प्रशिक्षित कार्मिकों का सृजन
लवी चौधरी
विकासशील और विकसित दोनों ही राष्ट्रों में वैश्वीकरण, ज्ञान और जागरूकता की बढ़ती आवश्यकता पूरी करने के लिए कार्मिकों का उच्च प्रशिक्षण युक्त होना अनिवार्य हो गया है, क्योंकि वे देशों की वृद्धि दर को फास्ट ट्रैक पर लाने में मददगार हैं. भारत के लिए कौशल विकास सामाजिक, आर्थिक और जन सांख्यिकीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है. कौशल क्षमता का मूल्यांकन 15-59 वर्ष के आयु समूह में भारतीय श्रमिकों के शैक्षिक और व्यावसायिक प्रशिक्षण के स्तर के आधार पर किया जाता है, और यह कम पाया गया है, क्योंकि श्रम शक्ति का करीब 30 प्रतिशत निरक्षर है, 25 प्रतिशत प्राथमिक से कम या प्राथमिक शिक्षा प्राप्त और शेष 35 प्रतिशत मिडिल एवं हायर सेकेंडरी स्तर तक पढ़ा लिखा है, जबकि मात्र 10 प्रतिशत श्रमिक व्यावसायिक दृष्टि से प्रशिक्षित हैं (जिनमें 2 प्रतिशत औपचारिक और 8 प्रतिशत अनौपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त हैं).
सरकार और उसकी प्रतिभागी एजेंसियां देश में कौशल विकास प्रणाली के कार्यान्वयन के लिए विभिन्न प्रकार के उपाय कर रही हैं.
नए युग के उद्योगों में वृद्धि के कारण हाल के वर्षों में भारत ने तेजी से प्रगति की है. क्रय शक्ति में बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप सेवा की गुणवत्ता के नए स्तर अपेक्षित किए जाने लगे हैं. फिर भी देश में प्रशिक्षित कार्मिकों की कमी निरंतर बनी हुई है.
बदलते आर्थिक परिदृश्य के कारण देश के ग्रामीण क्षेत्रों से घनी आबादी वाले शहरी केंद्रों में युवाओं केे अंतर-प्रवाह को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि युवाओं में कौशल विकसित करने पर अधिक बल दिया जाएं.
राष्ट्रीय कौशल विकास एजेंसी देश में कौशल विकास में नवाचार को बढ़ावा दे रही है और उद्यमशीलता को प्रोत्साहित कर रही है.कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय कौशल विकास परिदृश्य में नए विचारों और मानदंडों को शामिल करने के प्रति वचनबद्ध है और साथ ही सरकार के लक्ष्य को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए कौशल एवं उद्यमिता के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त करने में युवाओं की मदद कर रहा है. रोजग़ार सृजन के एक घटक के रूप में स्व-रोजग़ार का महत्व समझते हुए सरकार देश के सभी जिलों में इन्क्यूबेशन सेंटर स्थापित कर रही है, ताकि संभावनाशील उद्यमियों को प्रशिक्षित किया जा सके.
युवा वर्ग पूर्णकालिक रोजग़ार हासिल करने के लिए औपचारिक क्षेत्र में रोजग़ार प्राप्त करने का इच्छुक रहता है. इसके पीछे स्वास्थ्य देखभाल और वेतन सहित अवकाश जैसे लाभ उसे औपचारिक क्षेत्र की ओर आकर्षित करते हैं. इसके विपरीत अनौपचारिक और परंपरागत क्षेत्रों में युवा वर्ग की रुचि कम रहती है, जहां रोजग़ार सामयिक हो सकता है.
पिछले दशक में विश्व की सबसे बड़ी और सर्वाधिक तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं में भारत का शामिल होना एक महत्वपूर्ण घटना है.बढ़ोतरी के इस सिलसिले को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपने कार्मिकों के कौशल विकास की एक सक्षम और सतत प्रणाली का अनुसरण करे.
जन सांख्यिकीय लाभ बढ़ाने के लिए, भारत को अपने श्रमिकों को सही तरह का कौशल प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाना होगा. हमें यह अवश्य सुनिश्चित करना होगा कि 15 से 59 वर्ष के आयु समूह के भारतीय कामगारों का वर्तमान कौशल स्तर उनके सामान्य शैक्षिक स्तरों और व्यावसायिक प्रशिक्षण स्तरों के रूप में उन्नत बने.
शैक्षिक संस्थानों का ड्रॉप-आउट रेट यानी शिक्षा अधूरी छोडऩे वाले विद्यार्थियों की दर 5 से 14 वर्ष के आयु समूह में 50 प्रतिशत और 15 वर्ष के आयु समूह में 86 प्रतिशत होने का अनुमान है.इसके विपरीत 14 वर्ष की आयु के बाद श्रमिक शक्ति में अप्रशिक्षित आबादी की भागीदारी दर तेजी से बढ़ रही है और इसके परिणामस्वरूप कामगारों में अद्र्ध शिक्षितों की संख्या तेजी से बढ़ रही है.नतीजतन उच्चस्तरीय प्रशिक्षित कार्मिकों की भत्र्ती कठिन हो जाती है.भारतीय कामगारों में 30 प्रतिशत निरक्षर, 25 प्रतिशत प्राथमिक से कम शिक्षित अथवा प्राथमिक स्तर तक शिक्षित हैं और शेष 36 प्रतिशत का शैक्षिक स्तर मिडिल और उच्चतर स्तर का है. भारतीय कामगारों में 80 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके पास कोई बिक्री योग्य कौशल नहीं है.
कार्मिकों में मात्र 2 प्रतिशत औपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त हैं और 8 प्रतिशत ऐसे हैं, जिन्होंने अनौपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त किया है.इससे स्पष्ट है कि भारत में नए कार्मिकों में गिने चुने ऐसे हैं, जिनके पास बिक्री योग्य कौशल है.इस संदर्भ में भारत की स्थिति कोरिया (96 प्रतिशत), जर्मनी (75 प्रतिशत), जापान (80 प्रतिशत) और ब्रिटेन (68 प्रतिशत) जैसे विकसित राष्ट्रों की तुलना में अच्छी नहीं है.
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि साक्षरता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति के बावजूद भारत के कामगारों में उच्च स्तरीय निरक्षरता व्याप्त है.नए और मौजूदा दोनों श्रमिकों को कौशल प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता है.अत: कौशल विकास कार्यक्रमों की क्षमता और योग्यता दोनों में बढ़ोतरी की जरूरत है.इस दिशा में सरकार और इसकी भागीदार एजेंसियों ने देश की अर्थव्यवस्था में कौशल विकास प्रणाली के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए विभिन्न प्रकार के उपाय किए हैं.
विभिन्न संकेंद्रित प्रयासों के बावजूद कौशल विकास मिशन को पूरा करने में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.इसका कारण यह है कि इस मिशन के मार्ग में अनेक गंभीर चुनौतियां विद्यमान हैं.
मांग और आपूर्ति में सामंजस्य का अभाव: उद्योग जगत की कुशल श्रमिकों की मांग और कामगारों की आपूर्ति में भारी अंतराल है. परिणामस्वरूप सभी प्रकार के कौशल विकास उपायों में समस्याएं आती हैं.
मैन पावर ग्रुप (अमरीका) के अनुसार जर्मनी, अमरीका, फं्रास और जापान में ऐसे नियोक्ताओं का प्रतिशत क्रमश: 40, 57, 20 और 80 है, जिन्हें पदों पर भर्ती करने में कठिनाई आती है.भारत में ऐसे 67 प्रतिशत नियोक्ता हैं, जिन्हें कार्मिकों की भर्ती में कठिनाई होती है. अत: एक आदर्श स्थिति यह हो सकती है, जिसमें श्रमिक आपूर्ति को ऐसे प्रशिक्षित कार्मिकों में बदला जाए, जिन्हें आसानी से औद्योगिक क्षेत्र में नियोजित किया जा सके.परंतु, भारत में कार्मिकों का एक छोटा हिस्सा ही औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है.यह देखा गया है कि कम कौशल स्तर वाले रोजग़ारों में रिक्त पदों की तुलना में आवेदकों की संख्या अधिक होती है.इसके विपरीत उच्च कौशल स्तर की अपेक्षा रखने वाले रोजग़ारों में उपलब्ध रिक्त पदों की तुलना में प्रत्याशियों की संख्या कम होती है.मांग और आपूर्ति के इस अंतराल से पता चलता है कि युवा जो कौशल प्राप्त करते हैं और श्रम बाजार में जिसकी मांग है, उन दोनों के बीच तालमेल का गंभीर अभाव है.अत: कौशल विकास के प्रति जनोन्मुखी दृष्टि विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि कौशल विकास के उपायों को भौगोलिक, औद्योगिक और श्रम बाजारों में मांग एवं आपूर्ति परिदृश्य के साथ समन्वित किया जाए ताकि पर्याप्त और समुचित प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से उद्योग द्वारा अपेक्षित नए कौशल अथवा श्रमिकों की आपूर्ति में बदलावों के बीच समायोजन कायम किया जा सके.
भौगोलिक समस्या: श्रम बाजार से जुड़ी यह एक अन्य गंभीर समस्या है, जिसका भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था पर अधिक गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है, चूंकि भारत में कौशल के लिए लोगों की भौगोलिक स्थिति या पहुंच असमान और निराशाजनक है.अधिक ऊंची आर्थिक वृद्धि दर वाले राज्यों में रोजग़ार के नए अवसर अधिक हैं, जबकि श्रमिक शक्ति की दर निम्नतर है.दूसरी ओर कम आर्थिक वृद्धि दर वाले राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर ऊंची है और रोजग़ार के नए अवसर कम हैं. इस प्रकार पिछड़े राज्यों को इस चुनौती का सामना करने के लिए प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर रहना पड़ता है.
अधिसंख्य औपचारिक संस्थान ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं. यहां तक कि निजी क्षेत्र के संस्थान भी ग्रामीण क्षेत्रों में संचालन के इच्छुक नहीं हैं. अत: ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा औपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों से
वंचित है.
पिछड़े के रूप में अधिसूचित जिलों में औपचारिक कौशल प्रशिक्षण का नितांत अभाव है, चूंकि इन क्षेत्रों में कौशल विकास संस्थान केवल बुनियादी आजीविका कौशल पर बल देेते हैं और वह आमतौर पर स्वयंसेवी संगठनों या अन्य एजेंसियों द्वारा सामाजिक विकास कार्यक्रमों के रूप में प्रदान किया जाता है.इसलिए इस प्रकार का कौशल आमतौर पर औपचारिक रूप से मूल्यांकित नहीं किया जाता है और नतीजतन उसे औद्योगिक क्षेत्र में रोजग़ार के लिए मान्यता नहीं मिलती है.
श्रमिकों का एक लघु हिस्सा उच्चतर शिक्षा प्राप्त है अथवा किसी प्रकार के कौशल प्रशिक्षण से युक्त है.उच्च गुणवत्तापूर्ण औपचारिक शिक्षा या कौशल प्रशिक्षण के लिए क्षमता का विस्तार करने के व्यापक प्रयासों के बावजूद श्रमिक शक्ति उच्च आर्थिक वृद्धि से किसी तरह का लाभ नहीं उठा पाई है.
आज आवश्यकता इस बात की है कि कौशल विकास को ध्यान में रखते हुए सभी स्तरों पर गुणवत्ता पूर्ण शैक्षिक पाठ्यक्रम का प्रावधान किया जाए.अत: शैक्षिक सामग्री अथवा सिलेबस उद्योग और शिक्षा, दोनों के योजनाकारों द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया जाना चाहिए.इसे नियमित रूप से अद्यतन बनाया जाना चाहिए और इसमें प्रैक्टिकल प्रशिक्षण की मात्रा अधिक शामिल की जानी चाहिए, ताकि विद्यार्थी आवश्यक रोजग़ार कौशल हासिल कर सकें।
भारत में व्यावसायिक प्रशिक्षण निरंतर ज्ञान अर्थव्यवस्था के रूप की तरफ बढ़ रहा है जहां कौशल को आर्थिक वृद्धि के महत्वपूर्ण प्रेरक के रूप में मान्यता मिली है.परंतु व्यावसायिक शिक्षा के प्रति धारणा अभी भी संदिग्ध है.आमतौर पर यह माना जाता है कि व्यावसायिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा प्रणाली में दाखिला लेने में विफल रहने वालों के लिए है.इस तरह लगता है कि व्यावसायिक प्रशिक्षण को औपचारिक शिक्षा के एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में स्वीकार करने में अभी समय लगेगा.
भारत में 90 प्रतिशत नौकरियां कौशल आधारित हैं. अर्थात् उनके लिए किसी न किसी तरह के व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है.दूसरी तरफ, भारत में जनसंख्या का मात्र 2 प्रतिशत हिस्सा (15 से 25 वर्ष के आयु समूह में) व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए दाखिला लेता है.इसकी तुलना में यूरोप में 80 प्रतिशत और पूर्वी एशियाई देशों में 60 प्रतिशत आबादी व्यावसायिक प्रशिक्षण को वरीयता देती है.वर्तमान में 31 लाख लोगों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देने की क्षमता है, जबकि अनुमानित वार्षिक आवश्यकता 128 लाख कार्मिकों को प्रशिक्षण प्रदान करने की है.दूसरी तरफ 2022 तक 50 करोड़ श्रमिकों को कौशल प्रशिक्षण देने का समग्र राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किया गया है.इसका अर्थ यह है कि भारत को 2022 तक 30-35 करोड़ लोगों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जा सकेगा, जो 50 करोड़ लोगों को प्रशिक्षण देने के राष्ट्रीय लक्ष्य से काफी कम है.
इसके अतिरिक्त निजी क्षेत्र सेवा क्षेत्र के लिए अपेक्षित कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है जो मुख्य रूप से शिक्षित युवाओं को और अधिकतर शहरी क्षेत्रों में दिया जा रहा है.नतीजतन असंगठित क्षेत्र में हजारों श्रमिक किसी प्रकार का कौशल प्रशिक्षण प्राप्त नहीं कर पाते.परिणाम स्वरूप उत्पादकता का स्तर कम रहता है और अधिसंख्य कार्मिकों के बीच रोजग़ार सक्षमता अंतराल पैदा होता है.
औद्योगिक जरूरतों के बारे में जागरूकता और उन्हें पूरी करने के लिए समनुरूप व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की उपलब्धता के अभाव के कारण देश में अधिकतर संभावित विद्यार्थी व्यावसायिक शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं. अत: एक मापन योग्य, सक्षम और व्यापक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रणाली और जागरूकता पैदा करने के समुचित कार्यक्रम आज समय की आवश्यकता हैं. ये कार्यक्रम मौजूदा कौशल विकास पाठ्यक्रमों और बाजार की जरूरतों के बारे में जागरूकता फैलाने में मददगार हैं, जिससे विद्यार्थियों के दाखिलों में वृद्धि होती है और व्यावसायिक संस्थानों की विश्वसनीयता बढ़ती है.किसी अर्थव्यवस्था के समग्र कौशल पूंजी पूल में शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण महत्वपूर्ण योगदान करते हैं. शिक्षा व्यक्ति को साक्षरता, संख्यात्मक और संज्ञानात्मक योग्यता प्रदान करती है और व्यावसायिक प्रशिक्षण उसे विशेष कौशल प्रदान करता है.व्यावसायिक प्रशिक्षण का स्वरूप प्रैक्टिकल/हस्तचालित है जबकि इसके विपरीत शिक्षा का स्वरूप अधिकतर सैद्धांतिक होता है.इस तरह दोनों के बीच संपर्क कायम करने की आवश्यकता है, ताकि वे हाथ और मस्तिष्क के रूप में एक साथ अपना योगदान कर सकें.
भारत में महिलाओं के लिए कौशल विकास: महिलाएं भी कामगार शक्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. परंतु, समग्र श्रम बल में महिलाओं का प्रतिशत निरंतर कम हो रहा है.
श्रमिक बल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होने से जन संाख्यिकीय लाभ व्यर्थ जाते हैं.
भारत में महिलाएं मुख्य रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में केंद्रित हैं और उन्हें कम पारिश्रमिक वाले रोजग़ार में लगाया जाता है, जहां उनके लाभ सुरक्षित नहंी हैं. इससे पता चलता है कि महिला कार्मिकों के लिए रोजग़ार के अवसरों और कौशल का अभाव है।
वर्तमान में भारत में अधिसंख्य महिला कार्मिक अकुशल हैं अर्थात् किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम है.ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 65 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से अधिक महिलाएं बुनियादी प्राथमिक स्कूल शिक्षा से वंचित हैं. भारत में महिला कामगारों की क्षमता का पूर्ण दोहन करने के लिए कौशल विकास क्रांति के साथ साथ महिलाओं की रोजग़ार सक्षमता बढ़ाना भी आज समय की जरूरत है.रोजग़ार बाजार में महिलाओं की कारगर भागीदारी के लिए महिला उन्मुखी नीतियों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए.इससे भारत को अपने कौशल प्रशिक्षण लक्ष्य हासिल करने और 2025 तक सबसे बड़ी श्रमशक्ति होने के लाभ उठाने में मदद मिलेगी।
आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि सभी स्तरों पर गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक पाठ्यक्रम उपलब्ध कराया जाए, जिसमें कौशल विकास कार्यक्रमों को लक्ष्य बनाया गया हो.अत: यह जरूरी है कि सिलेबस और शैक्षिक सामग्री उद्योग और शैक्षिक जगत के योजनाकारों द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की जानी चाहिए.इससे विद्यार्थी औद्योगिक क्षेत्र की मांग पूरी करने के लिए आवश्यक रोजग़ार कौशल प्राप्त कर सकेंगे.
भारत में व्यावसायिक प्रशिक्षण निरंतर ज्ञान अर्थव्यवस्था के रूप की तरफ बढ़ रहा है जहां कौशल को आर्थिक वृद्धि के महत्वपूर्ण प्रेरक के रूप में मान्यता मिली है.परंतु व्यावसायिक शिक्षा के प्रति धारणा अभी भी संदिग्ध है. आमतौर पर यह माना जाता है कि व्यावसायिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा प्रणाली में दाखिला लेने में विफल रहने वालों के लिए है. इस तरह लगता है कि व्यावसायिक प्रशिक्षण को औपचारिक शिक्षा के एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में स्वीकार करने में अभी समय लगेगा. भारत में 90 प्रतिशत नौकरियां कौशल आधारित हैं. अर्थात् उनके लिए किसी न किसी तरह के व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है.दूसरी तरफ, भारत में जनसंख्या का मात्र 2 प्रतिशत हिस्सा (15 से 25 वर्ष के आयु समूह में) व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए दाखिला लेता है. इसकी तुलना में यूरोप में 80 प्रतिशत और पूर्वी एशियाई देशों में 60 प्रतिशत आबादी व्यावसायिक प्रशिक्षण को वरीयता देती है.
वर्तमान में 31 लाख लोगों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देने की क्षमता है, जबकि अनुमानित वार्षिक आवश्यकता 128 लाख कार्मिकों को प्रशिक्षण प्रदान करने की है. दूसरी तरफ 2022 तक 50 करोड़ श्रमिकों को कौशल प्रशिक्षण देने का समग्र राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किया गया है. इसका अर्थ यह है कि भारत को 2022 तक 30-35 करोड़ लोगों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जा सकेगा, जो 50 करोड़ लोगों को प्रशिक्षण देने के राष्ट्रीय लक्ष्य से काफी कम है.
इसके अतिरिक्त निजी क्षेत्र सेवा क्षेत्र के लिए अपेक्षित कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है जो मुख्य रूप से शिक्षित युवाओं को और अधिकतर शहरी क्षेत्रों में दिया जा रहा है.नतीजतन असंगठित क्षेत्र में हजारों श्रमिक किसी प्रकार का कौशल प्रशिक्षण प्राप्त नहीं कर पाते. परिणामस्वरूप उत्पादकता का स्तर कम रहता है और अधिसंख्य कार्मिकों के बीच रोजग़ार सक्षमता अंतराल पैदा होता है.
औद्योगिक जरूरतों के बारे में जागरूकता और उन्हें पूरी करने के लिए समनुरूप व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की उपलब्धता के अभाव के कारण देश में अधिकतर संभावित विद्यार्थी व्यावसायिक शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं.
सरकार और प्रतिभागी एजेंसियों के विभिन्न प्रयासों के बावजूद भारत में व्यावसायिक शिक्षा पाठ्यक्रमों की विश्वसनीयता प्रश्नों के घेरे में है. इसके अतिरिक्त व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को कम प्रतिष्ठित समझा जाता है और ऐसी योग्यता रखने वाले व्यक्तियों को पारिश्रमिक भी कम मिलता है, जिससे विद्यार्थी व्यावसायिक शिक्षा से जुडऩे में संकोच करते हैं. वे यह नहीं जानते कि व्यावसायिक पाठ्यक्रम किस तरह उनके व्यावसायिक कॅरियर की संभावनाओं में सुधार ला सकते हैं.
अत: एक मापन योग्य, सक्षम और व्यापक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रणाली और जागरूकता पैदा करने के समुचित कार्यक्रम आज समय की आवश्यकता हैं. ये कार्यक्रम मौजूदा कौशल विकास पाठ्यक्रमों और बाजार की जरूरतों के बारे में जागरूकता फैलाने में मददगार हैं, जिससे विद्यार्थियों के दाखिलों में वृद्धि होती है और व्यावसायिक संस्थानों की विश्वसनीयता बढ़ती है. किसी अर्थव्यवस्था के समग्र कौशल पूंजी पूल में शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण महत्वपूर्ण योगदान करते हैं. शिक्षा व्यक्ति को साक्षरता, संख्यात्मक और संज्ञानात्मक योग्यता प्रदान करती है और व्यावसायिक प्रशिक्षण उसे विशेष कौशल प्रदान
करता है.
वर्तमान स्थिति में निजी क्षेत्र की भागीदारी निम्नांकित अनुसार है: निजी क्षेत्र को शैक्षिक और व्यावसायिक प्रशिक्षण से संबंधित पाठ्यक्रम विकास और नीति निर्माण में समुचित रूप से शामिल नहीं किया जाता है.
निजी क्षेत्र के अधिकतर संस्थान शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं, जिससे ग्रामीण आबादी पिछड़ जाती है. इतना ही नहीं, इन संस्थानों में अध्ययन की लागत बहुत अधिक होने के कारण समाज के उपेक्षित वर्ग समुचित कौशल प्रशिक्षण प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं.
अत: सरकारी और निजी क्षेत्र को करीब लाने के लिए सुदृढ़ नीतिगत उपायों और परिचालनगत संपर्कों की आवश्यकता है ताकि प्रशिक्षण की गुणवत्ता और प्रासंगिकता में सुधार लाया जा सके।
रोजग़ार संबंधी चुनौती: भारत की मौजूदा कौशल (अथवा शिक्षा) विकास प्रणाली की एक बड़ी समस्या प्रशिक्षित व्यक्ति की शिक्षा और रोजग़ार के बीच संबंध का अभाव है.
ज्ञान के क्षेत्र में उच्च प्रशिक्षित श्रमिक जो अपने स्वभाव से लचीले और विश्लेषणात्मक हैं, उन्हें नवाचार और विकास के लिए प्रेरक शक्ति समझा जाता है.इसे हासिल करने के लिए भारत को एक बहुआयामी लचीली शिक्षा प्रणाली और अत्यंत सक्षम कौशल विकास प्रणाली अपनानी होगी.यह प्रणाली अपने प्रत्येक घटक के बीच संपर्क कायम करने वाली अवश्य होनी चाहिए.साथ ही उसे कौशल विकास और रोजग़ार सक्षमता के बीच एक सीवन रहित एकीकरण प्रदान करना चाहिए.
संस्थागत फ्रेंमवर्क की अधिकता: पिछले कुछ दशकों से भारत ने कौशल विकास परिदृश्य में महत्वपूर्ण प्रगति की है.राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर विभिन्न प्रकार के संगठन स्थापित किए गए हैं.
करीब 17 मंत्रालय, 2 राष्ट्रीय स्तर की एजेंसियां, कई क्षेत्रीय कौशल परिषदें, 35 राज्य कौशल विकास मिशन और अनेक व्यापार एवं उद्योग निकाय राष्ट्रीय कौशल विकास कार्यसूची को आगे बढ़ाने में योगदान के लिए आगे आए हैं.
आज आवश्यकता इस बात की है कि असंगठित क्षेत्र की श्रमिक शक्ति पर ध्यान केंद्रित किया जाए. हालांकि बेहतर और श्रेष्ठ कौशल प्रतिस्पर्धात्मक बाजार की अनिवार्य अपेक्षाएं हैं, परंतु व्यावाहरिक रूप में असंगठित क्षेत्र उच्च कोटि के महंगे श्रम को वहन करने की क्षमता नहीं रखता है.अत: इस संघर्षपूर्ण लक्ष्य का समाधान एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाकर किया जा सकता है, जो धीरे धीरे श्रम की गुणवत्ता में सुधार करता है, जबकि श्रम बाजारों की मांग और वहनीयता के बीच एक उद्देश्यपूर्ण संतुलन बनाए रखता है. पिछले वर्षों में कौशल में आधुनिकता और उसमें औद्योगिक समर्थन की बदौलत समग्र आर्थिक परिदृश्य में निरंतर सुधार आया है.उच्च कौशल स्तर के कार्मिकों की उपलब्धता से जहां एक ओर असंगठित क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा क्षमता बढ़ेगी, वहीं दूसरी तरफ इससे संगठित क्षेत्र को भी लाभ पहुंचेगा क्योंकि उच्चतर योग्यता रखने वाले कुछ कार्मिकों को निम्न शिक्षा स्तर होने के बावजूद संगठित क्षेत्र मेें रोजग़ार मिलने की संभावना रहेगी.
ढांचागत चुनौती: कौशल और प्रशिक्षण विकास कार्यक्रमों के समुचित कार्यान्वयन संबंधी सर्वाधिक महत्वपूर्ण अपेक्षाओं में से एक है, तत्संबंधी बुनियादी ढांचे की उपलब्धता.यह देखा गया है कि अनेक कौशल विकास संस्थान समुचित ढांचे के अभाव में समुचित योगदान नहीं कर पाते हैं.
किसी भी विकास योजना में निगरानी और मूल्यांकन महत्वपूर्ण होते हैं. इसीलिए राष्ट्रीय कौशल विकास और उद्यमिता नीति तैयार की गई है, जो एक परिणामोन्मुखी नीति है.
कौशल प्रशिक्षण के क्षेत्र में वांछित परिणाम सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि निगरानी के साथ साथ पाठ्यक्रम का शीघ्र मूल्यांकन भी किया जाए. मूल्यांकन के निष्कर्षों के आधार पर हम कारगर उपाय कर सकेंगे और इस प्रक्रिया की खामियों को दूर कर सकेंगे.
(लेखिका एक पत्रकार हैं, ईमेल: loveeyyy@gmail.com ये लेखिका के निजी विचार हैं).
चित्र: गूगल के सौजन्य से