भारत छोड़ो
ब्रिटिश राज समाप्त करने का गांधीजी का अंतिम आह्वान
ए. अन्नामलै
महात्मा गांधी ने 1942 में भारत में ब्रिटिश शासन को सरलतम लेकिन सबसे सशक्त नारे ‘भारत छोड़ो’ के साथ चुनौती दी थी. उन्होंने भारत के लोगों से कहा था कि ‘करो या मरो’. यह ऐतिहासिक आह्वान गांधीजी ने 8 अगस्त, 1942 को किया था. इस आंदोलन के ब्यौरे को समझने से पहले हमें इस अंतिम आह्वान के समय की परिस्थितियों को समझना चाहिए.
द्वितीय विश्वयुद्ध 1939 में प्रारंभ हुआ और उसमें सभी महाशक्तियां शामिल हुईं और अंतत: दो सैन्य गठबंधन बने, जिन्हें अलाइज़ और एक्सिस के नाम से जाना जाता है. तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो ने भारत में निर्वाचित प्रांतीय सरकारों से सलाह मशविरा किए बिना 3 सितंबर, 1939 को घोषित कर दिया कि भारत युद्ध में जर्मनी के साथ रहेगा. कांग्रेस ने इसका कड़ा विरोध किया. कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई, जिसमें विचार विमर्श के बाद यह सुझाव दिया गया कि हम सहयोग करेंगे, बशर्ते एक केंद्रीय भारतीय राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाए और युद्ध के बाद भारत की स्वतंत्रता का वायदा किया जाए.
सरकार ने इस मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया. वायसराय लिनलिथगो केवल एक ‘सलाहकार समिति’ के गठन का प्रस्ताव कर पाए, जिसे केवल सलाह देने के कार्य सौंपे जा सकते थे. असंतुष्ट कांग्रेस ने 22 अक्तूबर, 1939 को अपना इस्तीफा दे दिया. महात्मा गांधी 1933 से रचनात्मक गतिविधियों, विशेष कर अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान में व्यस्त थे. इन परिस्थितियों ने गांधीजी को फिर से सक्रिय राजनीति में ला दिया.
गांधी और कांग्रेस सरकार के प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं थे, जिसमें कहा गया था कि युद्ध के बाद भारत के प्रतिनिधियों की एक संस्था बनाई जाएगी, जो नए संविधान का निर्माण करेगी. अत: गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करने का फैसला किया. यह व्यक्तिगत सत्याग्रह सीमित था और संकेतात्मक तथा अहिंसक था. इसका उद्देश्य यह मांग रखना था कि चुने हुए व्यक्ति सार्वजनिक रूप में घोषणा करें कि ‘‘युद्ध में मानव और धन से ब्रिटेन की मदद करना गलत है. एकमात्र उपयुक्त उपाय यह था कि युद्ध का अहिंसात्मक प्रतिरोध किया जाए.’’ सत्याग्रह के चुनाव का निर्णय महात्मा गांधी पर छोड़ दिया गया. आचार्य विनोबा भावे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 17 सितंबर, 1940 में वर्धा में सत्याग्रह शुरू किया और उन्हें 3 महीने के कारागार की सजा दी गई. दूसरे सत्याग्रही जवाहरलाल नेहरू थे और उन्हें भी 4 महीने के लिए जेल भेज दिया गया. व्यक्तिगत सत्याग्रह करीब 15 महीने तक जारी रहा.
विंस्टन चर्चिल के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार असमंजस की स्थिति में थी और उसे दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान के जबर्दस्त आक्रमण का सामना करना पड़ रहा था. उन्होंने अपने युद्ध मंत्री और लेबर पार्टी के सहयोगी सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को एक ‘कार्यसूची’ के साथ भारत भेजने का फैसला किया. ब्रिटिश सरकार द्वारा दूत का चयन चालाकी और कूटनीतिक तरीके से किया गया. उन्होंने इस मिशन के लिए एक शाकाहारी, समाजवादी और भारत से सहानुभूति रखने वाले व्यक्ति का चयन किया. इसे ‘क्रिप्स मिशन’ का नाम दिया गया.
क्रिप्स 22 मार्च, 1942 को दिल्ली पहुंचे और उन्होंने महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात की. क्रिप्स के मसौदे से महात्मा गांधी का मोह भंग हो गया और उन्होंने इसे एक ‘पोस्ट डेटिड चेक’ की संज्ञा दी. उन्होंने क्रिप्स को सलाह दी कि वे अगली उड़ान से स्वदेश लौट जाएं. 12 अप्रैल, 1942 को क्रिप्स खाली हाथ स्वदेश लौट गए.
अमरीकी लेखक लुई फिशर महात्मा गांधी की मानसिकता को समझने के लिए उस समय भारत में थे और वे सेवाग्राम, वर्धा में रुके हुए थे. उन्होंने जिन्ना सहित सभी दूसरे नेताओं से भी मुलाकात की. महात्मा गांधी ने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूज़वेल्ट को खत लिखा और लुई फिशर से कहा कि वे इस खत को सुरक्षित राष्ट्रपति रूजवेल्ट के हाथों में सौंप दें. उस खत में गांधीजी ने लिखा था ‘‘मैंने अपने प्रस्ताव को त्रुटि-मुक्त बनाने के लिए यह सुझाव दिया है कि यदि एलाइज़ (मित्र राष्ट्र) आवश्यक समझें तो अपने खर्चे पर अपनी सेनाएं भारत में तैनात कर सकते हैं, जो आंतरिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए नहीं होंगी बल्कि जापान के आक्रमण को रोकने और चीन की रक्षा का काम करेंगी. जहां तक भारत का संबंध है, उसे अवश्य स्वतंत्र होना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे अमरीका और ग्रेट ब्रिटेन स्वतंत्र हैं. मित्र देशों की सेनाएं स्वतंत्र भारत की सरकार के साथ संधि के तहत युद्ध के दौरान भारत में रह सकेंगी. स्वतंत्र भारत की सरकार का गठन बाहरी प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप से भारत के लोगों द्वारा किया जा सकता है.’’
ब्रिटेन के दुष्प्रचार तंत्र ने इस दौरान पूरी ताकत के साथ गांधी, नेहरू, आजाद की नकारात्मक छवियां अमरीका के समक्ष पेश कीं. लेकिन, उसी समय अमरीका में ऐसे लोगों का एक समूह था, जिसने राष्ट्रपति लॉबी के साथ बातचीत के जरिए गांधीजी के कार्यों का समर्थन किया.
महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ होने से एक दिन पहले, 7 अगस्त, 1942 को एक भाषण दिया, जिसमें ब्रिटेन द्वारा भारत छोडऩे की रूपरेखा प्रस्तुत की गई. भारत छोड़ो आंदोलन भारत में ब्रिटिश राज की समाप्ति का अंतिम आह्वान था. इस भाषण के जरिए उन्होंने ब्रिटेन के खिलाफ एक अहिंसक युद्ध की घोषणा की. लेकिन उन्होंने इसमें सावधानीपूर्ण दृष्टि अपनाई. प्रस्ताव पेश करते हुए गांधीजी ने कहा, ‘‘इससे पहले कि आप इस प्रस्ताव पर विचार करें, मैं आपके सामने एक या दो चीजें स्पष्ट करना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि आप दो चीजों को साफतौर पर समझ लें और उनके प्रति उसी नजरिए से विचार करें, जिस नजरिए से मैं उन्हें रख रहा हूं. ऐसे लोग हैं जो मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं वही व्यक्ति हूं, जो 1920 में था अथवा मेरे में कुछ परिवर्तन आ गया है. आपका यह सवाल करना सही है. मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं वही व्यक्ति हूं, जो 1920 में था. अंतर सिर्फ इतना है कि मैं 1920 की तुलना में काफी मजबूत हो गया हूं.
‘‘बहुत सारे लोग हैं जिनके दिल में ब्रिटेन के प्रति नफरत है. मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना है कि वे उनसे तंग आ चुके हैं. आम आदमी का दिमाग ब्रिटिश सरकार और ब्रिटेन के लोगों के बीच अंतर नहीं करता है. उनके लिए वे दोनों एक ही हैं. ऐसे भी लोग हैं, जो जापानियों के उदय को नहीं समझते हैं. उनके लिए शायद जापान का अर्थ स्वामी बदलना है. लेकिन यह एक खतरनाक स्थिति है. आपको इसे अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए.’’
गांधीजी ने लोगों को आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने कहा ‘‘मेरे लोकतंत्र का अर्थ है, हर एक व्यक्ति अपना स्वामी खुद है. मैंने काफी इतिहास पढ़ा है और मैंने कहीं ऐसा प्रयोग नहीं देखा, जहां अहिंसा द्वारा इतने बड़े पैमाने पर लोकतंत्र की स्थापना का कार्य हुआ हो. जब आप इन चीजों को समझ लेंगे, तो हिंदू और मुसलमान के बीच अंतर भूल जाएंगे.’’
भारत की स्वतंत्रता के लिए हमारा संघर्ष पूरी तरह अहिंसक था. हिंसक युद्ध में कोई सफल जनरल अक्सर सैन्य तख्ता पलट करता है और तानाशाहीपूर्ण साम्राज्य स्थापित करता है. लेकिन कांग्रेस के कार्यक्रमों के अंतर्गत गांधीजी ने स्वयं स्पष्ट किया कि ‘‘अहिंसक क्रांति सत्ता हथियाने का कार्यक्रम नहीं है. यह संबंधों के परिवर्तन का कार्यक्रम है.’’
दुर्भाग्यपूर्ण हिंसा
गांधीजी की अहिंसा की परीक्षा का समय आया. सरकार अपनी ताकत से आंदोलन को कुचल देना चाहती थी. सरकार ने आंदोलन शुरू होने से पहले ही अपनी रणनीति तैयार कर ली. जैसे ही उसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित करने का संदेश मिला, उन्होंने सभी प्रांतीय गवर्नरों, मुख्य आयुक्तों और रजवाड़ा राज्यों में राजनीतिक अध्यक्षों को संकेत भेज दिया कि वे समूचे भारत में व्यवस्थित ढंग से योजना पर अमल करें. गांधीजी और कांग्रेस कार्यसमिति, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति और प्रांतीय समिति के सभी सदस्यों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए गए. सरकार ने घोषणा की कि कार्य समिति, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति और प्रांतीय समिति गैर-कानूनी संगठन हैं और उनके कार्यालय और धन जब्त कर लिए गए. किसी प्रकार के प्रदर्शन, आंदोलन, जनसभाओं और यात्राओं को रोकने के लिए सेना का कारगर इस्तेमाल किया गया. स्थानीय अधिकारी बिना कोई कारण बताए किसी को भी गिरफ्तार कर सकते थे और उन्हें सैनिक कानून के तहत जेल में डाल देते थे.
गांधीजी के भाषण के बाद कांग्रेस के लगभग सभी नेता, न केवल राष्ट्रीय स्तर के बल्कि निचले स्तर के नेताओं को भी 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार कर लिया गया. युद्ध की शेष अवधि के दौरान कांग्रेस के नेता और स्वयंसेवक कारागार में रहे. गांधी, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद को कस्तूरबा गांधी और उनके सचिव महादेव देसाई तथा मीरा बेन के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. नेहरूजी अमरीका में प्रसारण के लिए एक भाषण देना चाहते थे, लेकिन उन्हें तडक़े ही गिरफ्तार कर लिया गया. मौलाना आजाद सुबह-सुबह राष्ट्रपति रूजवेल्ट को पत्र लिखने के लिए मसौदा तैयार कर रहे थे, लेकिन उन्हें पत्र पूरा करने की अनुमति नहीं दी गई और गिरफ्तार कर लिया गया. आंदोलन में यह एक ऐतिहासिक मोड़ था. गांधी, द्वितीय पंक्ति के नेता और प्रांतीय नेता सभी जेल में थे. कोई भी आंदोलन को दिशा देने के लिए बाहर नहीं था. यह पूरी तरह असंगठित आंदोलन था और कुछ नेता भूमिगत हो गए थे. गुमराह और नासमझ भीड़ ने पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, डाक घर जैसे स्थानों को नष्ट करना शुरू कर दिया और टेलीफोन लाइनें काट दीं.
सरकार ने गांधी को बदनाम किया और आरोप लगाया कि उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को अपदस्थ करने का जानबूझ कर प्रयास किया और भीड़ के अनुशासित व्यवहार के प्रति सरकार की कार्रवाई को उचित ठहराया. गांधीजी को इससे बहुत पीड़ा हुई. उन्होंने जीवनभर संघर्ष के समाधान के लिए अहिंसा के साथ प्रयोग किए थे. परंतु, अंतिम अभियान के दौरान हमारे अपने लोगों ने उन्हें निराश किया. वे आगा खां पैलेस, पुणे में 10 फरवरी 1943 से 3 मार्च 1943 तक 21 दिन के लिए भूख हड़ताल पर बैठ गए, जहां उन्हें उनके अन्य सहयोगियों के साथ कैदी के रूप में रखा गया था.
आंदोलन में वापसी
किसी तरह गांधीजी की भूख हड़ताल का संदेश लोगों तक पहुंचा. भूमिगत कार्यकर्ताओं में से एक, जो बाद में गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष बने, आर.आर. दिवाकर ने इस अवधि में गांधीजी के संकट का वर्णन किया है. उनके अनुसार - ’‘मैंने यह महसूस किया कि ये विघटनकारी गतिविधियां, और यहां तक कि भूमिगत होना, गांधीवादी तरीके ......................... नहीं थे. हालांकि मैं न तो इनके प्रति झुका और न ही मैं भूमिगत कार्यकर्ता बनने योग्य था. मुझे व्यवस्थित ढंग से मार्गदर्शन करना था और कार्यकर्ताओं की मदद करनी थी.............. लेकिन मैंने इस बात पर जोर दिया कि हालांकि सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाई गई, और यह अवश्यंभावी था, लेकिन हमने अपने कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी थी कि वे किसी व्यक्ति को हिंसा न पहुंचाएं, यहां तक कि ऐसी कोई झलक भी न दिखाई दे.’’
परंतु गांधीजी का यह कहना था कि संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की परिणति किसी व्यक्ति के प्रति हिंसा के रूप में अवश्य होगी, चाहे वह किसी कार्यकर्ता द्वारा की जाए अथवा सरकार द्वारा की जाए. भूमिगत होने और कार्यकर्ताओं के साथ कोई संपर्क न होने के कारण कोई भी स्थिति पर नियंत्रण नहीं कर पाया.
सगे संबंधियों का बिछुडऩा
गिरफ्तारी के बाद गांधीजी और अन्य लोगों को आगा खां पैलेस में रखा गया. महादेव देसाई के स्वास्थ्य की स्थिति बिगड़ती गई और अगस्त 15, 1942 को उनकी एक शहीद के रूप में मृत्यु हो गई. गांधीजी को इससे गहरा आघात पहुंचा, क्योंकि महादेव भाई उनके पुत्र जैसे थे. इसी दौरान गांधीजी को एक और आघात पत्नी की मृत्यु के रूप में पहुंचा, जो 22 फरवरी, 1944 को इस दुनिया से विदा हुईं. कस्तूरबा का विवाह 13 वर्ष की आयु में गांधीजी के साथ हुआ था. वे 6 दशक से अधिक समय तक साथ रहीं. उन्होंने एक साथ व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखे. गांधीजी को अपने इर्दगिर्द शून्य लगने लगा और उन्होंने अपने को असहाय महसूस किया. इस दौरान गांधीजी का स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया. स्वास्थ्य के आधार पर 6 मई, 1944 को उन्हें पुणे के आगा खां पैलेस से मुक्त कर दिया गया.
गांधीजी ने 28 जुलाई, 1944 को घोषणा की कि सभी भूमिगत गतिविधियां हिंसातुल्य समझी जाएंगी. उन्होंने सभी भूमिगत कार्यकर्ताओं से कहा कि वे खुले में विरोध करें और गिरफ्तार हो जाएं.
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति:
लाखों लोगों की अभूतपूर्व मौतों के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध उस समय समाप्त हुआ, जब अमरीका ने 1945 में अगस्त 6 और 9 को हिरोशिमा और नागासाकी पर अपने बेबी बम छोड़े.
मित्र देशों की सेनाएं विजेता देश के रूप में उभरीं. ग्रेट ब्रिटेन अपने भूभाग बचाने में कामयाब रहा. अब वह भारत के प्रश्न पर निर्णय करने के लिए मजबूर था. ब्रिटेन ने नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जिस तरह का व्यवहार भारतीयों के प्रति किया उसकी भारत में और भारत से बाहर निंदा की गई. जन-समर्थन गांधी और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के पक्ष में था.
अमरीकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने भी ब्रिटेन पर दबाव डाला लेकिन दुर्भाग्य से अप्रैल 12, 1945 को रूज़वेल्ट का देहांत हो गया. उस समय हैरी एस. ट्ररूमैन जो उप-राष्ट्रपति थे, अमरीका के नए राष्ट्रपति बने. उन्होंने भी भारतीय स्वतंत्रता के प्रश्न पर रूज़वेल्ट के दृष्टिकोण का अनुसरण किया. गांधीजी ने जो जन-जागरूकता पैदा की थी, उसके सामने कोई तर्क नहीं दिया जा सकता था. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन को जो भारी खर्च करना पड़ा, उससे भी भारत को स्वतंत्रता देने के निर्णय को बल मिला. वास्तव में ब्रिटेन भारत को अपना एक उपनिवेश बनाए रखना चाहता था, जो उसकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बड़े बाजार का काम कर सकता था. गांधीजी ने इस तर्क को भी नामंजूर कर दिया कि तोड़ फोड़ और भूमिगत गतिविधियों से भारत की स्वतंत्रता या राष्ट्रीय लक्ष्य को मजबूती मिली.
गांधीजी की राजनीतिज्ञता
अंतत: अंग्रेजों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए बातचीत करने का फैसला किया और कैबिनेट मिशन दिल्ली आया. दिल्ली और लंदन में ब्रिटेन के अधिकारियों ने 1942 से 45 के दौरान भारत को विभाजित करने की योजना तैयार की. कांग्रेस ने विभाजन की योजना को स्वीकार किया और बहुत ही कष्ट के साथ आखिर गांधीजी ने भी उसे स्वीकार कर लिया. जैसा कि गांधीजी ने परिकल्पना की थी और भविष्यवाणी भी की थी कि भारत की आजादी से एशिया और अफ्रीका के सर्वाधिक उपनिवेशों की आजादी का भी मार्ग प्रश्स्त हुआ.
महारानी एलिजाबेथ ने इस अवसर पर अमरीका की द्वि-शताब्दी के अवसर पर फिलाडेल्फिया में अपने भाषण में कहा था - ‘‘अंग्रेज 18वीं सदी में अपने अमरीकी उपनिवेश हार गए क्योंकि हम में सही समय, और असंभव को संभव बनाने की राजनीतिज्ञता का अभाव था.’’
गांधीजी ने यह राजनीतिज्ञता अपने विनम्र अहिंसक दृष्टिकोण के जरिए अंग्रेजों को समझाई और ब्रिटेन को गरिमा और सम्मानपूर्वक और सही समय पर भारत छोडऩे के लिए एक अनुकूल माहौल बनाया.
उन्होंने कहा था ‘करो या मरो’ और गांधीजी ने किया और मृत्यु को प्राप्त हुए.
(लेखक राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, नई दिल्ली में निदेशक हैं. ईमेल- nationalgandhimuseum@gmail.com
लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं).
चित्र: गूगल के सौजन्य से