भारत छोड़ो आंदोलन
सोमेन चक्रवर्ती
स्वतंत्रता सेनानी और बम्बई के मेयर युसुफ मेहेराली द्वारा प्रस्तुत ‘भारत छोड़ो‘ अभिलेख की ‘नक्कशी‘‘ से गांधी जी ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ अपने भावी आंदोलन के लिये इसे एक उद्धरण के तौर पर हासिल किया. यद्यपि गांधी जी ने अगस्त आंदोलन के नेतृत्व के अवसर को खो दिया था परंतु यह जीवंत बना हुआ था, राष्ट्रीय स्वरूप धारण कर चुका था तथा हर तरह से तथा अभिव्यक्ति में शाही शासन के खिलाफ लोगों का अद्वितीय आंदोलन का रूप धारण कर लिया था. 1857 के विद्रोह के बाद से ऐसा सहज विद्रोह और न ही अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय जनता का ऐसा भयावह दमन किसी ने नहीं देखा था. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आज़ादी की दिशा में भारत का विरोध आखिऱी मंजिल बन चुका था.
‘भारत छोड़ो‘ मूलत: ब्रिटिश सरकार को बातचीत के जरिये भारत को आज़ादी प्रदान करने के लिये दबाव डालने की एक रणनीतिक कार्य योजना थी. फलत: यह महात्मा गांधी के नेतृत्व में उनके दूरदर्शी निर्देशन और कार्य योजना के अधीन कांग्रेस पार्टी का शांतिपूर्ण, अहिंसक आंदोलन का संकल्पिक निर्णय बन गया. परंतु सबको आश्चर्यचकित करते हुए आंदोलन ने अंतत: भारतीय जनता के स्वाभाविक हिंसक विद्रोह का रूप धारण कर लिया.
8 अगस्त से कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी से जेल के बाहर कोई भी नहीं बचा था जो कि निर्धारित जन आंदोलन को आगे बढ़ा सके. ‘भारत छोड़ो‘ प्रस्ताव के साथ-साथ अपने नेताओं की गिरफ्तारी की ख़बर सुनकर उग्र, नाराज़ और हताश भारतीयों ने आंदोलन का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी अपने खुद के हाथ में ले ली. 9 अगस्त को सवेरे देश भर में ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिना तैयारी के लोगों की क्रांति के एक नये इतिहास की रचना हो गई.
बड़े पैमाने पर उपद्रव भडक़ उठे. लोग अपना विरोध जताने के लिये सडक़ों पर उतर आये. जनता की तत्काल, सहज और व्यापक प्रतिक्रिया हुई. आगामी दिनों में देश के प्रत्येक क्षेत्र, शहर और कस्बे में इसका प्रसार हो गया. पैतृक राज्यों में भी लोग इसमें शामिल हो गये और अपने-अपने तरीके से उन्होंने प्रदर्शन आयोजित किये. विद्रोह में समाज के सभी वर्गों के लोग-छात्र, युवा, महिलाएं, कामगार, व्यापारिक लोग, सरकारी कर्मचारी, पेशेवर और कई अन्य शामिल हो गये. जबकि कुछ स्थानों पर वे शांतिपूर्ण थे, लेकिन कुछ अन्य क्षेत्रों में वे हिंसक हो चुके थे. प्रदर्शनकारियों की भीड़ पर पुलिस का कोई असर नहीं था और उन्होंने छितरने से इंकार कर दिया. स्कूल बंद कर दिये गये, व्यवसाय निलंबित कर दिये गये, फैक्ट्रियों में कामकाज रूक गया, श्रमिकों की हड़ताल से आपूर्ति श्रृंखला चरमरा गई और कार्यालयों में कामकाज संभालने के लिये कोई नहीं था. देश के लगभग हर शहर और कस्बे तथा कोने में हड़ताल थी.
अभूतपूर्व दमन के बावजूद नागरिक विद्रोह देशभर में फैल चुका था. बड़ी संख्या में विद्रोही जमा हो चुके थे. वे आक्रामक और हिंसा पर उतारू थे. वे मज़बूत और बेदर्द थे. कई स्थानों पर किसानों ने ब्रिटिश फौज के विरोध में गुरिल्ला हमले शुरू कर दिये. लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शनों और हमलों के कारण अनेक स्थानों से ब्रिटिश शासन समाप्त हो चुका था. ब्रिटिश अथॉरिटी के चिह्न की खुदाई वाली सभी सरकारी संपत्ति और स्थापना शाही शासन का प्रतीक बनकर रह गई थी. रेलवे पटरियों, रेलवे स्टेशनों, टेलीग्राफ टावरों, बैंकों, सरकारी खज़ानों और पुलिस चौकियों- किसी को भी नहीं बख्शा गया. विद्रोहियों ने हमले किये, तोडफ़ोड़ की, लूटमार की, बर्बाद किया, और सरकारी संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया.
यही नहीं, सरकारी ड्यूटी कर रहे अनेक यूरोपीय निवासियों पर शारीरिक हमले किये गये. अपराधियों और असामाजिक तत्वों ने इस मौके का फायदा उठाया और लूट तथा डकैती की तथा खुलेआम घूमते रहे. वे वास्तविक आंदोलन से जुड़े लोगों में इस तरह घुलमिल गये थे कि विद्रोहियों और शरारती तत्वों तथा अपराधियों को अलग-थलग करना लगभग नामुमकिन था. कुछ हफ्तों के लिये भारत में सार्वजनिक जीवन ठप्प-सा हो गया था.
विद्रोही स्वत:स्फूर्त थे. उनमें गुस्सा भरा था परंतु बगैर नेतृत्व, निर्देशन और किसी व्यवहार्य कार्य योजना के ही. जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत्य पटवद्र्धन, सुचेता कृपलानी, अरुणा आसफ अली, उषा मेहता जैसे दूसरी पंक्ति के नेता और अन्य जो कि एक समय भूमिगत हो गये थे, उन्होंने भारत छोड़ो संकल्प के अनुरूप आंदोलन को पुन:निर्देशित करने का प्रयास किया. गंभीर जोखिमों और चुनौतियों के बावजूद अरुणा आसफ अली और उषा मेहता ने एक मोबाइल रेडिया स्टेशन का प्रबंध किया जिसे ‘कांग्रेस रेडियो‘ का नाम दिया गया तथा लोगों को उनकी आशा और साहस बनाये रखने के लिये आंदोलन के बारे में उनके मध्य सूचनाओं का प्रसार किया. भूमिगत कार्यकर्ताओं की प्रभावकारिता सामान्य व्यवसायों से जुड़े हजारों आम लोगों के समर्थन से मज़बूत बना रहा. आम लोगों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नेटवर्क ने विद्रोहियों के लिये आपूर्ति हासिल करने, धन जुटाने, निगरानी रखने और शरण प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
इसके बावजूद विद्रोह जितना तेज़ी से उभरा था उतनी ही तेज़ी से गायब हो गया. शस्त्ररहित भीड़ लंबे समय तक पुलिस के दमन, गिरफ्तारियों और मिलिट्री की फायरिंग के आगे टिक नहीं पाई. सरकारी दमन पर कोई नियंत्रण नहीं था. प्रदर्शनकारियों को विमानों से भी लक्ष्य किया गया. ‘‘आपरेशन थंडरबोल्ट‘‘ के अधीन अंग्रेज़ों ने आंदोलन को ख़त्म करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. हरेक सार्वजनिक प्रदर्शन पर आतंक का साया मंडरा रहा था. जैसे-जैसे विद्रोह का समापन हुआ, एक लाख से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी थी, दस हजार लोग पुलिस और सेना की फायरिंग में मारे जा चुके थे और हजारों अन्य घायल हो चुके थे.
स्थानीय सरकार: एक नई आशा
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान व्यापक प्रदर्शनों और हिंसक कार्रवाइयों के अलावा विभिन्न राज्यों में लोगों ने अनेक कस्बों, शहरों और गांवों पर नियंत्रण कायम कर लिया. इन स्थानों पर उन्होंने सफलतापूर्वक स्वायत्त सरकारों की स्थापना कर ली. ये सरकारें अधिक समय तक कायम नहीं रह सकीं परंतु उन्होंने भारतीयों की सरकार और प्रशासन को स्वयं प्रबंधित करने की क्षमता का प्रमाण पेश कर दिया. उन्होंने दिखा दिया कि भारत के लोग आज़ादी की लड़ाई को आगे ले जाने के लिये तैयार थे. बलिया (उत्तर प्रदेश), तामलुक (बंगाल), सतारा (महाराष्ट्र) और तालछेर (ओडि़शा) में चार प्रमुख समानांतर सरकारें स्थापित की गई थीं.
इनमें से महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थानीय स्वतंत्र सरकार तीन वर्ष के लंबे समय तक कार्यरत रही. इसकी लोगों की एक अदालत से बनी न्यायिक शाखा थी. लोक सहमति से निर्णय लिये जाते थे. समुदाय की रोज़मर्रा की जरूरतों और बुनियादी सेवाओं की देखरेख के लिये ग्राम समितियां थीं. अंग्रेजी बलों के हमलों से सरकार की रक्षा करने और स्थानीय धनी लोगों के उत्पीडऩ और हिंसा से किसानों को सुरक्षा प्रदान करने के वास्ते एक युवा मिलिशिया गठित की गई थी.
इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत के लोगों ने भारत छोड़ो आंदोलन को उस वक्त जीवंत रखा जब उनके नेतागण जेल में थे. अत: इस कथन का कोई मायने नहीं है कि आंदोलन के लिये पारित कांग्रेस का प्रस्ताव कोई महत्व नहीं रखता है.
भारत छोड़ो प्रस्ताव
बिगड़ती युद्ध की स्थिति, इसकी कालोनियों में बढ़ती बेचैनी और युद्ध के मोर्चों पर सैनिकों के बीच फैली हताशा को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं के साथ खुली वार्ता की तत्काल आवश्यकता को महसूस किया. उनकी रणनीतिक योजनाओं में एक कुछ उपनिवेशित देशों को औपनिवेशिक दर्जा ़प्रदान करना था जिनमें भारत का स्थान सूची में सबसे ऊपर था. हाउस ऑफ कॉमन्स के एक सदस्य स्टाफर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल मार्च 1942 में एक निर्वाचित भारतीय विधानमंडल को प्रगतिशील हस्तांतरण और सत्ता के अंतरण‘‘ के लिये औपचारिकताएं तय करने के वास्ते भारत आया.
यद्यपि मिशन कांग्रेस नेताओं को सहमत करने पर बुरी तरह असफल रहा जिसके लिये उसने न तो कोई निश्चित समय सीमा निर्धारित की और न ही ‘शक्ति‘ को परिभाषित किया जो कि ब्रिटिश सरकार छोडऩा चाहती थी. मिशन की असफलता के क्या कारण थे इसका एकतरफा स्पष्टीकरण बाद में वायसराय के एक बयान में प्रदान किया गया. यह प्रस्ताव किया गया था कि सब कुछ भारत के लोगों की आकांक्षाओं पर विचार करते हुए किया जायेगा लेकिन यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही निष्पादित किया जायेगा. गांधी जी ने इस पर व्यंग्यस्वरूप प्रतिक्रिया दी और कहा कि कांग्रेस ने मांगा था ब्रेड और इसेे मिला पत्थर.
गांधी जी की चिंता आज़ादी से कहीं अधिक थी. तब तक जापानी द्वार पर पहुंच चुके थे. माले और बर्मा पर पहले ही जापानी सैनिक कब्जा कर चुके थे. वह युद्ध की बिगड़ती स्थिति से व्याकुल थे. वह ब्रिटेन की भविष्य की राजनीतिक स्थिति को लेकर असमंजस में थे. उनके लिये ब्रिटिश इंडिया पर किसी भी हमले का मतलब उनकी मातृभूमि पर हमला होगा. भारत में ब्रिटिश शासन का अंत करने के लिये अत: यह परमावश्यक हो गया कि उसे आगे किसी भी आक्रमण से बचाया जाये. उनका पक्का विश्वास था कि भारत की सुरक्षा की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार के ही जिम्मे नहीं है. यह देश के नागरिकों का कत्र्तव्य है.
उनके लिये भारत के इस दोहरे संकट का एकमात्र समाधान भारतीयों को शीघ्रातिशीघ्र सत्ता सौंपने और इसकी धरती को छोडऩे के लिये अंग्रेजों को मज़बूर करना था. उन्होंने क्रैशिंग बैंक से बाद दिनांकित चैक स्वीकार करने से इन्कार कर दिया. एक व्यापक संघर्ष अब करो या मरो की तात्कालिक आवश्यकता बन चुका था. 1941 में ब्रिटेन और अमरीका के बीच हस्ताक्षरित अटलांटिक चार्टर के बाद, धीरे धीरे अंतर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त होने लगा. चार्टर में संकल्प व्यक्त किया गया था कि ‘‘दुनिया के सभी राष्ट्र वास्तविक और धार्मिक कारणों से बल के प्रयोग से बचेंगे‘‘. इसके बाद चीन के प्रमुख नेता चियांग काई शेक और अमरीका के राष्ट्रपति रूसवेल्ट ने ब्रिटेन को गतिरोध तोडऩे और भारतीय नेताओं के साथ बातचीत करने के लिये आगे आने की दिशा में थोड़ा प्रयास किया.
भारत में पार्टियां युद्ध के पश्चात उभरे जटिल गठबंधनों के संदर्भ में राजनीतिक कार्रवाई के बारे में स्थिति को लेकर बंटे हुए थे. एक तरफ फासीवादी ताकतें थीं जो कि मानवीय दौड़ में अपना प्रभुत्व हासिल करने के लिये सभी प्रकार के मानवीय नियमों का उल्लंघन कर रही थीं. दूसरी तरह सहायक देश थे जो कि फासीवादी ताकतों के आक्रमण को रोकने के लिये बड़े पैमाने पर प्रयास कर रहे थे. उसी ब्रिटेन ने, जो कि सहायक शिविर में एक प्रमुख सहयोगी बन चुका था भारतीयों को सदियों तक औपनिवेशिक शासन के अधीन रखा था. ज्यादातर पार्टियों ने इस स्थिति में ब्रिटेन के खिलाफ विरोध करने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की.
कांग्रेस पार्टी के भीतर का माहौल भारत छोड़ो प्रस्ताव पर आम सहमति पर पहुंचने के लिये कभी भी सौहार्दपूर्ण नहीं रहा. जारी युद्ध के संदर्भ में ब्रिटिश सरकार के विरोध के संबंध में कुछेक तर्क मताग्रही और तीखे थे. कुछ नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी और कई अन्य ने गांधी जी की तीखे शब्दों में आलोचना की. लेकिन गांधी जी अंग्रेजों के विरूद्व तत्काल संघर्ष की आवश्यकता पर दृढ़ बने रहे. यदि कांग्रेस समर्थन करने में असफल रहेगी, उन्होंने भारत की मिट्टी से आंदोलन खड़ा करने का संकल्प व्यक्त किया जो कि अपने आप में कांग्रेस से भी व्यापक होगा.
कांग्रेस के संकल्प में कहा गया, ‘‘अत: समिति संकल्प करती है कि भारत के स्वतंत्रता और मुक्ति के अविच्छेदय अधिकार की पुष्टि, व्यापक संभव पैमाने पर अहिंसक तरीके से संघर्ष शुरू करने की स्वीकृति प्रदान करती है ताकि देश शांतिपूर्ण संघर्ष के पिछले 22 वर्षों के दौरान जमा की गई अहिंसक समूची शक्ति का प्रयोग कर सके......उन्हें (लोगों को) यह अवश्य याद रखना चाहिये कि आंदोलन का आधार अहिंसा है.‘‘ संकल्प में आगे कहा गया, ‘‘दुनिया के सभी राष्ट्रों को यथार्थवादी के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से बल के प्रयोग को बंद करना चाहिये.‘‘ उस समय आठ प्रांतों में कांग्रेस के मंत्री थे और उन सभी ने इस्तीफा दे दिया. कांग्रेसी नेता अब बम्बई में आह्वान करने के लिये एकत्र हुए थे.
दूरगामी प्रभाव
भारत छोड़ों ने न केवल गांधी जी को निर्विवाद राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित किया बल्कि उनके लिये राष्ट्रपिता के तौर पर अभिषेक के लिये स्थापित कर दिया.
आंदोलन के दौरान भडक़े विद्रोह ने जरूरी मानसिकता को मूर्त रूप दिया और 1946 में भारतीय नौसेना विद्रोह के लिये आधार तैयार किया. भारतीय जनता और ब्रिटिश शासक के बीच राजनीतिक समीकरण भारत छोड़ो आंदोलन के बाद कभी एकमत नहीं रहा. चहुं ओर फैले लोगों के विद्रोह से ब्रिटिश औपनिवेशिक वैधता का भ्रम चकनाचूर हो गया. अगस्त क्रांति का इस बात की तरफ स्पष्ट इशारा था कि भारत सदा सदा के लिये ब्रिटिश हाथों से बाहर निकल चुका था.
भारत छोड़ो आंदोलन की एक अन्य महत्वपूर्ण बात गांधी जी के जन आंदोलन में हिंसा का महत्वपूर्ण और अनिवार्यत: आंशिक प्रवेश थी. अगस्त क्रांति के सभी मानदंडों में क्रांतिकारी और हिंसक प्रकृति प्रवेश कर चुकी की थी. यद्यपि वे स्वयं अपने संपूर्ण जीवन में अहिंसा पर कायम रहे, गांधी जी ने स्वीकार किया कि कुछेक स्थितियों में हिंसा के प्रयोग से राष्ट्रीय हित को क्षति नहीं होगी. लुईस फिशेर के साथ एक भेंट में गांधी जी ने कहा था, ‘‘हिंसा हो सकती है परंतु तब भूस्वामी भाग कर पुन: सहयोग कर सकते हैं. भारत छोड़ो आंदोलन को सदैव याद रखा जायेगा क्योंकि यह एकमात्र राष्ट्रीय आंदोलन था जहां लोग आजादी के इस अंतिम चरण में अपने स्वयं के निर्देशक बन गये थे.
(लेखक एक शिक्षाविद् हैं. ई-मेल: c_somen@yahoo.com व्यक्त विचार निजी हैं)
चित्र: गूगल के सौजन्य से