जलवायु परिवर्तन और पेरिस समझौता
डॉ. मालती गोयल
एक विज्ञापन पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि यदि वैश्विक गर्मी के उत्सर्जन को कम करने के लिये कदम नहीं उठाये जाते हैं तो जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी पर हर छह में से एक प्रजाति के विलुप्त होने का ख़तरा उत्पन्न हो सकता है।
भारत पेरिस में आयोजित संबंधित पक्षों के सम्मेलन की 21वीं बैठक के दौरान 191 देशों द्वारा हस्ताक्षरित जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते को स्वीकार करने वाला 62वां देश बन गया है। आइए जानते हैं कि यह प्रक्रिया किस प्रकार शुरू हुई और ये समझौता क्या है।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन का वैज्ञानिक मूल्यांकन, जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय पैनल (आईपीसीसी) जो कि सदस्य देशों से वैज्ञानिकों का एक प्रतिनिधि संगठन है, द्वारा किया जाता है। आईपीसीसी भविष्य के जलवायु के बारे में अनुमान लगाती है और 1990 में आई इसकी पहली रिपोर्ट पर 1992 में आयोजित रियो पृथ्वी सम्मेलन में चर्चा की गई। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र ढांचा समझौता एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संधि (जिसे बहुपक्षीय पर्यावरण समझौते के तौर पर भी जाना जाता है) बन गई जिसे रियो डि जेनेरियो में 1992 में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में हस्ताक्षर के लिये रखा गया और यह 1994 से प्रभावी हो गई।
संधि का उद्देश्य ‘‘वातावरण में ग्रीनहाउस गैस संकेंद्रण को एक ऐसे स्तर पर स्थिर करना था जो कि जलवायु प्रणाली के साथ खतरनाक मानवीय हस्तक्षेप को रोके‘‘। तब से लेकर जलवायु संबंधी विचारविमर्श के लिये संबंधित पक्षों के सम्मेलन (सीओपी) की अनुबंध द्ब और ग़ैर अनुबंध द्ब के बीच बैठकें हर वर्ष होती हैं। प्रथम जलवायु परिवर्तन प्रोटोकॉल क्योटो प्रोटोकॉल के नाम से हुआ जिसे 1997 में क्योटो, जापान में आयोजित पक्षों के सम्मेलन (सीओपी) की तीसरी बैठक में प्रस्तुत किया गया था। यह प्रोटोकॉल 2005 में लागू हो गया। भारत ने इसे 16 फरवरी 2005 को मंजूरी प्रदान की।
क्योटो प्रोटोकॉल में वैश्विक गर्मी से निपटने के लिये यूएनएफसीसीसी के उद्देश्य को कार्यान्वित किया गया और यह सामूहिक परंतु अलग-अलग जि़म्मेदारियों पर आधारित था। इसने विकसित देशों के कंधों पर मौजूदा उत्सर्जनों को कम करने का दायित्व इस आधार पर डाल दिया कि ऐतिहासिक रूप से वे ही वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के वर्तमान स्तरों के लिये जि़म्मेदार हैं। इसने अनुबंध द्ब और ग़ैर अनुबंध द्ब देशों के बीच कार्रवाई के एक कार्यक्रम के तौर पर स्वच्छ विकास तंत्र को पेश किया। क्योटो प्रोटोकॉल ने अनुबंध द्ब देशों को कानूनी रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन कटौती लक्ष्य सौंप दिये ताकि 1990 के स्तर पर उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत तक की कटौती हासिल की जा सके। यह कटौती क्योटो प्रोटोकोल फेस 1 के तौर पर 2008-2012 तक की अवधि के बीच हासिल की जानी थी। ग़ैर अनुबंध द्ब देशों को कोई अधिदेश नहीं दिया था, परंतु स्वच्छ विकास तंत्र में शामिल थे।
आईपीसीसी ने जलवायु परिवर्तन पर 1990 में पहली रिपोर्ट से अब अपने वैज्ञानिक मूल्यांकनों को संशोधित कर दिया और पांचवीं मूल्यांकन रिपोर्ट 2013 में जारी की गई। प्रोटोकॉल्स और दिशानिर्देशों पर अभिसरण हासिल करने के लिये आईपीसीसी के मूल्यांकनों की व्याख्या सीओपी बैठक में की जाती है। 2005 में क्योटो प्रोटोकाल के प्रभावी होने के बाद क्योटो प्रोटोकॉल उपरांत का मुद्दा कार्यसूची बना और सीओपी की प्रत्येक बैठक में इस पर बहस की जाने लगी। क्योटो फेस 1 की शुरूआत के तुरंत बाद इसके फेस 2 के दौरान उत्सर्जन कटौती की बाध्यता के लिये 2009 में कोपेनहेगन में सीओपी-15 आयोजित की गई।
2013 में वारसा में आयोजित सीओपी में जारी प्रक्रिया में देशों का क्योटो उपरांत 2020 कार्रवाइयों के लिये अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान प्रयोजन (आईएनडीसीज) पेश करने का आहवान किया गया। भारत के आईएनडीसीज
2 अक्तूबर, 2015 को संयुक्तराष्ट्र सचिवालय को सौंप दिये गये और इन पर अन्यों के साथ पक्षों के सम्मेलन (सीओपी-21) के 21वें सत्र में चर्चा की गई। पेरिस समझौते के नाम से एक ऐतिहासिक समझौते पर 195 राष्ट्र जलवायु परिवर्तन से निपटने और कार्बन में कमी, लचीले और टिकाऊ भविष्य की दिशा में काम और निवेश करने पर सहमत हो गये। पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को इस सदी में पूर्व-औद्योगिक स्तरों से ऊपर 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना और तापमान में वृद्धि को यहां तक कि 1।5 डिग्री सेल्सियस नीचे तक सीमित करने के सभी प्रयास संचालित करना है।
2 अक्तूबर, 2016 को भारत ने 62वें देश के तौर पर पेरिस समझौते को मंजूरी देते हुए अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में अपनी उपस्थिति पुन: दर्ज कराई है। पेरिस समझौते को लागू करने के लिये ऐसे 55 देशों से इसकी स्वीकृति मिलना ज़रूरी है जो इस ग्रह पर कम से कम 55 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिये जि़म्मेदार हैं। मौजूदा स्वीकृति स्थिति समझौते को लागू करने के वास्ते अब भी कम है क्योंकि यह 53.11 प्रतिशत उत्सर्जन का प्रतिनिधित्व करती है। अमरीका और चीन पहले ही सितंबर 2016 में समझौते को मंजूरी प्रदान कर चुके हैं।
संयोग से अमरीका प्रथम समझौते अर्थात क्योटो प्रोटोकॉल को स्वीकार किये जाने पर सहमत नहीं हुआ था। आशा की जाती है कि 55 प्रतिशत की अपेक्षित शर्त सीओपीज बैठक सीओपी-22 के अगले सत्र तक पूरी कर ली जायेगी जो कि नवंबर 2016 में मराकश, मोरक्को में आयोजित की जानी है। यह विकास, निगरानी और सत्यापन प्रोटोकॉल्स के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वैश्विक वित्तपोषण की दिशा में एक और कदम होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक बार पेरिस समझौता लागू हो जाने से प्रतिबद्धताओं का कड़ाई से अनुपालन करना होगा और हमें इसके लिये तैयार रहना चाहिये। इनमें से एक एजेंडा जलवायु अनुकूल प्रौद्योगिकियों को अपनाना होगा। हमारे पास कौन सी प्रौद्योगिकियां होनी चाहिये आइये जलवायु परिवर्तन के विज्ञान पर एक नजऱ डाल लेते हैं।
जलवायु परिवर्तन का विज्ञान
विज्ञान शुरूआत से ही जलवायु परिवर्तन घटनाक्रम का प्रमुख केंद्र रहा है। मानवजनित गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की संचित वृद्धि को वैश्विक गर्मी अर्थात वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि के कारण के तौर पर जाना जाता है। हालांकि ज्यादातार विचारविमर्शों में, कोपेनहेन समझौता, 2009 कुछेक अवसरों को छोडक़र, जो कि वातावरण में ग्रीनहाउस गैस संकेंद्रण की सुरक्षित सीमा के वैज्ञानिक अनुमानों पर आधारित है, विज्ञान निष्क्रिय अवस्था में पड़ा रहा। इसमें 450 पीपीएमवी के रूप में सहमति बनी, जो कि वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्यिस तक की अधिकतम वृद्धि के अंतर्गत अनुदित हो पाया।
यह सुस्थापित है कि कार्बन डाईऑक्साइड सहित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन व्यापक रूप से वैश्विक गर्मी के लिये खतरे हैं और दुनिया भर में मानवजनित और विकासात्मक गतिविधियों में वृद्धि की भौतिक अभिव्यक्तियों को स्वीकार किया जाता है। आईपीसीसी की पांचवीं रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक तापमान में 0।84 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है और कार्बन डाईऑक्साइड में वैश्विक उत्सर्जन 400 पीपीएमवी को पार कर रहा है। क्षेत्र वार वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों का अध्ययन इंगित करता है कि कुल उत्सर्जनों में ऊर्जा आपूर्ति और मांग क्षेत्रों का 66-68 प्रतिशत हिस्सा है। इन ऊर्जा क्षेत्र उत्सर्जनों को कम करने के तीन मार्ग हैं। आपूर्ति की तरफ कार्बन मुक्त या जैविक ईंधन मुक्त स्रोतों जैसे कि नवीकरणीय स्रोतों और परमाणु ईंधन के इस्तेमाल के लिये प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिये भारत ने 2022 तक सौर, पवन, बायोमॉस, कचड़ा, सामुद्रिक और भूतापीय स्रोतों से 175 जीडब्ल्यू क्षमता हासिल करने का विशाल लक्ष्य रखा है। मांग की तरफ उत्सर्जन कटौती के लिये ऊर्जा संरक्षण और उद्योग तथा विनिर्माण क्षेत्र में प्रोसेस और उत्पाद प्रौद्योगिकियों की ऊर्जा दक्षता में सुधार जैसे विकल्प हैं। इस संदर्भ में ईंधन दक्ष ऑटोमोबाईल्स, परिवहन क्षेत्र में मॉस ट्रांसपोर्ट सिस्टम्स और इलेक्ट्रिकल वाहनों का इस्तेमाल तथा भवन क्षेत्र में हरित भवनों जैसी अन्य संभावनाएं हैं। तीसरे विकल्प के तौर पर कार्बन डाईऑक्साइड न्यूनीकरण जैसे प्रौद्योगिकियां, जैसे कि कार्बन डाईऑसाइड अवशोषण का कोयला निर्भर अर्थव्यवस्थाओं के लिये इस्तेमाल के रूप में देखा जा रहा है। कार्बन डाईऑक्साड अवशोषण में अतिरिक्त कार्बन डाईऑक्साइड को एकत्र करने और ऊर्जा क्षेत्र से ग्रीनहाउस गैस संकेंद्रणों को स्थिर करने के लिये इसे वातावरण से दूर रखने की प्रौद्योगिकी का विज्ञान शामिल है। कार्बन डाईऑक्साइड को एकत्र करना और इसका भण्डार केवल भूमिगत भण्डारण नहीं है बल्कि टेरेस्ट्रियल कार्बन निर्धारण और कार्बन का उपयोग करना होता है। एकत्र की गई कार्बन डाईऑक्साइड भूतल प्रक्रियाओं के जरिये अथवा उप-तल भण्डारण और/अथवा ऊर्र्जा इंधनों और खनिजों की बहाली में उपयोग द्वारा अभित्यक्त की जाती है। इसकी आगे व्याख्या करने के लिये, सूखे तेल क्षेत्रों में तेल के बृहद उत्पादन के लिये कार्बन डाईऑक्साइड को पहुंचाना कार्बन डाईऑक्साइड संग्रहण प्रक्रिया को आर्थिक तालमेल प्रदान कर सकता है। कार्बन डाई ऑक्साइड का पुन: वातावरण में प्रेषण न्यूनतम करने के लिये डिजाइन की गई बृहठ्ठ तेल रिकवरी को उपयुक्त प्रोत्साहन ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड का भूमिगत भण्डारण जैसे कि तेल क्षेत्र, बगैर खननयोग्य कोयला क्षेत्र ऊर्जा के लिये अतिरिक्त ईंधन उपलब्ध करवा सकता है और यह कार्बन डाईऑक्साइड के भण्डारण के लिये पर्याप्त भण्डार भी साबित होगा। औसतन कार्बन डाईऑक्साइड के तीन अणु कोयले में समाहित होते हैं और एक अणु मिथेन (ष्ट॥४) विस्थापित होता है जिसके परिणाम स्वरूप ग्रीनहाउस ईंधन जैसे कि बृहद कोयला क्षेत्र मिथेन बहाली जैसे गैसीय ईंधन हो जाते हैं। शोध अध्ययन अमरीका, जापान, चीन के साथ-साथ भारत में भी संचालित किये जा रहे हैं। कार्बन डाईऑक्साइड उपयोग प्रौद्योगिकियां कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण में इसके स्रोत बिंदु से संग्रह को व्यवस्थित करने में मददगार होती हैं। यह एक आकर्षक साधन बनता जा रहा है क्योंकि ये जोखिम मुक्त विकल्प है और परिणामस्वरूप इससे मूल्यवद्र्धित उत्पाद तैयार होते हैं। उपयोग के रासायनिक और जैविकीय मार्ग विकास अधीन हैं। रासायनिक तौर पर कार्बन डाईऑक्साइड में कम रासायनिक सक्रियता होती है, परंतु इसे तापमान अथवा दबाव के अनुप्रयोग अथवा उपयुक्त कैटेलिस्ट्स के इस्तेमाल के जरिये रासायनिक क्रियाओं के लिये सक्रिय किया जा सकता है। कार्बन डाईऑक्साइड को एथनोल या मैथनोल जैसे ईंधनों अथवा उर्वरकों और खाद्य प्रसंस्करण तथा कार्बोनेटिड ड्रिंक्स आदि के उत्पादन में इस्तेमाल किया जा सकता है। जैविकीय मार्ग में कार्बन डाईऑक्साइड फोसाइंथेसिस में कार्बन सिंक्स के उत्पादन और वनीकरण में मदद करती है। जैव-सक्रियता माध्यम में जैसे कि अपशिष्ट जल या समुद्रों में माइक्रोलगी को भी ईंधनों, औषधियों और अन्य मूल्यवद्र्धित उत्पादों में परिवर्तित किया जा सकता है। लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड संग्रहण प्रौद्योगिकियां लागत सघन और उच्च ऊर्जा खपत वाली हैं तथा यह आगे भी वैज्ञानिक अन्वेषणों का विषय बना रहेगा।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की भविष्य के परिदृश्य अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि कार्बन डाईऑक्साइड संग्रहण का कार्बन डाईआक्साइड फुटप्रिंटस में कटौती में 2050 तक 17 प्रतिशत हिस्सा हो सकता है। यूएनएफसीसी के कार्बन डाईऑक्साइड संग्रहण जैसे वैज्ञानिक सघन विषयों को औपचारिक तौर पर संदर्भित किया गया है और समय-समय पर सीओपीज को प्रस्तुत किया गया है। जलवायु न्यूनीकरण विकल्प के तौर पर सुझाये गये कार्बन डाईऑक्साइड संग्रहण के विकल्प से फासिल ईंधन आधारित सतत ऊर्जा का निर्माण एक स्वच्छ ऊर्जा के तौर पर किये जाने की आशा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी परामर्श की सहायक संस्था (एसबीएसटीए) ने कार्बन संग्रह और भण्डारण (सीसीएस) पर अपनी पहली सत्र अधीन कार्यशाला 2006 में आयोजित की थी। तब से सीसीएस प्रत्येक वर्ष एसबीएसटीए कार्यशालाओं की कार्यसूची बनी हुई है। अब सीसीएस भूवैज्ञानिक संरचना परियोजनाओं में स्वच्छ विकास तंत्र (सीडीएम) के अधीन पात्र हो गई है। 2011 में आयोजित डरबन सीओपी-17 ने सीसीएस को विकसित और विकासशील देशों दोनों के लिये एक वैध प्रौद्योगिकी के तौर पर कानूनी वैधता प्रदान कर दी और कुछ हद तक मिसाल निर्धारक नियामक ढांचे के तौर पर स्थापित किया। प्रौद्योगिकियां अभी विकास अधीन हैं। मैं यह कहते हुए विराम देना चाहूंगी कि इस बात पर बहस जारी रहेगी कि क्या लक्षित प्रौद्योगिकी सहयोग और प्रौद्योगिकी विकास तथा तैनाती होनी चाहिये, यह अनिवार्य है कि वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकीय और विनियामक मुद्दों का गहराई के साथ समाधान किया जाये।
(लेखक पूर्व सलाहकार और वरिष्ठ वैज्ञानिक, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार हैं। ई-मेल:maltigoel2008@gmail.com)