विज्ञान संचार, लोकप्रचार और विस्तार में
भारतीय भाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान
नकुल पाराशर
पुरातन काल से ही भाषा प्रभावी संचार का एक अनिवार्य घटक रही है. इस तरह से भारत अनेकानेक भाषाओं और बोलियों से समृद्ध रहा है और यह बात जहां एक ओर संचार को चुनौतीपूर्ण बनाती है, वहीं दूसरी ओर व्यापक शब्दावली और उपयोग के चलते उसे संपन्न भी बनाती है. भाषाओं की व्यापक विविधता के कारण हर व्यक्ति अथवा हर उद्देश्य के लिए उपयुक्त वाला सिद्धांत यहां फिट नहीं बैठता. एक भाषा की संचार रणनीतियां दूसरी भाषा से भिन्न होती हैं. उनमें भूगोल और एक भाषा विशेष को बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से भिन्नता होती है. यादा दूर क्यों जाएं? जम्मू और कश्मीर के भीतर, प्रमुख रूप से बोली और लिखी जाने वाली चार भाषाएं हैं - जम्मू में डोगरी, हिंदी और अंग्रेजी, जबकि कश्मीर में कश्मीरी, उर्दू और अंग्रेजी. हालांकि भौगोलिक दृष्टि से यह इलाका पहाड़ी है और सर्दियों के मौसम में बर्फ के कारण इसके ऊंचाई वाले क्षेत्रों का संपर्क अधिकांशत: कटा रहता है. इसके बावजूद पिछली जनगणना रिपोर्टों के अनुसार, डोगरी बोलने वालों की संख्या कश्मीरी बोलने वाले लोगों की संख्या से आधी से भी कम है. यद्यपि ये आंकड़े किसी संचारक के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन इन दोनों भाषाओं की विविधता शब्द भंडार और उनके उपयोग में बहुत कुछ जोड़ती है. हालांकि प्रौद्योगिकी के संबंध में हमने देखा कि पिछले दो वर्षों के दौरान
प्रौद्योगिकी-आधारित संचार उपकरणों की सहायता से अनेक बाधाओं को दूर किया गया है. कोविड या नो-कोविड, लोगों ने संचार चैनलों को खुला रखने के लिए अपने जीवन में प्रौद्योगिकी को स्वीकार किया है. क्लासरूम की पढ़ाई, समूह बैठकों, नुक्कड़ नाटकों तथा व्यक्तिगत भागीदारी की आवश्यकता वाली अनेक गतिविधियों ने ऑनलाइन माध्यम का रुख कर लिया है. गतिविधियां बदस्तूर जारी रहीं, फिर भी विशेषज्ञों के दृष्टिकोण में संचार की प्रभावकारिता में कमी आई.
ऐसी परिस्थितियों में, विज्ञान संचार और लोकप्रचार भी अपवाद नहीं रहा. विज्ञान संचारकों को भी ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा. देश के कोने-कोने तक पहुंच बनाने की उनकी सभी व्यक्तिगत गतिविधियां थम गईं. दूर-दराज के इलाकों में जाने और व्यवहारिक प्रयोगों को प्रदर्शित करने, लोगों से मिलने और विज्ञान के विभिन्न विषयों के बारे में उनसे बातचीत करने के सभी तरह के प्रयास रुक गए. उन्हीं की तरह, सभी ने हालात के पहले जैसा सामान्य होने का इंतजार किया. जब-जब लॉकडाउन और यात्रा पर लगे प्रतिबंध हटाए गए, विज्ञान संचारक व्यक्तिगत बैठकें, संगोष्ठियां, कार्यशालाएं और व्यवहारिक प्रयोगों के प्रदर्शन के लिए एक साथ आए. जहां एक ओर हिंदी और अंग्रेजी पूरे देश में जोड़ने वाली भाषा बनी रही, वहीं दूसरी ओर, सभी ने महसूस किया कि उनके विज्ञान संबंधी आउटरीच प्रयास केवल तभी प्रभावकारी होंगे, जब संचार के माध्यम के रूप में स्थानीय भाषाओं का उपयोग किया जाएगा. इस प्रकार विज्ञान संचारकों ने स्थानीय भारतीय भाषा में सामग्री, संबद्ध उत्पादों और व्यावहारिक रूप से स्वीकार्य शब्दों और उनके उपयोग की शब्दावली का बनाना शुरू किया. अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, यकीनन!
कश्मीर से कन्याकुमारी और कछ से कामरूप तक (समूचे देश में) 22 भारतीय भाषाएं और 19,500 से अधिक बोलियां हैं. इस प्रकार यह विविधता विज्ञान संचारकों को काम करने के लिए एक बड़ा कैनवास प्रदान करती है. यह विज्ञान संचार लोकप्रचार और विस्तार (स्कोप) के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के महत्व को साबित करता है. इसके लिए जनता को निरंतर पढ़ने के लिए सामग्री की आवश्यकता होती है. उस दृष्टि से पत्र-पत्रिकाएं हमेशा से विचारों को सिलसिलेवार ढंग से लोगों तक पहुंचाने के एक प्रभावी माध्यम के रूप में देखी जाती रही हैं. चाहे कोई नियमित सूचना पत्र हो या पत्रिका, इस तरह के प्रकाशन को हमेशा से दैनिक समाचार पत्र का पूरक माना गया है. ऐसी पत्रिका के उपयोग की अवधि समाचार पत्र की तुलना में अधिक होती है. इस तरह से साप्ताहिक या पाक्षिक या मासिक पत्रिका के माध्यम से किए गए संचार की प्रभावशीलता की लंबी अवधि अंतिम उपयोगकर्ता पर अधिक लंबे अर्से तक प्रभाव बनाए रखती है. यह महसूस किए जाने के बाद से स्थानीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी एजेंसियों की मदद से कई पत्रिकाएं प्रकाशित की जाने लगी हैं.
कश्मीर में सितंबर 2021 के दौरान, स्कोप के लिए देश की तटस्थ नोडल एजेंसी विज्ञान प्रसार (वीपी) और केंद्रीय विश्वविद्यालय, कश्मीर (सीयूके), स्कोप-इन-कश्मीरी के क्षेत्र में काम करने के लिए एक सहयोग पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए एक साथ आए. इस प्रकार, गाश (जिसका कश्मीरी में अर्थ दृष्टि है) नामक पहली लोकप्रिय विज्ञान मासिक पत्रिका आरंभ हुई. प्रारंभ होने के बाद से ही गाश घाटी में खासकर मोबाइल स्कूलों के शिक्षकों के बीच बहुत लोकप्रिय है. ये शिक्षक इन स्कूलों के खानाबदोश समुदाय के छात्रों को पढ़ाते हैं. विज्ञान प्रसार और सीयूके ने मिलकर उर्दू में तजस्सुस (जिसका उर्दू में अर्थ जिज्ञासा है) नामक लोकप्रिय मासिक विज्ञान पत्रिका भी निकाली है. संयोग से, उर्दू और कश्मीरी की लिपि मिलती-जुलती है. तजस्सुस का प्रकाशन 2019 से किया जा रहा है और तब से लगातार प्रकाशित हो रही है.
विज्ञान प्रसार ने डोगरी में लोकप्रिय विज्ञान मासिक पत्रिका (मार्च 2022 में अपेक्षित) निकालने के लिए हाल ही में केंद्रीय विश्वविद्यालय, जम्मू के साथ उसी तरह के एक सहयोग पत्र पर तथा पंजाबी में एक लोकप्रिय विज्ञान मासिक पत्रिका (अप्रैल 2022 से नियत) निकालने के लिए पंजाब राय विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद के साथ एक अन्य सहयोग पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं.
इसी तरह, गुजरात विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद (गुजकोस्ट) की मदद से गुजराती में जिज्ञासा (जिसका गुजराती में अर्थ जिज्ञासा है) नामक एक लोकप्रिय मासिक विज्ञान पत्रिका निकाली गई है. सत्य कॉलेज ऑफ यूनिवर्सिटी ऑफ बॉम्बे, विज्ञान प्रसार के साथ मिलकर मराठी में, लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका विज्ञान विश्वे (जिसका मराठी में अर्थ विज्ञान की दुनिया है) निकालता है. दक्षिण की ओर बढ़ें, तो बेंगलुरु में कर्नाटक विज्ञान और प्रौद्योगिकी अकादमी 2019 से कन्नड़ में लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका कुतुहल्ली (जिसका कन्नड़ में अर्थ जिज्ञासा है) निकाल रही है.
इसी तरह का प्रयास करते हुए चेन्नई स्थित तमिलनाडु विज्ञान और प्रौद्योगिकी केंद्र की मदद से 2019 में तमिल में अरिवियाल पलागई (अर्थात विज्ञान के लिए मंच) का प्रकाशन शुरू किया गया. वारंगल में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान द्वारा तेलुगु में इसी तरह की पत्रिका विज्ञान वाणी (विज्ञान की आवाज) निकाली गई है. इसी तरह विज्ञान प्रसार और कोलकाता में जगदीश बोस राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिभा खोज संगठन के सहयोग से बंगला में बिज्ञान कथा (विज्ञान की कहानी) निकाली गई है. असमिया में लोकप्रिय विज्ञान मासिक पत्रिका का नाम एक्सेंधान ( जिसका असमिया में अर्थ अनुसंधान है) है और तेजपुर विश्वविद्यालय इसे निकालता है. विज्ञान प्रसार ने बिना किसी स्थानीय सहायता के मैथिली में विज्ञान रत्नाकर नामक एक लोकप्रिय विज्ञान मासिक पत्रिका निकाली है.
डोगरी और पंजाबी में लोकप्रिय विज्ञान मासिक पत्रिकाएं निकालने के लिए किए जा रहे प्रयासों के समान ही विज्ञान प्रसार अब तक पीछे छूट चुकी - मलयालम, उड़िया, नेपाली, भोजपुरी, मणिपुरी और कोंकणी जैसी भाषाओं के लिए एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रहा है.
सामग्री एकत्र करना, पाठकों की रुचि के अनुसार उसे संपादकीय रूप से ठीक करना और उसे मुद्रित रूप से प्रकाशित करना. लोगों द्वारा इन पत्रिकाओं को स्वीकार किए जाने की कामयाबी की कहानियां ये दर्शाती हैं कि इस क्षेत्र में लंबे समय से कैसा शून्य रहा है.
मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशन के अलावा, स्कोप के दायरे में संचार चैनलों के कई अन्य पहलू भी आते हैं. लघु विज्ञान फिल्में, लोकप्रिय विज्ञान पुस्तकें, विज्ञान साहित्य उत्सव, विज्ञान रंगमंच, विज्ञान उत्सव और प्रदर्शनियां, विज्ञान संचार कार्यशालाएं, विज्ञान फिल्म उत्सव आदि विज्ञान संचार, लोकप्रचार और उसके विस्तार के अभिन्न अंग हैं. इस प्रकार विज्ञान प्रसार ने इन सभी कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर अपने सभी स्थानीय साझेदारों को साल-दर-साल बढ़ाने की योजना पर शुरू किया है. बांग्ला में, यह पहले ही विभिन्न विषयों पर एक दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना और प्रकाशन कर चुका है और इसकी अन्य सभी भारतीय भाषाओं में इतनी ही संख्या में पुस्तकें प्रकाशित करने की
योजना है.
यात्रा प्रारंभ हो चुकी है. नागरिकों के रूप में, यह हमारा सामाजिक उत्तरदायित्व है कि हम हर संभव साधन और तरीके के जरिए समाज में वैज्ञानिक जागरूकता उत्पन्न करें. इसी को ही हम वैज्ञानिक सामाजिक उत्तरदायित्व (एसएसआर) का नाम देते हैं. अपने कर्तव्य का बखूबी अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि इसे मातृभाषा या किसी भी भारतीय भाषा के माध्यम से प्रचारित करें, तो यह बहुत सफल रहेगा और लक्षित दर्शकों तक इसकी पहुंच जल्दी और प्रभावी ढंग से कायम होगी. यह देखना बेहद उत्साहजनक है कि भारत सरकार ने उ'च शिक्षा स्तर पर भारतीय भाषा में सामग्री तैयार करने की योजना शुरू की है. मध्य प्रदेश सरकार राय में एमबीबीएस करने वाले छात्रों के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार करने की ओर अग्रसर हुई है. यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार लोकप्रचार और विस्तार (स्कोप) में भारतीय भाषाओं के लिए द्वार खोलता है और इनके महत्व को बढ़ाता है.
(लेखक विज्ञान प्रसार, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली में निदेशक हैं)
ईमेल: nakul.parashar@gmail.com
व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं