भारत में वास्तुशास्त्र के विशद ज्ञान पर आधारित स्थापत्य कला का समृद्ध प्राचीन इतिहास रहा है, जिसकी सटीक व्याख्या अब भी संभव नहीं हो सकी है। हालांकि भारत में स्थापत्य कला के समकालीन अध्ययन का आरंभ स्वातंत्र्यपूर्व काल में हुआ जब 2 मार्च 1857 को बंबई में सर जमशेदजी जीजेभॉय नाम से वास्तुकला का पहला विद्यालय अस्तित्व में आया। इसके बाद से भारत में स्थापत्य कला का ब्रिटिश शिक्षा मॉडल लंबे समय तक जारी रहा। 1930 के दशक में रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटेक्ट (आरआईबीए) नें इसे औपचारिक रूप से मान्यता दी। हालांकि औपनिवेशिक काल के अधिकांश भवनों का निर्माण अंग्रेज वास्तुकारों के नेतृत्व में हुआ लेकिन माना जाता है कि उनकी टीम में अधिकांश कुशल भारतीय वास्तुकार थे। लुटियंस दिल्ली, फोर्ट मुंबई, शिमला में ब्रिटिश सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी और ऐसे कई अन्य स्थल ब्रिटिश राज काल से जुड़े महत्वपूर्ण पहचान बन गये। आजादी के बाद के शुरुआती समय में प्रमुख भवन सार्वजनिक संस्थानों से जुड़े थे और वैश्विक ‘प्राथमिकताओं’ के अनुरूप सौंदर्य की ‘आधुनिक’ भाषा को प्रतिबिंबित करते थे।
भारत में विशेष रूप से सुदृढ़ और पश्चिमी कला-साज सज्जा तत्कालीन पॉश बॉम्बे के भवनों में देखी गयी। 1950 के दशक में सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमा हॉल के निर्माण में यही वास्तु कला अपनायी गयी। अमरीका में प्रशिक्षित कानविंदे और हवीब रहमान जैसे अग्रणी भारतीय वास्तुकारों ने अन्य शैली भी अपनायी, जिनमें अधिकांश सीधी ज्यामितीय रेखा से संबद्ध स्थापत्य था जिसे बॉहॉस शैली कहा गया और भारत में अपनाया गया। यह चंड़ीगढ़ के वास्तुकार ली कॉरबजियिर के समकालीन भी था और इन दोनों के समन्वय से प्रतिस्पर्द्धी सृजन अस्तित्व में आया। लगभग इसी समय दोशी और चार्ल्स कॉरिया ने भी स्वयं को स्थापित किया और 20वीं सदी के ‘आधुनिक’ भवन निर्माण में योगदान किया। भारत की स्वतंत्रता के समय लगभग 300 वास्तुकार थे, लेकिन इस व्यवसाय ने कुछ प्रमुख भवनों में दर्शायी गयी वास्तुकला से आगे समायोजन और विस्तार करते हुए महत्वपूर्ण रूप से अपना दायरा बढ़ाया।
स्वतंत्रता पूर्व अवधि में औपनिवेशिक प्रभाव की पृष्ठभूमि में उन संस्थानों द्वारा स्थापत्य कला में भारतीय पहचान स्थापित करने का प्रयास शुरू हुआ जिन्होंने निर्मित भवनों से भी औपनिवेशिक पहचान हटाने का बीड़ा उठाया था। 1890 के दशक में डी.ए.वी. संस्थान, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, आर.के.मिशन बेलूर मठ और शांतिनिकेतन भवन निर्माण के माध्यम से अपनी दार्शनिक प्रतिबद्धता के प्रभावी प्रमाण थे। इस प्रकार से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन संस्थानों की गतिविधियों के निष्पादन के लिये प्रेरक ऊर्जा सृजित करने में स्थापत्य कला का योगदान उल्लेखनीय है। और आगे भी इन संस्थानों ने समाज में संस्थागत हस्तक्षेप के माध्यम से भारत केंद्रित भावना को मजबूत करना जारी रखा।
भारत में स्थापत्य कला पर विचार विमर्श में क्षेत्रीय पहचानों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उदाहरण के तौर पर लद्दाख, कश्मीर, पूर्वोत्तर, राजस्थान, केरल जैसे क्षेत्रों ने बाहरी राष्ट्रीय और वैश्विक प्रभावों के बावजूद अपनी विशिष्टता बनाये रखी। उनकी सांस्कृतिक पहचान में जहां क्षेत्रीय विविधता परिलक्षित हुई वही भवन निर्माण शैली ने प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाये रखने का पारंपरिक विकेक भी दर्शाया। वास्तुकला में पारंपरिक ज्ञान और विवेक की प्रतिष्ठापना तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य में रहने की दूरदर्शिता अब जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अधिकांश समस्यायों का समाधान माना जा रहा है। यह कहना उचित होगा कि स्वदेशी स्थापत्य कला के स्वतंत्रता पूर्व प्रमाणों के साथ क्षेत्रीय शैली भारत की स्थापत्य कला को फिर से जीवित करने का समकालीन प्रयास है। और यह अपनी डिजाइन और संरचनागत विविधता प्राचीन भारतीय स्थापत्य प्रतिमान – मंदिरों से ग्रहण करता है। यह देखना रोचक है कि देश के विभिन्न भागों में मंदिर स्थापत्य कला में भी विविधता है और इसके बावजूद यह भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों को दर्शाता है। विविध क्षेत्रों के लोग इनकी वास्तुकला और दर्शन सिद्धांत से व्यापक रूप से जुड़ते हैं। यहां यह गौर करना महत्वपूर्ण है कि स्थापत्य कला का अपने भौतिक स्वरूप से भी परे जाकर व्यापक योगदान है। इसे सांस्कृतिक पहचान गढ़ने, आसपास निर्मित समाज और राष्ट्रीय पहचान में गौरव की भावना से पृथक करके नहीं देखा जा सकता।
देश में लगभग 469 संस्थान भारत सरकार द्वारा वास्तुकार अधिनियम 1972 के तहत गठित वास्तु कला परिषद (सीओए) द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदंड़ो के साथ स्थापत्य कला की शिक्षा दे रहे हैं। पांच वर्ष की स्नातक डिग्री के बाद वास्तुकार सीओए द्वारा पंजीकृत कर लिये जाते हैं और ये अधिनियम द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप स्थापत्य कला का अभ्यास कर सकते हैं। विशिष्ट वास्तुकला पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने के लिये इसमें विज्ञान, प्रौद्योगिकी और ललित कला का भी समावेश किया गया है और यही वह अनूठी विशेषता है जिसका दावा अन्य कोई व्यवसाय नहीं कर सकता। समय के साथ साथ स्नातकोत्तर डिग्री और पीएचडी स्तर पर अनेक विशेषज्ञता जुड़ती गयी है जिसमें शहरी डिजाइन, स्थापत्य संबंधी संवाद, शहरी और क्षेत्रीय आयोजना, परिवहन आयोजना, भवन अभियांत्री / प्रौद्योगिकी और निर्माण प्रबंधन तथा परिदृश्य वास्तुकला शामिल हैं।
अभी हाल में 1 मार्च 2023 को ‘शहरी आयोजना, विकास और स्वच्छता’ पर आयोजित वेबिनार में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शहरी योजना में सुधारों पर चर्चा की। उन्होंने अमृत काल के दौरान सक्षम बुनियादी ढांचे के साथ नये शहरों के निर्माण और साथ ही पुराने शहरों के आधुनिकीकरण पर बल दिया। उनके संबोधन में जलवायु समायोजन की नयी परिभाषा और नये स्थापत्य मानकों के लिये नवाचारी संधारणीय प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता पर विशेष रूप से बल दिया गया। निश्चित रूप से यदि भारत को आजादी के 100 वर्ष पूरे होने तक एक अग्रणी लोकतंत्र के रूप में स्थापित होना है तो शहरों में ऊर्जा सक्षम और उन्नत प्रौद्य़ोगिकी के साथ कार्बन न्यूट्रल भवनों का निर्माण आवश्यक होगा। बजट बाद यह वेबिनार शहरी आयोजना और महत्वपूर्ण वित्तीय सहयोग पर था लेकिन यह वास्तुकारों और वास्तुकला पेशे के लिये भी अभूतपूर्व अवसर सृजित करेगा। भवन निर्माण नये शहरों की शहरी आयोजना के मूल में है और वास्तुकला शहरी योजनाकारों के विशिष्ट व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिये एक प्रमुख इनपुट होने के कारण वास्तुकारों और स्थापत्य व्यवसाय को भी राष्ट्र निर्माण में योगदान करना होगा। स्पष्ट है कि जैसा माननीय प्रधानमंत्री ने रेखांकित किया है इस प्रयास में निजी क्षेत्र की भागीदारी महत्वपूर्ण है। इसलिये क्या रोजगार सृजन की दृष्टि से केवल सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों की आवश्यकता है ? नहीं बिल्कुल नहीं, वास्तु कला व्यवसाय में रोजगार के प्रचुर अवसरों का पता लगाना होगा।
आमतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में सेवा अवसरों की तलाश की जाती है। यह अवसर प्रचुरता से बढ़ भी रहे हैं क्योंकि सार्वजनिक भवन एक भिन्न स्तर और सामाजिक प्रभाव के संस्थान हैं। यह अपेक्षा की जाती है कि अपने दायित्व निभाते समय वास्तुकार उस ‘अनुपस्थित पक्ष’ के हितों का भी ध्यान रखें जिसके प्रति वे समाज की ओर से उत्तरदायी हैं। इसलिये सार्वजनिक क्षेत्र में वास्तुकारों की भूमिका समाज सेवा के महती दायित्व से परिपूर्ण है। हालांकि इसे राष्ट्र की समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले निजी क्षेत्र में सेवा दायित्व से अलग नहीं किया जा सकता। दोनों मामलों में उत्पादकता सहित संधारणीयता के मूल्यों का पालन किया जाना आवश्यक है। इसलिये राष्ट्रीय परिसंपत्तियों का निर्माण पेशेवर वास्तुकारों के लिये गौरवपूर्ण कार्य है।
हालांकि इमारतों के लिए नवाचारी डिजाइन बनाना एक आधारभूत कार्य है लेकिन संचालन के दौरान वास्तुकारों की भूमिका ढांचागत आयोजना, प्रबंधन, परियोजना प्रक्रिया तथा विनिर्मित और अन्य भारतीय विरासत स्थलों के संरक्षण, डेवलपर्स, निर्माण एजेंसियों, परियोजना प्रबंधन एजेंसियों जैसे अन्य हितधारकों से समन्वय तक विस्तारित हो गयी है। ऐसी स्थिति में उद्यमितागत उत्कृष्टता के अवसर प्रचुर हैं। वास्तव में यह कार्य अंतरण माननीय प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित एजेंडे के लिये स्वाभाविक रूप से सहयोगी है और स्थापत्य कला रोजगार सृजन के लिये वास्तविक उत्प्रेरक साबित होगी।
यहां एक सहज प्रश्न उठता है कि क्या हम इस अप्रत्याशित कार्य अंतरण के लिये तैयार हैं। सीधा उत्तर इस स्तर पर भ्रामक प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह स्पष्ट है कि सामर्थ्य को पुनःपरिभाषित करना होगा, शैक्षणिक संस्थानों को अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी क्षमता और उत्कृष्ट करनी होगी। पेशेगत अभ्यास की वास्तविकता बहुविषयक होने के कारण कौशल को नये सिरे से परिभाषित और अंशाकित करने के लिये शिक्षा की आवश्यकता होगी। सौभाग्य से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ऐसे बहुआयामी व्यावसायिक प्रशिक्षण का प्रावधान करता है और यह समय इसके लाभ उठाने का है। वर्तमान पेशेवरों का प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण एक चुनौती है जिसपर विजय पानी होगी ताकि यह “नये दौर” के व्यवसायों के नये स्वरूप के लिये लिये एक नयी जमीन तैयार कर सके।
इस सदी में प्रवेश से पहले स्थापत्य कला एक सामान्य पीढ़ीगत व्यवसाय था लेकिन अब भवन निर्माण क्षेत्र में अस्पताल या स्वास्थ्य देखभाल संबंधी बुनियादी ढांचे का निर्माण एक विशिष्ट विशेज्ञता क्षेत्र के रूप में उभरा है। यही बात हवाई अड्डा निर्माण, आतिथ्य क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र और अन्य क्षेत्र के साथ भी लागू होती है। इनमें से प्रत्येक का विशिष्ट आंतरिक डिजाइन है। भवन निर्माण अभियांत्रकी रूप से जटिल से जटिल होता जा रहा है और सुरक्षा व्यवस्था (आग से सुरक्षा सहित) अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। ऐसे में समुचित योग्यता वाले वास्तुकार ही इन क्षेत्रों में सक्षम साबित हो सकेंगे।
ऐसे समय में जब विश्व जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रहा है और शहरी बुनियादी ढांचे के लिये नये समायोजन की आवश्यकता है, वास्तुकला में शिक्षाविदों के लिये नयी प्रौद्योगिकियों पर नये अनुसंधान और नवाचारी समाधान को प्राथमिकता देनी होगी। वैज्ञानिक अभिरुचि वाले युवा वास्तुकारों को अनुसंधान में लगना होगा तथा एआई, वीआर, मशीन लर्निंग, डिजिटल ट्विन्स और मेटावर्स सहित अत्याधुनिक प्रमाण आधारित तकनीकी समाधान विकसित करने होंगे। इसके लिये वास्तुकारों के शैक्षणिक प्रशिक्षण में व्यापक बदलाव की जरूरत होगी। पाठ्यक्रम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी को शामिल करना होगा। वर्तमान में इस प्रकार के वैज्ञानिक और तकनीकी इनपुट अपवाद रूप से इंजीनियरिंग संस्थानों के साथ समन्वय के माध्यम से बाहरी तौर पर उपलब्ध कराये जाते हैं। लेकिन स्थापत्य शिक्षा में बहुविषयक प्रशिक्षण की परिकल्पना नये परिणामों में परिलक्षित होगी। इस प्रकार भारतीय स्थापत्य विज्ञान दृष्टिकोण के पुनरुतथान की पहल जरूरी होगी। यह जितनी जल्दी संभव हो सकेगा राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य के लिये उतना ही अधिक उपयुक्त होगा।
जैसे ही इसका उद्भव होगा शिक्षाविदों की भूमिका, शिक्षण और अनुसंधान का व्यावसायिक सक्षमता सृजित करने की केंद्रीय धुरी बनना तय हो जायेगा। भारत में अनुसंधान क्षमता चुनौतियों का सामना करने में अभी भी अपर्याप्त है। स्थापित संस्थान वास्तुकला में उत्कृष्टता केंद्र स्थापित कर रहे हैं और अपेक्षा की जाती है कि उनका प्रसार शिक्षण शास्त्र और व्यावसायिक गुणवत्ता को समृद्ध करेगा। स्थापत्य कला की शिक्षा देने वाले नये संस्थानों की संख्या अभी स्थिर है, ऐसे में यह शैक्षणिक कार्यक्रमों को मजबूत करने का अवसर है।
स्थापत्य व्यवसाय, समृद्धि के भौतिक स्वरूप में भारतीयता की पहचान वाले भवनों के निर्माण के माध्यम से राष्ट्र का गौरव स्थापित करने और बनाये रखने के लिये महत्वपूर्ण है। भौतिक प्रतीक आम लोगों के लिये राष्ट्रीय गौरव की भावना से जुड़ने और बनाये रखने के लिये सबसे सरल और स्थायी उपाय है। अलग अलग संरचना जो स्थापत्य डिजाइन में कार्यात्मक योजना के एक हिस्से के रूप में स्पेस को व्यवस्थित करती है, इसमें रहने वालों की जीवन शैली की मूल ‘निर्धारक’ है। पिछले वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस के दौरान पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली का मंत्र दिया गया। वास्तुकारों के अतिरिक्त और कौन इस लक्ष्य को पूरा कर सकेगा? यह समय है स्थापत्य व्यवसाय की भूमिका को पुनःपरिभाषित करने की और वर्ष 2047 के लिये निर्धारित एजेंडे की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये इसकी प्रतिस्पर्द्धी क्षमता में आमूलचूल परिवर्तन लाने की। भारत की विकास गाथा एक तरह से स्थापत्य कला की विकास यात्रा है जो बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लोगों को अपने महान राष्ट्र की सेवा करने के अवसर उपलब्ध कराती है।
(लेखक आयोजना और वास्तुकला विद्यालय, नयी दिल्ली में पीएचडी, डीलिट की उपाधि प्राप्त प्रोफेसर हैं। उनसे vk.paul@spa.ac.in पर संपर्क किया जा सकता है।)