शिक्षा और उपभोक्ता अधिकार
डा. शीतल कपूर
भारत में शिक्षा के व्यवसायीकरण की वजह से छात्रों और अभिभावकों को शैक्षिक संस्थानों के बारे में सचेत रहने की जरूरत है. उन्हें किसी भी स्कूल, कॉलेज या तकनीकी संस्थान में दाखिले के समय हड़बड़ी नहीं करनी चाहिये. किसी भी संस्थान में दाखिला लेने से पहले उसकी विश्वसनीयता की जांच करें. हमें शैक्षिक संस्थानों के भ्रामक दावों के जाल में फंसने से बचना चाहिये.
समुचित सेवा देने में नाकाम रहने, अनुचित व्यापार पद्धति अपनाने तथा अपनी विवरणिका और विज्ञापनों में झूठे दावे करने वाले संस्थान के खिलाफ उपभोक्ता संरक्षण कानून, 1986 के तहत कानूनी कार्यवाही की जा सकती है. ऐसी कार्यवाही कानून में ‘सेवा में कमी’ और ‘अनुचित व्यापार पद्धति’ से संबंधित प्रावधानों के तहत करना संभव है. संस्थान को कानूनी तौर पर या अनुबंध में किये गये वायदे के अनुसार जिस गुणवत्ता, प्रकृति और प्रकार की सेवा देनी है उसमें कोई भी गड़बड़ी, अपूर्णता, खामी या अपर्याप्तता ‘सेवा में कमी’ मानी जायेगी. मसलन, किसी शिक्षा संस्थान का अपनी विवरणिका में किये गये वायदे के विपरीत समुचित प्रयोगशालाएं और ढांचागत सुविधाएं मुहैया नहीं कराना ‘सेवा में कमी’ के दायरे में आयेगा.
उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत अगर कोई भी व्यापारी अपनी वस्तु या सेवा की बिक्री, इस्तेमाल या आपूर्ति को बढ़ावा देने के लिये गलत या भ्रामक तौर-तरीके अपनाता है तो इसे ‘अनुचित व्यापार पद्धति’ माना जायेगा. कानून के खंड 2 (आर) में ‘अनुचित व्यापार पद्धति’ को परिभाषित किया गया है. शैक्षिक संस्थान यदि विज्ञापनों, पुस्तिकाओं, पर्चों या सूचनापट्टों के जरिये अथवा मौखिक तौर पर कोई भी भ्रामक वाणिज्यिक दावा करता है तो यह ‘अनुचित व्यापार पद्धति’ के दायरे में आयेगा. कानून के खंड 2 (1) (आर) में भ्रामक दावों को स्पष्ट किया गया है जिसके अनुसार -
(क) यदि कोई संस्थान सेवाओं के स्तर, गुणवत्ता या श्रेणी के बारे में दावे को पूरा करने में नाकाम रहता है तो यह परिमाण संबंधी भ्रामक वक्तव्य होने के कारण अनुचित व्यापार पद्धति माना जायेगा.
(ख) अगर कोई संस्थान अपनी सेवाओं की मान्यता, प्रायोजन, प्रदर्शन, गुण, उपयोग या फायदे के बारे में गलत दावा करता है तो यह भी अनुचित व्यापार पद्धति कहलायेगा. मसलन, किसी संस्थान का अपने विज्ञापनों में यह झूठा दावा करना कि वह भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) से मान्यताप्राप्त है इसी दायरे में आयेगा.
(ग) किसी कॉलेज का यह झूठा कथन भी अनुचित व्यापार पद्धति कहलायेगा कि उसे किसी विदेशी विश्वविद्यालय से मान्यता मिली हुई है.
(घ) कोई संस्थान अपनी सेवा से किसी खास आवश्यकता या उपयोग के पूरा होने के बारे में गलत दावा करे तो यह भी अनुचित व्यापार पद्धति माना जायेगा.
शैक्षिक संस्थान की त्रुटिपूर्ण सेवा पर फीस वापसी के एक मामले में राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग के हाल के एक फैसले का जिक्र करना यहां प्रासंगिक होगा. गोविंद प्रसाद रथ नामक एक व्यक्ति ने अपने बेटे अंजन कुमार रथ का दाखिला श्री चैतन्य शैक्षिक संस्थान में दो साल के एक पाठ्यक्रम में कराया था. इस व्यक्ति ने दाखिले की फीस और छात्रावास शुल्क के रूप में संस्थान को 90000 रुपये का भुगतान किया था. छात्र को खराब स्वास्थ्य और खानपान की समस्या के कारण संस्थान से हटा लिया गया. श्री रथ ने दावा किया कि छात्रावास में खाना अस्वास्थ्यकर स्थितियों में पकाये जाने के कारण उनके बेटे को खानपान के बारे में परेशानी शुरू हो गयी थी. उन्होंने संस्थान से चुकायी गयी रकम वापस करने की मांग की. ऐसा करने से संस्थान के इनकार के बाद श्री रथ ने सेवा में कमी का आरोप लगाते हुए उसके खिलाफ जिला उपभोक्ता मंच में शिकायत दर्ज करायी.
संस्थान ने जिला उपभोक्ता मंच में सुनवाई के दौरान इस आरोप का खंडन किया कि छात्रावास में खाना अस्वास्थ्यकर स्थितियों में बनाया जा रहा था. उसने कहा कि एक छात्र को दाखिल कर लिये जाने के बाद उसकी सीट पर अगले दो साल तक किसी भी दूसरे विद्यार्थी के दाखिले की गुंजाइश नहीं होती. ऐसे में छात्र को फीस वापस करने पर संस्थान को वित्तीय क्षति उठानी पड़ेगी.
जिला मंच ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद संस्थान को निर्देश दिया कि वह शिकायतकर्ता को 90000 रुपये की रकम 12 प्रतिशत के वार्षिक ब्याज के साथ लौटाये. इस फैसले से असंतुष्ट संस्थान ने राज्य आयोग में अपील की जिसे खारिज कर दिया गया. इसके बाद संस्थान ने राष्ट्रीय आयोग में समीक्षा याचिका दायर की. राष्ट्रीय आयोग ने पाया कि संस्थान में भोजन की खराब गुणवत्ता के कारण शिकायतकर्ता के बेटे समेत कई छात्र खाद्य विषाक्तता की चपेट में आ गये थे. इसी वजह से शिकायतकर्ता ने अपने बेटे को संस्थान से हटा लिया था. संस्थान अपना कोई भी ऐसा नियम नहीं दिखा सका जिसमें किसी छात्र के हटने की दशा में खाली सीट नहीं भरने का प्रावधान हो. लिहाजा राष्ट्रीय आयोग ने जिला मंच के आदेश की पुष्टि कर दी.
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में कमला नेहरू कॉलेज के वाणिज्य विभाग में सह-प्राध्यापक और उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं.)
चित्र: गूगल के सौजन्य से