दालों की मांग पूरा करने के लिये अरहर की नई किस्म
निरेन्द्र देव
भारतीय कृषि की रोजग़ार सृजन, आजीविका, खाद्य, पोषण और पर्यावरण सुरक्षा में बहु आयामी सफलता से जुड़ी एक शानदार लंबी कहानी रही है। इस विषय में हरित क्रांति परिवर्तन का पहला दौर था। खाद्यान्नों, सब्जियों और बागवानी उत्पादों-फलों के अलावा, इस बात की सराहना की जानी चाहिये कि दालें कृषि उत्पादन की निरन्तरता बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण अवयव हैं क्योंकि दलहन फसलें वाहिका जड़ प्रणाली के कारण मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाते हुए संपूर्ण मिट्टी की उर्वरता में भी सुधार करती हैं। दालें प्रोटीन, फाइबर सामग्री का भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं और इनमें विटामिनों और खनिजों की काफी मात्रा होती है।
फसल अंतर खेती प्रणाली में दालों की बिजाई और इनकी कवर फसलों के तौर पर खेती से कृत्रिम उर्वरकों की ज़रूरत कम हो जाती है और इससे मिट्टी कटाव भी कम होता है। स्वस्थ मिट्टी नमी बनाये रखने के लिये बेहतर होती है और इससे पौधों को पोषक तत्व प्राप्त करने में आसानी रहती है। कृत्रिम उर्वरकों का कम उपयोग अप्रत्यक्ष रूप से वातावरण में छोड़ी जाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को कम करता है। अत: संयुक्त राष्ट्र ने दालों के महत्व पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए 2016 को ठीक ही दालों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। दरअसल विश्व संस्था का निर्णय इस तथ्य से भी निदेशित होता है कि संयुक्त राष्ट्र कुपोषण पर अंकुश के लिये दालों के महत्व को उजागर करना चाहता है। इसके अतिरिक्त कृषि नीति निर्माताओं को इस वास्तविकता के प्रति जागरूक होने की ज़रूरत है कि दालों की मांग, यहां तक कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बढ़ रही है जहां पर दालें मुख्य आहार नहीं रही हैं।
भारत में, दालों को उपभोक्ताओं की आवश्यकता और उत्पादन मोर्चे पर सरकार से पर्याप्त समर्थन दोनों की दृष्टि से हमेशा पूरा महत्व मिलता रहा है। भारत का विश्व के कुल दाल उत्पादन में, करीब 33 प्रतिशत भू-क्षेत्र और कऱीब 27 प्रतिशत खपत के साथ, सर्वाधिक कऱीब 25 प्रतिशत हिस्सा रहा है।
भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है। परंतु घरेलू खपत अक्सर अपेक्षित मात्रा से कम होती है। अत: आयात के जरिये इस कमी को पूरा किया जाता है। अनुमानित घरेलू मांग सामान्यत: कऱीब 23-24 टन है। मानसून की कम बारिश के कारण दालों का उत्पादन पिछले वर्ष- 2014-15 में 17.15 मिलियन टन से गिरकर 2015-16 फसल वर्ष में 16.47 मिलियन टन हो गया। कुल दाल उत्पादन का कऱीब 15 प्रतिशत ‘अरहर’ होती है। इस वर्ष के शुरू में दालों के उत्पादन में कमी और अन्य कारणों से दालों का मूल्य बहुत ऊंचा चला गया था और इससे सरकार को कई बड़े कदम उठाने के लिये मज़बूर होना पड़ा।
महत्वपूर्ण उपलब्धि: पूसा अरहर 16
तथापि, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) द्वारा विकसित की गई एक नई ‘‘अरहर दाल की अल्पावधि किस्म’’ इस दिशा में एक नवीनतम उपलब्धि है जो कि परिवर्तनकारी साबित हो सकती है।
31 अक्तूबर, 2016 को केंद्रीय वित्त मंत्री श्री अरूण जेटली और केंद्रीय कृषि मंत्री श्री राधा मोहन सिंह के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के दौरे के उपरांत यह घोषणा की गई कि नई दाल किस्म, पूसा 16 का इस समय देश के विभिन्न हिस्सों में आठ स्थानों में फील्ड ट्रायल चल रहा है। यह किस्म कऱीब 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है जबकि अन्य अरहर किस्में कम से कम 160 से 180 दिन लेती हैं। यह भी घोषणा की गई कि अरहर की इस किस्म को अगले खऱीफ मौसम 2017 में व्यावसायिक रूप से जारी कर दिया जायेगा। इसका व्यावसायिक उपयोग शुरू हो जाने पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थानों के वैज्ञानिकों के अनुसार इस किस्म से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के प्रोत्साहित होकर पानी की अधिक आवश्यकता वाली धान की फसल से दालों की खेती की तरफ रुझान बढऩे की संभावना है। पूसा अरहर का इस खऱीफ मौसम में पूसा कैम्पस (दिल्ली), लुधियाना (पंजाब), हिसार (हरियाणा), जयपुर, कोटा, बीकानेर (राजस्थान), मेडज़ीफेमा (नगालैंड) और पंतनगर (उत्तराखंड) में फील्ड ट्रायल चल रहा है। सामान्य अरहर किस्में लंबी होती हैं और पकने में 160-180 दिन लेती हैं जबकि प्रति हेक्टेयर करीब 20 क्विंटल अनाज की उपज होती है। रिपोर्टों के अनुसार नई अरहर किस्म के पौधे मुश्किल से एक मीटर लंबे होते हैं उतनी ही 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज देते हैं जबकि इनके पकने में मात्र 120 दिन लगते हैं। इसके लिये ज़्यादा से ज़्यादा फली गठन चरण में एक सिंचाई की ही आवश्यकता होती है।
सामान्य अरहर किस्मों में फूलों की भी एक समय पर फली नहीं बनती है। इसका अर्थ है कि फसल कटाई के समय सभी फलियां पकी नहीं होती हैं, कुछ दिन पहले से ही ये टूट चुकी होती हैं और अन्य अभी विकसित हो रही होती हैं या यहां तक कि फूलों/फलियों के बनने के चरण में होती हैं। पूसा अरहर-16 किस्म में, केवल शीर्ष पर फलियों की तुल्यकालिक परिपक्वता होती है। अत: संपूर्ण फसल की कम्बाईन से कटाई की जा सकती है और इसकी कटाई तथा थ्रेसिंग के लिये मैनुअल श्रमिकों की आवश्यकता नहीं होती। नई अरहर किस्म एक अद्र्ध-खड़े सुगठित पौधे की प्रकृति में है।
पौधों की पंक्तियों के बीच में 30 सें.मी. और पौधों के बीच 10 सें.मी.की दूरी के साथ अधिक सघन रूपाई के परिणामस्वरूप अधिक फसल होती है जबकि परंपरागत किस्मों में क्रमश: 75 सें.मी.और 30 सें.मी.की दूरी रखी जाती है। उनके मामले में अधिक सघन रूपाई संभव नहीं होती है क्योंकि उनके पौधे अपने आप में अनिर्धारित और फैलाव प्रकृति के होते हैं। इस नई सुपर अरहर से मांग-आपूर्ति के बीच के अंतर को पाटने में सहायता मिलेगी।
अन्य उपाय
दालों की उपलब्धता बढ़ाने के वास्ते केंद्रीय सरकार ने एक बड़ा कदम उठाते हुए दालों के सुरक्षित भण्डार को 1.5 टन से बढ़ाकर 8 लाख टन करने का फैसला किया है। बाद में इस फैसले की समीक्षा की गई और मंत्रिस्तरीय समिति ने सुरक्षित भण्डार को 8 लाख टन से बढ़ाकर 20 लाख टन करने का फैसला किया।
सरकार ने दालों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में न्यायोचित वृद्धि करने और दालों का उत्पादन करने वाले किसानों के लिये बोनस का सुझाव देने के वास्ते मुख्य आर्थिक सलाहकार की अध्यक्षता में एक समिति का भी गठन किया है। केंद्र ने राज्यों को खुदरा वितरण के लिये 66 रुपये प्रति कि.ग्रा. तुर और 82 रुपये प्रति कि.ग्रा. उड़द की अतिरिक्त दालें उपलब्ध करवाने का भी फैसला किया है। सरकार ने मोजाम्बिक और म्यांमार जैसे देशों से दालों के आयात की भी मंजूरी प्रदान की है और जून में खाद्य सचिव के नेतृत्व में एक उच्च-स्तरीय दल ने अधिक दाल उत्पादक राष्ट्रों से आयात के लिये संभावनाओं का पता लगाने के वास्ते मोजाम्बिक का दौरा किया। सरकार ने जमाख़ोरों के खिलाफ कार्रवाई की है और वाजि़ब दामों पर चना सहित दालों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के वास्ते राज्यों के साथ समन्वय करने की कोशिश की है।
1 जून को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने अरहर (तुर), उड़द और मूंग दालों (दालों) तथा तिलहनों के लिये खरीफ फसलों के वास्ते कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिशों से ऊपर जाकर प्रति क्विंटल 425 रुपये बोनस देने का फैसला किया। दालों और तिलहनों की मांग-आपूर्ति से जुड़े मुद्दों का सामना करने और आयात पर निर्भरता को कम करने के वास्ते सरकार ने 1 जून को किसानों को इन वस्तुओं की उच्चतर उत्पादकता लक्ष्य रखने की सलाह दी और खरीफ (ग्रीष्म) दालों और तिलहनों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को बढ़ाने का निर्णय किया। परंतु दालों का उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता पिछले कई वर्षों से महसूस की जा रही है।
भारत सरकार ने क्षेत्र विस्तार और उत्पादन वृद्धि के लिये समय-समय पर अनेक योजनाओं की शुरूआत की थी। चौथी पंच वर्षीय योजना के तहत सरकार ने एक महत्वाकांक्षी परियोजना ‘‘दाल विकास कार्यक्रम’’ शुरू किया। इसके बाद विशेष खाद्यान्न उत्पादन कार्यक्रम और एकीकृत तिलहन, दलहन, ऑयलपाम तथा मक्का योजना जैसी कई अन्य पहलें शुरू की गईं।
बाद में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अधीन पिछले कुछ वर्ष पहले दलहन फसलों की पौधा पोषण और संयंत्र संरक्षा केंद्रित सुधार प्रौद्योगिकियों को प्रदर्शित करने के उद्देश्य के साथ त्वरित दाल उत्पादन कार्यक्रम नामक एक विशेष कार्यक्रम शुरू किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य चना, काला चना और हरे चने का उत्पादन बढ़ाना था।
अब इन परिवर्तनकारी उपायों के अलावा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में भी दाल उत्पादन के प्रति पर्याप्त ध्यान दिया गया है। किसानों को मूल्यों और खेतीबाड़ी की सूचनाएं उपलब्ध करवाने और दालों के उत्पादन और इस्तेमाल के फायदों के बारे में आधुनिक प्रौद्योगिकी उन्मुख मोबाइल फोन और एप्प जैसी अन्य पहलों की शुरूआत की गई है। सरकार सुरक्षित भण्डार के सृजन, भण्डार सीमा तय करके और चलती-फिरती वैनों के जरिये कम लागत पर दालें उपलब्ध करवाते हुए कई अन्य कदम भी उठा रही है। सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिये भी कदम उठाये हैं।
इन सब बातों पर विचार करते हुए यह पता लगाना महत्वपूर्ण है कि दालों की उपलब्धता और मूल्यों की मौजूदा चुनौतियों को किस प्रकार हल किया जा सकता है। कृषि विशेषज्ञों का भी यह कहना है कि मौजूदा संकट मुख्यत: दालों की खेती के क्षेत्र में कमी से भी जुड़ा है क्योंकि किसान सामान्यत: धान और गेहूं जैसी अधिक पैदावार और उच्चतर न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली फसलों को ही चुनते हैं। अत: दालों को अक्सर सीमांत, अपर्याप्त सिंचाई और कम गुणवत्ता वाली मिट्टी में उगाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप फसल का कम उत्पादन होता है। इसके अलावा भारत के कुछ हिस्सों में दालों की फसल विफलता अथवा दालों की कम उपज भी इस तथ्य के कारण है कि भारत में फसलें मुख्यत: अस्थित और अनिश्चित वर्षा स्थितियों के कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाई जाती हैं।
बुनियादी विश्लेषण में दालों के उत्पादन से संबंधित विभिन्न पक्ष और विपक्ष पर चर्चा करने के साथ उन अध्ययनों के बारे में भी चर्चा करना महत्वपूर्ण होगा जिनसे यह पता चलता है कि भारत में केवल 8.10 मिलियन टन दालों का खाद्य वस्तु (दाल) के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है जबकि शेष करीब 12 मिलियन टन का उत्पादन का केवल अप्रत्यक्ष रूप में इस्तेमाल होता है जो कि गृह उपभोग और निर्यात के लिये स्नैक्स और दूसरी खाद्य वस्तुओं में किया जाता है। दालों के संबंध में जो कि भारत में आम तौर पर समझा जाता है, इसकी खपत को किफायती वस्तुओं से भी जोडक़र देखा जाता है। कुछेक क्षेत्रीय अनुभवों और ज़मीनी स्तर से प्राप्त फीडबैक से यह बात सामने आई है कि अक्सर ग्रामीण गरीब तबके या झुग्गी झोंपड़ी में रहने वाले लोग दालों या अरहर दाल खाने की बजाय उबले हुए अंडे खाना अधिक व्यावहारिक भोजन के तौर पर लेते हैं।
यह इस कारण से है क्योंकि अंडे अधिक सस्ते होते हैं और दाल से भरे बर्तन को पकाने की बजाय इस पर इधन भी कम लगता है। एक अन्य मुद्दा है अनाज का प्रति व्यक्ति उत्पादन प्रत्येक दशक में बढ़ा है। 1970 के दशक में 145 कि।ग्रा। से बढक़र 2000 के दशक के दौरान यह 158 कि।ग्रा। हो गया जबकि 2000-01 और 2013-14 के बीच भारत ने औसतन प्रति वर्ष 8।94 मिलियन टन अनाज का निर्यात किया है।
जैसा कि उल्लेख किया गया है सरकार ने दालों की कमी को दूर करने और मूल्यों से संबंधित मुद्दे को बीते दिनों की बात में परिवर्तित करने के वास्ते सभी संभव प्रयास किये हैं। भारतीय किसानों ने भी सरकार के चुनौतीपूर्ण कार्यों के प्रति जबर्दस्त उत्साह दिखाया है और ग्रीष्मकालीन फसलीय मौसम-खरीफ सहित दालों की बिजाई करने के प्रति बड़ी रुचि दिखाई है। किसानों के सोयाबीन की अपेक्षा अरहर और उड़द की खेती के प्रति रुझान बदलने की भी रिपोर्टें हैं। ऐसा रुझान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में देखने को मिला है। राजस्थान में किसानों ने मुंगी की खेती में रुचि दिखाई है। ऐसे संकेत हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में किसान चने और मसूर दाल की बुआई में भी इतनी ही व्यापक रुचि दिखायेंगे। नई अरहर -पूसा अरहर 16 को लेकर भी एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के रूप में देखा जा रहा है और यह आशा की जा रही है कि दालों की कमी अब बीते दिनों की बात होकर रह जायेगी।
(निरेन्द्र देव नई दिल्ली स्थिति एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ई-मेल: nirendev1@gmail.com व्यक्त विचार उनके अपने हैं)