नेताजी सुभाष चंद्र बोस की वर्षगांठ पर विशेष (23 जनवरी)
दक्षिण-पूर्व एशिया में सुभाष चंद्र बोस
भारतीय सैनिकों की पहली टुकड़ी को पूर्वी जर्मनी के प्रशिक्षण केंद्र के लिए भेजते समय बर्लिन के विदाई-समारोह में सुभाष फूट कर रो पड़े. उन्होंने कहा था कि विदेश में होने के कारण वह उन्हें कठिनाई और कष्ट सहने के अलावा कुछ भी नहीं दे सकते. उस समय बारह युवाओं के एक दल ने स्वेच्छा से अपने आपको सेवार्पित किया था. उसी से भारतीय सैनिकों की पहली टुकड़ी बनी जो बाद में बढ़कर 2500 सैनिकों की ब्रिगेड हो गई. इस पहली टुकड़ी के सैनिक जब आजाद हिंद केंद्र के बर्लिन कार्यालय में एकत्र हुए तो सुभाष चंद्र बोस ने उदास होकर उनसे कहा था कि मैं बहुत ही दुखी हूं, क्योंकि विदेश में होने के कारण मेरे पास भेंट देने लायक ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसे मैं उन युवकों को दे सकूं जो अपनी जान जोखिम में डालने जा रहे हैं. विदेशियों पर आश्रित होने और आजाद हिंद फौज के लिए राष्ट्रीय साधनों से धन न जुटा पाने की असमर्थता की वेदना उन्हें हर समय कचोटती रही.
रुपए -पैसे के मामले में पूरी तरह चौकस होने के कारण सुभाष चंद्र बोस इस बात से हमेशा दुखी रहते थे कि देश के लिए जो काम वह कर रहे हैं उसका खर्चा भारतीयों के बजाए जर्मनों और जापानियों को बर्दाश्त करना पड़ता है और उनकी यह भावना आत्मा को बराबर कचोटती रहती थी. उनका संगठन विदेशी पैसे पर आश्रित है, इसका हल्का-सा संकेतमात्र उन्हें तैश में ला देता था. यही कारण था कि जैसे ही पूर्व-एशिया में वह भारतीयों से पैसा इकठ्ठा कर सके, उन्होंने उसे कर्ज की अदायगी के लिए भेज दिया जो जर्मनों ने उन्हें दिया था. जर्मनी के विदेश विभाग में इसका ब्योरा मौजूद है. इसी प्रकार सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिंद संघ के बैंकाक स्थित मुख्य कार्यालय से हिकारी कीकन के जापानी मुख्य कार्यालय को भेजे गए जिस पत्र की हम यहां उद्घृत कर रहे हैं, उसमें जापानियां द्वारा आजाद हिंद संघ को दी गई सहायता को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि आजाद हिंद की सरकार उसकी अदायगी करेगी.
गोपनीय
एकता-विश्वास-बलिदान
आजाद हिन्द संघ मुख्य कार्यालय
नं. 7, चांसरीलेन
स्योनान
बैंकाक, 26 अगस्त, 1943
मुख्य कार्यालय
हिकारी कीकन
स्योनान
प्रिय महोदय,
शाही जापानी सैन्य अधिकारियों ने हिकारी कीकन की मार्फत नकदी और सामग्री के रूप में जो सहायता हमें समय-समय पर दी और भविष्य में देगें, उसके लिए हम आभारी हैं: इस सहायता को एक मित्र-देश की ओर से ऋण माना जाए, ऐसी हमारी तीव्र इच्छा है. इस ऋण का आजाद ङ्क्षहद सरकार यथा समय भुगतान करेगी. इसलिए में कृतज्ञ होऊंगा यदि हमें दी जाने वाली सहायता को भारतीय खाते के नाम से एक खाते में दर्ज कर दिया जाए और उस पर यथावत ब्याज लगाते जाएं.
जब आजाद हिंद की आरजी सरकार बन जाए और शाही जापानी सरकार उसे मान्यता दे दे तब पूर्व एशिया के आजाद हिंद संघ को दी गई यह सहायता उस आरजी सरकार को दी जाए और ऋण के रूप में उसे दर्ज कर लें, जिसका आजाद ङ्क्षहद की सरकार यथासमय भुगतान करेगी.
इस व्यवस्था की पुष्टि करके अनुगृहीत करेंगे.
आपका
सुभाष चंद्र बोस
सभापति
आजाद हिंद संघ
पूर्व एशिया
उन्होंने जर्मनी छोड़ने का जो निर्णय लिया उसमें एक कारण असल में यह था कि जर्मनी विदेश विभाग से आर्थिक सहायता मांगने में उन्हें अधिकाधिक परेशानी होने लगी थी. धीरे-धीरे उन्हें लगा कि दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयों से रुपया इकठ्ठा करके जो कर्जा उन्होंंने जर्मनी में आजाद ङ्क्षहद की आरजी सरकार के लिए लिया उसे अदा कर सकेंगे, हालांकि असलियत में वह उसे आजादी के बाद चुकाना चाहते थे. ताइवान की घातक यात्रा पर रवाना होने तक उन्होंने जर्मनों द्वारा आजाद हिंद संघ को दिए गए कर्ज की किश्तें अदा करने के लिए जापानी बैंक के मार्फत बर्लिन को रुपया भेजने में कभी भूल नहीं की. बचपन से ही रुपये-पैसे के मामले में चौकस रहने के कारण विदेशियों से मदद लेने पर उन्हें बहुत ठेस लगती थी.
फिर भी उन्होंने इस आशा से एक जर्मन पनडुब्बी में पूर्व एशिया के लिए लंबी समुद्र-यात्रा की थी कि वह भारत के निकट पहुंच जाएंगे और दक्षिण -पूर्व एशिया के भारतीयों के बीच मे होंगे जिनके बारे में जापानी रिपोर्टों द्वारा उन्हें मालूम पड़ा था कि वे उनके ब्रिटिश -विरोधी अभियान का समर्थन करने को तैयार थे. इस बात के भी वह इच्छुक थे कि दक्षिण-पूर्व एशिया में रहकर जर्मनों की कठपुतली की अफवाह को गलत साबित कर सके, जिसे अंग्रेजों ने सारे संसार में प्रचारित करने की कोशिश की थी. उन्हें उम्मीद थी कि जब वह दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने देशवासियेां के बीच होंगे तब उन्हें विदेशियों के आर्थिक और नैतिक समर्थन पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा.
उनकी यह आशा कुछ हद तक पूरी भी हो गई जब 2 जुलाई, 1943 को ङ्क्षसगापुर पहुंचने पर उन्होंने अपने को उत्साह से परिपूर्ण एक विशाल भारतीय जनसमूह के बीच पायाा, जो बहुत देर से उनका इंतजार कर रहा था. दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीय मूल के व्यापारी और मजदूर, क्लर्क और वकील, अमीर और गरीब; सभी लोगों ने उनका दिल खोलकर स्वागत किया क्योंकि वे सभी यह विश्वास करने लगे थे कि दक्षिण -पूर्व एशिया में सुभाष चंद्र बोस के आगमन से अंगे्रजों के विरुद्ध अभियान का एक नया दौर शुरू हो जाएगा.
सुभाष चंद्र बोस से पहले जापान जाने वाले रासबिहारी बोस थे, जो एक प्रख्यात क्रांतिकारी थे. उन्होंने भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंगपर उस समय बम फेंका था जब दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित कर उनकी शाही सवारी निकल रही थी और वे हाथी पर सवार थे. बमकांड के बाद उन्हें भारत से भाग जाना पड़ा. रासबिहारी जापान चले गए और एक जापानी महिला से शादी करके वहीं बस गए थे. वहां वह एक मशहूर जापानी राष्ट्रवादी तोयमा के आश्रय में रहे. जापान में जापानियों और भारतीयों का एक छोटा-सा समूह रासबिहारी के प्रति आकर्षित था, जिसने वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन की ज्योति प्रज्ज्वलित रखी थी. जब जापानी सेना ने सोचा कि अब समय आ गया है कि भारत में घुसकर अंग्रेजी सेना से लड़ने का स्वप्न साकार किया जाए. लेकिन रासबिहारी बोस लंबे अरसे से भारत के बाहर रह रहे थे, जिससे न तो वह भारत की वर्तमान समस्याओं से परिचित थे और युवा भारतीयों की आंकाक्षओं को ही पूरी तरह समझ सकते थे. इसके अलावा नई पीढ़ी के जो भारतीय अफसर और सैनिक ब्रिटिश भारतीय सेना में भरती हुए थे और जापानियों द्वारा युद्धबंदी बना लिए गए थे उनकी भावनाओं को समझना भी उनके लिए बहुत मुश्किल था.
भारत के बारे में उनके प्रथम विश्व-युद्ध पूर्व के विचार थे, इसलिए वह उन युवक भारतीयों की आकांक्षाओं को समझ नहीं पा रहे थे जो कप्तान मोहनसिंह के नेतृत्व में आजाद हिंद संघ के तत्वावधान में एकत्रित हो गए थे. ठीक ऐसे वक्त सुभाष रंगमंच पर आए.
वह उन भारतीयों के लिए अनजान नहीं थे जो सेना में भरती हो वहां पहुंचे थे. इन सैनिकों को जापानियों ने युद्धबंदी बनाया था. वे सुभाष चंद्र बोस को युवा पीढ़ी के हृदय-सम्राट के रूप में ही नहीं जानते थे वह यह भी जानते थे कि यही वह व्यक्ति है जिन्हें राष्ट्र ने 41 वर्ष की उम्र में ही कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर सबसे बड़े पद से सम्मानित किया था.
उनके महात्मा गांधी से हुए मतभेद के बावजूद दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रत्येक भारतीय जानता था कि वह कितने महान देशभक्त हैं. इसलिए जब सुभाष चंद्र बोस धीरज के साथ कुशलतापर्वूक आजाद हिंद संघ और आजाद हिंद फौज को पुनर्गठित करने लगे तो यह स्पष्ट हो गया कि उनके आगमन से दक्षिण-पूर्व एशिया के सारे भारतीयों में एक नई स्फूर्ति आ गई है. मगर सुभाष चंद्र बोस ने अपने जर्मन-प्रवास से यह सीख लिया था कि युद्धरत बड़ी शक्तियां भारत की आजादी में कोई गंभीर दिलचस्पी नहीं रखतीं. इसलिए जब वह जापानी प्रधानमंत्री जनरल तोजो से मिले तो उन्हें बहुत सावधानी बरतनी पड़ी. उन्होंने कोई मांग नहीं रखी, परंतु उस वार्ता के दौरान प्रधानमंत्री के सम्मुख एक शर्त अवश्य रखी कि उनका संगठन जापनी सैनिक तंत्र से स्वतंत्र होकर और बाहर रहकर कार्य करेगा. जर्मन अधिकारियों के सम्मुख भी उन्होंने यही शर्त रखी थी. जापानी प्रधानमंत्री से उन्हें यह आश्वासन मिल गया कि जापानी सैन्य अधिकारी आजाद हिंद फौज के आंतरिक कार्यकलाप में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे और उसके प्रशासन और प्रशिक्षण का सारा भार, सुभाष चंद्र बोस और उनके सहयोगियों पर रहेगा. जनरल तोजो असाधारण दूरदर्शी व्यक्ति थे. उन्होंने नेताजी द्वारा रखी शर्तें मान लीं और उन्हें यह खुली छूट दे दी गई कि भारत के हित में वह जैसा ठीक समझें उसके अनुसार दक्षिण-पूर्व एशिया के युद्धबंदियों को पुनर्गठित करें. इस प्रकार सर्वोच्च स्तर पर समर्थन का आश्वासन पा सुभाष चंद्र बोस बड़ी सावधनी से एक के बाद -एक कदम आगे बढ़े. पहले उन्होंने आंतरिक झगड़ों से त्रस्त आजाद ङ्क्षहद संघ को पुनर्गठित किया और फिर आजाद हिंद की एक आरजी सरकार बनाई जिसकी राजधानी सिंगापुर रखी. वह जानते थे कि दोनों संगठनों की बहुत जरूरत है. अव्वल तो इसलिए कि निष्कासित सरकार के पीछे भी किसी दल का होना जरूरी होता है ताकि उसकी राजनीतिक और सार्वजनिक मान्यता हो दूसरे इसलिए कि जब तक सभी प्रशासनिक तथा अन्य गतिविधियों वाली सरकार का ढांचा न हो तब तक उन लोगों की निष्ठा और सेवा पाना असंभव था. किसी राजनीतिक संगठन मात्र के आदेश पर चलने के आदी न हो. दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतवासियों के मनोबल को बढ़ाने और बर्मा-अभियान की तैयारी कर असम में ब्रिटिश भारतीय सेना से मुठभेड़ के लिए उन्होंने जो कदम उठाए, उससे उन्होंने कुशल रणनीतिज्ञ और संगठन-क्षमता हासिल कर ली थी. संघ और आजाद हिंद फौज दोनों उसी संगठन के अनिवार्य हिस्से होकर एक ही ध्येय के लिए कार्य कर रहे थे लेकिन उन्हें अलग रखकर वह वास्तव में सभी दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयों की निष्ठा जीतने में सफल हो सके थे.
(आधुनिक भारत के निर्माता- सुभाष चंद्र बोस- प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक से. पुस्तक को www.publicationsdivision.nic.in से ऑनलाइन खरीद सकते हैं)