कागज के पन्नों से परदे तक साहित्य और सिनेमा का सफर
डॉ. आलोक रंजन पांडेय
हिंदी साहित्य और भारतीय सिनेमा के बीच एक अनन्य और अनोखा संबंध है। यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि हम सिनेमा को साहित्य का दर्पण कहें तो, साहित्य सिनेमा का प्रतिबिंब है। साहित्य और सिनेमा ऐसे माध्यम हैं जिससे सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में परिवर्तन और सुधार लाया जा सकता है। सिनेमा मनोरंजन का साधन हैं, और साहित्य समाज की यथार्थ अनुभूति। साहित्य के माध्यम से कथा-कहानियों को सुनाया, बताया जाता था, और कथा-कहानियों के पात्रों के जरिये नाटक प्रदर्शन होते थे । नाटकों से रंगमंच बनते गए और धीरे-धीरे आधुनिक उपकरणों की सहायता से सिनेमा मंदिर बनते गए। इस तरह सिनेमा और साहित्य का संक्षिप्त इतिहास को देखा जा सकता है। साहित्य और सिनेमा के संबंध अपने विचार प्रकट करते हुए पश्चिमात्य विद्वान हरबर्ट रीड ने कहा है “जो लोग पट-कथा साहित्य में कोई संबंध नहीं मानते हैं, मेरे विचार से फिल्म और साहित्य दोनों के संबंध में उनकी धारणा गलत है... यदि आप मुझसे पूछें तो श्रेष्ठ लेखक की एक मात्र विशेषता है- हृदयात्मकता; शब्दों के माध्यम से बिंबों को संप्रेषित करना; मस्तिष्क को देखने के लिए प्रेरित करना। साहित्य का कार्य मस्तिष्क के अंतःपट पर वस्तुओं और घटनाओं के चल-चित्र प्रक्षेपित करना है। होमर से लेकर शेक्स्पीयर और आधुनिक कवियों का यही प्राप्य रहा है। अच्छी फिल्म का भी यही लक्षण है।”
साहित्य और फिल्म दोनों की तुलना में यदि विचार करें तो, “साहित्य में सर्वकालिक सत्य होने का गुण है, परंतु यथार्थपरक भौतिक चित्र के कारण फिल्म काल-निबद्ध हो जाती है। फिल्म के लिए परिधान, वेषभूषा आदि का बड़ा महत्व है। अर्थात फिल्म की वास्तविकता अपरिवर्तित है। फिल्म का यथार्थ काल-सापेक्ष्य और साहित्य का काल-जयी होता है। फिल्म देखने और साहित्य के पठन में आधारभूत अंतर है। आधुनिक सौंदर्यशात्र के निर्माण में सिनेमा और साहित्य का दोनों का पर्याप्त योगदान है। सिनेमा के उदयकाल से ही फिल्म पर साहित्य का प्रभाव सर्वमान्य है। परंतु आधुनिक साहित्य पर फिल्म का प्रभाव भी काफी गहराई तक लक्षित हो रहा है।”
सिनेमा आधुनिकता की सोच है। सिनेमा आज के दौर में साहित्य की तुलना में अधिक प्रभावशाली और सरलता से जनता तक पहुँचने का माध्यम बन चुका है। यह बात कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि सिनेमा का प्रारंभ साहित्य से ही माना गया है। भारत में बनने वाली पहली फिल्म आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक ‘हरिश्चंद्र’ से प्रेरित थी। हिंदी फिल्म हो या किसी अन्य भाषी फिल्म सिनेमा में साहित्य का अधिक महत्व है। फिल्मों में साहित्य की महत्ता को बताते हुए रूसी फ़िल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की का एक साक्षात्कार संवाद में कहना है कि “फ़िल्मकारों के पास अपने विचार नहीं होते हैं। साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाने से उन्हें अपनी कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ाने पड़ते। उन्हें एक कहानी मिल जाती है।”
भारत में फिल्मों ने 1 सदी की यात्रा पूरी कर ली है। दरअसल वह अपने दौर का सबसे बड़ा चमत्कार था जब हिलती-डुलती, दौड़ती कूदती तस्वीरें पहली बार पर्दे पर नजर आईं। 14 मार्च 1931 को इस चमत्कार में एक सम्मोहन शामिल हो गया और वह सम्मोहन था ध्वनि का । अब पर्दे पर दिखाई देने वाले चित्र बोलने लगे। 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से आज तक सर्वाधिक फिल्में हिंदी भाषा में ही बनाई गईं हैं। इस तरह हिंदी भारत ही नहीं भारत के मुख्य सिनेमा की भी भाषा है। विश्व में हिंदी सिनेमा ही भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करता है। इसी के साथ एक सच यह भी है कि हिंदी में साहित्यिक कृतियों पर सबसे कम सफल फिल्में बन पाई हैं।
साहित्यिक कृतियों पर खूब फिल्में बनीं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ आधिकांश का ऐसा हश्र हुआ कि मुंबईया फिल्मकार हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने से गुरेज करने लगे। साल भर में मुश्किल से कोई एक फिल्म ऐसी होती है जो किसी साहित्यिक कृति को आधार मानकर बनाई गई हो।
बोलती फिल्मों की शुरुआती दौर पारसी थिएटर की विरासत भर था जहाँ अति नाटकीयता और गीत संगीत बहुत होता था। धीरे धीरे विषयों के चयन में विविधता आने लगी। फिल्म बनाने वालों ने स्थापित लेखकों और उनकी कृतियों को स्थान देना शुरू किया। हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यकार प्रेमचंद को अजंता मूवीटोन कंपनी ने 1933 में मुंबई आमंत्रित किया। फिल्मों को बोलना शुरू किए अभी महज दो साल ही हुए थे। प्रेमचंद की कहानी पर मोहन भावनानी के निर्देशन में फिल्म ‘मिल मजदूर’ बनी। निर्देशक ने मूल कहानी में कुछ बदलाव किए जो प्रेमचंद को पसंद नहीं आए। फिर अंग्रेजों के सेंसर ने फिल्म में काफी काँट-छाँट कर दी। इसके बाद फिल्म का, जो स्वरूप सामने आया उसे देख प्रेमचंद को काफी धक्का लगा। उन्होंने कहा यह प्रेमचंद की हत्या है। प्रेमचंद की यह कहानी फिल्म के निर्देशक और मालिक की कहानी है। इस फिल्म पर मुंबई में प्रतिबंध लग गया और पंजाब में यह ‘गरीब मजदूर’ के नाम से प्रदर्शित हुईं।
1934 में प्रेमचंद की ही कृतियों पर ‘नवजीवन’ और ‘सेवासदन’ बनीं लेकिन दोनों फिल्में फ्लॉप हो गईं। 1941 में ए.आर. कारदार ने प्रेमचंद की कहानी ‘त्रिया चरित्र’ को आधार बना कर ‘स्वामी’ नाम की फिल्म बनाई जो चली नहीं। यही हाल 1946 में प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ पर इसी नाम से बनी फिल्म का हुआ। इस बीच उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा और पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ फिल्मों में हाथ आजमाने पहुँच चुके थे। फिल्मिस्तान में काम करते हुए अश्क और किशोर साहू के साथ लेखन करने वाले अमृतलाल नागर सिनेमा की आवश्यकताओं और सीमाओं को समझ चुके थे। इसलिए वे कुछ समय तक वहाँ टिके रहे। हालाँकि इस दौरान उन्होंने किसी साहित्यिक कृति को सिनेमा में नहीं बदला बल्कि डायरेक्टर और प्रोड्यूसर की मांग के मुताबिक पटकथा और संवाद लिखते रहे। उग्र अपने विद्रोही और यायावरी मिजाज की वजह से बहुत जल्द मुंबई को अलविदा कह आए। भगवती चरण वर्मा भी साल भर में ही वापस लौट आए।
किशोर साहू जब फिल्मों में पहुँचे तो वे कहानियाँ और नाटक लिख रहे थे। उनके तीन कहानी संग्रह भी छपे। उन्होंने उपेंद्रनाथ अश्क और भगवती चरण वर्मा को लेखन के मौके जरूर दिए लेकिन खुद हिंदी की किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म नहीं बना सके। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ पर इसी नाम से एक फिल्म जरूर बनाई लेकिन वह फ्लाप रही। इस बीच 1941 में भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर किदार शर्मा ने इसी नाम से फिल्म बनाई और फिल्म सफल भी रही। इसे उस दौर की फिल्मों में अपवादस्वरूप लिया जा सकता है। फिर भी कई कारण ऐसे रहे कि ‘चित्रलेखा’ की सफलता फिल्मकारों को हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित नहीं कर सकी और जिन लोगों ने इक्क-दुक्का कोशिश की उन्हें असफलता का सामना करना पड़ा।
उदाहरण के लिए 1960 में चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ पर इसी नाम से फिल्म बनी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास पर ‘धर्मपुत्र’ नाम से बीआर चोपड़ा ने फिल्म बनाई, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी तीसरी कसम अर्थात् मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ बनी और तीनों फिल्में बुरी तरह फ्लाप रहीं। ‘तीसरी कसम’ को भले ही उसकी श्रेष्ठता के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला लेकिन फिल्म फ्लाप होने से भारी कर्ज के बोझ तले दब चुके इसके निर्माता गीतकार शैलेंद्र को दुनिया से कूच करना पड़ा। फिल्मों के लिए कई कहानियाँ लिख चुके और फिल्में बना चुके कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की कृति ‘एक चादर मैली सी’ पर भी जब फिल्म बनी तो वह भी फ्लॉप साबित हुई।
प्रेमचंद की मृत्यु के काफी समय बाद बाद उनकी तीन कहानियों पर फिल्में बनीं लेकिन चर्चित रही सत्यजित रे द्वारा बनाई गई पहली हिंदी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’। तो क्या सत्यजित राय जैसे फिल्मकार ही हिंदी साहित्य को सेल्युलाइड पर उतारने में सक्षम थे? प्रेमचंद जिनकी अधिकांश कहानियाँ और उपन्यास लोगों को बेहद पसंद आए, न केवल हिदी भाषियों को बल्कि भारत की अन्य भाषाओं और विदेशी भाषा के पाठकों को भी, तो क्या उनके साहित्य में फिल्म बनाने लायक कहानीपन नहीं था? जिस साहित्य को अशिक्षित भी सुन कर मुग्ध हो जाते थे उस पर सफल फिल्म क्यों नहीं बन सकीं या फिर ये माना जाए कि हिंदी भाषी फिल्मकारों में ही कोई कमी थी जो विदेशी फिल्मों से कहानियाँ चुराकर फिल्म बनाना ज्यादा आसान समझते रहे हैं।
हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म ना बनने का शोर साठ के दशक में सरकारी वर्ग तक भी पहुँचा। फिल्म वित्त निगम ने आगे बढ़कर सरकारी खर्च पर अनेक ख्याति प्राप्त साहित्यकारों की कृतियों पर फिल्मों का निर्माण कराया। इनमें से अधिकांश फिल्में डिब्बों में बंद हैं। कुछ फिल्में गिने-चुने स्थानों पर रिलीज जरूर हुईं लेकिन वे इतनी नीरस और शुष्क थीं कि सीमित बौद्धिक वर्ग के अलावा किसी ने उनकी चर्चा तक नहीं की। इन फिल्मों को बनाने वाले अधिकतर फिल्मकारों ने फिल्म तकनीक का तो ध्यान रखा लेकिन दर्शक उनकी प्राथमिकता में कहीं नहीं थे।
दरअसल हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर सफल फिल्म ना बन पाने के कई कारण हैं। साहित्य लेखन अलग विधा है। कहानी या उपन्यास का सृजन एक नितांत व्यक्तिगत कर्म है। जबकि फिल्म लेखन में निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्रियों यहाँ तक कि कैमरामैन को निर्देशक की दृष्टि पर निर्भर रहना पड़ता है। फिल्म एक लोक विधा है। साहित्य शिक्षितों की विधा है। फिल्म तो रामलीला और लोकनाट्य की तरह आम जनता तक अपनी बात पहुँचाती है उसका उद्देश्य मनोरंजन है चाहे उसके दर्शक अनपढ़ हों या फिर पढ़े लिखे। हिंदी के कई साहित्यकार इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाए। इसके अलावा प्रेमचंद के समय से ही फिल्म निर्माताओं ने लेखक को वह महत्व ही नहीं दिया जिसका वह अधिकारी होता है। सिनेमा में लंबे समय तक लेखक दोयम दर्जे की हैसियत का समझा जाता था। यह स्थिति अधिकांश साहित्यकारों को स्वीकार्य नहीं हुई। यह कहना गलत नहीं होगा कि अनेक साहित्यकारों ने फिल्मी दुनिया में अपने लिए जगह तो चाही लेकिन फिल्मकारों और स्थितियों से तालमेल नहीं बन सका। अपने समय के साहित्यकारों का फिल्मी दुनिया में हाल देखकर उनके समकालीन और बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों का फिल्मी दुनिया से मोह भंग हो गया।
एक कारण यह भी रहा कि फिल्म बनाने की मुख्य धुरी वह व्यक्ति होता है जो पैसा लगाता है और जो पैसा लगाता है फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र में उसका दखल चलता है। हिंदी का दुर्भाग्य रहा कि फिल्मों में पैसा लगाने वाले सेठ साहित्य से ना के बराबर सरोकार रखने वाले रहे। वहीं हिंदी सिनेमा पर पंजाबी, उर्दू और बांग्लाभाषी फिल्मकार शुरू से ही हावी रहे हैं। एक भी चर्चित फिल्मकार हिंदी भाषी नहीं था। 1931 से 1938 तक हिंदी फिल्में बनाने वाले प्रमुख लोग बाबूराव पेंटर, भालजी पेंढाकर, वी. शांता राम मराठी भाषी थे। पी सी बरुआ, देबकी बोस, नितिन बोस बंगाली थे, चंदूलाल शाह गुजराती तो आर्देशिर ईरानी और वाडिया बंधु पारसी थे, जिनकी प्राथमिकता में हिंदी की साहित्यिक कृतियाँ लगभग नहीं रहीं।
दूसरा पहलू यह भी है कि साहित्यिक कृतियों पर फिल्म लेखन करवाना आसान काम नहीं है इसके लिए पहली शर्त है निर्देशक और प्रोड्यूसर का कृति के मर्म तक पहुँचना और साहित्यकार की मानसिक बुनावट को समझ पाना, और बाजार के दबाव और मनोरंजन के तकाजों के बीच साहित्यकार की सोच के साथ इंसाफ करना।
सिनेमा से जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि साहित्य लेखन में बाजार की अहम भूमिका नहीं होती जबकि सिनेमा में बाजार का तत्व ना केवल लागू होता है बल्कि हावी भी होता है क्योंकि फिल्म की लागत बहुत होती है। हिंदी के मुकाबले बांग्ला फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों को फिल्माने में लेखक की संवेदना, बाजार के तकाजों और फिल्म मेकिंग का जबरदस्त तालमेल बनाया। यहाँ तक कि उन्होंने बांग्ला कृतियों को हिंदी फिल्मों में ढाला तो वे भी सफल फिल्में साबित हुईं। शरतचंद्र के उपन्यास पर ‘देवदास’ के नाम से हिंदी में 1925 और 1955 में फिल्में बनीं और दोनों बेहद सफल रहीं। यही हाल ‘परिणिता’ और ‘मंझली दीदी’ का भी रहा। बंकिम चटर्जी की कृतियों पर ‘आनंदमठ’ और ‘दुर्गेश नंदिनी’ जैसी सफल फिल्में बनीं। रवींद्रनाथ ठाकुर की कृति नौका डूबी पर ‘मिलन’ (1946), विमल मित्र के उपन्यास ‘साहब बीबी और गुलाम’ पर इसी नाम से बनी फिल्में बेहद सफल रहीं। यहाँ केवल कुछ ही फिल्मों का उल्लेख है जबकि इनकी संख्या इससे कहीं अधिक है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बांग्ला भाषी फिल्मकारों ने साबित कर दिया कि अगर फिल्मकार, पटकथा और संवाद लेखक साहित्यकार के मानसिक स्तर तक ख़ुद को ले जाने में सफल रहे तो रचना के साथ न्याय किया जा सकता है।
सिनेमा में हिंदी साहित्यकारों का असर सातवें दशक में नजर आता है। इसका प्रणेता अगर कमलेश्वर को कहा जाए तो गलत नहीं होगा। उपेंद्रनाथ अश्क और अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही वह महत्वपूर्ण हिंदी साहित्यकार थे जिन्होंने सिनेमा की भाषा और जरूरत को बेहतरीन ढंग से समझा। टेलीविजन से शुरुआत कर उन्होंने सिनेमा में दखल दिया और लंबे समय तक टिके रहे। मुंबई में रहने के दौरान वह ऐसे फिल्मकारों के संपर्क में आए जो साहित्यिक रुचि रखते थे। कमलेश्वर के उपन्यास ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ और ‘डाक बांग्ला’ पर क्रमशः ‘बदनाम बस्ती’ (1971) और ‘डाक बांग्ला’ (1974) बनीं लेकिन सफल नहीं हो सकीं। उनकी कहानी पर और भी फिल्में बनीं लेकिन जब गुलजार ने कमलेश्वर की कृति पर ‘आंधी’ और ‘मौसम’ बनाई तो दोनों फिल्में मील का पत्थर साबित हुईं। आम दर्शक और बौद्धिक वर्ग दोनों ने इन फिल्मों को सराहा। इसके लिए कमलेश्वर से अधिक प्रशंसा के पात्र गुलजार हैं जिन्होंने मूल कृतियों की संवेदना को गहराई से समझा और दोनों फिल्मों की पटकथा, संवाद और गीत खुद ही लिखे।
सातवें दशक में एक ओर हिंदी कथा साहित्य में बदलाव आ रहा था वहीं हिंदी भाषी फिल्मकारों की संख्या भी बढ़ रही थी। बासु चटर्जी बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने हिंदी साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर उन्होंने फिल्म बनाई जो सफल नहीं हो सकी लेकिन मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर जब उन्होंने ‘रजनीगंधा’ बनाई तो वह फिल्म लोकप्रिय साबित हुई। हिंदी साहित्य की कृतियों पर उस दौर में कुछ और फिल्में बनीं लेकिन तभी हिंदी फिल्मी दुनिया में एक एंग्रीमैन अमिताभ बच्चन का प्रवेश हुआ और बासु चटर्जी, हृ्षीकेश मुखर्जी, गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल, अरुण कौल, गुलजार जैसे फिल्मकारों के होते हुए भी हिंदी फिल्में भारी हिंसा और घटिया हास्य से लहूलुहान होने लगीं। यह दौर डेढ़ दशक से ज्यादा चला।
नवें दशक के अंत में हिंदी फिल्मों में प्रयोग शुरू हुए लेकिन साहित्यिक कृतियाँ लगभग नदारद रहीं।
हिंदी फिल्मों को मौजूदा परिदृश्य बहुत बदल चुका है हर तरह की फिल्में बन रही हैं विषयों में इतनी विविधता पहले कभी नहीं दिखाई दी। छोटे बजट की फिल्मों का बाजार भी फूल-फल रहा है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने की समझ रखने वाले युवा हिंदी भाषी फिल्मकारों की जमात तैयार हो चुकी है लेकिन फिलहाल हिंदी फिल्में पत्रकारिता से फायदा उठा रही हैं। अभी जोर बायोग्राफिकल फिल्में बनाने पर अधिक है शायद अगला नंबर साहित्यिक कृतियों का हो लेकिन जरूरी नहीं वे कृतियाँ हिंदी साहित्य की हों।
भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम काल तब आया जब साहित्यिक कृतियों को फिल्मकारों ने सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जीवन्त किया। इस दौर में न केवल भारतीय भाषाओं जैसे संस्कृत, हिन्दी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयाली,मराठी, बांग्ला आदि से जुड़े साहित्य पर उत्कृष्ट फिल्मों का निर्माण किया गया बल्कि विदेशी साहित्य को भी अपनी फिल्मों का विषय बनाया गया।
संस्कृत के प्रसिद्ध रचनाकार कालिदास की कृति “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” पर तो 1920 में ही एक मूक फिल्म का निर्माण किया जा चुका था किन्तु उसके बाद 1931 में इसी विषय पर दो फिल्मों का निर्माण, मदन थियेटर के जे.जे. मदन और सरोज मूवीटोन के एम. भवनानी के निर्देशन में किया गया था। आगे चलकर प्रसिद्ध निर्माता निर्देशक वी. शांताराम ने 1943 में “शकुंतला” और १९६१ में “स्त्री” नाम से इसी कहानी को बनाया। इसके अतिरिक्त कालिदास के ही “मेघदूत” को रुपहले पर्दे पर निर्माता-निर्देशक देवकी बोस ने उतारा।
संस्कृत के प्रसिद्ध नाट्यकार भवभूति की कृति “मालती माधव” को सरोज मूवीटोन के बैनर तले 1933 में निर्देशक ए.पी. कपूर और 1951 में निर्देशक भालेराव जोशी ने प्रसन्न पिक्चर्स के बैनर तले फिल्माया। महाकवि शूद्रक द्वारा रचित संस्कृत नाटक “मृच्छकटिकम” को “शकुंतला” की तरह फिल्मकारों ने अनेक बार अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। 1934 में “वसन्तसेना” नाम से वसन्त सिनेटोन के लिए जे.पी. अडवानी ने इसका निर्माण किया था।
इनके अतिरिक्त श्री हरि की रचना “नागानन्द” तथा “रत्नावली”, बाणभट्ट की “कादम्बरी”, जयदेव की काव्यकृति “गीत गोविन्द” पर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। हिन्दी साहित्य को भी प्रारम्भिक फिल्मों में पर्याप्त स्थान मिला।
मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों – गोदान, गबन, दो बैलों की जोड़ी, शतरंज के खिलाड़ी पर फिल्मों का निर्माण होता रहा। सिनेमा के आरम्भिक काल में साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के साथ मिलकर चल रहे थे। इसके अतिरिक्त साहित्यिक रूप से कम प्रतिष्ठित किन्तु व्यावसायिक रूप से अत्यन्त सफल कई उपन्यासकारों की रचनाओं पर बनी फिल्मों ने न केवल अपार सफलता अर्जित की बल्कि अपने लेखक और फिल्मकार दोनों को समृद्ध कर दिया।
इस श्रेणी में गुलशन नन्दा का नाम प्रमुख है। एक जगह पर प्रसिद्ध शायर निदा फाजली बताते हैं कि एक बार उन्होंने प्रसिद्ध लेखक कृश्नचन्दर को फुटपाथ पर गुलशन नन्दा के उपन्यास को पलटते देखा। निदा फाजली ने उनसे पूछा ये आप क्या कर रहें हैं? तो कृश्नचन्दर ने कहा, “मैं समझने का प्रयास कर रहा हूं कि ये ऐसा क्या लिखते हैं कि इसके उपन्यासों का एक-एक एडीशन लाखों में छपता है और हम हजारों के लिए तरसते हैं। गुलशन नन्दा के उपन्यासों पर कई सफल फिल्में बनीं। “अन्धेरे चिराग” पर मनोज कुमार की मुख्य भूमिका में “फूलों की सेज”, राजेश खन्ना के सुपर स्टार को सुदृढ़ करने वाली फिल्म “कटी पतंग”, धर्मेंद्र की प्रमुख भूमिका वाली “झील के उस पार” आदि उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी सिनेमा के विकास में यदि हम बांग्ला साहित्य के योगदान का उल्लेख नहीं करेंगे तो यह अन्याय होगा। सच कहा जाए तो हिन्दी सिनेमा की कई कालजयी फिल्में बंगाली लेखकों की कलम से निकली हैं। प्रेम की अनोखी परिभाषा गढ़ती “देवदास” जिसे कई बार फिल्माया जा चुका है। इसके रचनाकार थे शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय । इनकी कृतियों पर बनी फिल्मों की संख्या काफी अधिक है। बिमल रॉय ने 1953 में शरत बाबू की कृति “परिणीता” – मुख्य भूमिका में अशोक कुमार, मीना कुमारी का निर्माण किया। शरत बाबू के उपन्यास “देवदास” को उन्होंने दिलीप कुमार के साथ बनाया। इसके अतिरिक्त भी शरत बाबू की कई अन्य कृतियों पर फिल्में बन चुकी हैं।
“देवदास” और “परिणीता” का निर्माण संजय लीला भंसाली और प्रदीप सरकार जैसे फिल्मकारों ने भी किया है जिसमें शाहरुख खान, ऐश्वर्या रॉय और माधुरी दीक्षित ने काम किया और दर्शकों ने भी इन फिल्मों को अपना प्यार देकर सफल बनाया।
इनके अतिरिक्त बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास “आनन्द मठ” पर हेमेन्द्र गुप्ता के निर्देशन में “आनन्द मठ” जैसी कालजयी कृति की रचना हुई। इसका गीत “वन्दे मातरम्” स्वतन्त्रता संग्राम का उद्घोष बन गया था। “वन्दे मातरम्” आज हमारा राष्ट्रगीत है।
यदि हम बांग्ला साहित्यकार बिमल मित्र का उल्लेख नहीं करेंगे तो कुछ अधूरा रह जाएगा। बिमल मित्र के उपन्यास “साहिब, बीवी और गुलाम” पर बनी इसी नाम की गुरुदत्त द्वारा निर्मित और अबरार अलवी द्वारा निर्देशित, गुरुदत्त, मीना कुमारी और वहीदा रहमान के अभिनय से सजी फिल्म भारतीय सिनेमा की अमूल्य धरोहर है। महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर की अनेक रचनाओं पर फिल्मों का निर्माण हुआ है। इसमें सबसे उल्लेखनीय है “काबुली वाला”। अभिनेता बलराज साहनी ने अपने उत्कृष्ट अभिनय से इस किरदार को सदा सर्वदा के लिए अमर कर दिया।
साथ ही साथ तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, गुजराती, पंजाबी साहित्य एवं लोक कथाओं ने भी भारतीय फिल्मों की विषयवस्तु के रूप में पर्याप्त स्थान एवं प्रसिद्धि पाई। मणि रत्नम की फिल्म पोन्नियन सेल्वन दक्षिण भारत के ऐतिहासिक पराक्रम और सौन्दर्य की कहानी है. फिल्म तमिल के इसी नाम से ऐतिहासिक उपन्यास का रूपांतरण है जिसके उपन्यासकार कल्कि कृष्णमूर्ति हैं। फिल्म चोल राजवंश के एक किस्से की कहानी है। पोन्नियन सेल्वन तमिल सिनेमा की कुछ श्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। कुछ उल्लेखनीय मराठी फिल्में हैं, हरिनारायण आप्टे की “हृदया ची श्रीमंती” पर १९३७ में बाबूराव पेंटर ने “प्रतिमा” फिल्म का निर्माण किया। प्रसिद्ध मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर की जीवनी पर श्याम बेनेगल ने “भूमिका” फिल्म बनाई। चन्द्रकान्त काकोड़कर के उपन्यास “नीलाम्बर” पर राज खोसला ने “दो रास्ते” जैसे सफल चलचित्र का निर्माण किया।
गुजराती लेखक कन्हैया लाल मुंशी के उपन्यास “वैर नी वसूलात” पर 1935 में “बैर का बदला” फिल्म का निर्माण किया गया। उन्हीं के द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास पाटण नी प्रभुता पर “महारानी मीनल देवी” नाम की फिल्म का निर्माण हुआ। उनके उपन्यास “पृथ्वी वल्लभ” पर सोहराब मोदी ने सफल फिल्म का निर्माण किया। गोवर्धनराम त्रिपाठी के उपन्यास “सरस्वतीचन्द्र” पर गोविन्द सरैया ने इसी नाम से नूतन को लेकर एक अत्यन्त सफल फिल्म का निर्माण किया।
“हीर रांझा”, “सोहनी महिवाल”, “मिर्जा-साहिबा”, “सस्सी-पुन्नू” जैसी पंजाब की प्रेम कथाओं को अनेक बार प्रस्तुत किया गया है। राजेंद्र सिंह बेदी की “एक चादर मैली सी” का भी सिनेमा के परदे पर प्रदर्शन हुआ है। नानक सिंह द्वारा रचित उपन्यास “पवित्र पापी” पर इसी नाम से एक फिल्म राजेंद्र भाटिया ने बनाई थी। अमृता प्रीतम की कृति “धरती, सागर और सीपिया”, पिंजर पर भी फिल्म बनाई गई है।
सिनेमा में साहित्य के योगदान पर अगर विस्तृत चर्चा की जाए तो एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। सच तो यह है कि आरम्भ में साहित्य और सिनेमाई कहानियों के बीच एक सन्तुलन बना हुआ था। व्यावसायिक रूप से भी ये फिल्में सफल हो रही थी। इसलिए फिल्मकारों की भी रुचि इनमें बनी हुई थी। किन्तु, आगे चलकर फिल्म निर्माण में बाजार हावी हो गया। स्टार वैल्यू हावी हो गई। एक समय था जब कहानी के पात्र के आधार पर कलाकार निर्धारित होते थे। अब कलाकार के आधार पर कहानी का ताना बाना बुना जाता है। अब साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने वाले फिल्मकार कम ही बचे हैं। किन्तु जैसे कि कहते भी हैं कि – सब दिन रहत न एक समाना – समय का चक्र घूम रहा है और हम फिर से उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनते देखेंगे।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर और फिल्म समीक्षक हैं।