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संपादकीय लेख


editorial 42

संरक्षण कृषि
भारतीय कृषि में एक नया प्रतिमान


तपस कुमार दास, दिनेश जिंगर और विजय कुमार एस

दोषपूर्ण परंपरागत कृषि व्यवहारों, विशेषकर, अत्यधिक जुताई और फसल अवशेषों को जलाये जाने से मृदा संसाधन आधार काफी घट गया है जिससे फसल उत्पादन क्षमता में आनुषंगिक कमी आई है. वैश्विक गर्मी और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़े मुद्दों ने इस परिदृश्य में और ज़्यादा तीव्रता प्रदान की है. पारंपरिक कृषि के तहत, मृदा के स्तर में निरंतर गिरावट वैश्विक कृषि उत्पादन के लिये महत्वपूर्ण और निर्णायक हो गई है. संरक्षण कृषि ने परंपरागत कृषि के कई नकारात्मक प्रभावों, जैसे कि मिट्टी कटाव, मृदा जैविक मामलों में कमी, पानी की हानि, मिट्टी की भौतिक गिरावट और ईंधन उपयोग में कमी लाने में सहायता की है. संरक्षण कृषि प्राकृतिक और कृषि-पारिस्थितिकी में जैवविविधता में सुधार लाने में मदद करती है. अन्य बेहतर कृषि व्यवहार जैसे कि गुणवत्तापूर्ण बीजों का इस्तेमाल, समन्वित कीट प्रबंधन, पोषक तत्वों और जल के प्रबंधन के साथ कृषि संरक्षण कृषि उत्पादन प्रणाली के सतत आधिक्य के लिये आधार प्रदान करता है. इसके अलावा कृषि संरक्षण में उपज का स्तर काफी कम उत्पादन लागत के साथ तुलनीय और यहां तक कि परंपरागत गहन जुताई प्रणालियों से उच्चतर होता है. (सारणी 1)
संरक्षण कृषि संसाधन-बचत कृषि फसल उत्पादन प्रणाली की अवधारणा है, जिसमें समवर्ती पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ उच्च और सतत उत्पादन स्तरों के साथ अधिकतम स्वीकार्य लाभों को हासिल करने का प्रयास किया जाता है. कृषि संरक्षण में मृदा उर्वरकता, ऊपरी मिट्टी कटाव और अपवाह में न्यूनता और नमी संरक्षण तथा पर्यावरणीय फुट-प्रिंट्स से फसल उत्पादन में सुधार के लिये आधुनिक और वैज्ञानिक कृषि प्रौद्योगिकियों को लागू किया जाता है. संरक्षण कृषि मृदा जल उपयोग दक्षता में सुधार करती है, पानी उपयोग को बढ़ाती है और सूखे के प्रति संरक्षा सुनिश्चित करती है. इस प्रकार संरक्षण कृषि मृदा, पानी और कृषि संसाधनों के एकीकृत प्रबंधन पर आधारित होती है जिससे आर्थिक, पारिस्थितिकी और सामाजिक रूप से टिकाऊ कृषि उत्पादन के उद्देश्य को हासिल किया जा सके. इसमें मुख्यत: तीन प्रमुख सिद्धांत अपनाये जाते हैं:
*बीजरोपण तैयारी के बिना मिट्टी कवर के जरिये प्रत्यक्ष पौधारोपण से न्यूनतम मृदा रूग्णता
*मिट्टी की सतह की संरक्षा के लिये स्थाई वनस्पति मृदा कवर अथवा पतवार का अनुरक्षण
*वार्षिक फसलों के मामले में विविध फसल चक्र अथवा बारहमासी फसलों के मामले में पादप संबंध
हाल ही में नियंत्रित यातायातको टै्रक्टरों के बड़े पहियों/टायरों द्वारा मृदा के कम अथवा शून्य संघनन के चौथे सिद्धांत के तौर पर शिथिल माना जाता है. पोषक तत्वों और खरपतवार का प्रबंधन भी समान रूप से संरक्षण कृषि के अन्य सिद्धांत के तौर पर मज़बूत माना जाता है. यद्यपि, संरक्षण कृषि प्रणाली जिसमें तीन प्रमुख सिद्धांत शामिल हैं एक सही और उचित संरक्षण कृषि प्रणाली है जो कि भविष्य के लिये एक अधिक सतत खेती प्रणाली होगी.
संरक्षण कृषि का वर्तमान परिदृश्य
संरक्षण कृषि को विश्व में करीब 157 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में अपनाया जाता है (सारणी 2). जोत रहित क्षेत्र 1990 में 7 मिलियन हेक्टेयर से बढक़र 2016 में 35.6 मिलियन हेक्टेयर हो गया और संरक्षण कृषि प्रणाली को अपनाने में अमरीका अग्रणी हो गया. अन्य देश जहां पर संरक्षण कृषि व्यवहारों को व्यापक रूप से अपनाया जाने लगा है, में शामिल हैं-आस्ट्रेलिया, अर्जेनटीना, ब्राजील और कनाडा. दक्षिण एशिया में संरक्षण कृषि प्रणाली के लिये मानसूनी जलवायु विशेषताओं के साथ विषम मृदीय आवश्यकताओं और बारानी प्रणालियों के साथ सघन जुताई की फसल प्रणालियों के विशिष्ट तत्वों पर प्रकाश डालने की आवश्यकता होगी. राईस-व्हीट कन्सोर्टियम फॉर इंडो-गंगेटिक प्लेन्स (आईजीपी), क्षेत्र के देशों (बंगलादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान) की राष्ट्रीय अनुसंधान प्रणाली के साथ साझेदारी में सीजीआईएआर (अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान के लिये सलाहकार समूह) के पिछले दशक या अधिक समय के दौरान ठोस प्रयासों से अब संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियां जैसे कि शून्य जुताई (जेडटी), मुख्यत: गेहूं की फसल की बुआई के लिये अपनाने में अब वृद्धि हो रही है. दक्षिण एशिया के धान-गेहूं क्षेत्रों में, आईजीपी में 2004-05 गेहूं सीजन में 2 मिलियन हेक्टेयर से अधिक की वृद्धि के
  
(सारणी 1): परंपरागत और संरक्षण कृषि की लागत (सिंह और मीना, 2013)
 
विवरण - ईंधन
परंपरागत कृषि (USD ha-1)- 75
संरक्षण कृषि  (USD ha-1)-25
बचत लागत-66.67
 
विवरण - मूल्यह्लास
परंपरागत कृषि (USD ha-1)- 115
संरक्षण कृषि  (USD ha-1)-65
बचत लागत-43.47
 
विवरण - अनुरक्षण
परंपरागत कृषि (USD ha-1)- 22
संरक्षण कृषि  (USD ha-1)-10
बचत लागत-54.55
 
विवरण - कीटनाशक
परंपरागत कृषि (USD ha-1)- 35
संरक्षण कृषि  (USD ha-1)-85
लागत बचत - -28.57
 
विवरण - कुल लागत
परंपरागत कृषि (USD ha-1)- 247
संरक्षण कृषि  (USD ha-1)-145
लागत बचत 41.30
 
(सारणी 2) विश्वव्यापी संरक्षण कृषि को अपनाये जाने वाला क्षेत्र
देश- अमरीका
क्षेत्र (मि. हे.)-35.61
वैश्विक क्षेत्र का-22.70
 
देश- ब्राजील
क्षेत्र (मि. हे.)-31.81
वैश्विक क्षेत्र का-20.30
 
देश- अर्जेनटीना
क्षेत्र (मि. हे.)-29.81
वैश्विक क्षेत्र का-18.60
 
देश- कनाडा
क्षेत्र (मि. हे.)-18.31
वैश्विक क्षेत्र का-11.70
 
देश- आस्ट्रेलिया
क्षेत्र (मि. हे.)-17.70
वैश्विक क्षेत्र का-11.30
 
देश- चीन
क्षेत्र (मि. हे.)-6.70
वैश्विक क्षेत्र का-4.30
 
देश- रूसी परिसंघ
क्षेत्र (मि. हे.)-4.50
वैश्विक क्षेत्र का-2.90
 
देश- पराग्वे
क्षेत्र (मि. हे.)-3.00
वैश्विक क्षेत्र का-1.90
 
देश- कजाख़स्तान
क्षेत्र (मि. हे.)-2.00
वैश्विक क्षेत्र का-1.30
 
देश- अन्य
क्षेत्र (मि. हे.)-8.18
वैश्विक क्षेत्र का-5.20
 
देश- कुल
क्षेत्र (मि. हे.)-156.9
वैश्विक क्षेत्र का-100
स्रोत:222.www.fao.org/ag/ca/6c.html दिनांक 02.09.2016
 
साथ पिछले 5 वर्षों में तेज़ी के साथ गेहूं की जोत रहित बुआई में वृद्धि हुई है. भारत में करीब एक दशक से संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों के अनुकूलन और प्रोत्साहन के प्रयास जारी हैं परंतु पिछले केवल 4-5 वर्षों से ही हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्यों में किसानों द्वारा धान-गेहूं उत्पादन प्रणाली की तेज़ी से स्वीकार्यता देखने को मिल रही है. संरक्षण कृषि के विकास और प्रसार के प्रयास कई राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों और सीजीआईएआर सिस्टम के जरिये किये जा रहे हैं. इसके विपरीत शेष दुनिया में, इन प्रौद्योगिकियों का विस्तार भारत के आईजीपीज के सिंचित क्षेत्रों में घटित हो रहा है जहां मुख्यत: धान-गेहूं फसलीय प्रणाली मौजूद है. संरक्षण कृषि के लिये वर्षा आधारित अद्र्ध शुष्क उष्णकटिबंधीय शुष्क क्षेत्रों या पर्वतीय कृषि पारिस्थितिकी प्रणालियों जैसे दूसरे प्रमुख एग्रो-इको क्षेत्रों में प्रयास अथवा प्रोत्साहन नहीं दिया गया है.
संरक्षण कृषि की उपयोगिता
किसान के स्तर पर संरक्षण कृषि के लाभ हो सकते हैं: श्रम, समय और फार्म पावर में कटौती, खेती की लागत में कटौती, अधिक स्थिर फसल हासिल करना, विशेषकर सूखाग्रस्त क्षेत्रों में, खेतों में बेहतर आवागमन सुविधा, इनपुट में कमी के साथ फसलों में धीरे-धीरे वृद्धि और लाभ में वृद्धि (कुछ वर्षों से शुरूआत में अथवा उपरांत). वैश्विक स्तर पर लाभों में शामिल है: भूजल में मृदा पोषक तत्वों या रसायनों की कम लीचिंग, पानी का कम प्रदूषण, व्यावहारिक तौर पर कोई अपक्षरण नहीं (निर्मित मिट्टी से कम अपक्षरण), बेहतर हस्तक्षेप के जरिये जलप्रवाह का री-चाजऱ्, कृषि में ईंधन का कम उपयोग और कार्बन पृथक्करण.
संरक्षण कृषि व्यवहार
लेजर भूमि समतलीकरण (एलएलएल)
लेजर-सहायक सूक्ष्मता भूमि समतलीकरण, जो कि लेजर भूमि समतलीकरण के नाम से लोकप्रिय है, शून्य जोत, क्यारी रोपण जैसे संरक्षण कृषि व्यवहारों के अनुकूलन के लिये पूर्वोपेक्षित/पुरोगामी प्रौद्योगिकी है. भारत में पहली बार इसे 2001 के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लागू किया गया था. यह बहुत ही सटीक, सरल और अच्छी तरह से समतल क्षेत्र उपलब्ध करवाती है, अन्यथा, फसल बीज को उचित गहराई पर नहीं रखा जा सकेगा और एक समान अंकुरण नहीं होगा. फसलों को उर्वरक और पानी भी समान रूप से उपलब्ध नहीं होगा. मेड़ों और चैनलों की तुच्छ अपेक्षा के कारण लेजर भूमि समतलीकरण से फसलों के उत्पादन में सुधार होता है और खेती योग्य क्षेत्र में करीब 3-4 प्रतिशत की वृद्धि होती है, इससे पानी अनुप्रयोग दक्षता में 50 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि और फसलों की जल उत्पादकता और फसलीय क्षेत्र में 15-25 प्रतिशत की वृद्धि होती है, इससे 20-25 प्रतिशत तक सिंचाई जल की बचत होती है, 15-25 प्रतिशत तक की पोषकता उपयोग वृद्धि होती है और खरपतवार की समस्या में कमी आती है तथा खरपतवार नियंत्रण दक्षता में सुधार होता है. इन सभी कारकों से फसल में 1-2 प्रतिशत की वृद्धि होती है. ंिसंचाई का पानी कम से कम समय में खेत के आखिरी छोर तक पहुंच जाता है. चूंकि इससे सिंचाई जल आवश्यकता में बहुत ज्यादा कमी हो जाती है इसलिये यह तकनीक धान के लिये बहुत ही उपयोगी हो सकती है.
अवशेष प्रतिधारण के साथ जोत रहित धान की सीधी बिजाई
संरक्षण कृषि आधारित प्रत्यक्ष बिजाई धान साथ में मूंग और अन्य पौधों के अवशेषों का प्रतिधारण में उत्पादन की लागत को कम से कम करने, मृदा स्वास्थ्य खतरों और बाद की फसलों पर नकारात्मक प्रभाव को कम करने की व्यापक क्षमता होती है. इसके अलावा धान-गेहूं प्रणाली में डीएसआर के कारण सीएच-4 उत्सर्जन में काफी कमी होती है. डीएसआर से कीचड़ घोलने की आवश्यकता कम होती है और पानी में रोपे जाने वाले धान की अपेक्षा पानी की मांग में काफी कमी आती है. यदि खरपतवारों पर अच्छी तरह नियंत्रण कर लिया जाता है तो इससे श्रम (40 - 45 प्रतिशत), ईंधन (55-60 प्रतिशत), पानी (30-40 प्रतिशत) और समय की बचत होती है तथा टीपीआर के साथ तुलनीय फसल प्रदान करता है. डीएसआर धान की गुणवत्ता को प्रभावित नहीं करता और विभिन्न श्रेणियों जैसे कि ऊपरी भूमि, निचली भूमि, गहरे पानी और सिंचित क्षेत्रों में व्यवहार में लाया जा सकता है. यह मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखता है अथवा इसमें सुधार करता है, उपयोग दक्षता में सुधार करता है. अत: डीएसआर को तकनीकी, आर्थिक और पर्यावरणीय संभाव्यता के साथ टीपीआर के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. धान की फसल की बुआई में देरी के बिना ग्रीष्मकालीन मूंग की फसल को उगाया जा सकता है. यह प्रति हेक्टेयर 8-10 क्विंटल की फसल देता है और सामान्यत: मिट्टी में प्रति हेक्टेयर 40-60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन जोड़ता है जिससे बाद की फसल के लिये नाइट्रोजन की आवश्यकता में कमी होती है.
भूरी खाद (कवर/गीली घास के लिये)
भूरी खाद के लिये, धान को सीड ट्रिल के साथ लाइनों में बोया जाता है अैर सेसबनिया (सेसबनिया एक्युलीता एल, डैंचा) गीली मिट्टी में बोया जाता है. सेसबनिया के पौधों को धान के साथ-साथ 25-30 दिनों तक उगने दिया जाता है और तब 2,4-डी को प्रति हेक्टेयर 0.50 कि0ग्रा0 अथवा बिसप्रिया बैक-एनए 20-25 ग्रा/हे. का इस्तेमाल किया जाता है. बिस्पाईबैक-एनए 2,4-डी की अपेक्षा अधिक व्यापक स्पैक्ट्रम और अधिक प्रभावी होता है. सेसबनिया धान के साथ उगते खरपतवार को हटाता है, हर्बिसाइड और सिंचाई जल के इस्तेमाल को कम करता है और 10-12 टन/हे. के ताज़ा बायोमॉस के साथ 15-20 कि.ग्रा. एन/हे. की आपूर्ति करता है. यह वहां पर धान की बेहतर पैदावार देता है जहां सामान्य मिट्टी क्रस्ट होती है, ब्राउन मल्च के साथ गीलेपन को संजोकर रखती है, मृदा सी कंटेंट में सुधार करती है और किसानों की आय को बढ़ाती है. यह व्यवहार मक्का, बाजरा, ज्वार जैसे फसलों में अपनाया जा सकता है. व्यापक पत्तों वाली फसलों में, 2,4-डी को प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है, परंतु सेसबनिया को मैन्युअली काटा जा सकता है और खरपतवार नियंत्रण तथा नमी और पोषक तत्वों के संरक्षण के लिये 25-30 डीएएस में फसल पंक्तियों के बीच पतवार के तौर पर विस्तारित किया जा सकता है.
अवशेष अवधारण के साथ संरक्षण जुताई (शून्य/न्यूनतम)
 अवशेष अवधारण के साथ संरक्षण जुताई (शून्य/न्यूनतम) प्रणाली के अधीन मिट्टी को जोता नहीं जाता है, परंतु छोटी से छोटी क्यारियों में बांटा जाता है और विशेष रूप से डिज़ाइन किये गये सीड ड्रिल, टर्बो सीडर/हैपी सीडर से मिट्टी में रखा जाता है. बीजरोपण के समय, उर्वरकों को भी साथ-साथ रखा जाता है. जेडटी का प्रयोग करते हुए खरीफ (जैसे कि मक्का, बाजरा, ज्वार, सोयाबीन, मूंग) और रबी (जैसे कि गेहूं, चना, सरसों, मसूर) फसलों को बोया जा सकता है. यह मिट्टी के कटाव, संघनन और कार्बनिक पदार्थ की हानि को कम करता है, भूमि तैयार करने के लिये ऊर्जा/ईंधन, समय और धन (रु. 3000-4000) की बचत करता है, धान की फसल के तुरंत उपरांत गेहूं की प्रत्यक्ष ड्रिलिंग के जरिये 10-12 दिन तक गेहूं की अग्रिम बुआई सुनिश्चित करता है और धान-गेहूं प्रणाली में देरी से बुआई के कारण होने वाली गेहूं की हानि को कम करता है, खरपतवार, विशेषकर गेहूं में फालारिस माइनर पैदा होने में कमी लाता है, पकने पर गेहूं के गिरने को रोकता है और गेहूं की फसल को टर्मिनल हीट स्ट्रेस से बचने का अवसर प्रदान करता है.
अवशेष प्रतिधारण के साथ स्थाई क्यारी
इस तकनीक में फसलों को क्यारी प्लांटर का प्रयोग करते हुए ऊपर उठी क्यारियों (तंग अथवा खुली) वैकल्पिक रूप से कुंड में बोया जाता है. सर्वप्रथम मिट्टी की ट्रिलिंग के उपरांत क्यारियां बनाई जाती हैं और इन्हीं क्यारियों को बाद के वर्षों के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है, परंतु वर्ष में एक बार वरीयतन खरीफ फसलों से पहले क्यारियों को पुन: मूर्त रूप दिया जाना अपेक्षित होता है. क्यारियों की चौड़ाई करीब 60-100 सें.मी. की होती है. फसलों को क्यारियों में 2-3 पंक्तियों में बोया जाता है और कुंडों को सिंचाई जल का प्रयोग किया जाता है. परिणामस्वरूप, खरपतवारों की संख्या में क्यारियों में कमी आ जाती है. गेहूं की कुंड सिंचित सृजित क्यारी प्रणाली (एफआईआरबीएस) सामान्यत: 25-40 प्रतिशत तक बीज की, 25-40 प्रतिशत पानी की और 25 प्रतिशत तक पोषक तत्वों की बचत गेहूं की फसलों को प्रभावित किये बगैर, बचत करती है. इसके अतिरिक्त, गेहूं की डंठलों और क्यारियों के रूप में रिक्त स्थानों के साथ सिंचाई पानी के कम से कम भौतिक संपर्क को कम करता है. क्यारी रोपण को कपास, अरहर, मक्का, सोयाबीन, सब्जियों, गन्ने आदि जैसे अन्य फसलों में भी अपनाया जा सकता है.
निष्कर्ष
इतिहास अपने आपको दोहराता है. हमने जैविक से अजैविक खेती की ओर बदलाव/परिवर्तन को देखा है और अब पुन: जैविक की तरफ मुडऩे की सोच रहे हैं, इसी प्रकार पूर्व के जोत रहित प्रणाली से अत्यधिक जोत प्रणाली की तरफ और वहां से पुन: शून्य/न्यूनतम जुताई की तरफ. निश्चित रूप से संरक्षण कृषि में प्राकृतिक और मानवनिर्मित संसाधनों की दक्षता के इस्तेमाल, कार्बन पृथक्करण और मृदा स्वास्थ्य (भौतिक, रासायनिक और जैविक) में सुधार की क्षमता है. यह जीएचजी उत्सर्जन के न्यूनीकरण और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन से कृषि की निरंतरता में सुधार करता है. लेकिन सीए व्यवहारों का इस्तेमाल/दोहन ठोस लाभ-लागत किफायत पर आधारित विभिन्न स्थानों, फसलों और फसलीय प्रणाली में किये जाने की आवश्यकता है. इसमें सभी स्तरों पर -किसानों, अनुसंधानकर्ताओं, विस्तार कार्मिकों और नीति निर्माताओं के हस्तक्षेपों की आवश्यकता होती है जिससे कि वे यह विश्लेषण कर सकें और समझ सकें कि किस प्रकार संरक्षण विधान अन्य प्रौद्योगिकियों के साथ अपने को समेकित करता है जो कि संरक्षण कृषि को बढ़ावा देती हैं. अत: यह वैज्ञानिक समुदाय और किसानों दोनों के लिये अतीत की इस मानसिकता से उबरने और ऐसे अवसरों को तलाशने की चुनौती है कि संरक्षण कृषि स्थाई कृषि का अवसर प्रदान करती है.
(तपन कुमार दास सस्य विज्ञान प्रभाग, भा.कृ.अ.प.-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में प्रधान वैज्ञानिक और दिनेश जिंगर तथा विजय कुमार एस पीएच.डी स्कॉलर्स हैं)