रोज़गार समाचार
सदस्य बनें @ 530 रु में और प्रिंट संस्करण के साथ पाएं ई- संस्करण बिल्कुल मुफ्त ।। केवल ई- संस्करण @ 400 रु || विज्ञापनदाता ध्यान दें !! विज्ञापनदाताओं से अनुरोध है कि रिक्तियों का पूर्ण विवरण दें। छोटे विज्ञापनों का न्यूनतम आकार अब 200 वर्ग सेमी होगा || || नई विज्ञापन नीति ||

विशेष लेख


अंक संख्या 44 , 29 जनवरी 04 फरवरी,2022

हस्तनिर्मित गाथाएं : भारतीय शिल्प का उत्सव

हाथों की कारीगरी से किसी सामग्री को नया और सुंदर स्वरूप देना ही हस्तशिल्प है. इससे हमारे कामों में मददगार या सजावटी सामान तैयार किये जाते हैं. इन उत्पादों को बनाने में इस्तेमाल सामग्री प्राकृतिक, औद्योगिक रूप से प्रसंस्कृत या पुन:चक्रित हो सकती है. उत्पादों के मॉडल प्राचीन, परिशोधित, पारंपरिक या नये फैशन के हो सकते हैं. शिल्पकार अपने उत्पादों में विचारों, आकृति, सामग्री और कार्यशैली की सांस्कृतिक विरासत को अपने मूल्यों, जीवन दर्शन, फैशन और छवि के रूप में हस्तांरित करता है. भारत में हस्तशिल्प की समृद्ध परंपरा रही है. ये देश की विविध संस्कृति, रीति-रिवाजों और क्षेत्रीय परंपराओं को उजागर करते हैं और लोगों को उस विविधता को समझने और सराहने का अवसर देते हैं, जिसका नाम भारत है. आइये कुछ भारतीय हस्तशिल्पों का जायजा लेते हैं और उनकी क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विशेषता को समझते हैं.

मृदा शिल्प

देश के हर कोने में उपलब्ध सर्वाधिक बुनियादी सामग्री होने के नाते मिट्टी/चिकनी मिट्टी का उपयोग बर्तन, मूर्तियां, ईंट, टाइल्स, मनका इत्यादि बनाने में होता रहा है. मिट्टी से बनी वस्तुएं ताम्रपाषाण काल से अब तक पुरातात्विक स्थलों की खुदाई में मिली प्राचीनतम कलाकृतियों में शामिल रही हैं।

टेराकोटा इस धरती पर मनुष्य द्वारा निर्मित प्राचीनतम शिल्पों में एक है. एक समय था जब इसे निर्धनों का शिल्प माना जाता था. लेकिन समय के साथ-साथ इसने अपने कलात्मक सौंदर्य के कारण सभी वर्ग के लोगों में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली. मृदा कला-शिल्प की यह शैली टेराकोटा आभूषण बनाने में इस्तेमाल होती है, जो भारत में टेराकोटा कला का महत्वपूर्ण अंग है. टेराकोटा आभूषणों की शैली, जैसे कर्णफूल, ब्रेसलेट और छल्ला इत्यादि की, पौराणिक गाथाओं, प्रकृति, प्राचीन नमूनों और ज्यामितीय आकारों से प्रभावित है. सुंदर टेराकोटा कलाकृतियां सजावट के लिये भी उपयोग में ली जाती हैं। देश भर में चिकनी मिट्टी का उपयोग विभिन्न त्योहारों और विधि-विधानों के लिये देवी- देवताओं की प्रतिमा बनाने में किया जाता है।

पंक और कांच का काम (लिप्पन काम के नाम से भी जाना जाता है) गुजरात के कछ की पारंपरिक भित्ति कला है. स्थानीय रूप से उपलब्ध चीजों जैसे मिट्टी और ऊंट के गोबर के मिश्रण से लिप्पन या पुताई से घर की जमीन और दीवारें ठंडी रखी जाती हैं. ये आकर्षक भित्ति चित्र कछ के लोगों के कठिन और शुष्क जीवन में उल्लास, सौंदर्य और जीवंतता लाते हैं. इसी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए कांच के टुकड़ों से सजावटी भित्ति चित्र भी बनाये जाते हैं.

मिट्टी के बर्तन

प्राचीन काल से ही मिट्टी के बर्तनों का उपयोग खाना बनाने तथा पानी और अन्य सामान रखने में किया जाता रहा है. मिट्टी के बर्तन विशेष प्रकार की मिट्टी/चिकनी मिट्टी से बनाये जाते हैं. मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सिंधु घाटी सभ्यता के साथ ही शुरू हुई थी. ये बर्तन बहुत ही उपयोगी होते हैं और सजावट में भी इनका इस्तेमाल होता है. पूरे भारत में हाथ से और चाक से मिट्टी के बर्तन बनाये जाने का प्रमाण मिलता है. हाथ से बने बर्तनों (कुम्हार के चाक के बिना तैयार) का एक अनूठा उदाहरण मणिपुर के तंगखुल जनजाति द्वारा निर्मित काली मिट्टी के बर्तन हैं जिन्हें लॉंगपी बर्तन कला के नाम से भी जाना जाता है. निजामाबादी काली मिट्टी के बर्तन (उत्तरप्रदेश), खावडा बर्तन (गुजरात), पेपरमैशे बर्तन (जम्मू और कश्मीर) देश में मशहूर मिट्टी के बर्तनों के कुछ अन्य उदाहरण हैं.

कशीदाकारी

कशीदाकारी या कढ़ाई एक अन्य प्राचीन भारतीय कला है जिसमें धागा, मोती, मनका, सलमा, सितारा जैसी चीजों से कपड़े को सजाया जाता है. कशीदाकारी एक व्यापक कला है जिसका उपयोग सजावटी सिलाई और वस्त्र कला हस्तशिल्प के लिये होता है. सूई के इस्तेमाल से हस्तशिल्प का कोई भी कार्य कशीदाकारी कहलाता है. पारंपरिक कशीदाकारी में क्षेत्र-क्षेत्र के आधार पर भिन्न-भिन्न कपड़ों और सजावटी सामानों का उपयोग होता है.

उदाहरण के लिये डंका कसीदाकारी राजस्थान की सदियों पुरानी धातु कढ़ाई कला है. डंका शब्द का प्रयोग धातु (मूल रूप से सोना या चांदी) के छोटे छोटे टुकड़ों के लिये होता है. कपड़े को लकड़ी के एक फ्रेम पर तान कर लगाया जाता है तथा उसपर सोने और चांदी के तारों से डंका के टुकड़े डिजायन के अनुसार लगाये जाते हैं. आरी कढ़ाई (जम्मू और कश्मीर) विशेष रूप से खिंचे गये कप़ड़े पर की जाती है. अंतिम छोर पर घुमावदार हिस्से वाली सूई को आरी कहा जाता है. सिलाई चांदी या सोने के तारों से की जाती है जिसे ज़री कहा जाता है तथा इसमें मोती और नगीने पिरोकर सजाया जाता है. ज़रदोजी (उत्तर प्रदेश) मखमल, साटिन या सिल्क के कपड़े पर धातु के तारों से भारी कढ़ाई की कला है. मोती, मनकों और नगीनों के साथ डिजायन बनाने के लिये सोने और चांदी के तारों का उपयोग किया जाता है. पहले खरे सोने और चांदी के तारों से कढ़ाई की जाती थी लेकिन अब सुनहरे तारों का इस्तेमाल किया जाता है.

कांथा (पश्चिम बंगाल) कढ़ाई पुराने कपड़ों के साथ मिलाकर सिले गये परतों पर की जाती है, विशेष रूप से पुरानी सफेद सूती साड़ियों पर. इस पर अलग अलग रंगों के धागों से सरल लहरदार या चेन स्टिच से कढ़ाई की जाती है. फूलों और पशु-पक्षियों के डिजायन बनाये जाते हैं.

एप्लिक शिल्प कला (ओडिशा) में कपड़ों के टुकड़े काटकर और छोटे आकार में मोड़कर डिजायन के रूप में उस कपड़े पर सिल दिये जाते हैं जिसपर एप्लिक किया जाना है. बाद में इसे कांच के टुकड़ों और धागे से और भी सजाया जाता है. डिज़ायन ज्यामितीय आकार के, अमूर्त और नये फैशन के हो सकते हैं.

चंबा रूमाल एक चित्र शिल्प कला है जिसे कपड़े के चौकोर टुकड़े या रूमाल पर बनाया जाता है. यह कला 17वीं-18वीं शताब्दी में हिमाचल प्रदेश के चंबा कस्बे में पनपी और फली-फूली. चंबा रूमाल में जिस 'दोरुखे टंका (दोहरे साटिन स्टिच) वह अनूठा है और भारतीय कशीदाकारी परंपरा में कहीं और देखने को नहीं मिलता. इसपर बनाये जाने वाले डिजायन हिमालय क्षेत्र की वनस्पति और जीवजंतुओं तथा भगवान कृष्ण की पहाड़ी पेंटिंग से प्रेरित हैं.

सूजनी (बिहार) धागों से की जाने वाली कढ़ाई है जो आमतौर पर पुरानी सफेद सूती साड़ियों पर की जाती है जिनकी कई परतों को साथ मिलाकर सफेद धागे से सिला गया होता है. इन पर की जाने वाली कढ़ाई के डिजायन दैनिक जीवन से प्रेरित होते हैं. कढ़ाई के डिजायन ऐसे होते हैं कि प्रत्येक सूजनी एक अलग कथा कहती प्रतीत होती है.

लम्बाडी (आंध्रप्रदेश) मूलरूप से धागों से की जाने वाली कढ़ाई है जो नीले या लाल रंग के कपड़े पर की जाती है. बाद में इसे कांच, कौड़ियों, रुपहले हल्के आभूषणों, मनकों और सिक्कों से सजाया जाता है.

सूफ कढ़ाई गुजरात के कछ क्षेत्र में की जाती है. कशीदेकारी की इस शैली में तिकोने डिजायनों का उपयोग किया जाता है. डिजायन कपड़े पर उकेरे नहीं जाते बल्कि शिल्पी द्वारा बड़ी सावधानी से कपड़े के धागों को गिनकर उल्टी तरफ से बनाये जाते हैं. कभी कभी डिज़ायन के साथ शीशे का भी काम किया जाता है और कपड़े को और भी आकर्षक बना दिया जाता है.

फुलकारी (पंजाब) धागों से की जाने वाली कढ़ाई है जिसमें तेज चमकीले रंग का इस्तेमाल होता है. फुल का अर्थ है फूल और कारी मतलब काम. हांलाकि फुलकारी का मतलब फूलों के काम से है लेकिन कढ़ाई में सिर्फ फूलों का नहीं बल्कि अन्य नमूनों और ज्यामितीय आकृतियों का भी उपयोग होता है. नमूने दैनिक उपयोग में आने वाली चीजों से प्रेरित होते हैं जैसे बेलन, फूल, सब्जियां, पशु-पक्षी इत्यादि. फुलकारी की मुख्य विशेषता मोटे सूती कपड़े पर उल्टी तरफ से रंगीन रेशमी धागों से डर्न स्टिच से डिज़ायन बनाना है. फुलकारी में एकल स्टिच के कुशलता से उपयोग से कपड़े पर सुंदर डिज़ायन उकेरे जाते हैं.

पारसी कढ़ाई (महाराष्ट्र), पारसी समुदाय द्वारा की जाने वाली इस कशीदाकारी में गहरे रंग के कपड़ों पर हल्के पेस्टल रंग के धागों से डिजायन बनाये जाते हैं. आमतौर पर लाल, बैंगनी, नीले, मैजेंटा और काले रंग के कपड़ों का इस्तेमाल होता है.

कवच शिल्प

समुद्री कवच घोंघे और सीप जैसे बहुत ही कोमल और मुलायम शरीर वाले समुद्री जीवों का बाहरी खोल है. जब इस खोल के अंदर रह रहे जीव सूख जाते हैं तो इनके कवच एकत्र कर रंग और आकृति के अनुसार छांट लिये जाते हैं और सजावटी सामानों में इनका उपयोग किया जाता है. अंडमान और निकोबार द्वीप की यह अनूठी कला उनके कवच शिल्प में देखी जा सकती है. खूबसूरत और रंगबिरंगे आभूषणों को बनाने में इन कवचों का उपयोग होता है. प्रकृति ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को विविध समुद्री जीवों का समृद्ध उपहार सौंपा है और उनके कवच से यहां बड़े पैमाने पर विविध सजावटी कवच बनाये जाते हैं. इन द्वीपों के तटों पर लगभग हर प्रकार के कवच पाये जाते हैं. अंडमान- निकोबार द्वीप के शंख और कछुए का कवच सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान कवच है.

कछ का समुद्री तट काफी विस्तृत है, इसलिये स्थानीय लोगों द्वारा बनाये जाने वाले लगभग सभी उत्पादों में समुद्री कवचों का उपयोग होता है. कपड़ों को भी वजनी और अनूठा बनाने के लिये सीप और शंखों का उपयोग किया जाता है. कुछ रंगीन कवचों का उपयोग खिलौनों में भी होता है और इनसे खिलौने अत्यंत आकर्षक बन जाते हैं. पशु-पक्षियों, पौधों, अगरबत्ती स्टैंड तथा देवी-देवताओं की आकृतियां भी समुचित रंगीन कवचों को गोंद से चिपकाकर तैयार की जाती हैं. बाद में इन पर आंखें, नाक, कान और कपड़े इत्यादि तैल रंगों से चित्रित कर दिये जाते हैं. देश के सभी तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्री कवचो के तैयार हस्तशिल्प उत्पाद मिलते हैं.

थियेटर शिल्प

थियेटर में प्रभावपूर्ण प्रदर्शन के लिये कई हस्त शिल्प उत्पादों का उपयोग होता है. चाहे यह मंचीय शिल्प हो जिसमें लकड़ी के सामान, नक्काशीदार चीजें, पेंटिंग इत्यादि की जरूरत पड़ती है य़ा फिर वस्त्र ड़िजायन और आभूषण, मुखौटे और परंपरा पर आधारित अन्य आवश्यक शिल्प उत्पाद. पारंपरिक संस्थाओं ने अनेक कला रूपों को अपने प्रचलन में अपनाया है. मंचीय कला प्रदर्शन में पारंपरिक रूप से शिल्प का उपयोग होता रहा है और विभिन्न शिल्प उत्पाद समकालीन थियेटर का हिस्सा बन गये हैं, जैसे मुखौटे, शिरो वस्त्र, हल्के आभूषण, दृश्यावलियां और मंच इत्यादि.

मुखौटे, वे जादुई शिल्प उत्पाद हैं जो हमारे असली चेहरे को ढककर हमें एक नयी पहचान देते हैं. हमारे देश में मुखौटों की एक समृद्ध और विविध परंपरा रही है. पेस्टल रंगों के हल्के मुखौटों से लेकर छाऊ नर्तकों द्वारा उनके विविध चरित्र और अभिव्यक्तियों के लिये लगाये जाने वाले चमकदार मुखौटों और शिरोवस्त्र तक, भड़कदार चमकीले रंगों के मुखौटों से लेकर लद्दाख के बौद्ध मठों के असुर नृत्य मुखौटों, और शहरों में उत्सवों और मेलों के दौरान लोकप्रिय पेपर मैशे के पशु मास्क तक भारत में पारंपरिक उत्सवों और थियेटरों के लिय़े मुखौटों की व्यापक और प्राचीन परंपरा रही है.

इनके अलावा कथकली नर्तकों द्वारा भव्य मुकुटों का इस्तेमाल किया जाता है. ये विशेष मुकुट नर्तकों की भूमिका के अनुरूप डिजायन किये जाते हैं.

कठपुतली लोक मनोरंजन का प्राचीन और लोकप्रिय रूप है. कठपुतलियां लकड़ी और धागों से बनी बड़े आकार की गुड्डे-गुड्डियां होती हैं जिन्हें पारंपरिक वस्त्रों में सजाया जाता है. लकड़ी से बनी कठपुतलियों के अलावा भारत में प्रतिच्छाया/चर्म कठपुतलियों की भी समृद्ध परंपरा रही है. चर्म कठपुतलियां बकरी, हिरण और भैंस के चमड़े से बनायी जाती हैं. इन्हें बनाने के लिये चमड़े को जड़ीबूटियों और तेल के साथ उपचारित किया जाता है और इसके बाद स्वच्छ और पारभासी होने तक पीटा जाता है. अब इससे कठपुतली के शरीर के विभिन्न हिस्से अलग-अलग काटे जाते हैं. अब चमड़े पर बारीक आकृतियां दबा कर स्पष्ट की जाती हैं और प्रत्येक आकृति पर भव्य परिधान और आभूषण उकेरे जाते हैं. अब इन्हें सुखाया जाता है और अंत में आंखें तराशी जाती हैं जिससे आकृतियां जीवंत हो उठती हैं. प्रतिच्छाया कठपुतलियां समतल आकृतियां होती हैं. इन्हें पीछे से तेज रोशनी डालकर पर्दे पर उभारा जाता है. छाया कठपुतलियों की यह परंपरा ओड़िसा, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित रही है और अभी भी है.

प्राकृतिक रेशों से बुनाई

ये रेशे बाल जैसे होते हैं जो विस्तृत लंबाई में होते हैं या धागे की तरह अलग- अलग लंबे टुकड़ों में बांट दिये गये होते हैं. इन्हें तंतु, धागों या रस्सियों के रूप में काता और बांटा जा सकता है. यह समग्र वस्तु के एक भाग के रूप उपयोग किये जा सकते हैं. इन्हें पार्सल पेपर या कंबल जैसे उत्पाद बनाने के लिये बड़े बड़े टुकड़ों में भी बुना जाता है. घास, बांस, केले, शोला पिथ, बेंत, जूट और पत्तियों जैसे प्राकृतिक रेशों से टोकरी, चटाई, झाडू़ और कपड़े जैसे विभिन्न उत्पाद बनाये जाते हैं. कुल मिलाकर प्राकृतिक रेशों से बुनाई प्रत्येक क्षेत्र/राज्य में प्रचलित है। ये प्लास्टिक का एक बेहतर विकल्प भी हैं.

शोला पिथ, इसे भारतीय कॉर्क भी कहा जाता है. यह दूध जैसी सुंदर स्पंजी लकड़ी होती है जिससे शिल्पकार विभिन्न कलाकृतियां बनाते हैं. पश्चिम बंगाल की पारंपरिक शिल्प कला शोला पिथ का उपयोग दूल्हा-दुल्हन की मौरी, जयमाला तथा देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनाने में किया जाता है, विशेष रूप से त्योहारों के दौरान.

बांस और बेंत, का उपयोग विभिन्न उत्पाद बनाने में किया जाता है, सजावटी उत्पाद भी और दैनिक जीवन में काम आने वाले उत्पाद भी. टोकरी, मग, चटाई, फूलदान, डिब्बे, बुनाई के सामान, संगीत वाद्य यंत्र तथा मूढ़े और कुर्सियों जैसे घरेलू फर्नीचर बनाने में भी बांस और बेंत का उपयोग किया जाता है. इनसे गुड़िया और खिलौने भी बनाये जाते हैं. सभी पूर्वोत्तर राज्यों में इन दो प्राकृतिक तंतुओं से हस्तशिल्प उत्पाद बनाने की समृद्ध परंपरा रही है.

केले का रेशा, एक प्राकृतिक रेशा है जिसका हस्तशिल्प उत्पादों के विकास में व्यापक उपयोग होता है. इससे बड़े पैमाने पर चटाई की रस्सियां बनायी जाती हैं. केले के तने से यह रेशा निकाला जाता है. कोस्टर, चटाई, थैले, कालीन और घरेलू साजो सामान जैसे विविध उत्पादों में केले के रेशे का उपयोग किया जा सकता है.

जूट, या सुनहले रेशे का उपयोग सजावटी तथा बैग, फाईल फोल्डर और वॉल हैंगिंग जैसे उपयोगी उत्पाद बनाने में किया जाता है. जूट की एक प्रमुख विशेषता स्वतंत्र रूप से या अन्य रेशों और सामग्री के साथ मिलाकर उपयोग हो सकने की इसकी क्षमता में है. जूट के रेशों से बुनाई पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित है.

संकलन: अनीशा बनर्जी और अनुजा भारद्वाजन

स्रोत: handicrafts.nic.in/indiaculture.gov.in/NCERT/CCRT India/State Government portals