पर्यावरण प्रदूषण : कारण, दुष्परिणाम और सुधार के उपाय
डॉ. सुभाष शर्मा
(III) जल प्रदूषण के कारण : हर वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है. परन्तु, कुछ औपचारिकताओं का निर्वाह करने के अलावा हम कोई ठोस उपाय नहीं करते हैं. वास्तव में भारत में 80 प्रतिशत पेयजल भूजल से उपलब्ध कराया जाता है. पिछले दशक में देश के कुंओं के जल स्तर में 65 प्रतिशत कमी आयी. लैंन्सेट पत्रिका के अनुसार, 2015 में सभी प्रकार के प्रदूषण से कुल 90 लाख मौतें हुईं, जबकि जल प्रदूषण के कारण 64 लाख और वायु प्रदूषण के कारण 18.10 लाख लोगों की मृत्यु हुई. इस अवधि के दौरान भारत में समग्र प्रदूषण के कारण 25.15 लाख लोगों की जानें गई, जहां सतह और भूमिगत जल प्रदूषण की मात्रा देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग है और उसके कारण भी अलग-अलग हैं. भारत में 63968 बस्तियां ऐसी हैं, जिनमें जल विषाक्त है और इनमें से 28000 बस्तियां ऐसी हैं (जो विशेष रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हैं), जहां पानी में आर्सेनिक और फ्लुराइड नामक विषाक्त तत्वों का भीषण दुष्प्रभाव है. कुल 63968 बस्तियों में से अन्य बस्तियों में लवणता, नाइट्रेट और आयरन की अत्यधिक मात्रा से जल दूषित है. वास्तव में, भारत सरकार के पेयजल विभाग ने संसद में यह स्वीकार किया कि 2010 से 2015 की अवधि में देशभर में नल के पानी में प्लास्टिक फाइबर विषाक्तता के कारण 16528 लोगों की मृत्यु हुई (टाइम्स ऑफ इंडिया, 1 अप्रैल 2017). ओर्ब मीडिया द्वारा कराए गए एक विश्वव्यापी अनुसंधान में यह पाया गया कि न्यूयार्क और वाशिंगटन में जल 94 प्रतिशत, लेबनान (बेरूत) में 93 प्रतिशत, भारत (नई दिल्ली) 82 प्रतिशत, युगांडा (कम्पाला) में 80 प्रतिशत और इक्वाडोर (क्विटो) 79 प्रतिशत था. वास्तव में सिंथेटिक फाइबर क्लोथिंग, टायरों की धूल और माइक्रो बीड्स से माइक्रो स्कोपिक फ्रेग्मेंट्स जल में प्रवेश करते हैं. (टाइम्स आफ इंडिया 16 अक्तूबर, 2017)
इसके अतिरिक्त भारत सरकार को ‘भारत में जल सुधारों के लिए अपेक्षित 21वीं सदी का संस्थागत ढांचा’ नाम से सौंपी गई एक रिपोर्ट (हिंदुस्तान टाइम्स, 26 मार्च, 2017) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि देश के अधिकांश भागों में भूजल स्तर में गिरावट आ रही है. देश के 60 प्रतिशत से अधिक जिलों को भूमि जल के अत्यधिक दोहन और/या गंभीर गुणवत्ता संबंधी मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है. दूसरे, भूजल में फ्लूराइड, आर्सेनिक, मर्करी और यूरेनियम जैसे नुकसानदायक तत्व पाए गए हैं. तीसरे, भारत में कृषि के लिए पानी के उपयोग की सक्षमता विश्व में सबसे कम (25-35 प्रतिशत) आंकी गई है. चौथे, मुख्य रूप से भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण भारत की प्रायद्वीपीय नदियां सूखती जा रही हैं. पांचवें, देश के शहरों से हर रोज 40,000 मिलियन लीटर मल-जल उत्सर्जित हो रहा है, जिसमें से केवल 20 प्रतिशत का ही उपचार हो पाता है. नतीजतन, कस्बों और गांवों के बीच और सामाजिक वर्गों के बीच विभिन्न प्रकार के संघर्ष पैदा हो रहे हैं. विभिन्न नदियां और अन्य जल निकाय प्लास्टिक के कारण अत्यधिक प्रदूषित हो गए हैं.
दिल्ली में जल की स्थिति अत्यंत खराब है. दिल्ली के राजस्व रिकार्ड में 1000 से अधिक जल निकाय दर्ज हैं, फिर भी इनमें से 80 प्रतिशत का अस्तित्व मात्र कागज पर है. पार्कों, स्कूलों और अस्पताल भवनों के निर्माण से इन जल निकायों का अतिक्रमण किया गया है और उन्हें डम्पिंग स्थलों और उत्सर्जित मल-जल के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. दिल्ली की करीब 20 प्रतिशत आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो रहा है.
2012 में दिल्ली नगर निगम ने पानी के नमूनों का परीक्षण कराया था, जिसके नतीजे चिंताजनक पाए गए थे. इनके अनुसार नरेला में शत प्रतिशत, सदर पहाडग़ंज में 87 प्रतिशत, करोलबाग में 70 प्रतिशत, दक्षिण जोन में 61 प्रतिशत, सिविल लाइन्स जोन में 58 प्रतिशत, शाहदरा में 50 प्रतिशत और सेंट्रल जोन में 33.3 प्रतिशत नमूने पेयजल के लिए अनुपयुक्त पाए गए थे. (हिंदुस्तान टाइम्स, 22 मार्च, 2017) दिल्ली में जल प्रदूषण के तीन मुख्य कारण हैं: पानी के पाइपों में शैवालों का पनपना और तत्संबंधी विषाक्तता उत्पन्न होना, पाइपलाइनों के टूट जाने के कारण मल-जल का पेयजल में मिलना और जल पाइप प्रणाली पुरानी होना. इसी प्रकार केरल के एर्नाकुलम जिले में 1980 के दशक में 2300 तालाब थे. लेकिन, वे अब घट कर 800 रह गए हैं. इसके अतिरिक्त नैनीताल (उत्तराखंड) में नैनी झील को मलबे के ढेरों और मरी हुई मछलियों से होने वाले प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है. डल झील (कश्मीर) में हर रोज करीब 2 करोड़ लीटर गैर-उपचारित मल-जल बहाया जा रहा है और पर्यटकों की बढ़ती संख्या के कारण अधिक मात्रा में कचरा झील में गिर रहा है. 1850 से 2017 की अवधि में भूमि इस्तेमाल में अनियंत्रित बदलाव के कारण डल झील अपना 24.5 प्रतिशत क्षेत्र खो चुकी है.
चंडीगढ़ में भी सुकना झील एक निकटवर्ती गांव में गाद के कारण अवरुद्ध हो गई है. बेंगलुरू में सुब्रमण्यपुरा झील में खर-पतवारों की जड़ों और रसायनों तथा मल-जल के कारण प्रदूषण फैल रहा है, और मानसून से पहले की बारिश में यह पाया गया कि झील के पानी की गुणवत्ता नष्ट हो गई है. बढ़ते शहरीकरण के कारण देशभर में जल निकाय सिकुड़ते जा रहे हैं (तालिका-4)
तालिका - 4: शहरीकरण के कारण जल निकायों की हानि (2000-2016)
क्र सं-1
शहर- सूरत
जल निकायों में % नुकसान-95 प्रतिशत
क्र सं-2
शहर-रायपुर
जल निकायों में % नुकसान-80 प्रतिशत
क्र सं-3
शहर- बंगलौर
जल निकायों में % नुकसान-79 प्रतिशत
क्र सं-4
शहर- कोल्हापुर
जल निकायों में % नुकसान-75 प्रतिशत
क्र सं-5
शहर- गाजियाबाद
जल निकायों में % नुकसान-75 प्रतिशत
क्र सं-6
शहर- दिल्ली
जल निकायों में % नुकसान-62 प्रतिशत
क्र सं-7
शहर- गुवाहाटी
जल निकायों में % नुकसान-60 प्रतिशत
क्र सं-8
शहर- उदयपुर
जल निकायों में % नुकसान-50 प्रतिशत
क्र सं-9
शहर- चेन्नई
जल निकायों में % नुकसान-50 प्रतिशत
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स, 8 जून, 2017 से साभार
इसके अतिरिक्त झारखंड में जादुगोरा स्थित यूरेनियम कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) की एक खुली खदान है, जिससे 1967 से हर रोज करीब 1000 टन यूरेनियम का उत्खनन हो रहा है, जो भारत के परमाणु बिजली उत्पादन के लिए कच्चे माल के रूप में करीब 20 प्रतिशत योगदान करता है. एड्रियन लेवी ने वहां अनुसंधान किया और रिपोर्ट किया कि (टाइम्स आफ इंडिया 15 दिसंबर, 2015) इस खदान से श्रमिकों को विशेष रूप से तथा आसपास के गांवों को सामान्यतौर पर रेडिएशन, भारी धातुओं और आर्सेनिक सहित अन्य कार्सिनोजंस जैसे हानिकारक तत्वों का सामना करना पड़ रहा है. वास्तव में जहरीले तत्व भूमिगत जलवाही स्तरों में मिल रहे हैं और सुबर्णरेखा नदी का पानी मछली से लेकर सब्जियों तक खाद्य शृंखला में जहर घोल रहा है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दीपक घोष (जादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता के) द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि सुबर्णरेखा नदी के पानी और आसपास के कुओं के जलस्तर में रेडियोएक्टिव अल्फा कण 160 प्रतिशत से अधिक पाए गए, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित सीमा से अधिक थे. इसके अलावा 24 दिसंबर, 2006 को विषाक्त घोल ले जा रही एक पाइपलाइन के फटने से सुबर्णरेखा की सहायक नदी में अनेक मछलियां मारी गईं.
इतना ही नहीं, वर्षा जल भी अत्यंत अमलीय होता जा रहा है. इसका कारण यह है कि विद्युत संयंत्रों, आटोमोबाइलों और कुछ औद्योगिक इकाइयों से उत्सर्जित सल्फर ऑक्साइड्स और नाइट्रोजन जैसी प्रदूषित गैसें वातावरण में वर्षा के पानी में मिल कर उसे अमलीय बना रही है. नागपुर, मोहनबारी (असम), इलाहाबाद, विशाखापट्टनम और कोडईकनाल से (2001-2012 के दौरान) लिए गए वर्षा जल के नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि उनमें पीएच का स्तर 4.77 से 5.32 पाया गया, जो ‘अमलीय वर्षा’ का प्रतीक है (ज्ञातव्य है कि वर्षा जल का पीएच 5.65 से कम होना अमलीय समझा जाता है).
इसे नीचे तालिका -5 में देखा जा सकता है.
तालिका - 5: भारत में विभिन्न स्थानों पर वर्षा जल में गिरता पीएच स्तर
क्र सं
स्थान
1981-1990
2001-2012
क्र सं-1
स्थान- श्रीनगर (जम्मू कश्मीर)
1981-1990-7.15
2001-2012-6.11
क्र सं-2
स्थान- मोहनबाड़ी (असम)
1981-1990-5.95
2001-2012-4.77
क्र सं-3
स्थान- इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
1981-1990-6.67
2001-2012-5.32
क्र सं-4
स्थान- नागपुर (महाराष्ट्र)
1981-1990-5.87
2001-2012-4.87
क्र सं-5
स्थान- कोडईकनाल (तमिलनाडु)
1981-1990-6.01
2001-2012-5.19
स्रोत: आईएमडी और ऊष्ण कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान, टाइम्स आफ इंडिया
4 मार्च, 2017 में प्रकाशित
नमामि गंगे (समेकित गंगा संरक्षण मिशन) कार्यक्रम का अनुमोदन मई, 2015 में किया गया था. इसके लिए 2015-2020 की अवधि हेतु 20,000 करोड़ रुपये मंजूर किए गए थे. इस कार्यक्रम में विभिन्न गतिविधियों के लिए शत प्रतिशत केंद्रीय वित्त पोषण का प्रावधान है. परंतु, दो वर्ष में गंगा से संबंधित 145 परियोजनाओं में से केवल 13 पूरी हो पाई हैं और नए मल-जल उपचार संयंत्रों की मात्र 198.13 मिलियन लीटर की प्रतिदिन उपचार क्षमता सृजित हो पाई है. वास्तव में गंगा नदी थाले के कस्बों/शहरों में उत्सर्जित कुल 8250 एमएलडी मल-जल में से केवल 3500 एमएलडी के ही उपचार की क्षमता है. समझा जाता है कि अधिकतर राज्य सरकारों ने, चुनावों के कारण अथवा स्वयं की परियोजनाएं कार्यान्वित करने के आग्रह के कारण, इस दिशा में सहयोग नहीं किया है. इसके अतिरिक्त मल-जल उपचार संयंत्रों के मूलभूत कार्यक्रमों, स्नान घाटों के गौण कार्यक्रमों, श्मशान घाटों और नदी सतह स्वच्छता जैसे कार्यक्रम भी शामिल किए गए हैं. मार्च 2017 तक 1133 करोड़ रुपये की लागत के साथ 34 परियोजनाएं मंजूर की गई थीं, जो 296 स्थानों (180 स्नान घाटों और 116 शवदाह गृहों सहित) से सम्बद्ध थीं (टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 अप्रैल, 2017). गंगा की कुल लंबाई 2500 किलोमीटर से अधिक है, जो देश के 5 राज्यों को कवर करती है. ये हैं - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल. सद्गुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार गंगा की 800 धाराओं और अनुषंगी नदियों में से 470 केवल सीजनल प्रवाह वाली हो गई हैं, जो वर्ष में केवल 4 महीने रहती हैं. इससे नदी में 44 प्रतिशत पानी कम हो गया है (टाइम्स ऑफ इंडिया 2 अक्तूबर, 2017).
यमुना नदी की स्थिति भी बेहद खराब है. यमुना की कुल लंबाई 1376 किलोमीटर है. दिल्ली में यमुना मात्र 2 प्रतिशत गिरती है, लेकिन करीब 70 प्रतिशत प्रदूषण नदी को दिल्ली से बहते जाने के कारण प्राप्त होता है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में गंदे पानी की निकासी के 21 बड़े नाले हैं, जिनमें से 18 नाले यमुना में गिरते हैं और 3 नाले आगरा/गुरुग्राम नहर से जुड़ते हैं. यमुना जीर्णोद्धार परियोजना 2017 के अंतर्गत प्रथम चरण के दौरान मई 2019 तक कम से कम 14 मल-जल उपचार संयंत्रों का निर्माण किया जाएगा और वे नजफगढ़ और दिल्ली से आने वाले दो बड़े नालों से नदी में उत्पन्न प्रदूषण में से 67 प्रतिशत का उपचार करेंगे (हिंदुस्तान टाइम्स, 9 अगस्त, 2017). करीब 180 किलोमीटर के प्रथम भाग के बाद यमुना का अधिकतर हिस्सा मानसून के बाद सूख जाता है, क्योंकि हथनीकुंड पर यमुना का समूचा जल पश्चिमी और पूर्वी यमुना नहरों में विभाजित हो जाता है. न्यूनतम पारिस्थितिकी प्रवाह के लिए केवल 160 क्यूसेक पानी यमुना में छोड़ा जाता है. वास्तव में यमुना नदी के सूखने के कारणों में 6 बांधों और 17 पनबिजली संयंत्रों से बहाव में रुकावट आना, नदी बहाव के मैदानों में अतिक्रमण, वनस्पति की हानि, रेत निकालना और कृषि एवं उद्योगों से उत्सर्जित प्रदूषण आदि शामिल हैं. इसके अतिरिक्त दुर्गा पूजा, छठ आदि त्योहारों के दौरान यमुना में प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है. उदाहरण के लिए अक्तूबर 11, 2016 को कुदसिया घाट (दिल्ली) में कुल 102 आस्थगित ठोस पदार्थ पाए गए, जबकि 7 अक्तूबर 2016 को ऐसे 56 पदार्थ पाए गए थे. इसी प्रकार बीओडी की संख्या 38 से घट कर 7 अक्तूबर 2016 को 25 रह गई और कैमिकल आक्सीजन 120 से घट कर 7 अक्तूबर, 2016 को 80 रह गई. इसी तरह कुल समग्र घुलनशील कचरे 640 से घट कर 7 अक्तूबर, 2016 को 609 दर्ज किए गए. निश्चित रूप से इन तत्वों की मात्रा सुरक्षा की सीमाओं से बहुत अधिक है (इंडियन एक्सप्रेस 24 अक्तूबर, 2016).
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में 250 गांव भूजल में अत्यधिक फ्लूराइड और 150 गांव भूजल में सुरक्षा सीमा से अधिक फ्लूराइड की समस्या से ग्रस्त पाए गए. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2013 में सोनभद्र जिले को ‘चिंताजनक’ प्रदूषित की श्रेणी में रखा था. इस जिले में 16 अनुसूचित जनजातियां निवास करती हैं और वे दांतों पर ब्लैक/ब्राउन धब्बों, गैस्ट्रो-इंटेस्टिनल डिस्कम्फर्ट (यानी आंत की बीमारी) मांसपेशियों में दर्द, हड्डियों की सघनता, कैल्सिफिकेशन ऑफ लिगामेंट्स (जो किसी रोगी को अशक्त कर देता है) जैसी बीमारियों के उपचार का खर्च वहन नहीं कर सकते. स्कैल्टन फ्लूरोसिस एक लाइलाज बीमारी है और इसके लिए केवल बचाव ही एक विकल्प है. सोनभद्र जिले में अल्युमीनियम, कैमिकल, माइनिंग और सीमेंट फैक्टरियों द्वारा कचरा डम्प करने से सतही जल और भूजल दोनों प्रदूषित हुए हैं. इसके अतिरिक्त कोयला बिजली घरों से उत्सर्जित फ्लाइ ऐश (राख) भी फ्लूराइड का एक स्रोत है. इस क्षेत्र में बनाए जा रहे बड़े बांधों से फ्लूराइड की समस्या और भी बढ़ गई है, जो जियोलॉजिकल चट्टानों में विद्यमान रहता है और इनसे रिस कर भूजल में मिल जाता है. 2014 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने एक समिति का गठन किया था, ताकि उद्योगों से संभावित खतरों की जांच की जा सके. कमेटी का कहना है कि इस क्षेत्र में स्थित 10 थर्मल पावर प्लांटों से 3.5 करोड़ टन फ्लाई ऐश हर वर्ष उत्सर्जित होती है. वास्तव में फ्लाई ऐश में फ्लूराइड होता है और वह भूजल में मिल कर जल के स्रोत को भी विषाक्त बना देता है. ओबरा थर्मल पावर प्लांट का फ्लाई ऐश पोंड ओवरफ्लो होता है और सोन नदी की अनुषंगी रेणु नदी को प्रदूषित करता है. इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में एल्युमिनियम उद्योग द्वारा हर रोज 2250 टन एसपीएल यानी स्पेंट पोट लाइनिंग उत्सर्जित किया जाता है. एसपीएल में फ्लूराइड होता है और यह अत्यंत खतरनाक कचरा है. दुर्भाग्य से निजी क्षेत्र द्वारा कोर्पोरेट सामाजिक दायित्व के अंतर्गत स्थापित किए गए डीफ्लूराइडेशन प्लांट आमतौर पर काम नहीं करते हैं (डी सिन्हा और वाई मित्तल, ‘स्केलेटल एग्जिस्टेंस’ इन डाउन टू अर्थ, 16-28 फरवरी, 2017, पीपी-56-57).
चंडीगढ़ के निकट सुकना झील 1970 के दशक में सर्वाधिक गाद से भर गई थी. केंद्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान के पीआर मिश्रा के नेतृत्व में एक टीम ने शिवालिक पर्वतमाला में भूमि कटाव रोकने के लिए 4 चेक डेम बनाए. उन्होंने सुखोमाजरी गांव (पंचकूला हरियाणा) के स्थानीय किसानों को प्रेरित किया कि वे अत्यधिक पशु चराई न करें. इससे प्रेरित होकर किसानों ने बांध के जल के बदले उनकी बात पर अमल करने पर सहमति व्यक्त की. 5 वर्ष की अवधि में अधिक फसल पैदावार, चारे की घास (भाब्बर और मूंगरी) और पशुधन पालन की बदौलत किसानों की आय में इजाफा हुआ. ग्रामवासियों ने 1983 में पर्वत संसाधन प्रबंधन समिति (एचआरएमएस) का गठन किया और पानी एवं वन संसाधनों का इस्तेमाल नियमित किया. एचआरएमएस पानी के उपयोग पर शुल्क लगाती है, लोगों और कागज मिलों को भाब्बर घास बेचती है और ग्राम विकास के लिए मछली पालन हेतु तालाब पट्टे पर देती है. यह विकास के प्रति निचले स्तर पर किया गया एक उपाय था. एचआरएमएस ने 1986 में 43800 रुपये का लाभ कमाया. सुखोमाजरी आयकर अदा करने वाला देश का पहला गांव बन गया. भाब्बर घास और खाद्य फसलों की पैदावार दोगुनी हो गई और दैनिक दूध उत्पादन बढ़ कर 658 लीटर पर पहुंच गया. 1990 में एचआरएमएस ने 68800/- रुपये का लाभ कमाया जो 1996 में ब़ढ़़ कर 1.7 लाख रुपये पर पहुंच गया. परंतु, धमाल गांव के साथ संघर्ष के कारण 1997 में 3 बांध अनुपयोगी बन गए. 1998 में एचआरएमएस की आमदनी उस समय आधी रह गई, जब वन विभाग ने अर्जित राजस्व में से 55 प्रतिशत का दावा किया. परिवार आय बढ़ कर 40,000 रुपये प्रति वर्ष हो गई, भूजल का स्तर बढ़ कर 42 एमबीजीएल पर पहुंच गया. प्रतिदिन दूध की पैदावार बढ़ कर 995 लीटर और 1999-2000 के दौरान फसल उत्पादन बढ़ कर 42 किलोग्राम हो गया. 2000 के दशक में वन और जल संसाधनों से राजस्व प्राप्ति समाप्त हो गई, ट्यूबवेलों की संख्या बढ़ गई और भूजल का स्तर गिर कर 55 एमबीजीएल पर चला गया. परंतु परिवार आय का स्तर बढक़र (मुख्य रूप से दूध उत्पादन के कारण) प्रति वर्ष 60,000 पर पहुंच गया. हुडा ने 2012 में गांव की 32 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण कर लिया, जिससे चौसा बांध अनुपयोगी हो गया. अत: फसल पैदावार घट कर 600 किलोग्राम (2016) रह गई तथा किसान अब डेरी और बाहर जाकर ईंट भट्टों में काम करने को वरीयता देने लगे (सुष्मिता सेनगुप्ता, ‘सुखोमाजरी फाल्स अपार्ट’, डाउन टू अर्थ, 16-28 फरवरी, 2017, पृष्ठ संख्या 24-25).
(IV) प्रदूषण के दुष्परिणाम
विशेषकर पीएम 1 और पीएम 2.5 के सूक्ष्म कण मानव शरीर (मवेशियों सहित) को निम्नांकित रूप में नुकसान पहुंचाते हैं:
क)ये फेफड़ों पर दुष्प्रभाव डालते हैं, जिससे क्रोनिक ओस्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिसआर्डर जैसी बीमारी होती है और फेफड़ों की कार्य प्रणाली में गिरावट आती है.
ख)यह शिराओं के जरिए बहने वाले रक्त कणों को दुष्प्रभावित करते हैं, रक्त के प्रवाह पर असर डालते हैं और फ्रोम्बोसिस की समस्या पैदा करते हैं.
ग)यह वेस्कुलर सिस्टम एथरोस्कैलेरोसिस पर असर डालते हैं, खून की नसों के व्यास को घटा देते हैं और उच्च रक्तचाप पैदा करते हैं.
घ)इनका असर मस्तिष्क पर भी पड़ता है जिससे मस्तिष्क आघात, ब्रेन एश्चीमिआ, कॉग्नीटिव विकास और तंत्रिकाओं के क्षरण जैसी बीमारियां पैदा हो सकती हैं.
ङ)ये कण हृदय पर भी असर डालते हैं जिससे इसके कार्य करने पर असर पड़ता है, हृदय की धडक़न बढऩे संबंधी विकार पैदा हो सकता है. स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि दिल्ली/राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जैसे भारी प्रदूषण वाले शहर में रहने वालों के फेफड़े आज काले पड़ चुके हैं जबकि पहाड़ी इलाकों में रहने वालों के फेफड़े गुलाबी रंग के और ज्यादा स्वस्थ दिखाई देते हैं.
च)प्रजनन स्वास्थ्य पर असर - इससे प्रजनन संबंधी समस्याएं उत्पन्न होती हैं, भ्रूण के विकास में विकार उत्पन्न हो सकते हैं और समय पूर्व प्रसव तथा जन्म के समय शिशु के कम वजन की समस्या भी पैदा हो सकती है. आज स्मॉग (धुंआ, धुंध और कण वाले पदार्थों का मिश्रण) दिल्ली के लोगों के लिए बेहद खतरनाक प्रदूषक बन चुका है जो पड़ोसी पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में धान की फसल कटने के बाद खेतों में बचे अपशिष्ट (पराली) को जलाने के कारण उत्पन्न होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के अनुसार 2012 में दुनिया में प्रदूषण से 30 लाख मौतें हुईं जिनमें से कम से कम 6 लाख भारत में हुईं. चीन में इस तरह की मौतों की संख्या 8 लाख रही. लेकिन यह समग्र आकलन नहीं है और इसमें कमियां हैं क्योंकि भारत के आंकड़ों में नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन की वजह से होने वाली मौतें और प्रदूषण की वजह से समय से पहले प्रसव और पैदा होते समय शिशु के वजन में कमी के आंकड़े शामिल नहीं हैं. (द हिंदू, 28 सितंबर, 2016) 2015 में भारत में वायु प्रदूषण की स्थिति में और गिरावट आयी जिससे इस साल देश में 11.98 लाख लोग मौत का शिकार हुए जबकि इसी साल चीन में वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या 11.80 लाख रही (द हिंदू, 17 नवंबर, 2016).
इतना ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार घरों के भीतर विद्यमान वायु प्रदूषण से दुनिया में हर साल 43 लाख लोग मौत का शिकार होते हैं जिनमें से 13 लाख मौतें भारत में और 15 लाख चीन में होती हैं (द हिंदू, 30 दिसंबर, 2015). खुले में शौच करने से भी जल और वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है. यूनीसेफ के अनुसार सफाई पर खर्च किये जाने वाले प्रत्येक 1 रुपये से चिकित्सा खर्च में 4.30 रुपये की बचत होती है. इसके अलावा समय की बचत होती है और मौत टलने से हर परिवार को सालाना रु. 50,000 बचते हैं.
इसी तरह जल प्रदूषण भी मनुष्यों और जीव-जंतुओं के लिए खतरनाक है. कानपुर और आगरा में चमड़ा शोधन करने वाले हजारों संयंत्र और उनसे संबंधित कारखानों ने गंगा और यमुना नदियों के पानी को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उत्तर प्रदेश में नौ जिलों (गाजियाबाद, अलीगढ़, गौतम बुद्धनगर, बिजनौर, रामपुर, सम्भल, बुलंदशहर और हापुड़) में पेयजल में आर्सेनिक और सीसे की बहुत अधिक मात्रा पायी गयी. इसके अलावा इसमें घुलनशील ठोस पदार्थ पाये गये और इसकी गंध भी बहुत तीखी थी.
(V) समाधान:
समय बीतने के साथ-साथ भारत में ज्यादातर शहरी इलाकों में प्रदूषण के स्तर में और गिरावट आयी है. यह गिरावट पूरे देश में आम तौर पर और दिल्ली में खास तौर पर देखी गयी है. इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों और उनकी अधीनस्थ एजेंसियों जैसे केन्द्रीय/राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों तथा स्थानीय निकायों को और अधिक सक्रिय होकर कार्य करना होगा और थोथे वादों व भाषणों से ऊपर उठना होगा. इस संबंध में ऐसी समन्वित नीति अपनाये जाने की आवश्यकता है जिसमें चूक करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई का प्रावधान हो. ‘इलाज से बेहतर रोकथाम’ की कहावत के अनुसार प्रदूषण फैलाने वाला खुद भी भुगतता है वाली सोच को बदलना होगा और उसकी जगह प्रदूषण फैलाने वाले को दंडित करने की नयी सोच अपनानी होगी.
दूसरा, दीर्घकालीन उपयों पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए न कि सम-विषम प्रतिबंध जैसे अल्पावधि उपायों पर. दिल्ली में 2016 में 1 से 15 जनवरी तक चलाया गया सम-विषम प्रतिबंध अभियान कुछ हद तक सफल रहा था, लेकिन 15 से 30 अप्रैल 2016 को चलाया गया यही अभियान असफल हो गया क्योंकि पैसे वाले लोगों ने सम और विषम दोनों ही नंबरों की नयी या पुरानी कारें खरीद लीं. व्यक्तिगत कारों/स्कूटरों/मोटरसाइकलों को कम करने के लिए स्थानीय सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं (जैसे मुंबई में लोकल ट्रेन) की पर्याप्त व्यवस्था की जानी चाहिए. इस तरह की सेवाओं में अतिरिक्त डिब्बों, बसों, फेरों का इंतजाम होना चाहिए.
इसके अलावा शहरों/कस्बों में पर्याप्त साइकल ट्रैक, बैटरी रिक्शा ट्रैक और पैदल गलियारे बनाये जाने चाहिएं. दिल्ली, ग्वालियर, इलाहाबाद, पटना जैसे अत्यधिक प्रदूषण वाले शहरों में डीजल वाले वाहनों/डीजी सैट चलाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए. पहले चरण में 10 साल से अधिक पुराने सभी डीजल वाहनों पर रोक लगा दी जानी चाहिएं. भारत-4 उत्सर्जन मानदंडों को जल्द से जल्द अपनाया जाना चाहिए और मोटरवाहन उद्योग को नये वाहनों का निर्माण भारत-4 मानदंडों के तहत ही करने को मजबूर किया जाना चाहिए. इसके अलावा भीड़-भाड़ वाले इलाकों में ‘नो पार्किंग ज़ोन’ बनाए जाने चाहिएं और जिनमें पार्किंग शुल्क की दर 3-4 गुना अधिक होनी चाहिए और इसपर अमल सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
तीसरा, शहरों में और उनके आस-पास सभी ईंट भट्टे, हॉट मिक्स प्लांट, स्टोन क्रशर आदि बंद कर दिये जाने चाहिएं और सडक़ों पर धूल हटाने के लिए वैक्यूम क्लीनिंग मशीनों का इस्तेमाल होना चाहिए, और वह भी रात के समय.
चौथा, सडक़ों पर अधिक यातायात के दौरान वाहनों पर भीड़-भाड़ शुल्क भी अजमाया जाना चाहिए जिसके अंतर्गत कुछ खास स्थानों और समय पर किसी व्यस्त सडक़ का इस्तेमाल करने पर वाहन चालकों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए ताकि कारों का उपयोग कम हो. लंदन और सिंगापुर में यह तरीका सफल रहा है. इसलिए यातायात प्रबंधन पर खास ध्यान देने की जरूरत है.
पांचवां, स्वच्छ ऊर्जा जैसे सौर/पवन ऊर्जा पर आधारित उपकरणों, एलईडी बल्ब/ट्यूब, एलपीजी, सीएनजी गैस के अधिक से अधिक उपयोग के जरिए ऊर्जा की किफायत (किफायत एक तरह से उत्पादन के बराबर है). होटलों/ढाबों आदि में कोयले/लकड़ी आदि और कारखानों में फर्नेंस ऑयल के उपयोग पर पूरी पाबंदी लगनी चाहिए.
छठा, भवननिर्माण सामग्री का परिवहन ढके हुए वाहनों में किया जाना चाहिए और दूकानों, स्टोर व निर्माण स्थलों में भी ऐसी चीजें ढककर रखी जानी चाहिए.
सातवां, वायु प्रदूषण से बचाव के लिए जनता को जागरूक बनाया जाना चाहिए और उन्हें मास्क और एयर प्योरीफायर का उपयोग करने तथा अरीका पाम, स्नेक प्लांट, इंग्लिश आइवी, बोस्टन फर्न आदि उगाने के बारे में बताया जाना चाहिए. साइकिल के इस्तेमाल और कार पूलिंग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
आठवां, सड़-गल कर नष्ट न होने वाली प्लास्टिक की थैलियों पर कड़ी पाबंदी लगनी चाहिए क्योंकि इनसे नालियां और नाले अवरुद्ध हाते हैं. गाय जैसे जानवर इन थैलियों को खाते हैं जिससे इनमें मौजूद खतरनाक रसायन उनके शरीरों में पहुंचते हैं और भूतलीय व भूमिगत जल भी प्रदूषित होता है.
नौवां, प्रदूषित पानी वाले इलाकों में पानी की सफाई करके स्वच्छ जल की आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए.
दसवां, वर्षाजल संचय के प्रयासों को जन आंदोलन के रूप में चलाये जाने की आवश्यकता है. भारत केवल 20 प्रतिशत वर्षाजल का ही संचय कर पाता है जबकि इस्राइल 80 प्रतिशत वर्षाजल का संचय करता है. 2017 के अंत में सदगुरु जग्गी वासुदेव ने दक्षिण और उत्तर भारत में नदियों की सफाई के बारे में रैली की थी जिनमें हजारों लोगों ने भाग लिया था. उन्होंने कहा था कि 50 साल पहले बंगलुरु में तीन नदियां और 1000 झीलें थीं. लेकिन आज नदियां तो पूरी तरह लुप्त हो गयी हैं जबकि झीलों का क्षेत्र सिमट कर 81 प्रतिशत रह गया है. इनमें से भी 40 झीलें रासायनिक अपशिष्ट पदार्थों से प्रदूषित हैं. (टाइम्स ऑफ इंडिया, 2017).
ग्यारहवां, सभी जल स्रोतों को उनके मूल स्वरूप में वापस लाया जाना चाहिए (जैसे कि दिल्ली में करीब 1000 जल स्रोतों के ऊपर 20वीं सदी में किया गया निर्माण/अतिक्रमण) और जन अभियान चलाकर उनकी ढंग से सफाई कराई जानी चाहिए. जबतक जल-मल शोधन संयंत्रों की स्थापना नहीं हो जाती जैव उपचार तकनीकों (जलमल को खाने वाले जीवाणुओं की मदद से) का उपयोग करके नदी जल की सफाई की जानी चाहिए. इस संबंध में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने हाल में पटना और इलाहाबाद में छह परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान की है. यह तकनीक किफायती है (7 लाख रुपये का खर्च) और इसमें समय भी कम लगता है (6-8 महीने). इसके लिए गंगा में 54 नालों की पहचान की गयी है. अगर गंदा पानी और कचरा बिना उपचार के नदी में फेंका जाता है तो इसके लिए नगर निकायों/उद्योगों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए. कारखानों पर औद्योगिक अपशिष्ट और मलजल की सफाई कराने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए. उनको अपनी वार्षिक रिपोर्ट में पानी से संबंधित जानकारी को पारदर्शिता से प्रदर्शित करने के बारे में भी मजबूर किया जाना चाहिए. केन्द्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण संगठनों को नियमित रूप से इसकी निगरानी करनी चाहिए.
बारहवां, जल संरक्षण और प्रबंधन को इंजीनियरों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए बल्कि सभी संबद्ध पक्षों जैसे वैज्ञानिकों, समाज वैज्ञानिकों, स्थानीय लोगों, एनजीओज आदि को इसमें शामिल किया जाना चाहिए ताकि भूतलीय और भूमिगत दोनों ही तरह के जल के बारे में सहभागिता पर आधारित और निचले स्तर से शुरूआत करने वाला दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए. केन्द्रीय जल आयोग और केन्द्रीय भूजल बोर्ड को एक-दूसरे को बधाई देनी चाहिए और आपूर्ति पक्ष की बजाय मांग पक्ष की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. इसके लिए स्थानीय निकायों, एनजीओज आंदोलन आदि को शामिल करना जरूरी है. विभिन्न राज्य और केन्द्रीय एजेंसियां अब तक अपने दम पर दोषपूर्ण मॉडल ही तैयार कर पायी हैं जो आगे चल कर असफल साबित हुए हैं. इन मॉडलों के अनुरक्षण/पुनर्निर्माण पर भारी रकम खर्च करनी पड़ी है लेकिन इससे स्थानीय लोगों को पर्याप्त फायदा नहीं मिला है. इन दोनों संगठनों का विलय कर दिया जाना चाहिए ताकि जल प्रबंधन के बारे में समन्वित दृष्टिकोण अपनाया जा सके.
तेरहवां, खेती और बागवानी में खतरनाक रासायनिक उर्बरकों और कीटनाशकों के बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने से धरती की समूची सतह के साथ साथ भूमिगत जल पर भी असर पड़ा है. भारत में आज भी ऐसे करीब 100 खतरनाक कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है जो अन्य देशों में प्रतिबंधित हैं. भारत में प्रतिबंधित कीटनाशकों की संख्या सिर्फ 18 है जिससे जल और खाद्य प्रदूषण तथा विषाक्तता की समस्या उत्पन्न हुई है. अनुपम वर्मा समिति ने 2018 में सिर्फ 12 अन्य कीटनाशकों पर पाबंदी लगाने और 27 रसायनों की समीक्षा करने की सिफारिश की थी. समिति ने 6 और कीटनाशकों का उपयोग 2020 तक बंद करने का सुझाव दिया था. ‘इंडिया फॉर सेफ फूड’ की प्रमुख कविता करुगंती ने इस समिति की आलोचना की थी और मानोक्रोटोफॉस, इंडोसल्फान, ग्लाइफोसेट, आइसोप्रोटूरॉन (खरपतवार नाशक) पाबंदी नहीं लगाये जाने के खिलाफ इस समिति और कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की आलोचना की थी (टाइम्स ऑफ इंडिया, 16 अक्तूबर, 2017). इस तरह भारत में तमाम संबद्ध पक्षों को पर्यावरण प्रदूषण को रोकने और कम करने के लिए विचारों, शब्दों और कार्यों से बहुत कुछ करना होगा, तभी देशवासियों का कल्याण शीघ्रता से सुनिश्चित किया जा सकेगा.
(लेखक वरिष्ठ प्रशासक हैं. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं.)
चित्र: गूगल के सौजन्य से