स्वच्छता पर गांधीजी के विचार
हमारी स्वच्छता निश्चित तौर पर आंतरिक और बाह्य दोनों पर आधारित हो. पहले का अर्थ सच्चाई से है. सच्चाई शुद्धता का सार है, और यह सफाई की एक अन्य संज्ञा भी है. (कलेक्टड वक्र्स ऑफ महात्मा गांधी (सीडब्ल्यूएमजी) अंक XLIX, पृष्ठ 414; 9-5-1932, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित)
मन और शरीर की स्वच्छता, शिक्षा की दिशा में पहला कदम है. प्रार्थना मन की शुद्धता के लिए वही करती है जो आपके आसपास की सफाई के लिए बाल्टी और झाड़ू करती हैं. यही कारण है, हम हमेशा प्रार्थना के साथ अपना कार्य शुरु करते हैं. इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि हम जो प्रार्थना करते हैं वह हिंदू प्रार्थना है अथवा मुस्लिम अथवा पारसी, निश्चित रूप से इसका कार्य एक समान है, अर्थात हृदय का शुद्धिकरण.
(सीडब्ल्यूएमजी; अंक LXXVIII; पृष्ठ 320, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित)
मल-मूत्र त्याग केवल निर्धारित स्थानों पर होना चाहिए. रास्ते में कहीं भी, किसी स्थान पर मूत्र त्याग करना एक अपराध माना जाना चाहिए. किसी चयनित स्थान पर मूत्र त्याग करने के बाद उस स्थान को सूखी मिट्टी से ढक देना चाहिए. शौचालयों को अच्छी तरह साफ -सुथरा रखना चाहिए. उस हिस्से को भी साफ रखना चाहिए, जिससे पानी बहता है. हमारे शौचालय हमारी सभ्यता को कलंकित करते हैं, वे स्वच्छता के नियमों की अवहेलना करते हैं. यदि मेरा सुझाव माना जाए, तो मैला उठाने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, वायु प्रदूषण नहीं होगा और गांव साफ-सुथरे रहेंगे.
(‘आवर डर्टी वेज’, नवजीवन, 13-9-1925)
जो , कुछ व्यवस्था और विधि के अभाव की सच्चाई है, वह गंदगी की भी सच्चाई है. एक व्यक्ति जो सादगी से प्रेम करता है, वह कभी भी गंदा नहीं रहेगा. सादगी में ही स्वच्छता निहित है.
(सीडब्ल्यूीएमजी अंक XXVII पृष्ठ 116; 17-5-1925 प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित)
‘‘कोई भी व्यक्ति रास्ते पर नहीं थूके अथवा अपनी नाक साफ न करे. कुछ मामलों में थूक इतना नुकसानदायक होता है कि इसके जीवाणु दूसरे व्यक्ति को तपेदिक से संक्रमित कर देते हैं. कुछ स्थानों में सडक़ पर थूकना एक अपराध माना जाता है. जो व्यक्ति पान के पत्ते अथवा तम्बाकू चबाकर थूकते हैं, उनके पास दूसरे व्यक्तियों की भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. थूक-लार, नाक की बलगम आदि को भी मिट्टी से ढक देना चाहिए. गांवों और आवास-स्थलों के आसपास कोई गड्ढा न हो, जिसमें पानी जमा हो सके. जहां जल-जमाव नहीं होता है, वहां मच्छर नहीं पनपते. जहां मच्छर नहीं होते, वहां मलेरिया के मामले कम पाए जाते हैं. एक समय में, दिल्ली के आसपास जल-जमाव होता था, गड्ढे भरे जाने के बाद मच्छर काफी कम हो गए और इसके फलस्वरूप मलेरिया के मामले भी कम हो गए.’’
(नवजीवन, 2-11-1919)
‘‘मुझे एक मुद्दे पर अपना बचाव करना होगा, वह है- स्वच्छता सुविधाएं. मैंने 35 वर्ष पहले सीखा था कि एक शौचालय उतना ही साफ-सुथरा हो, जितना कि एक ड्रॉइंग रूम. मैंने यह पश्चिम में सीखा. मैं समझता हूं कि शौचालयों में स्वच्छता के बारे में कई नियमों का पूरब की तुलना में पश्चिम में अधिक ईमानदारी से पालन किया जाता है. इस मुद्दे पर उनके नियमों में कुछ कमियां हैं, जिसका समाधान आसान है. हमारे शौचालयों की स्थिति और जहां-तहां तथा प्रत्येक स्थान पर मल-त्याग करने की बुरी आदत हमारी अनेक बीमारियों के कारण हैं. इसलिए मैं मल-मूत्र त्याग के लिए स्वच्छ स्थान के साथ-साथ उस साफ-सुथरी वस्तुओं के इस्तेमाल में विश्वास करता हूं. मैंने इसे अपना लिया है और यह चाहता हूं कि अन्य सभी व्यक्ति भी इसे अपनाएं. मुझमें यह आदत इतनी पक्की हो चुकी है कि मैं चाहकर भी इसे नहीं बदल सकता. न ही मैं इसे बदलना चाहता हूं.’’
(नवजीवन, 24-5-1925)