भारत में दलहनों का उत्पादन बढ़ाने
की नयी नीतियां
प्रेम चंद, सुरेश पाल और
संत कुमार
दलहन मनुष्य को प्रकृति का अनमोल उपहार है. भारत जैसे देश में जहां ज्यादातर लोग शाकाहारी हैं ये हमारी पौष्टिक आहार (प्रोटीन) की आवश्यकता तो पूरी करते ही हैं, मवेशियों के चारे और जमीन में नाइट्रोजन की जरूरत पूरी करने में भी दलहनी फसलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. आने वाले समय में विश्व में खाद्य और पौष्टिकता सुरक्षा बनाए रखने तथा पर्यावरण में गिरावट को रोकने में दलहनों के महत्व को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की थी. दलहनी फसलें कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में संसाधनों का कम से कम उपयोग करके उगाई जा सकती हैं. हालांकि भारत दुनिया में दलहनों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता देश है मगर यहां दलहनों की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत बहुत कम है (16 किग्रा वार्षिक) और इसमें भी बीते सालों में लगातार गिरावट आ रही है. देश में आम तौर पर पोषाहार और स्वास्थ्य की दयनीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए, (जिसका अंदाजा कुपोषण की वजह से शारीरिक विकास के रुकने की बीमारी से लगाया जा सकता है) प्रोटीन के उपभोग में बढ़ोतरी करना सरकार की उच्च नीतिगत प्राथमिकता है.
दलहन उत्पादन का परिदृष्य
भारत में दलहनों का वार्षिक उत्पादन पिछले पांच वर्षों से 1.6-2.2 करोड़ मीट्रिक टन के स्तर पर बना हुआ है. दलहनों के कुल उत्पादन में चने (काबुली) का योगदान 41.20 प्रतिशत है और यह कुल दलहन उत्पादन क्षेत्र में से 32.36 प्रतिशत भूमि पर उगाया जाता है. इसके बाद अरहर का नंबर आता है जिसका कुल उत्पादन में योगदान 19.83 प्रतिशत और उत्पादन क्षेत्र में हिस्सेदारी 17.26 प्रतिशत है. इसी तरह दलहनों के कुल उत्पादन में काले चने का हिस्सा 13.05 प्रतिशत और उत्पादन क्षेत्र में 14.52 प्रतिशत, मूंग का 9.62 प्रतिशत और 13.24 प्रतिशत है. कुल दलहन उत्पादन में मसूर का हिस्सा 6 प्रतिशत, मटर का 5 प्रतिशत, खेसरी दाल का 2.66 प्रतिशत, मोठ दाल का 2 प्रतिशत और कुलथी का 1.5 प्रतिशत है. मध्य प्रदेश भारत में दलहनों का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है जहां कुल उत्पादन का 28 प्रतिशत पैदा होता है. इसके बाद महाराष्ट्र का स्थान है जहां 11.9 प्रतिशत दलहन पैदा होते हैं. राजस्थान में 11.38 प्रतिशत, उत्त प्रदेश में 8.39 प्रतिशत और कर्नाटक में 8.10 प्रतिशत तिलहन पैदा किये जाते हैं. अगर देश में तिलहनों के उत्पादन क्षेत्र पर विचार किया जाए तो 2016-17 में मध्य प्रदेश सबसे आगे था जहां कुल देश में तिलहनों के कुल रकबे के 21.30 प्रतिशत पर इनकी खेती की गयी. इसके बाद राजस्थान में 16.65 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 14.96 प्रतिशत, कर्नाटक में 9.85 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 9.05 प्रतिशत, ओडिशा में 5.55 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 4.26 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 3.9 प्रतिशत क्षेत्रफल में तिलहन उगाये गये. पिछले 27 वर्षों में (1990-91 से 2016-17) दलहनों का उत्पादन 1.60 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ा है. रबी मौसम की दालों के उत्पादन में 1.88 प्रतिशत वार्षिक की दर से और खरीफ में 1.60 प्रतिशत वार्षिक की दर से वृद्धि हुई है.
दलहनों के उत्पादन में वृद्धि के स्रोत
2009-10 तक देश में दलहनों का उत्पादन 1.0-1.4 करोड़ टन के आस-पास था. लेकिन 2010-11 में इसमें 18.24 मीट्रिक टन की बढ़ोतरी हुई और 2013-14 में उत्पादन 1.92 मीट्रिक टन तक पहुंच गया. इसके बाद 2014-15 से 2015-16 के दो वर्षों में खरीफ मौसम में लगातार सूखे और रबी मौसम में बेमौसमी बरसात और ओले गिरने से इनके उत्पादन में गिरावट आई. 2015-16 में दलहनों के रकबे में बढ़ोतरी के बावजूद काबुली चने के उत्पादन में गिरावट मौसम में अचानक बदलाव के असर को दिखलाती है.
मानसून की अच्छी वर्षा, बाजार में दलहनों के ऊंचे दाम और भारत सरकार की नीतिगत पहलों और रणनीतियों की वजह से 2016-17 में इनके उत्पादन क्षेत्र में 2013-14 की तुलना में 53.8 लाख हैक्टेयर की बढ़ोतरी हो सकी जिससे दलहनों का उत्पादन 22.14 मीट्रिक टन के स्तर तक पहुंच जाने का अनुमान है. दलहनों की खेती के रकबे में 53.8 लाख हैक्टेयर की जो बढ़ोतरी हुई उसमें 13.8 लाख हैक्टेयर में अरहर और उड़द और 10.7 लाख हैक्टेयर में मूंग उगायी गयी. अरहर के उत्पादन क्षेत्र में बढ़ोतरी मध्य और दक्षिण-पश्चिमी राज्यों, यानी महाराष्ट्र (4 लाख हैक्टेयर), कर्नाटक (3.7 लाख हैक्टेयर), मध्य प्रदेश (2.3 लाख हैक्टेयर), तेलंगाना (1.7 लाख हैक्टेयर), गुजरात (1.4 लाख हैक्टेयर) और आंध्र प्रदेश (1.2 लाख हैक्टेयर) में दर्ज की गयी. जहां तक उड़द के उत्पादन क्षेत्र में बढ़ोतरी का सवाल है सबसे अधिक 47.71 प्रतिशत की बढ़ोतरी मध्य प्रदेश में हुई जिसके बाद राजस्थान में 18.88 प्रतिशत, ओडिशा में 13.75 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 9.74 प्रतिशत गुजरात में 9.17 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में उड़द के फसली रकबे में 8.51 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी. रबी के मौसम की उड़द के क्षेत्रफल में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी आंध्र प्रदेश में हुई. इसी तरह मूंग उत्पादन का क्षेत्र भी 10.7 लाख हैक्टेयर बढ़ा जिसमें से 52.52 प्रतिशत बढ़ोतरी राजस्थान में दर्ज की गयी.
दलहनों के उत्पादन पर असर डालने वाले घटक
कीमतें
बाजार में दलहनों की मौजूदा ऊंची कीमतें इनके उत्पादन के बढ़ोतरी के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक हैं. अरहर के उत्पादन क्षेत्र में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि इस पर कीमतों के असर को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करती है. अगर महत्वपूर्ण कृषि उत्पादों के थोक मूल्य सूचकांक में बढ़ोतरी पर गौर करें तो 2015 के दौरान दलहनों के थोक मूल्य सूचकांक में इससे पहले के साल की तुलना में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि तिलहनों और अनाज के मामले में थोक मूल्य सूचकांक लगभग स्थिर बना रहा. दलहनों के मामले में सबसे अधिक वृद्धि (117 प्रतिशत) उड़द में देखी गयी. इसके बाद काबुली चने के सूचकांक में 100 प्रतिशत, मसूर में 75 प्रतिशत, चने में 62 प्रतिशत और मूंग के थोक मूल्य सूचकांक में 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी. खलिहान पर दलहनों की कीमतों में भी बढ़ोतरी हुई. वर्ष 2013-14 की तुलना में 2014-15 में अरहर के दामों में 62 प्रतिशत, काबुली चने में 30 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी.
सरकार की नीतिगत पहल
सरकार ने हाल में दलहन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी और दलहनों की सरकारी खरीद में बढ़ोतरी के रूप में जो पहल की है उससे 2016-17 के दौरान देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य और किसानों का बोनस काफी बढ़ा दिया गया है (पिछले तीन वर्षों में 16 से 34 प्रतिशत की बढ़ोतरी). 2016-17 में अरहर का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढक़र 5050 पहुंच गया है (750 की बढ़ोतरी). का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5000 रुपये पर पहुंच गया है (725 रुपये की बढ़ोतरी) जबकि काले चने का 5000 रुपये (700 रुपये की बढ़ोतरी), मूंग का 5225 रुपये (725 की बढ़ोतरी), मसूर का 3950 रुपये (1000 की बढ़ोतरी) और काबुली चने का 4000 रुपये (9000 रुपये की बढ़ोतरी) पर पहुंच गया है जो 2013-14 के मुकाबले काफी अधिक है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के साथ ही दलहनों की सरकारी खरीद में भी इजाफा हुआ है. हाल में इनका सुरक्षित भंडार 8 लाख टन से बढ़ाकर 20 लाख टन कर दिया गया. 2016-17 में नाफेड, नेशनल कोऑपरेटिव कंज्यूमर फेडरेशन, सेंट्रल वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन और स्माल फार्मर्स एग्री-बिजनेस कंसोर्टियम ने कुल 20 लाख टन दलहनों की खरीद की जबकि इससे पिछले साल इन संगठनों ने कुल 5.04 लाख टन दलहन ही खरीदे थे.
सरकार की रणनीति
भारत सरकार द्वारा अपनायी गयी एक महत्वपूर्ण नीति राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का कार्यक्षेत्र बढ़ाने की है. 2013-14 में मिशन के तहत 16 राज्यों के केवल 482 जिलों को शामिल किया जा सका था. अब इस योजना में 29 राज्यों के 638 जिले शामिल कर लिए गये हैं. गोवा, केरल और 8 उत्तर-पूर्वी राज्य और 3 पर्वतीय राज्यों को भी अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के दायरे में शामिल कर लिया गया है.
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन देश में दलहनों का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए कई उपाय कर रहा है जिनमें दलहन किसानों को बीजों के मिनी किट्स का वितरण, गुणवत्तापूर्ण बीजों के उत्पादन पर सब्सिडी, अच्छे बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए 150 दलहन बीज केन्द्र बनाने, ब्रीडर बीज उत्पादन को सुदृढ़ करना, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों एवं राज्य कृषि विश्वविद्यालयों में जैव-खाद बनाने वाली इकाइयां सुदृढ़/स्थापित करना, कृषि विज्ञान केन्द्रों के जरिए अग्रिमपंक्ति के क्लस्टर प्रदर्शन (पूर्वी भारत और धान की फसल कटने के बाद परती छोड़े जाने वाले खेतों के बारे में 534 कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा 31,000 हैक्टेयर में प्रदर्शन) जैसे कार्य शामिल हैं. ब्रीडर बीजों का उत्पादन 2013-14 में (सामान्य वर्ष) 82.29 हजार क्विंटल था जब 2015-16 (कम वर्षा वाला साल) में बढक़र 90.37 हजार क्विंटल हो गया.
अरहर, चना, मटर और मसूर जैसी दलहनों को उगाने का क्षेत्र बढ़ाकर रबी/गर्मियों में होने वाले दलहनों के उत्पादन में वृद्धि के लिए 2016-17 में एक कार्यक्रम शुरू किया गया. गर्मियों की उड़द के लिए भी ऐसा ही कार्यक्रम शुरू किया गया. हरित क्रांति वाले मूल प्रदेशों पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी फसल विविधता अभियान के तहत इसी तरह से एक कार्यक्रम राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 2013-14 से शुरू किया गया है जिसका उद्देश्य पानी की बहुत अधिक आवश्यकता वाली धान जैसी फसलों की जगह दूसरी फसलों जैसे दलहनों, तिलहनों, मक्का, कपास और कृषि वानिकी को बढ़ावा देना है ताकि इन राज्यों में मिट्टी की उर्वराशक्ति कम होने और भूमिगत जल के घटते स्तर की समस्या का भी समाधान हो सके.
तम्बाकू किसानों को दूसरी फसलें/फसल प्रणालियां अपनाने को प्रेरित करने के लिए 2015-16 से फसल विविधीकरण कार्यक्रम का आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में विस्तार किया गया है.
पूर्वी भारत में धान की फसल के बाद परती जमीन में दलहनों को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत एक नयी पहल की गयी. इसका उद्देश्य पूर्वी भारत के परती छोड़े गये खेतों में दलहनों और तिलहनों की खेती को बढ़ावा देना है. छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में रबी की फसल के अंतर्गत 10.9 लाख हैक्टेयर अतिरिक्त रकबे पर दलहनों की खेती से कार्यक्रम का असर बढ़ गया है.
इसी तरह किसानों और उत्पादकों के संगठनों को बढ़ावा देने के लिए घटक वार वित्तीय प्रावधान हैं और मूल्य शृंखला समन्वय के लिए विपणन सहयोग के अंतर्गत ऐसे किसान समूहों, स्व-सहायता समूहों, स्व-सहायता समूहों के परिसंघों आदि को भी दलहनों और ज्वार-बाजरे के विपणन के लिए मदद (15 किसानों वाले प्रत्येक समूह को 2.00 लाख रुपये की दर से एक बारगी) दी जाती है जो पंजीकृत नहीं हैं. इससे अपंजीकृत किसान समूहों, महिला स्व-सहायता समूहों और अन्य को स्थानीय हाटों और कस्बों में दलहनों की सीधी बिक्री में अनौपचारिक रूप से सहयोग का मौका भी मिलता है.
दलहनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए टेक्नोलॉजी संबंधी उपाय
दलहनों के उत्पादन पर असर डालने वाले टेक्नोलॉजी संबंधी कुछ महत्वपूर्ण उपाय हैं: फसलों का चयन और धान की खेती के बाद उगायी जा सकने वाली फसलें तथा किस्मों की बुआई करना; धान-गेहूं फसल प्रणाली में फलीदार फसलों को शामिल करके दलहनों के उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ-साथ जमीन की उर्वरा शक्ति बहाल कर उत्पादन में स्थिरता लाना और अन्य संबद्ध समस्याएं कम कर करना; ऊंचाई वाले इलाकों में धान की जगह दलहनों की खेती; दूसरी फसलों के साथ दलहनों की खेती; आनुक्रमिक फसल; रबी के मौसम की अरहर की खेती; प्लांट जीओमीट्री, बुआई के समय, बुआई की गहराई और अनुकूलतम बीज दर, आदि.
(तीनों लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र और नीति अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110012 में कार्यरत हैं.)
ई-मेल : prem.chand@icar.gov.in; suresh.pal20@gov.in; sant.kumar@icar.gov.in
चित्र: गूगल के सौजन्य से