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विशेष लेख


Volume-32, Dated 4-10 November, 2017

सरदार वल्लभभाई पटेल : भारतीय एकता की प्रतिमूर्ति

नावेद जमाल

सरदार वल्लभभाई पटेल जो दृढ़निश्चयी राष्ट्रवादी और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्रामके महानायक थे, भारतीय एकता और अखंडता की प्रतिमूर्ति हैं. जब भी स्वतंत्रता के बाद देशी रियासतों के एकीकरण और भारतीय संघ में उनके विलय की चर्चा होती है सरदार पटेल का स्मरण हो आता है. राष्ट्र के एकीकरण के बारे में उनकी जो अडिग वचनबद्धता थी उसकी बदौलत उन्हें ‘‘भारत के लौह पुरुष’’ की उपाधि मिली. देश के प्रथम उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल एक महान किसान नेता भी थे जिन्होंने गुजरात में खेड़ा, बोरसद और बारदोली में किसानों का नेतृत्व किया. किसानों के अधिकारों के लिए बड़ी लगन से कार्य करने और किसान आंदोलन को सफल बनाने के लिए उन्हें ‘‘सरदार’’ की उपाधि मिली. कृषि के क्षेत्र में उन्होंने पुराने जमींदारों और रियासतों दोनों के खिलाफ किसानों के अधिकारों का समर्थन किया. वह भारत को दुनिया की औद्योगिक शक्ति बनाना चाहते थे और उनका मानना था कि ऐसा केन्द्र को मजबूत करके ही किया जा सकता है. संविधान सभा में केन्द्र-राज्य संबंधों पर चर्चा के समय उन्होंने मजबूत केन्द्र का समर्थन किया. पटेल औद्योगिक विकास और कृषि के क्षेत्र में आमूल बदलाव लाने में सरकार की भूमिका के खिलाफ कभी नहीं रहे, मगर उन्होंने इस संबंध में संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए निजी औद्योगिक व वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों पर माक्र्सवादी प्रभाव वाली हिंसा और हमलों का कभी समर्थन नहीं किया. वह भारत की वास्तविक स्थितियों को समझे बगैर किसी बाहरी विचारधारा की नकल करने के पक्ष में नहीं थे. सरदार पटेल को आधुनिक अखिल भारतीय सिविल सेवा प्रणाली की स्थापना में उनके योगदान के लिए भी जाना जाता है. 1947 में दिल्ली के मैटकाफ हाउस में उन्होंने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल में सिविल सेवा प्रशिक्षणार्थी अधिकारियों को संबोधित किया था जिसकी याद में हर साल 21 अप्रैल को सिविल सेवा दिवस मनाया जाता है.
31 अक्टूबर को उनका जन्म दिन राष्ट्र के प्रति उनके योगदान का स्मरण करने और अखंड भारत की उनकी परिकल्पना से प्रेरणा लेने का बड़ा अच्छा अवसर है. कृतज्ञ राष्ट्र इस दिन को ‘‘राष्ट्रीय एकता दिवस’’ के रूप में मनाता है और इसके आयोजन का सिलसिला 2014 से ही शुरू हो सका है. इस महान स्वाधीनता सेनानी को देश के सर्वोच्च असैनिक सम्मान भारत रत्नसे मरणोपरांत सम्मानित करने में भी काफी विलंब हुआ क्योंकि 1991 में उन्हें इससे नवाजा गया. हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को 1955 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था और उन्हीं की पुत्री तथा देश की तृतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी कार्यभार संभालने के सिर्फ  पांच साल बाद 1971 में भारत रत्न से सम्मानित कर दिया गया था. दोनों को प्रधानमंत्री पद पर कार्य करते हुए भारत रत्न दे दिया गया था.
असल में देश नेे राष्ट्र के प्रति सरदार पटेल के योगदान का महत्व बहुत देर से समझा. लेकिन देर आयद, दुरस्त आयद. वर्तमान सरकार राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा देऩे के लिए उनके महत्व को स्वीकार कर रही है. उनका जन्मदिन बड़े व्यापक पैमाने पर मनाया जा रहा है और इस अवसर पर ‘‘एकता दौड़’’ का आयोजन भी किया जा रहा है.
सरदार पटेल का प्रारंभिक जीवन:
सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म गुजरात के नाडियाड कस्बे में 31 अक्तूबर, 1975 को हुआ. गुजराती माध्यम के एक स्कूल से अपनी शिक्षा की शुरूआत करने के बाद वह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढऩे गये. 1897 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की और कानून की डिग्री की पढ़ाई के लिए 1910 में इंग्लैंड गये. 1913 में उन्होंने लंदन के इन्स कोर्ट से कानून की डिग्री हासिल की और वहां से लौट कर गुजरात में गोधरा में वकालत शुरू की. कानून में उनकी दक्षता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने कई आकर्षक पदों पर उनकी नियुक्ति की पेशकश की, मगर उन्होंने सबको ठुकरा दिया क्योंकि वह ब्रिटिश सरकार और उनके कानूनों के विरोधी थे. बाद में सरदार पटेल वकालत करने के लिए अहमदाबाद आ गये. वह गुजरात क्लब के सदस्य बन गये जहां उन्होंने महात्मा गांधी का एक भाषण सुना. गांधी जी के शब्दों ने उनपर गहरा असर छोड़ा और बहुत जल्द उन्होंने गांधीवादी सिद्धांतों को अपना लिया.  
स्वतंत्रता संग्राम में सरदार पटेल का योगदान
1917 में सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गुजरात इकाई के सचिव चुने गये. 1918 में उन्होंने खेड़ा में बाढ़ से किसानों की फसल तबाह हो जाने के बाद लगान न चुकाने के आंदोलन का नेतृत्व किया. बाढ़ से तबाही के बावजूद सरकार किसानों से जबरन लगान वसूल करना चाहती थी और उसने कर न चुकाने वाले किसानों की जमीन हड़प ली. लेकिन सरदार पटेल के नेतृत्व में शांतिपूर्ण आंदोलन ने ब्रिटिश अधिकारियों को किसानों को उनकी जमीन वापस लौटाने पर मजबूर कर दिया. अपने इलाके के किसानों को एकजुट करके मजबूत आंदोलन खड़ा करने के उनके प्रयासों की वजह से उन्हें यहीं सरदारकी उपाधि मिली. उन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन का भी जोरदार समर्थन किया. लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए सरदार पटेल ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी और तीन लाख लोगों को भर्ती किया और उनके लिए 15 लाख रुपये चंदा भी इक_ा किया.
1928 में बारदोली के किसानों को एक बार फिर लगान की समस्या का सामना करना पड़ा. बार-बार आदेश के बावजूद जब किसानों ने बढ़ी हुई लगान का भुगतान करने से इनकार कर दिया तो सरकार ने बदले की कार्रवाई करते हुए उनकी जमीनें जब्त कर लीं. किसानों का आंदोलन छह महीने से अधिक समय तक जारी रहा. सरदार पटेल के नेतृत्व में बातचीत के कई दौर पूरे होने के बाद किसानों के प्रतिनिधियों और सरकार के बीच एक समझौता हुआ और किसानों को उनकी जमीन वापस मिल गयी.
1930 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गये नमक सत्याग्रह में हिस्सा लेने के आरोप में जिन नेताओं को गिरफ्तार किया गया उनमें सरदार पटेल भी शामिल थे. नमक सत्याग्रह के दौरान उनके प्रेरक भाषणों ने अनगिनत लोगों की सोच बदल दी और इन लोगों ने ही बाद में आंदोलन को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. गांधीजी जब जेल में बंद थे तो सरदार पटेल ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के अनुरोध पर समूचे गुजरात में सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व किया और गिरफ्तार कर लिये गये. महात्मा गांधी और लॉर्ड इर्विन के बीच समझौते के बाद सरदार पटेल को 1931 में जेल से रिहा किया गया. इसी साल सरदार पटेल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन में अध्यक्ष निर्वाचित हुए जिसमें पार्टी ने अपने आगे के कार्यक्रम के बारे में विचार किया. कांग्रेस ने बुनियादी अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति वचनबद्धता का संकल्प लिया. इसी सत्र में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की संकल्पना ने आकार ग्रहण किया.  
1934 के विधानसभा चुनावों में सरदार पटेल ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए प्रचार किया. हालांकि उन्होंने खुद चुनाव नहीं लड़ा लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी के सदस्यों को चुनाव में पूरी मदद दी.
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सरदार पटेल ने गांधीजी को अपना अटूट समर्थन जारी रखा जबकि उस समय के कई नेताओं ने गांधीजी के निर्णय की आलोचना की. पटेल ने देश भर की यात्रा की और आंदोलन की कार्यसूची का प्रचार किया. 1942 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और 1945 तक अहमदनगर की जेल में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ कैद में रखा गया.
सरदार पटेल को अपनी जीवन यात्रा में कांग्रेस के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं के साथ टकराव का सामना करना पड़ा. जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1936 में समाजवाद की हिमायत करने पर उन्होंने खुलकर अपनी खीज जाहिर करते हुए कहा कि इससे भारत को कोई फायदा नहीं हो सकता. नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर भी उनके मन में कुछ आशंकाएं थीं. लेकिन उनकी आलोचना अपने किसी सहयोगी के साथ व्यक्तिगत वैमनस्य की वजह से न होकर राष्ट्र के हितों पर आधारित होती थी. असल में पटेल की राजनीति और विचारधारा पर गांधी जी का जबरदस्त असर था. उन्होंने महात्मा गांधी के प्रति उनकी अटूट निष्ठा थी और वे जीवन भर उनके सिद्धांतों का अनुसरण करते रहे. पं. जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और मौलाना आज़ाद जैसे कुछ नेता महात्मा गांधी के इस विचार की आलोचना करते थे कि सविनय अवज्ञा आंदोलन अंग्रेजों को भारत छोडऩे को मजबूर कर देगा, मगर सरदार पटेल ने इस संबंध में गांधीजी को पूरा समर्थन दिया. कांग्रेस हाई कमान की अनिच्छा के बावजूद महात्मा गांधी और सरदार पटेल ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रस्ताव का अनुमोदन करने को बाध्य कर दिया और यह आंदोलन बिना किसी विलम्ब के शुरू हुआ. गांधीजी के अनुरोध पर सरदार पटेल ने भारत के प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी छोड़ दी. निश्चय ही, यह अपने मार्गदर्शक के निर्देश का पालन करने और उसे सम्मान देने के लिए यह बहुत बड़ा बलिदान था.
भारत के एकीकरण की सरदार पटेल की संकल्पना और प्रयास
मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में अलग राष्ट्र के आंदोलन की वजह से आजादी से पहले देश में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अनेक हिंसक दंगे हुए. सरदार पटेल का मानना था कि दंगों से भडक़ा साम्प्रदायिक तनाव आजादी के बाद देश में कमजोर केन्द्रीय सरकार के बनने का कारण बन सकता था और ऐसी सरकार को वह एक लोकतांत्रिक देश के रूप में राष्ट्र के एकीकरण के लिए विनाशकारी मानते थे. इस समस्या के समाधान के लिए पटेल ने दिसंबर 1946 में उस समय के एक सिविल सेवा अधिकारी वी.पी. मैनन के साथ विचार-विमर्श किया और राज्यों के धार्मिक रुझानों पर आधारित अलग संघ राज्य बनाने के सुझाव को स्वीकार किया. विभाजन परिषद् में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया.
भारत के आजाद होने के बाद सरदार पटेल देश के पहले गृह मंत्री और पहले उप-प्रधानमंत्री भी बने. इसके अलावा उन्होंने सूचना और प्रसारण तथा राज्यों से संबंधित विभागों का कार्यभार भी संभाला. स्वतंत्रता के बाद करीब 562 रजवाड़ों के भारतीय संघ में सफलतापूर्वक विलय करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ब्रिटिश हुकूमत ने इन शासकों को दो विकल्प दिये थे - या तो वे भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी में शामिल हो जाएं, या फिर स्वतंत्र बने रहें. यह सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे राजनेता की ही दूरदर्शी सोच और सूझबूझ का ही नतीजा था कि देसी रियासतों के तहत आने वाले काफी बड़े इलाके का भारतीय संघ में विलय हुआ. सबसे बड़ी बात यह थी कि यह सब रिकार्ड समय में अत्यंत सद्भावपूर्ण माहौल और शर्तों के साथ हुआ. लोकतांत्रिक तरीके से रियासतों के एकीकरण की और कोई मिसाल नहीं मिलती. विश्व समुदाय के बीच भारत की पहचान एक ऐसी सभ्यता वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में बनी जिसमें राष्ट्र के रूप में एकजुट रहने की पूरी सामथ्र्य है.   
उस वक्त सैकड़ों रियासतों में बंटे देश का एकीकरण करना अत्यंत कठिन कार्य था मगर सरदार पटेल ने 6 अगस्त, 1947 को इसके लिए समर्थन जुटाना शुरू किया. जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद को छोडक़र बाकी सब रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने में उन्हें कामयाबी मिली. अपनी जबरदस्त राजनीतिक सूझ-बूझ से उन्होंने बकाया रियासतों के एकीकरण में सफलता प्राप्त की. आज हम जो भारत देखते हैं वह सरदार वल्लभभाई पटेल के अथक प्रयासों का नतीजा है. 
सरदार पटेल भारत की संविधान सभा के प्रमुख सदस्यों में से एक थे और उन्हीं की सिफारिश पर डॉ. अम्बेडकर को नियुक्त किया गया था. भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा की स्थापना में उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही. उन्होंने गुजरात में सौराष्ट्र में सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने में व्यक्तिगत रुचि दिखाई. सितंबर 1947 में भारत पर हमला कर कश्मीर को हड़पने के पाकिस्तान के मंसूबे को उन्होंने सख्ती से नाकाम कर दिया. उन्होंने भारतीय सेना के तत्काल विस्तार और उसके बुनियादी ढांचे से संबंधित पहलुओं में सुधार के काम की देखरेख की. पं. नेहरू की नीतियों से वे अक्सर असहमत रहते थे, खास तौर पर शरणार्थियों के मसले पर पाकिस्तान से निपटने के मुद्दे पर. उन्होंने पहले पंजाब और दिल्ली में और उसके बाद पश्चिम बंगाल में कई शरणार्थी शिविर बनाए.
तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने देसी रियासतों के विलय में सरदार पटेल के महत्वपूर्ण योगदान को यह कहते हुए स्वीकार किया कि उस दूरदर्शी राजनेता और रियासतों से संबंधित मसलों के प्रभारी सदस्य का आभार जिनके प्रयासों से एक योजना तैयार की गयी’. इससे यह बात साफ हो जाती है कि माउंटबेटन देसी रियासतों को भारत संघ के हिस्से के रूप में देखना चाहते थे. ज्यादातर रियासतें भारत के साथ भौगोलिक रूप से जुड़ी हुई थीं इसलिए इस समस्या का समाधान भारत के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था. यह शासकों और रियासतों की सरकारों के यथार्थवाद और उत्तरदायित्व की भावना की बहुत बड़ी जीत तो थी ही, भारत सरकार के लिए भी जीत की बात थी कि रियासतों के विलय का ऐसा दस्तावेज तैयार हुआ जो दोनों पक्षों को समान रूप से स्वीकार्य था. इसके अलावा यह इतना आसान और खरा था कि तीन सप्ताह से भी कम समय में लगभग सभी रियासतों ने विलय के समझौते और यथास्थिति समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये. इस तरह यह बात साबित हो जाती है कि इस महान उप-महाद्वीप के बड़े हिस्से के 30 करोड़ से अधिक लोग एकीकृत राजनीतिक ढ़ांचे के पक्षधर थे. सरदार पटेल ने 1947 में देसी रियासतों को लिखे अपने पत्र में लिखा कि भारतीय देश के इतिहास के निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. सामूहिक प्रयासों से भारतीय अपने देश को नयी बुलंदियों तक पहुंचा सकते हैं जबकि एकता की कमी से हम अप्रत्याशित आपदाओं को बुलावा दे सकते हैं. सरदार पटेल को आशा थी कि भारतीय रियासतें इस बात को पूरी तरह समझेंगी कि अगर भारतीय सहयोग नहीं करेंगे और एकजुट होकर सबके फायदे के लिए कार्य नहीं करेंगे तो चाहे बड़े हों या छोटे अराजकता और अव्यवस्था फैल जाएगी जो हम सबको तबाह कर सकती है. सरदार पटेल ने कूटनीति के जरिए और समझा-बुझाकर देसी रियासतों के शासकों को जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का सम्मान करने को राजी करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई. इस तरह उन्होंने आधुनिक भारत के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान किया.
1950 में सरदार पटेल का स्वास्थ्य खराब होने लगा था. 2 नवंबर 1950 को उनकी तबीयत और बिगड़ गयी और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया. 15 दिसंबर 1950 को दिल का जबरदस्त दौरा पडऩे से इस महान नेता ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. पटेल अहमदाबाद और मुंबई में मामूली से मकानों में हमेशा बड़ी सादगी से रहे और उन्होंने अपने उत्तराधिकारियों के लिए कोई बड़ी जायदाद नहीं छोड़ी.    
आज जब अलगाववादी ताकतें बाहरी ताकतों की मदद से देश के विभिन्न भागों में सक्रिय हैं और देश के विभिन्न भागों व समुदायों में प्रतिक्रियावादी सिर उठा रहे हैं तो ऐसे में सरदार पटेल का दृष्टिकोण और उनकी परिकल्पना और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है. जिस लौह पुरुष ने भारत को एकीकृत किया वह आगे भी देशवासियों को एकता की हमेशा प्रेरणा देता रहेगा.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
चित्र: गूगल के सौजन्य से