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विशेष लेख


Issue no 19, 07-13 August 2021

#माई हैंडलूम माई प्राइड

राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्वदेशी आंदोलन को,  एक अभियान के रूप में 7 अगस्त, 1905 को  शुरू किया गया था. स्वदेशी आंदोलन ने ब्रिटिश शासन का विरोध करने और स्वयं सहायता, स्वदेशी उद्यम, राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय भाषाओं के उपयोग को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया. स्वराज की  लड़ाई के लिए कट्टरपंथियों ने बड़े पैमाने पर लामबंदी की और ब्रिटिश संस्थानों तथा सामान के बहिष्कार की हिमायत की. इसे ब्रिटिश शासन को अंतत: और प्रभावी रूप से चुनौती देने की एक आवश्यक पूर्व शर्त के रूप में देखा गया था. स्वदेशी कार्यक्रम दो उद्देश्यों के साथ विकसित हुआ - ब्रिटिश सामान से प्रतिस्पर्धा से बुरी तरह प्रभावित हुए पारंपरिक शिल्प को पुनर्जीवित करना और आधुनिक पश्चिमी तर्ज पर स्वदेशी उद्यमों को स्थापित करना. आयातित वस्त्रों का बहिष्कार, भारतीय शिल्प को पुनर्जीवित करना और स्वदेशी आंदोलन द्वारा निर्मित मांग में वृद्धि ने हथकरघा-बुनाई को महत्वपूर्ण प्रोत्साहन प्रदान किया.

देश में हथकरघा बुनकरों को सम्मानित करने और भारत के हथकरघा उद्योग को उजागर करने के लिए प्रतिवर्ष 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है. प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने आकाशवाणी पर  मन की बात कार्यक्रम के 79वें संस्करण में वोकल फॉर लोकल बनकर राष्ट्र निर्माण की बात की. उन्होंने कहा, स्थानीय उद्यमियों, कलाकारों, शिल्पकारों, बुनकरों को स्वाभाविक रूप से समर्थन दिया जाना चाहिए. 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस एक ऐसा अवसर है जब हम यह प्रयास कर सकते हैं. उन्होंने नागरिकों को ग्रामीण क्षेत्रों में बने हथकरघा उत्पादों को खरीदने और #MyHandloomMyPride के साथ साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया.

राष्ट्रीय हथकरघा दिवस क्या है?

राष्ट्रीय हथकरघा दिवस पहली बार 2015 में मनाया गया था जब माननीय प्रधानमंत्री ने उच्च गुणवत्ता वाले विशिष्ट हथकरघा उत्पादों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए शून्य दोष और पर्यावरण पर शून्य प्रभाव वाले प्रामाणिक पारंपरिक डिज़ाइन और उच्च गुणवत्ता वाले हथकरघा उत्पादों की ब्रांडिंग के लिए इंडिया हैंडलूम ब्रांड का शुभारंभ  किया था. इसके बाद से, 184 उत्पाद श्रेणियों (31 मार्च, 2021 तक) के तहत 1590 पंजीकरण जारी किए गए हैं. इंडिया हैंडलूम ब्रांड ने अपने स्टोर से विशेष इंडिया हैंडलूम ब्रांड वस्तुओं को प्रदर्शित करने और बेचने के लिए 103 खुदरा स्टोर के साथ भागीदारी की है.

राष्ट्रीय हथकरघा दिवस देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में हथकरघा के योगदान और बुनकरों की आय में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास है. मुख्य उद्देश्य हथकरघा उद्योग के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करना और उच्च गुणवत्ता वाले हथकरघा उत्पादों के लिए एक विशिष्ट बाजार स्थल बनाना है जो विशेष रूप से युवा पीढ़ी और उच्च विकास क्षमता वाले निर्यात बाजारों की विविध उत्पादों की मांग को पूरा कर सके. इस दिवस का उद्देश्य हथकरघा के लाभ तथा बुनकरों की भूमिका के बारे में जागरूकता बढ़ाना और हथकरघा उत्पादों को खरीदने के लिए सभी को प्रोत्साहित करके बुनकरों की सहायता करना है.

हथकरघा का प्रचार क्यों करें?

हथकरघा पर्यावरण के अनुकूल हैं, और जीवनयापन करने का एक व्यवहारिक तरीका है. हथकरघा क्षेत्र 4.33 मिलियन लोगों को रोज़गार प्रदान करता है और ग्रामीण भारत में रोज़गार का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है. दुनिया में हथकरघे से बुने कपडां का लगभग 95 प्रतिशत भारत से जाता है. हथकरघा उत्पादन में मुख्य रूप से कपास, रेशम, ऊन, जूट आदि  प्राकृतिक रेशे का उपयोग होता है, इसलिए यह पर्यावरण के अनुकूल है. वनस्पति रंगों और अन्य जैविक उत्पादों का उपयोग करके इसे पर्यावरण के और भी अधिक अनुकूल बनाया जा सकता है.

हथकरघा न केवल सौंदर्य और सांस्कृतिक कारणों से महत्वपूर्ण हैं, वे राजनीतिक और राजनयिक संबंधों के लिए भी आवश्यक हैं, क्योंकि वे किसी देश की पहचान, संस्कृति और समावेशी विकास के प्रतीक हैं. भारत की कुल बुनकर आबादी का 50 प्रतिशत से अधिक देश के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बसती है. इस क्षेत्र को कम पूंजी अवधारक, बिजली का न्यूनतम उपयोग, पर्यावरण के अनुकूल  और नवाचारों के लिए खुलापन तथा बाजार की आवश्यकताओं के अनुकूल होने का फायदा  मिलता है. यह एक प्राकृतिक उत्पादक संपत्ति और कुटीर स्तर पर एक परंपरा है, जो कौशल के एक से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरण से कायम और विकसित हुई है.

हथकरघा स्थानीय कारीगरों की कैसे मदद करता है?

हथकरघा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, गुजरात और उत्तर पूर्वी क्षेत्र के औद्योगिक रूप से पिछड़े राज्यों में जनजातीय समुदायों के लिए आजीविका का एक प्रमुख स्रोत है. सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने हथकरघा को बढ़ावा देने और व्यावसायिक उद्यम बनाने में मदद करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने में गहरी दिलचस्पी दिखाई है. इसने आदिवासी समुदायों को स्वयं सहायता समूह और सहकारी समिति बनाने के लिए प्रोत्साहित किया है, इस प्रकार आय सृजन और उद्यमशीलता कौशल विकसित के लिए एक मंच का निर्माण किया है.

सरकार ने हथकरघा क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय किए हैं. भारत में हथकरघा क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए हथकरघा (उत्पादन वस्तुओं का आरक्षण) अधिनियम, 1985, हथकरघा जनगणना, भौगोलिक संकेत, ई-कॉमर्स पहल जैसे ई-धागा, क्षमता निर्माण कार्यक्रम और हथकरघा तथा खादी ग्रामोद्योगों का

समग्र पुनरुद्धार भारत सरकार द्वारा शुरू की गईं महत्वपूर्ण पहल हैं.

खादी का उल्लेख माननीय प्रधानमंत्री ने अपने हाल के  मन की बात कार्यक्रम में भी किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि खादी खरीदना लोगों की सेवा और देश की सेवा है. खादी, ऐसा कपड़ा है जो सर्दियों में गर्म, गर्मियों में ठंडा होता है. ये हाथ से बुना कपड़ा है जिसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशभक्ति का दर्जा मिला और इसने स्वदेशी की भावना दी. खद्दर से प्राप्त खादी, सूती, रेशमी या ऊनी हो सकती है. खादी और अन्य हथकरघा कपड़ों के बीच का अंतर बनावट से स्पष्ट होता है. बुनाई के छोटे-छोटे विकल्प या असमता खादी को उसका अनूठा आकर्षण देते हैं.

खादी के अलावा, भारत कई विश्व प्रसिद्ध हथकरघा उत्पादों का गढ़ है. आइए जानते हैं उनमें से कुछ के बारे में:

1.       बलूचरी (पश्चिम बंगाल)

इस कपड़े का नाम पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में भागीरथी नदी के तट पर स्थित गांव बलूचर के नाम पर रखा गया है. बलूचरी बुनाई बंगाल के दीवान मुसीदकुली खान के काल में फली-फूली, जो एक पूर्व हिंदू ब्राह्मण थे जिन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया था. यह वस्त्र अपने विस्तृत आंचल (पल्लू) के लिए प्रसिद्ध हैं. यह एक अत्यधिक सजावटी रेशमी कपड़ा है जिसमें पल्लू, बार्डर और बाकी हिस्से पर अतिरिक्त सजावट होती है. रेशम के धागे का उपयोग करके अतिरिक्त बाने के साथ डिज़ाइन बनाए जाते हैं. बनारसी या अन्य रेशम की साड़ी की तरह इसमें जरी का उपयोग नहीं किया जाता. मोटिफ को मुख्य रूप से तत्कालीन सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाजों, जानवरों, लोगों की जीवन शैली आदि से लिया जाता है और पल्लू भाग में नरेटिव शैली में व्यवस्थित किया गया है. कम मुड़े हुए शहतूत रेशम के धागे की मुर्शिदाबाद किस्म मूल रूप से बलूचरी साड़ियों में इस्तेमाल की जाती थी. बलूचरी साड़ी की मुख्य विशेषता खानों में कोने और क्रॉस बॉर्डर को पूरी तरह से बनाए रखते हुए पल्लू में डिज़ाइन बनाया जाता है. जाला तकनीक मूल रूप से बलूचरी बुनकरों द्वारा अपनाई जाती थी. इन साड़ियों की चित्रात्मकता सरल और ऐहिक कला के विशिष्ट प्रकार को बढ़ाने के लिए  विविध संस्कृतियों  के अनुकूलन की निरंतरता और प्रमाणिकता को बनाए रखती है.

2.       कांचीपुरम/कांजीवरम (तमिलनाडु)

तमिलनाडु का रेशम शहर कांचीपुरम मंदिरों का  शहर भी है. पारंपरिक कांचीपुरम साड़ी को अडई तकनीक का उपयोग करके शटल पिट करघे से बुना जाता है. इसका ठोस बॉर्डर (कोरवई) और पेटनी तकनीक से कंट्रास्ट पल्लू बनाने के लिए इसे दो बुनकरों की मदद से तैयार किया  जाता है. साड़ियों को शहर के मंदिरों की मूर्तियों से प्रेरित पारंपरिक डिज़ाइनों से बुना जाता है. कांचीपुरम रेशम की साड़ियां बनाने के लिए शहतूत रेशम के धागे और सोने की जरी का उपयोग किया जाता है. असली सोने की जरी में 40 प्रतिशत चांदी, 35.5 प्रतिशत तांबा, 24 प्रतिशत रेशम और 0.5 प्रतिशत सोने का अनुपात होता था. रेशमी धागे को चपटे चांदी के तार से छिपा दिया जाता है. इस चांदी के धागे को रेशम की साड़ियों के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली जरी का रूप देने के लिए सोने से लेपित किया जाता है. कांचीपुरम सिल्क साड़ी की खासियत कोरवई तकनीक के साथ कंट्रास्ट बॉर्डर और पेटनी तकनीक के साथ कंट्रास्ट पल्लू है.

3.       टस्सर (बिहार, छत्तीसगढ़)

टस्सर जंगली रेशम की एक किस्म है, जिसे वन्य सिल्क के नाम से जाना जाता है. टस्सर सिल्क उत्पाद की अनूठी विशेषता इसकी अनोखी बनावट और असमानता में निहित है. सूत की असमानता के कारण खुरदरी, मोटी बनावट और बाने की छड़ें दिखाई देती हैं. रंग प्राकृतिक अवस्था में पीलेपन से भूरे रंग में भिन्न-भिन्न होते हैं. टस्सर रेशम, जिसे वैकल्पिक रूप से कोसा रेशम के रूप में जाना जाता है, रेशमकीट एंथेरिया मायलिट्टा द्वारा उत्पन्न होता है जो मुख्य रूप से अर्जुन और आसन खाद्य पौधों पर पनपता है. परंपरागत रूप से, टस्सर रेशम के कपड़े ताना-बाना दोनों में घरेलू रील्ड टस्सर रेशम यार्न (कोसा) का उपयोग करके बुने जाते हैं. कभी-कभी, अलंकरण और अतिरिक्त बुने हुए डिज़ाइन के लिए सूती और काते हुए रेशमी धागों का भी उपयोग किया जाता है. आमतौर पर जाला और पाटिया तकनीक से छोटी बूटी के डिज़ाइन बनाने के लिए पिट लूम का उपयोग किया जाता है.

4.       पोचमपल्ली इकत (तेलंगाना)

पोचमपल्ली, तेलंगाना के यादाद्री भुवनगिरी जिले में एक प्रसिद्ध सूती और रेशम इकत बुनाई केंद्र है. यहां फूलों, पक्षियों और जानवरों के पैटर्न के बड़े ज्यामितीय डिज़ाइन तैयार करने के लिए सरल तरीका अपनाया जाता है. पोचमपल्ली के दोनों तरफ एक समान डिज़ाइन होने के कारण इसे दोनों ओर से इस्तेमाल किया जा सकता है. डिज़ाइन में रंगों की चटकता भी कपड़े के दोनों ओर एकसमान दिखाई देती है, लेकिन अगर कपड़े को प्रिंट किया जाता है, तो उसके पिछले हिस्से में रंग हल्का होगा. माना जाता है कि इकत बुनाई की तकनीक आंध्र प्रदेश के चिराला से पोचमपल्ली शहर में लाई गई थी. बुनाई के लिए उपयोग की जाने वाली सामग्री- मुड़े हुए सूती धागे, रेशम के धागे और जरी कपड़े की गुणवत्ता के आधार पर अलग-अलग होती है. इकत एक बुनाई शैली है जिसमें धागों को अंत:स्थापित करने से पहले रंग प्रदान करने के लिए रुकाव रंगाई तकनीक का उपयोग किया जाता है. इस तकनीक में बुने गए कपड़े पर पंख वाले और धुंधले पैटर्न होते हैं.

5.       कोटा डोरिया (राजस्थान)

पगड़ी के लिए संकरी चौड़ाई में डोरिया (धारीदार) कपड़े अतीत में कोटा में बुने जाते थे. जब शिल्प के एक महान संरक्षक, महाराज किशोर सिंह, मैसूर से बुनकरों को कोटा लाए, तो इन बुनकरों ने रेशम के धागे से डोरिया बुनाई शुरू की, जिसे अब कोटा डोरिया के नाम से जाना जाता है. इसमें बेस फैब्रिक में सूती और शहतूत रेशम यार्न के संयोजन में बेसिक टेक्सचर होता है जबकि गोल्ड और सिल्वर जरी यार्न (बढिया धातु के धागे) में डिज़ाइनिंग के लिए अतिरिक्त ताना- बाना होता है. सूती धागा मजबूती और लोच प्रदान करता है जबकि महीन कच्चा रेशम कपड़े को पारदर्शी और नाजुक बनाता है. कोटा डोरिया कपड़े को पारंपरिक थ्रो शटल पिट लूम पर इस तरह से बुना जाता है कि यह कपड़े में एक छोटा चौकोर चेक पैटर्न बनाता है, जिसे स्थानीय रूप से खाट कहा जाता है. यह हल्के वजन का खुली बुनावट वाला कपड़ा है और स्पर्श करने पर नरम लगता है.

6.       पैठानी (महाराष्ट्र)

हाथ से बुने जाने वाले इस कपड़े को पैठणी नाम, महाराष्ट्र के पैठण क्षेत्र के नाम पर, दिया गया है. यह बहुत महीन शहतूत रेशम से बनाया जाता है. 2,000 साल से भी अधिक पुरानी इस कला का विकास उस समय के शानदार शहर प्रतिष्ठान में हुआ था, जिस पर सातवाहन शासक शालिवाहन का शासन था, जो अब मराठवाड़ा में पैठन है. पैठानी साड़ी की बुनाई के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला मुख्य कच्चा माल शहतूत रेशमी धागा और जरी है. इसमें अधिमानत: ताने के रूप में रेशम के रेशे का उपयोग किया जाता है और बाने के रूप में चरखा रेशम का उपयोग किया जाता है. पहले रेशम का उपयोग बाने के डिजाइनों में और बार्डर में किया जाता था, जबकि कपड़े के बाकी भाग में कपास का उपयोग किया जाता था. वर्तमान में पैठानी में कपास का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं होता. पैठानी को एक साधारण पिट या थ्रो शटल फ्रेम लूम में बिना किसी डिज़ाइनिंग उपकरण के बुना जाता है. इसकी बुनाई में, पिक सीधे साड़ी की चौड़ाई में एक छोर से दूसरे छोर तक नहीं जाती, लेकिन छोटी लंबाई के बाने के धागे को डिज़ाइन के अनुसार अलग-अलग रंग के धागों के साथ इंटरलेस या इंटरलॉक कर वापस किया जाता है. धागों को वापस करने की इस प्रक्रिया को  टेपेस्ट्री बुनाई कहा जाता है जिसमें सबसे अधिक मेहनत और समय लगता है.

7.       लेप्चा (सिक्किम)

प्राचीन समय में, सिक्किम के लेप्चा के बारे में कहा जाता था कि वे कपड़े बुनने के लिए चुभने वाले बिछुआ (सिसनू) के पौधों से सूत का उपयोग करते थे. आज, सूती और ऊनी धागे का उपयोग वनस्पति रंगों और कृत्रिम रंगों के साथ किया जाता है. लेप्चा बुनाई या थारा एक बैकस्ट्रैप लोईन करघे पर बुने जाते हैं और इस प्रकार बुने गए कपड़े की चौड़ाई कम होती है. आधार सामग्री के रूप में उपयोग किए जाने वाले सूत को ऊनी धागे में बुने हुए बहुरंगी रूपांकनों के साथ जोड़ा जाता है. बुनाई का फ्रेम बांस या विभिन्न प्रकार की लकड़ी से बनाया जाता है, जो आसानी से उपलब्ध होती हैं. थार बनाने के लिए विभिन्न रंगों के पारंपरिक डिज़ाइनों का उपयोग किया जाता है. थार का इस्तेमाल पारंपरिक पोशाक के अलावा चादर, थैलों, बेल्ट, पर्दो, कुशन कवर, टेबल मैट, ट्रे कवर आदि बनाने के लिए किया जाता है.

8.       मुगा (असम)

मुगा संस्कृति अहोम वंश के संरक्षण में फली-फूली और असमिया लोगों के सामाजिक - आर्थिक जीवन का हिस्सा बन गई. मुगा रेशम को 2007 में भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग दिया गया था. असम के कामरूप जिले के सुआलकुची में बुने गए इस विरासत उत्पाद का रंग प्राकृतिक सुनहरा होता है. मुगा रेशम में कम सरंध्रता के कारण इसे ब्लीच करना या रंगना मुश्किल होता है और इसलिए इसकी प्राकृतिक सुंदर सुनहरी रंगत बरकरार रहती है. जैसे-जैसे कपड़ा पुराना होता जाता है, इसकी सुनहरी चमक बढ़ती जाती है. वास्तव में हर बार धोने के साथ मुगा की गुणवत्ता बेहतर होती जाती है और यह नरम होता जाता है. इसे बुनने के लिए बुनकर, दो हेड शाफ्ट के साथ एक फ्लाई शटल फे्रम लूम का उपयोग करता है.

9.       कनी पश्मीना (जम्मू-कश्मीर)

पश्मीना की बुनाई कनी और जामावार शॉल बनाने की सदियों पुरानी परंपरा है. मुगल काल से, पश्मीना कनी शॉल और स्टोल नाजुक, जटिल और पारंपरिक पैटर्न के लिए प्रसिद्ध हैं. ये पश्मीना ऊन के धागों से बने होते हैं जो जंगली तिब्बती और लद्दाख पर्वतीय बकरियों (कैप्रा हिराकस) सेे प्राप्त होते हैं. इनके लंबे, महीन रेशों के कारण इनमें विशेष चमक होती है. ये रेशे 12 माइक्रोन जितने पतले होते हैं. कनी बुनाई में डिज़ाइन तोजिस नामक लकड़ी की छोटी छड़ियों के दक्षप्रयोग से बनता है जो शॉल के प्रत्येक बाने को पूरा करने के साथ-साथ उनके संबंधित रंगीन धागों को आपस में जोड़ते हैं.

10.   चंदेरी (मध्य प्रदेश)

मध्य प्रदेश के दो  सांस्कृतिक क्षेत्रों - मालवा और बुंदेलखंड की सीमा पर विंध्याचल पर्वतमाला में स्थित चंदेरी, परंपराओं की एक विस्तृत शृंखला का घर है. रेशम और कपास की महीन बनावट वाली जरी के काम से अलंकृत, हाथ से बुने गए अतिरिक्त बाने के रूपांकनों की नाजुकता के साथ उत्पादन में विशेषज्ञता वाली चंदेरी साड़ियां अति प्राचीन काल से राजसी पसंद के अनुरूप रही हैं. चंदेरी सूती सिल्क साड़ियों में दांडीदार, चटाई, जंगला जैसे सुंदर और आकर्षक रूपांकन होते हैं. इसमें जाला डिज़ाइनिंग तकनीक से लगाए गए फ्रेम करघे और पिट से बुनाई की जाती है. साड़ी के पल्लू और उसके बाकि हिस्से में अतिरिक्त बाने के डिज़ाइन को बुनने के लिए जाला को सहायक या बुनकर द्वारा मैन्युअल रूप से उठाया जाता है. कच्चे रेशम के ताने के कारण, कपड़े की बनावट बहुत नरम नहीं होती है. कपड़ा सघन रूप से नहीं बुना जाता . यह पारदर्शी और हल्के वजन का होता है जो गर्मियों में पहनने के लिए बहुत उपयुक्त है.

 (संकलन: अनीषा बनर्जी और अनुजा भारद्वाजन)

स्रोत:एनएचडीसी/इंडिया हैंडलूम ब्रांड/एनसीई-आरटी/पीआईबी)