेश के कोयला क्षेत्रों में काम करने के लिए सौंपी गई एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ, हेलेन उर्फ साबित्री देवी ने जल्द ही जनता का दिल जीत लिया और उन्हें जनता की स्वीकृति भी मिली जिसकीऔपनिवेशिक शासक भी अनदेखी नहीं कर सके और उन्होंने उनकी गतिविधियों की सख्ती से निगरानी शुरू कर दी.

 

असहयोग आंदोलन के चरम पर होने के दौरान, साबित्री देवी ने वर्ष 1921 में कलकत्ता के प्रसिद्ध मोहम्मद अली पार्क में झरिया कोयला क्षेत्र के हजारों मजदूरों की एक विशाल रैली का नेतृत्व किया, जिसमें महात्मा गांधी, चितरंजन दास, मौलाना अबुल कलाम आजाद और कई अन्य अनेक प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी उपस्थित हुए. इसने उन्हें न केवल एक जन नेता के रूप में स्थापित किया, बल्कि वे स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं के करीब भी आईं और उन्हें और भी जिम्मेदारियां सौंपी गईं.

 

भले ही सावित्री देवी को अपनी मां के बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण बीच में ही घर वापस लौटना पड़ा, लेकिन वह महात्मा गांधी के आह्वान के तहत स्वतंत्रता आंदोलन और विदेशी वस्तुओं के प्रति बढ़ते विरोध से खुद को दूर नहीं कर सकीं. जल्द ही, उन्होंने बंगाल के सिलीगुड़ी के आसपास के क्षेत्रों में कुछ गोरखा स्वयंसेवकों की मदद से विदेशी सामानों के विरुद्ध घर-घर अभियान शुरू किया. विदेशी सामानों को एकत्र किया गया और सार्वजनिक स्थानों पर विशाल अलाव जलाए गए, जिससे ब्रिटिश प्रशासन का क्रोध भड़क गया.

 

साबित्री देवी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ भी जुड़ी हुई थीं. वर्ष 1939-40 में कुर्सिओंग के पास गिद्दी पहाड़ में साबित्री देवी की नजरबंदी के दौरान, उनके पति ईशान अहमद की बेकरी से ब्रेड में छुपाए गए गुप्त संदेशों के माध्यम से, नेताजी के यूरोप भागने की योजना तैयार की गई थी. उन्होंने व्यक्तिगत रूप से नेताजी को दाढ़ी और मूंछों के साथ पठान के रूप में छिपाने के लिए पर्यवेक्षण किया था और उनके भागने को संभव बनाया था.

 

स्वतंत्रता आंदोलन में उनके समर्पण और अपार योगदान की सराहना करते हुए, भारत सरकार ने वर्ष 1972 में उन्हें एक प्रशस्ति पत्र, ''ताम्र पत्रÓÓ से सम्मानित किया. स्वतंत्रता आंदोलन के कई गुमनाम नायकों में, साबित्री देवी का योगदान भारत के लोकतांत्रिक गणराज्य की स्वतंत्रता के लिए युग संघर्ष में हमेशा श्रद्धेय और सुरक्षित रहेगा. सावित्री देवी महात्मा गांधी के आदर्शों का पालन करते हुए अपने पूरे जीवन में अपने दृढ़ विश्वास के प्रति अटल रहीं. 18 अगस्त 1980 को उनका स्वर्गवास हो गया.

 

(लेखक सिक्किम के वरिष्ठ पत्रकार हैं. -मेल: khagenm@gmail.com )