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विशेष लेख


Issue no 22, 28 August - 3 September 2021

रंगोजी बापू

अट्ठारह सौ सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद

 

महाराष्ट्र के एक ऐतिहासिक शहर सतारा के रहने वाले रंगोजी बापू 1857 के विद्रोह के पर्याय बन गए हैं और वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. सतारा के खंडहरों के नीचे इतिहास का एक स्वर्णिम युग छुपा था. लॉर्ड डलहौजी वर्ष 1848 में भारत आए थे, जिन्हें अंग्रेजी इतिहासकारों ने 'एम्पायर बिल्डर की उपाधि से सम्मानित किया था. उनके रक्त, में साम्राज्यवाद और मन में उपनिवेशवाद कूट-कूटकर भरा था. जैसे ही वह भारत के तट पर उतरा, उसने घोषणा की कि 'मैं भारत की भूमि को मजबूत करूंगा. वह भूमि और ब्रिटिश साम्राज्य के सिंहासन को मजबूत करने के लिए भारत आया था. केवल पंजाब और बर्मा को ब्रिटिश गुलामी की जंजीरों में बांधने से वह संतुष्ट नहीं था, क्योंकि अभी तक प्राचीन राज्यों के खंडहर बचे हुए थे. उसे आशंका थी कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति इन खंडहरों से उठ सकता है, कब्रें अंग्रेजों के अन्याय का बदला लेने के लिए खड़ी हो सकती हैं. सतारा के खंडहर उनमें से एक थे.

सतारा के पूर्व शासक, अप्पा साहेब ने छत्रपति प्रताप सिंह को अपने उत्तराधिकारी के रूप में गोद लिया था, लेकिन अंग्रेज इससे सहमत नहीं थे, उन्होंने दावा  किया कि वह अप्पा साहब के भाई थे, न कि उनके बेटे. इस प्रकार, उन्होंने सतारा को इस दलील पर अधिगृहीत कर लिया कि उसका कोई कानूनी उत्तराधिकारी नहीं है. इस कृत्य से जिस व्यक्ति को सबसे अधिक निराशा हुई वह रंगोजी बापू गुप्ते थे.

सतारा के पूर्व शासकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के उच्च अधिकारियों को सतारा की दयनीय स्थिति से अवगत कराने के लिए इस वफादार को लंदन भेजने का फैसला किया. अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ होकर रंगोजी बापू इस विचार के साथ लंदन के लिए रवाना हो गए कि चाहे वे सफल हों या नहीं, कम से कम अपनी पूरी कोशिश तो करेंगे. उन्होंने 12 सितंबर, 1839 को बॉम्बे से अपनी यात्रा शुरू की और वे दिसंबर के अंत में लंदन पहुंचे.

रंगोजी बापू लीड्स हॉल स्ट्रीट में अपनी समस्या का हल ढूंढ़ने के प्रयास करते रहे. ब्रिटिश बैरिस्टरों की फीस के रूप में उन्हें मजबूरन अपनी पाई-पाई खर्च करनी पड़ी. वे दर-दर भटकते रहे, लेकिन अधिकारियों से उन्हें सिर्फ यही जवाब मिला कि 'चले जाओ, हम सतारा को वापस नहीं देंगे.

लंदन में रंगोजी को असाधारण प्रतिभा के धनी अजीमुल्लाह खान से मिलने का अवसर मिला, जो पेंशन के दावे में नाना ढुंदू राव की मदद के लिये लंदन में थे. दोनों को अस्वीकृति का सामना करना पड़ा था. उनके धर्म अलग अलग थे, जाति अलग-अलग थी लेकिन लक्ष्य एक था. अंग्रेजों के अन्याय के शिकार दोनों ने विचार किया और विरोध करने का संकल्प लिया.

'1857 का विद्रोह के लेखक वीर विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है 'यदि रंगोजी बापू यहां सतारा के सिंहासन के भूत को जीवित करने आये थे तो अजीमुल्लाह खान पेशवा की गद्दी के प्रेत को खत्म करने के लिये यहां थे. वे देश को बर्बाद करने वाले अंग्रेजों के बारे में, यहां रहकर और जानकारी जुटाना चाहते थे.

अन्याय के विरोध में प्रतिशोध की जो आग लंदन आने से पहले उनके हृदय में लगी थी, वह यहां आकर हर रोज की निराशा झेलते हुए और धधक उठी. यह इतिहास के पन्नों में अंकित नहीं होगा कि ब्रिटिश साम्राज्य को धराशायी करने के लिये उन्होंने क्या संकल्प लिया या किन योजनाओं के साथ वे वापस स्वदेश लौटे. लेकिन, यह एक वास्तविकता और इतिहास का अविभाज्य प्रमाण है कि 1857 में आजादी की पहली लड़ाई हुई. इसी प्रकार यह भी अकाट्य तथ्य है कि क्रांतिकारी बलिदान की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने की योजना रंगोजी बापू गुप्ते और अजीमुल्लाह खान ने लंदन में तय की थी.

रंगोजी लंदन से सीधे सतारा पंहुचे और ब्रह्मवर्त में निर्मित किये जाने वाले भव्य भवन के पुनर्निर्माण कार्य में स्वयं को समर्पित कर दिया जबकि अजीमुल्लाह खान बाहर यात्रा पर निकल गये, यह जानने के लिये कि विदेश में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में क्या राय है.

लंदन में रहने के दौरान रंगोजी बापू गुप्त़े ने अंग्रेजी सीखने पर पूरा ध्यान दिया था. वे प्रवाह से अंग्रेजी बोलने में भले ही सफल नहीं हो सके थे लेकिन वे बिल्कुल सही अंग्रेजी लिख लेते थे. उन्होंने अंग्रेजी में ईस्ट इंडिया कंपनी को दो पत्र लिखे, 26 मई 1847 और 11 नवंबर 1847 को, ताकि उन्हें वास्तविक स्थिति से अवगत कराया जा सके. इसी दौरान उन्हें छत्रपति प्रताप सिंह के निधन का समाचार मिला, वे दुख में डूब गये लेकिन अपने कर्तव्य से डिगे नहीं. दत्तक पुत्र शाहू प्रताप सिंह के नाम से उन्होंने मुकदमा जारी रखा. इस दौरान जहां वे काम में अपनी पूरी ताकत झोंकते रहे, वहीं खुद अपनी स्थिति इतनी दयनीय कर ली कि यदि वे भीख मांगते तो कोई भी आसानी से उन्हें भीख दे देता. उनके भाई रावजी बापू ने वापसी के लिये धन एकत्र करने की कोशिश की लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. रंगोजी के छह वर्ष के लंदन प्रवास के कारण उनके भाई पर ऋण का भारी बोझ पड़ गया था. वे 1854 में वापस लौटे. 1857 का वर्ष भारत के लिये जागरण का वर्ष था. जून में सतारा के निकट का एक स्थान पारली आजादी की चेतना से प्रज्ज्वलित हो उठा. यह वही स्थान था जहां 1674 में गंगा भट्ट ने शिवाजी का राज्याभिषेक किया था. सांताजी, धन्नाजी, निकाजी और बाजी ने उस राज गद्दी को नमन किया जिसकी समृद्धि के लिये बाजीराव प्रथम ने अपना शौर्य समर्पित किया था. डलहौजी ने इसे नष्ट कर दिया होता लेकिन इसकी रक्षा के लिये स्वतंत्रता की उत्कट कामना और निष्ठापूर्ण संघर्ष से इसे प्राप्त कर लेने की इच्छा तत्पर थी. लंदन से लौटने के बाद रंगोजी बापू गुप्ते ने आजादी की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने में स्वयं को समर्पित कर दिया. ब्रिटिश अधिकारियों का मानना था कि पारली के किले में रंगोजी बापू द्वारा प्रज्ज्वलित चिंगारी ही बदलाव का कारण बनी.

अंग्रेजों का यह भी मानना था कि रंगोजी बापू के मार्गदर्शन और सतारा के लोगों के प्रभाव में ही यवतेश्वर, महाबलेश्वर ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया था.

लंदन में रहते हुए रंगोजी ने अजीमुल्लाह खान के साथ स्वतंत्रता की देवी की आराधना का संकल्प लिया था. वापस लौटने पर उन्होंने यह संकल्प याद रखा. वे कानपुर के नाना साहेब के लगातार संपर्क में थे. एक निश्चित योजना के तहत आजादी की सेना के सिपाही जिसमें ब्राह्मण, मौलवी और उत्तर भारत के क्रांतिकारियों की सेना थी, ने पुणे, सतारा, बेलगांव, धारवाड़, मुंबई और हैदराबाद इत्यादि में ब्रिटिश सेना में घुसपैठ करके आजादी की ज्वाला जगायी  थी. रंगोजी राव निश्चित रूप से इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे.

रंगोजी बापू जैसे योद्धा ही थे जिनके प्रयासों का परिणाम सामने आ रहा था कि मैसूर से विंध्य मेखला तक यह संकल्प लिया गया था कि, 'जब उत्तर  बढ़ेगा, तो दक्षिण भी पीछे नहीं रहेगा. भारत के माथे से नियति की रेखाओं को मिटाना इतना आसान नहीं था और आखिरकार इस काम में 90 साल और लग गए.

उनके बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार रंगोजी बापू निष्पक्ष और मेधावी व्यक्ति थे. स्वतंत्रता के लिए उनके प्रयासों ने उन्हें एक और बड़ी उपलब्धि प्रदान की कि उनका नाम अमर हो गया.

(बनारसी सिंह की पुस्तक 'सन् सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद भाग-३ से)