ज्ञान अर्थव्यवस्था और सामाजिक प्रबंधन
एस.के. कटारिया
मौजूदा मानव सभ्यता और संस्कृति तेज़ी से बदलती वैश्विक प्रवृत्तियों से होकर गुजर रही हैं. विश्व भर में नये आर्थिक क्रम (एनईओ) से मानव जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र, राजनीति, समाज और प्रशासन में ‘‘महत्वपूर्ण बदलाव’’ की पहल हुई है. आमतौर पर ये उद््धृत किया जाता है कि वर्तमान सहस्राब्दि ज्ञान आधारित समाज के लिये एक उत्तम मंच है. ज्ञान की क्रांति, जिसमें क्षमता का निर्माण और गुणवत्ता सृजन की बात कही गई है, भारत को 25 वर्ष से कम आयु की 50 प्रतिशत जनसंख्या सहित अपनी मानव पूंजी के सशक्तिकरण के लिये सक्षम बनाने में सहायक होगी. इस तरह की विशिष्ट जनसांख्यिकीय प्रकृति जबर्दस्त अवसर के साथ-साथ मुश्किल चुनौतियां प्रस्तुत करती है जिसके लिये एक नई ज्ञान उन्मुख व्यवस्था के लिये सृजनात्मक और समग्र रणनीतियों की आवश्यकता होती है. ज्ञान ने पूंजी को विकास के सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक के तौर पर परिवर्तित किया है. भारत विश्वगुरू रहा है. दुर्भाग्यवश देश अब अपनी गौरवशाली विरासत के लिये संघर्ष कर रहा है. भारत की महानता की पुन:खोज के लिये तात्कालिक अथवा पूर्ववर्ती सीमाओं से बाहर झांकना बहुत जरूरी हो जाता है. एल्विन टोफलर का कहना है- ‘‘21वीं सदी के निरक्षर वे लोग नहीं होंगे जो पढ़ और लिख नहीं सकते, बल्कि वे होंगे जो सीखना, नहीं सीखना और पुन: सीखने की पहल नहीं कर सकते.
ज्ञान अर्थव्यवस्था
‘ज्ञान अर्थव्यवस्था’ अथवा ‘ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था’ शब्दों को आमतौर पर अदल-बदल कर प्रयोग में लाया जाता है. लेकिन दोनों ही शब्दों में महत्वपूर्ण अंतर होता है. ज्ञान अर्थव्यवस्था आर्थिक बाधाओं के ढांचे में ज्ञान के उत्पादन और प्रबंधन पर केंद्रित ज्ञान की अर्थव्यवस्था को संदर्भित करती है. यहां, ज्ञान और शिक्षा को एक व्यापारिक उत्पाद अथवा उत्पादक परिसंपत्ति के तौर पर समझा जाता है. जहां तक ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का संबंध है, इसमें ज्ञान को एक औज़ार माना जाता है. यद्यपि इस अंतर को अभी तक विषयागत साहित्य में पृथक नहीं किया गया है. दोनों ही पारिभाषिक शब्द और अन्य संबंधित शब्द जैसे कि ‘ज्ञान समाज’, ‘सूचना समाज’, ‘ज्ञान क्रांति’, ‘ज्ञान बाज़ार’ अंतर-विषयक प्रकृति के हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. ‘‘विश्व बैंक संस्थान’’- की परिभाषा के अनुसार ज्ञान अर्थव्यवस्था वह होती है जो कि ज्ञान का सृजन, विस्तार और प्रयोग इसकी वृद्धि और विकास को बढ़ाने के लिये करती है.
ज्ञान अर्थव्यवस्था वाक्यांश इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ होता यदि ‘डोयेन ऑफ मैनेजमेंट’-पीटर ड्रूकर ने अपनी मशहूर पुस्तक- ‘दि एज ऑफ डिस्कंटीन्युटी’ (1969) में इसकी खोज़ नहीं की होती. ज्ञान अर्थव्यवस्था में ज्ञान आधारित उत्पादों और सेवाओं के आदान-प्रदान की अवधारणा शामिल होती है. भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तेज वृद्धि दर और सेवा क्षेत्र का बढ़ता योगदान ज्ञान अर्थव्यवस्था की संभावनाओं को दर्शाता है. ज्ञान अर्थव्यवस्था के ऐतिहासिक महत्व के बारे में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने फरवरी, 2006 में वर्णन किया था. उन्होंने कहा था-‘‘प्राचीनकाल से हमारे समाज के पास बहुत ही समृद्ध ज्ञान था, हमारे लोकतंत्र ने हमें ज्ञान के फायदों का अधिक व्यापकता के साथ प्रसार करने के लिये समर्थ बनाया है. आज हम ‘‘ज्ञान के युग’’ में रह रहे हैं जिसमें प्रत्येक सामाजिक और आर्थिक गतिविधि ज्ञान से संचालित होती है.’’
भारत तेज़ी के साथ ज्ञान क्रांति की तरफ बढ़ रहा है. हमारी कऱीब 50-60 प्रतिशत औद्योगिक आउटपुट सूचना पर आधारित है. वर्तमान स्थिति में ज्ञान के पांच बुनियादी तत्व या संसाधन अर्थात प्रौद्योगिकी, संगठन, सूचना, शिक्षा और कौशल मज़बूत हैं. कार्ल डहलमन एंड आहुजा उत्ज़ के अनुसार- ‘‘भारत के पास यह बदलाव करने के लिये बहुत सी महत्वपूर्ण सामग्री है. इसके पास व्यापक कुशल, अंग्रेजी-बोलने वाले ज्ञान वर्कर्स, विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में, हैं। इसके पास सुव्यवस्थित लोकतंत्र है. इसका घरेलू बाज़ार दुनिया में सबसे बड़े बाज़ारों में से एक है. इसके व्यापक और प्रभावशाली प्रवासी हैं जो कि ज्ञान संपर्क और नेटवर्क का सृजन कर रहे हैं. यह सूची सूक्ष्म-आर्थिक स्थिरता, एक गतिशील निजी क्षेत्र, मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था का क्षेत्र, सुविकसित वित्तीय क्षेत्र और एक व्यापक तथा विविधतापूर्ण विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी अवसंरचना....आदि के साथ बहुत व्यापक है. महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि भविष्य में भारत को किस मार्ग पर अग्रसर होना है, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि किसी प्रकार से सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज इस बात पर एक संयुक्त समझ बनाने के लिये काम कर सकता है जहां अर्थव्यवस्था अग्रसर होनी चाहिये. अत:, भारत को ज्ञान-आधारित आधुनिक समाज की आवश्यकता है जिसकी वैज्ञानिक प्रकृति भी हो.’’
ज्ञान समाज
इस सहस्राब्दि से पहले क्या कभी ज्ञान को मानव के समग्र विकास के लिये सर्वशक्तिमान और समग्र संसाधन के तौर पर मान्यता प्रदान की गई थी. आज के दिन प्रत्येक सरकार 21वीं सदी की बढ़ती चुनौतियों का सामना करने के लिये मज़बूत ‘ज्ञान समाज’ की स्थापना के लिये प्रयास कर रही है. ज्ञान समाज से आशय किसी भी ऐसे समाज से होता है जहां पूंजी और श्रम की बजाए ज्ञान प्राथमिक उत्पादन होता है. इस प्रकार के समाज अपने लोगों की खुशहाली के लिये ज्ञान का सृजन और हिस्सेदारी करते हैं. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक और अन्य सभी मानवीय गतिविधियां ज्ञान और सूचना की व्यापक मात्रा पर निर्भर हो गई हैं. दूसरे शब्दों में ज्ञान समाज वह होता है जिसमें ज्ञान एक प्रमुख सृजनात्मक बल हो जाता है. दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की नौंवी रिपोर्ट में ‘सामाजिक पूंजी’ पर विशेष ज़ोर दिया गया है. कई मामलों में यह आर्थिक नीतियों की विफलता के लिये महत्वपूर्ण व्याख्याएं प्रदान करता है, क्योंकि सामाजिक-सांस्कृतिक बातें सीधे राजनीतिक-आर्थिक कारकों को प्रभावित करती हैं. सामाजिक पूंजी और विश्वास समाज तथा उद्यमशीलता में संपूर्णता के तत्व होते हैं और उन प्रक्रियों की स्थापना के लिये महत्वपूर्ण होते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवसरों को विस्तारित करते हैं. दरअसल ज्ञान समाज की अवधारणा पूरी तरह से कोई नई नहीं है. सदियों से हमारे पास दस्तकारों, कलाकारों और अन्य स्वदेशी प्रौद्योगिकी परंपरा के ज्ञान समुदाय होते थे. वर्तमान सहस्राब्दि से लेकर सूचना व्यापकता के जरिए ज्ञान सबसे निर्णायक और महत्वपूर्ण पूंजी हो गया है और इस तरह किसी भी आधुनिक समाज की सफलता इसके दोहन में निहित है.
भारत कहां खड़ा है?
यह गर्व की बात है कि भारत सरकार ज्ञान समाज के भौतिकीकरण के साथ-साथ ज्ञान के प्रबंधन के लिये प्रयासरत है. इस संबंध में, देश के बुनियादी सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक विवरण और परिदृश्य का विश्लेषण करना प्रासंगिक है. 2011 की जनणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर 74.04 प्रतिशत थी और अब भी यह विश्व की औसत (86 प्रतिशत से बहुत कम है. प्राथमिक शिक्षा की पहुंच के वैश्विक लक्ष्य को अभी हासिल किया जाना है. स्कूली शिक्षा की पहुंच में भी राज्यों, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों, लिंग के साथ-साथ विभिन्न आर्थिक श्रेणियों के मध्य भी व्यापक असमानताएं हैं.
देश में उच्चतर शिक्षा का परिदृश्य अधिक अस्तव्यस्त है. देश में केवल 864 विश्वविद्यालय और 40026 महाविद्यालय तथा 11669 अन्य संस्थान (2017) हैं जहां 38.2 मिलियन छात्र अपनी उच्चतर शिक्षा का अध्ययन कर रहे हैं. यद्यपि 38 मिलियन छात्रों का एनरॉलमेंट बहुत अधिक दिखाई देता है परंतु समूची जनसंख्या में इसकी गणना बहुत ही कम प्रतिशत के तौर पर होती है. इसी प्रकार भारत में उच्चतर शिक्षा की पहुंच अन्य देशों अर्थात अमरीका (89 प्रतिशत), आस्ट्रेलिया (81 प्रतिशत), यू.के. (68 प्रतिशत) और फ्रांस (55 प्रतिशत) की तुलना में बहुत कम (2016-17 में केवल 25 प्रतिशत) है। पुन: यह दुखद स्थिति है कि केवल 11 प्रतिशत स्नातक स्नातकोत्तर और 8 प्रतिशत शोध (एम.फिल और पीएचडी आदि) अध्ययन के लिये जाते हैं. देश में हर वर्ष कुल 77,000 रिसर्च स्कॉलर पंजीकृत किये जाते हैं केवल 159000 रिसर्च स्कॉलर्स को डॉक्टरल डिग्री प्रदान की जाती है. इसके अलावा केवल 7 प्रतिशत एमबीए उत्तीर्ण और इंजीनियर रोजग़ार प्राप्त कर पाते हैं. हमारे 65 प्रतिशत युवा कामकाजी आयु वर्ग में हैं परंतु इन रोजग़ार रहित स्नातकों के पास डिग्रियां बेकार हैं.
अनुसंधान में भारत के निम्न कार्यनिष्पादन को भी अन्य देशों की तुलना में उजागर किया गया है. 2012 में प्रति मिलियन आवासों के साथ फिनलैंड में 7707, सिंगापुर में 6088, जापान में 5573, अमरीका में 4663 और यहां तक कि चीन में 1071 शोधकर्ता थे, जबकि भारत में केवल 137 थे. भारत अनुसंधान और विकास गतिविधियों पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र .85 प्रतिशत खर्च करता है जबकि जापान 33.5 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया 4.2 प्रतिशत अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करता है. भारत ने 2015 तक अमरीकी पेटेंट एवं ट्रेडमार्क कार्यालय में केवल 17865 पेटेंट आवेदन दायर किये हैं जबकि जापान ने 1069394, जर्मनी ने 365627 और चीन ने 45366 आवेदन दायर किये. ज्ञान समाज के लिये पुस्तकों और शोध पेपरों का प्रकाशन साथ में कॉपीराइट, पेटेंट और ट्रेडमार्क पंजीकरण अनिवार्य अपेक्षा होती है. दुनिया में वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रकाशन की दृष्टि से भारत का 1980 में 8वां स्थान था जो कि 1990 में 13वें स्थान पर पहुंच गया तथा नई सहस्राब्दि में यह 21वें स्थान पर जा पहुंचा है.
12 जनवरी, 2005 को भारतीय उद्योग परिसंघ के उद्घाटन सत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने क्षमता वृद्धि और आधार सुनिश्चित करने के वास्ते राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की स्थापना की घोषणा की थी ताकि 21वीं सदी की चुनौतियों को प्रभावी तरीके से निपटा जा सके. इस संबंध में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री की एक उच्च स्तरीय सलाहकार संस्थान के तौर पर 13 जून, 2005 को कर दिया गया। आयोग अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप चुका है.
ज्ञान प्रबंध
समय आ गया है कि प्रत्येक संगठन में सांगठनिक प्रक्रियाओं अथवा व्यक्तियों में उपलब्ध ज्ञान के प्रलेखन, प्रदर्शन और संरक्षा के लिये मज़बूत, विश्वसनीय, उदार और अनुकूल तंत्र का विकास किया जाये. चूंकि प्रशासनिक राज्य सामाजिक आर्थिक विकास, अभिनव प्रयासों और अनुसंधान गतिविधियों के लिये अग्रणी एजेंट रहे हैं, अत: लगभग प्रत्येक प्रशासनिक संगठन के पास ज्ञान के भण्डारण के लिये अपनी व्यापक प्रक्रियाएं, तौर तरीके और व्यवहार हैं जिनकी संरक्षा और संरक्षण की आवश्यकता है. 1991 से लेकर ज्ञान प्रबंध विकसित देशों में एक अलग विषयक्षेत्र के तौर पर स्थापित किया जा चुका है. प्रकृति अनुसार ज्ञान प्रबंध बहुविषयक और सूचना तथा मीडिया, कम्प्यूटर विज्ञान, पुस्तकालय विज्ञान और सरकारी नीति से संबंधित है. सरकारी नीति सरकारी निर्णयों के निर्माण, कार्यान्वयन, मूल्यांकन और फीडबैक के लिये परिशोधित शब्द और क्षेत्र है। ज्ञान प्रबंधन में किसी संगठन में अंतर्दृष्टियों और अनुभवों की पहचान, सृजन, प्रस्तुति, वितरण और अनुकूल सहयोग में प्रयुक्त रणनीतियों और व्यवहारों की रेंज शामिल होती हैं. ऐसी अंतर्दृष्टियों और अनुभवों में ज्ञान, व्यक्तियों में समाहित अन्य खूबियां अथवा सांगठनिक प्रक्रियाओं और व्यवहारों में शामिल खूबियां शामिल होती हैं. जहां तक ज्ञान प्रबंधन संबंधी प्रयासों की बात है निजी क्षेत्र दुनिया में सबसे आगे रहा है. बहुत सी कंपनियों ने ज्ञान प्रबंध को अपनी ‘व्यवसाय रणनीति’ , ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ अथवा ‘मानव संसाधन प्रबंधन’ में समाहित कर लिया है. ज्ञान प्रबंधन के प्रयास मुख्यत: सांगठनिक उद्देश्यों अर्थात कार्यनिष्पादन में सुधार, प्रतिस्पर्धातमक लाभ, नवाचार, संगठन के एकीकरण और सुधार के लिये प्राप्त शिक्षा के आदान-प्रदान पर केंद्रित होते हैं. सामान्यत: ज्ञान प्रबंध के प्रयास ‘सांगठनिक शिक्षण’ पर आधारित होते हैं परंतु इन्हें एक कार्यनीतिक परिसंपत्ति के तौर पर ज्ञान के प्रबंधन और ज्ञान के आदान प्रदान के लिये ज़ोर देते हुए ज्ञान के प्रबंधन पर व्यापक फ़ोकस के जरिये अलग पहचान दी जा सकती है.
भारत दुनिया में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां अर्थव्यवस्था, समाज, उद्योग, राजनीति और प्रशासन संक्रमण चरण से गुजर रहा है. ‘‘इंडिया एंड द नॉलेज इकोनोमी: लेवरेजिंग स्ट्रैंथ्स एंड आपोरच्यूनिटीज’’ (2005) शीर्षक पर विश्व बैंक के अध्ययन दस्तावेज में उल्लेख किया गया है कि भारत ने पिछले दो दशकों में अपने आर्थिक और सामाजिक विकास में व्यापक छलांग लगाई है और आने वाले वर्षों में तेज़ी से विकास की दिशा में अग्रसर हो रहा है. दस्तावेज में निम्नलिखित महत्वपूर्ण मुद्दों की पहचान की गई है जिन्हें तत्काल हल किये जाने की आवश्यकता है:-
1.आर्थिक और सांस्थानिक व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण
2. शिक्षित और कुशल कामगारों का विकास
3. कुशल नवाचार प्रणाली का सृजन
4. गतिशील सूचना अवसंरचना का निर्माण
भारत विजऩ-2020 रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत 2020 तक प्रति व्यक्ति आय में चौगुणा वृद्धि हासिल कर लेगा और आज के चीन से कहीं अधिक तथा ऊपरी मध्यम आय वाले देशों जैसे कि अर्जेन्टीना, चिली, हंगरी, मलेशिया, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका के बराबर विकास का स्तर प्राप्त कर लेगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत का प्रयास विशिष्ट और सैद्धांतिक ज्ञान अर्जित करना होना चाहिये जिसे हमारे विनिर्दिष्ट मामले में उपयुक्त रूप से लागू किया जा सके. नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग (केपीओ) भारतीय बाज़ार में भी शुरू हो गया है. देश में फार्मेसी, चिकित्सा, विधि, जैव-प्रौद्योगिकी, शिक्षा और प्रशिक्षण, इंजीनियरिंग, विश्लेषण, डिजाइन और एनिमेशन, अनुसंधान एवं विकास तथा विभिन्न अन्य बौद्धिक गतिविधियों में कुशल कामगारों का एक पूल है. वर्तमान में केपीओ के जरिए विधिक सेवाओं, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, डाटा विश्लेषण, नेटवर्क प्रबंधन, एनिमेशन और डिजाइनिंग, बाज़ार अनुसंधान और बौद्धिक संपदा अनुसंधान किये जाते हैं. आई.टी. सेक्टर के बाद बीपीओ और केपीओ सेक्टरों में भारत में बेरोजग़ारी की समस्या के समाधान की कुछ हद तक क्षमता है. भारत विजऩ-2020 दस्तावेज के अनुसार अगले दशक में 200 मिलियन नये रोजग़ार अवसरों के सृजन की चुनौतियों का सामना कर रहा है. लघु और मध्यम प्रौद्योगिकी सघन सेक्टरों और सेवाओं के तीव्र विस्तार में भी रोजग़ार की संभावनाएं हैं.
भारत में नीति निर्माताओं को इस बात की जानकारी अवश्य होनी चाहिये कि क्रांतिकारी कानून - मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार, 2009 लागू होने के बाद वर्तमान उच्चतर शिक्षा ढांचा इसकी स्वनिर्मित अदक्षताओं और काम के अत्यधिक बोझ के कारण ध्वस्त हो सकता है. अत: हमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ कालेजों और विश्वविद्यालयों की संपूर्ण ओवरहॉलिंग और तीव्र विस्तार करने की आवश्यकता है. एक और ख़तरा या चुनौती नागरिक सेवाओं के समक्ष पेश आने वाली है. सरकारी कर्मचारियों की सुस्त कार्यप्रणाली और ग़ैर जवाबदेही वाली प्रवृत्ति नौकशाही के खिलाफ विद्रोह का कारण बन सकता है क्योंकि आम नागरिकों के जागरूकता स्तर में बढ़ोतरी हो सकती है। क्या हमारी नौकरशाही को इसका अहसास है? कार्य प्रौद्योगिकी आधुनिक भारत के निर्माण में भूमिका निभा सकती है, एक दस वर्षीय बालिका डॉ. कलाम के ऑटोग्राफ के आगे आई’’, डॉ. कलाम ने उससे सवाल किया. उसका सटीक उत्तर था, ‘‘मैं विकसित भारत में रहना पसंद करूंगी.’’ सरलता के साथ अभिव्यक्त की गई ये आकांक्षा आज़ादी के बाद से लाखों भारतीयों की रही है. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा ‘‘2020 तक अथवा इससे पहले एक विकसित भारत कोई सपना नहीं है. यह अनेक भारतीयों के मन में मात्र एक विजऩ नहीं होना चाहिये. यह एक मिशन है; हम सब इसे शुरू कर सकते हैं और इसमें सफल हो सकते हैं. व्यापक शब्दों में यह अपेक्षित अंतिम परिणाम की अभिव्यक्ति है.’’
(लेखक मोहनलाल सुखाडिय़ा यूनिवर्सिटी, उदयपुर (राज.) में लोक प्रशासन के प्रोफेसर हैं) ई मेल: skkataria64@rediff mail.com (लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)