रेल बजट का आम बजट में विलय
के आर सुधामन
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल ही में रेल बजट अलग से पेश करने की करीब एक सदी पुरानी परंपरा समाप्त कर दी। इसके साथ ही औपनिवेशिक परंपरा का एक और अवशेष समाप्त हो गया। इसकी शुरुआत 1924 में अंग्रेजों ने की थी, क्योंकि उस समय रेल बजट के लिए अत्यंत व्यापक वित्तीय व्यवस्था का इस्तेमाल किया जाता था।
अगले वर्ष से रेल बजट का विलय आम बजट में कर दिया जाएगा और यह अन्य विभागों के बजटों के समान हो जाएगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ठीक ही कहा है कि रक्षा, सडक़ और राजमार्ग जैसे अन्य विभागों का बजट आबंटन रेलवे से भी अधिक है और वे फिर भी आम बजट का हिस्सा हैं, इसे देखते हुए अलग से रेल बजट पेश किए जाने का कोई औचित्य नहीं है।
विश्व में कहीं भी अलग से रेल बजट पेश नहीं किया जाता है, परंतु भारत में यह परंपरा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी 70 वर्ष तक जारी रही। इसका कारण शायद यह रहा कि इससे राजनीतिक दलों को लोकप्रियता अर्जित करने में मदद मिलती रही। रेल बजट में जो घोषणाएं की जाती रहीं, उन्हें संसाधनों के अभाव में कभी भी कार्यान्वित नहीं किया जाता था। केंद्र में साझा सरकारों के समय रेल बजट का सर्वाधिक दुरुपयोग किया जाता था क्योंकि इससे विशेषकर उस पार्टी को, लोक लुभावन के प्रचुर अवसर मिलते थे, जिसके पास रेलवे विभाग होता था। लोक लुभावन उपाय कई बार अर्थव्यवस्था के लिए महंगे साबित होते हैं। इसके अलावा उनसे रेलवे को भी क्षति पहुंचती है।
रेल बजट को आम बजट से अलग करने का निर्णय 1920-21 में ब्रिटिश रेलवे अर्थशास्त्री विलियम अक्वर्थ की अध्यक्षता में बनाई गई थी। यह एक समिति की सिफारिशों के आधार पर किया गया था। 1924 से रेल बजट का आम बजट से अलग अस्तित्व रहा है। इसका इस्तेमाल अंग्रेज भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ढांचा नेटवर्क पर बेहतर ध्यान केंद्रित करने के लिए करते थे। उन दिनों कुल बजट में रेलवे की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत होती थी। अंग्रेजों के लिए रेलवे अत्यंत महत्वपूर्ण था, क्योंकि वे इससे सैनिकों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते थे और समूचे भारतीय प्रायद्वीप पर अपना नियंत्रण कायम करते थे। परंतु, आज समग्र केंद्रीय बजट में रेलवे की हिस्सेदारी मात्र 15 प्रतिशत होती है, बावजूद इसके कि भारत का रेल नेटवर्क दुनिया में सबसे बड़ा है।
यह वास्तव में ऐतिहासिक कदम है और इससे न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन की दिशा में आगे बढऩे में मदद मिलेगी। वैश्विक और घरेलू मनोभाव को भी बल मिलेगा और साथ ही देश में व्यापार करने के वातावरण में भी सुधार होगा।
रेलवे के पुनर्गठन के हिस्से के रूप में, रेल बजट का आम बजट में विलय करने का सुझाव हाल ही में नीति आयोग के सदस्य विवेक देवराय की अध्यक्षता वाली एक समिति ने दिया था। इससे, उन ढांचागत समस्याओं से निपटने में मदद मिलेगी, जिनका सामना रेलवे को करना पड़ता है।
वास्तव में, आम बजट पेश करने की पद्धति में भी सुधार करने की आवश्यकता है। कई पुस्तिकाओं और संसद में एक विस्तृत बजट भाषण के साथ अन्य किसी देश में इतना व्यापक सामान्य बजट प्रस्तुत नहीं किया जाता है, जितना कि हमारे यहां होता है, जिसमें अनेक लोक लुभावन उपाय भी शामिल किए जाते हैं। कुछ बजट घोषणाएं उस वित्तीय वर्ष के दौरान कभी भी साकार नहीं की जाती हैं, जिसमें वे घोषित की गई थीं। चीन में बजट पेश करने का काम मुश्किल से 10-15 मिनट में संपन्न हो जाता है, जिसमें सरकार सम्बद्ध वर्ष के लिए एक या दो पृष्ठ का लेखा विवरण प्रस्तुत करती है और परवर्ती वर्ष के लिए राजस्व, व्यय एवं घाटे के अनुमान प्रस्तुत किए जाते हैं। कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में बजट प्रस्तुतिकरण को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है, क्योंकि कर की दरों का बजट के साथ कोई संबंध नहीं होता है।
केवल भारत में कर की दरें बार-बार बदलती हैं। भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है, जहां करों से छूट प्राप्त व्यक्तियों/संस्थाओं की सूची बहुत लंबी होती है। कर रियायतों की वजह से सरकार को वार्षित तौर पर 5।75 लाख करोड़ रुपये की हानि होती है। यह देश के राजस्व घाटे के लगभग समकक्ष है।
परोक्ष कर भी मढ़े जाते हैं। हाल की वर्षों में निश्चित रूप से बजट प्रक्रिया में कुछ संतुलन स्थापित हुआ है, जिसमें सरकार करों की तीन या चार दरें प्रस्तावित करती है। प्रत्यक्ष करों में भी कुछ स्थिरता आई है और वस्तु एवं सेवा कर की व्यवस्था होने से परोक्ष कर की दरों में भी कुछ स्थिरता आएगी।
पृथक रेल बजट पेश करने की 92 वर्ष पुरानी परंपरा को समाप्त करना निश्चित रूप से एक सही कदम है, क्योंकि इससे रेलवे विभाग का ग्लैमर कम होगा और रेल बजट का इस्तेमाल वोट बैंकों के लिए करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। अविवेकपूर्ण आर्थिक व्यवहार्यता और तकनीकी संभाव्यता के अभाव के बावजूद हर वर्ष अधिक रेलगाडियों, अधिक रेलवे लाइनों और अधिक स्टेशनों की मांग की जाती है। यही वजह है कि करोड़ों रुपये लागत वाली अनेक परियोजनाएं कभी मूत्र्त रूप नहीं लेती हैं। वास्तव में 1।5 से 2 लाख करोड़ रुपये की रेल परियोजनाएं लंबित हैं।
रेलवे मंत्री सुरेश प्रभु का यह कहना सही है कि इस क्षेत्र में किया गया यह अब तक का सबसे बड़ा सुधार है। वित्तीय स्वायत्तता रेलवे के पास रहेगी। मौजूदा वित्तीय प्रबंध जारी रहेंगे और समस्त राजस्व व्यय, कार्य व्यय, वेतन और भत्ते तथा पेंशन जैसे सभी व्यय रेलवे की राजस्व प्राप्तियों से पूरे करना जारी रहेगा।
तत्काल लाभ यह होगा कि रेलवे को अब लाभांश नहीं देना होगा। रेलवे हर वर्ष सरकार को करीब 10,000 करोड़ रुपये लाभांश के रूप में देता रहा है। यह राशि अब रेलवे के पूंजी व्यय के लिए इस्तेमाल की जा सकती है। इससे, पेपर वर्क में भी निश्चित रूप से कमी आएगी और रेलवे के लिए अलग से विनियोग विधेयक पारित नहीं करना पड़ेगा। रेलवे अब अव्यवहार्य परियोजनाओं के प्रति युक्तिसंगत दृष्टिकोण अपना सकेगा।
इस विलय के साथ ही केबिनेट ने योजना और गैर-योजना व्यय के बीच अंतर समाप्त करने का भी निर्णय किया है, जो सरकार के भीतर निर्णय करने की प्रक्रिया को आसान एवं सुचारू बनाने की दिशा में एक सराहनीय उपाय है। कुछ राजनीतिक कारणों सहित, विभिन्न कारणों से वर्ष-दर-वर्ष, करीब 20 से 30 प्रतिशत तक योजना व्यय का उपयोग नहीं हो पाता है और योजना एवं गैर-योजना व्यय का यह भेद एक मजाक बन कर रह जाता है। योजना और गैर-योजना व्यय के इन दो प्रमुख शीर्षों के विलय का सुझाव कुछ वर्ष पूर्व सर्वप्रथम प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी। रंगराजन ने दिया था। यह एक रचनात्मक कदम है, क्योंकि इससे धन का इस्तेमाल अधिक उपयोगी और समन्वित ढंग से किया जा सकेगा। योजना व्यय के लिए भारी आवंटन का स्वांग जारी रखने की क्या तुक है, जबकि उसे वास्तव में खर्च नहीं किया जाता। इससे बेहतर तो यही है कि धन का उपयोग उन क्षेत्रों में व्यय के लिए किया जाए, जहां आवश्यक हो।
एक अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन केंद्रीय बजट को फरवरी के प्रथम सप्ताह में प्रस्तुत किए जाने के बारे में सैद्धांतिक मंजूरी के रूप में सामने आया। संभवत: इसे महीने की अंतिम तारीख की बजाए पहली तारीख को पेश किया जाएगा। यह एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि समूची बजट प्रक्रिया, जो संसद में 3 चरणों में पारित की जाती है, वित्तीय वर्ष के अंत तक पूरी हो जाए। आमतौर पर आम बजट 28 फरवरी को अथवा लीप वर्ष के दौरान 29 फरवरी को पेश किया जाता है और समूची बजट प्रक्रिया बजट पेश करने की तारीख से 75 दिनों में पूरी हो पाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि बजट 15 मई तक पास होता है और नतीजतन सरकार को नए वित्तीय वर्ष में अप्रैल और मई के दो महीनों के लिए सरकारी खर्च हेतु बजट प्रस्तुत करने के साथ लेखानुदान पेश करना पड़ता है। संविधान के अनुसार सरकार संसद की अनुमति के बिना भारत की समेकित निधि से कोई धन खर्च नहीं कर सकती। चूंकि वित्तीय विधेयक पारित किए जाने के साथ बजट को 15 मई तक संसद की स्वीकृति मिल पाती है अत: सरकार को पूर्ण बजट पारित होने तक अप्रैल और मई में व्यय के लिए लेखानुदान के रूप में अस्थाई अनुमोदन प्राप्त करना पड़ता है। इससे योजना के कार्यान्वयन और बजट में प्रस्तावित प्रावधान खर्च करने में देरी होती है। अत: मार्च 31 से पहले बजटीय प्रक्रिया को पूरा करके सरकार अब अपनी बजटीय योजनाओं को पूरा करने की दिशा में नए वित्तीय वर्ष की पहली तारीख से ही काम करना शुरू कर देगी, जो 1 अप्रैल से शुरू होता है। इससे सरकार नए वर्ष में अपनी योजनाबद्ध परियोजनाओं के कार्यान्वयन में 2 महीने की हानि बचाना सुनिश्चित कर सकेगी। संसद में बजट पारित करने का पहला चरण लेखानुदान को मंजूरी देना है। दूसरे चरण में विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की अनुदान मांगें पारित की जाती हैं और तीसरे एवं अंतिम चरण में वित्तीय विधेयक पारित होता है, जिसमें बजट में प्रस्तावित अनुसार विभिन्न नए कराधान उपायों की व्यवस्था की जाती है।
इस सदी के शुरू में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में तत्कालीन एनडीए सरकार ने फरवरी महीने के आखिरी दिन शाम 5 बजे बजट पेश करने की प्रथा समाप्त की थी। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने दिन में 11 बजे बजट प्रस्तुत करने का सिलसिला शुरू किया, जिससे ब्रिटिशकालीन एक अन्य औपनिवेशिक पद्धति का अंत हुआ। शाम 5 बजे बजट पेश करने का अर्थ यह था कि उस समय लंदन में दोपहर होती है, लेकिन भारत में भारतीयों के लिए दोपहर नहीं होती है।
रेल बजट को आम बजट में मिलाने से रेलवे बेहतर स्थिति में रहेगा, चूंकि वह लंबी गर्भावधि वाली परियोजनाओं में निवेश के लिए विदेश सहित कहीं से भी धन उगाह सकेगा। इससे रेलवे में ढांचागत सुधार लाने में भी मदद मिलेगी। सरकार को केवल यह सुनिश्चित करना होगा कि रेलवे की प्रचालनगत स्वायत्तता से कोई समझौता न किया जाए, जैसा कि कुछ हलकों में आशंका व्यक्त की जा रही है। रेल बजट के विलय, आम बजट को अग्रिम पेश करने और योजना एवं गैर-योजना व्यय के बीच भेद समाप्त करने जैसे सरकार के फैसलों से विभिन्न मंत्रालयों और विभागों द्वारा समूचे वित्तीय वर्ष में आयोजना और व्यय संबंधी बेहतर परिणाम हासिल किए जा सकेंगे।
(लेखक को पत्रकारिता में 40 वर्ष से अधिक का अनुभव है। वे पीटीआई में संपादक और फाइनेंशियल क्रोनिकल में आर्थिक संपादक रहे हैं। ईमेल - sudhaman23@yahoo।co।uk आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।)