भारत में झुग्गी-झोपडिय़ों की स्थिति: समस्याएं और नीतियां
प्रो. एस. के. कटारिया
21वीं सदी के वैश्वीकृत भारत की अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विशिष्ट पहचान बन चुकी है. हालांकि, इस कल्याणकारी राज्य के समक्ष अपने नागरिकों की आकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में अनेक चुनौतियां और रूकावटें हैं. ‘स्मार्ट सिटी‘ की अवधारणा का उद्देश्य भारत में 100 विश्वस्तरीय, नागरिक अनुकूल और टिकाऊ शहरों का विकास करना है. इस संबंध में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का कथन है-‘‘हमारा ये सपना है कि जब हम भारत की आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहे होंगे, सभी झुग्गियों को पक्के आवासों में तबदील कर दिया जाये.’’
झुग्गी-झोपडिय़ां, विशेषकर विकासशील देशों में, औद्योगीकरण और तेज़ी से हो रहे शहरीकरण की अनिवार्य आनुषंगिक उपज है. ये शहरी कालोनियां अथवा क्षेत्र आमतौर पर अपने आसपास के जीर्णशीर्ण, अनधिकृत अथवा अतिक्रमण करके बनाये गये लघु और अस्थाई आवासों, घनी आबादी, मलिन स्वास्थ्य स्थितियों, अल्प नागरिक सुविधाओं, सभी तरह का प्रदूषण, आपराधिक गतिविधियों, दुर्गन्ध, आवारा पशुओं और गऱीबी आदि से घिरे होते हैं. संयुक्त राष्ट्र की विश्व के शहरों संबंधी रिपोर्ट 2016 के अनुसार विकासशील देशों में झुग्गी-झोपडिय़ों की संख्या 1990 में 689 मिलियन से बढक़र 2014 में 880 मिलियन हो गई. दुनिया की कऱीब 25 प्रतिशत शहरी आबादी मलिन बस्तियों में रहती है. मुंबई में धारवी भारत की सबसे बड़ी और एशिया की दूसरी सबसे बड़ी तथा दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी झुग्गी-झोपड़ी बस्ती है. इसका 2.1 वर्ग कि.मी. क्षेत्र और दस लाख की जनसंख्या है. दुनिया भर में अनेक झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां हैं जिन्हें घनी आबादी और व्यापक क्षेत्र के लिये जाना जाता है, इनमें 2.4 मिलियन आवासों के साथ पाकिस्तान के कराची का ओरंगी टाऊन, 1.2 मिलियन आवासों के साथ ैमैक्सिको में मेक्सिको शहर का सियुडेड नेज़ा, 7 मिलियन आवासों के साथ नैरोबी (केन्या) का किबेरा और 4 मिलियन जनसंख्या के साथ केप टाऊन (दक्षिण अफ्रीका) का खायेलिस्ठा ऐसे कुछ जाने पहचाने और विकासशील देशों के सबसे बड़े स्लम क्षेत्र हैं.
झोपडिय़ां: एक अवधारणात्मक ढांचा
भारत में झोपडिय़ों का सामान्यत: चाल अथवा झोपड़पट्टी (मुंबई), कटरा या झुग्गी- झोपड़ी (दिल्ली), बस्ती (कोलकाता), चेरी (चेन्नई), अहाते (कानपुर), कच्ची बस्ती (जयपुर), गंदी बस्ती (भोपाल, इंदौर), चाय उद्यानों में बैरेक और खनन क्षेत्रों में घोबरा के तौर पर जाना जाता है.
2001 की जनगणना में झुग्गी-झोपडिय़ों की जनसंख्या को जनसंख्या की वास्तविक गणना के आधार पर प्रस्तुत किया गया था और 2011 की जनगणना में झुग्गी बस्तियों के निवासियों के हाउसिंग स्टॉक, सुविधाओं और परिसंपत्तियों के विवरण को भी सूचीबद्ध किया गया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण-2012 का 69वां दौर भी झुग्गी-झोपडिय़ों को लेकर था. इससे पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने शहरी झुग्गियों से संबंधित विभिन्न मामलों पर 31वां (1976-77), 49वां (1993), 58वां (2002) और 65वां (2008-9) दौर आयोजित किया गया था. जनगणना-2001 के दौरान झुग्गी-झोपडिय़ों को लेकर निम्नलिखित मानदंड (परिभाषा) को अपनाया गया:-
1. ‘स्लम एक्ट’ सहित किसी भी अधिनियम के तहत राज्य या स्थानीय सरकार और संघ शासित प्रदेश प्रशासन द्वारा ‘स्लम’ के तौर पर अधिसूचित किसी कस्बे या शहर में सभी विनिर्दिष्ट क्षेत्र.
2. राज्य या स्थानीय सरकार और संघ शासित प्रदेश प्रशासन द्वारा ‘स्लम’ के तौर पर मान्यता प्राप्त सभी क्षेत्र जिन्हें औैपचारिक तौर पर अधिनियम के तहत स्लम के तौर पर अधिसूचित किया गया हो.
3. कम से कम 300 की जनसंख्या अथवा 60-70 आवासों का एक संयुक्त क्षेत्र जो कि घने और सामान्यत: अपर्याप्त अवसंरचना के साथ अस्वास्थ्यकर वातावरण में बहुत ही खऱाब हालत में निर्मित हैं और इनमें उचित स्वच्छता तथा पेयजल सुविधाओं का अभाव है.
जनगणना-2001 में उन 1743 शहरी क्षेत्रों में 52.4 मिलियन (23.50 प्रतिशत) स्लम जनसंख्या घोषित की गई जहां 20,000 से अधिक की जनसंख्या थी.
2008 में डा. प्रणब सेन, भारत के मुख्य सांख्यिकीविद् की अध्यक्षता में केंद्रीय आवास एवं शहरी गऱीबी उन्मूलन मंत्रालय ने झुग्गी-झोपड़ी सांख्यिकी/गणना पर एक समिति का गठन किया था. समिति ने अगस्त, 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश की. समिति ने स्लम को इस प्रकार परिभाषित किया -‘‘अत्यंत खऱाब स्थिति में निर्मित, अधिकतर अस्थाई प्रकृति के, भीड़भाड़ वाले सामान्यत: अपर्याप्त स्वच्छता और पेयजल सुविधाओं के साथ अस्वास्थ्यकर स्थितियों में कम से कम 20 आवासों की एक संयुक्त बस्ती. इसके अलावा समिति ने स्लम को लेकर निम्नलिखित विशिष्टताओं का उल्लेख किया-
1.प्राथमिक छत सामग्री-कंक्रीट (आरबीसी/ आरसीसी) के अलावा कोई भी सामग्री
2.गणना में शामिल आवासीय परिसरों के भीतर पेयजल स्रोत की उपलब्धता नहीं है.
3.लेट्रीन की उपलब्धता गणना में शामिल घरों के परिसर में नहीं है.
4. ड्रेनेज सुविधा-कोई ड्रेनेज सुविधा नहीं अथवा खुली नाली है.
कुछेक राज्य विधेयकों अर्थात आंध्र प्रदेश स्लम सुधार (भूमि अधिग्रहण) अधिनियम, 1956, पंजाब स्लम क्षेत्र (सुधार एवं मुक्ति) अधिनियम, 1971 और मध्य प्रदेश गंदी बस्ती क्षेत्र (सुधार तथा निर्मूलन) अधिनियम, 1976 आदि में झुग्गी-झोपडिय़ों को विभिन्न पैरामीटर्स के तहत परिभाषित किया गया है.
सेन समिति ने अनुमान लगाया कि 2001 में 5161 शहरी क्षेत्रों में 75.26 मिलियन (26.31 प्रतिशत) जनसंख्या रह रही थी और यह भी कहा कि 2011 में यह 9.06 मिलियन हो जायेगी. समिति की यह भी राय थी कि राजीव आवास योजना और स्लम मुक्त भारत के लक्ष्यों को हासिल करने के लिये सभी वैधानिक कस्बों को स्लम गणना में शामिल किया जाये.
भारत में झुग्गी-झोपड़ी: एक सांख्यिकी सारांश (2015) में भारतीय स्लम्स की निम्नलिखित विशेषताओं की विस्तार से व्याख्या की गई है:-
1. बुनियादी सेवाओं का अभाव
2. घटिया आवास या गैर कानूनी और अपर्याप्त निर्माण ढांचे
3. अत्यधिक भीड़भाड़ और उच्च घनत्व
4. अस्वास्थ्यकर रहन सहन स्थितियां और ख़तरे वाले स्थान
5. असुरक्षित स्वामित्व, अनियमित या अनौपचारिक बस्तियां
6. गरीबी और सामाजिक अपवर्जन
भारत में झुग्गी-झोपड़ी
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 69वें दौर में पाया गया कि देश में 33,510 झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां थीं जिनमें से 13,761 को अधिसूचित किया गया था और 19,749 ग़ैर अधिसूचित थीं. इसका अर्थ है कि स्लम की वृद्धि सरकार की अधिसूचना प्रक्रिया से अधिक तीव्र थी. जनगणना-2011 के विवरण के अनुसार 13.92 मिलियन झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वालों की संख्या 65.49 मिलियन थी. समूचे देश की कऱीब 5.4 प्रतिशत जनसंख्या और 17.4 प्रतिशत शहरी जनसंख्या झुग्गी-झोपडिय़ों में रहती थी. उस वक्त देश भर में 4041 वैधानिक कस्बों में से 2613 में झुग्गी-झोपडिय़ां थीं. मणिपुर, दमण और दीव, दादरा और नगर हवेली तथा लक्षद्वीप को छोडक़र 31 राज्यों/संघ शासित प्रदेशों में झुग्गी-झोपडिय़ां थीं. तमिलनाडु में सबसे अधिक 506 कस्बे हैं जो कि स्लम संबंधी समस्या से ग्रसित हैं इसके बाद मध्य प्रदेश (303), उत्तर प्रदेश (293), कर्नाटक (206), महाराष्ट्र (189), आंध्र प्रदेश (125), पश्चिम बंगाल (122), राजस्थान (107), गुजरात (103), छत्तीसगढ़ (94), बिहार (88), ओड़ीशा (76), हरियाणा (75), पंजाब (73), जम्मू एवं कश्मीर (40), असम (31), झारखंड (31), हिमाचल प्रदेश (22) रा.रा.क्षे. दिल्ली (22), केरल (19), त्रिपुरा (15), नगालैंड (11) और अन्य में झुग्गी-झोपडिय़ों की संख्या कम है. जहां तक झुग्गी-झोपडिय़ों में सर्वाधिक जनसंख्या का संबंध है, इसमें महाराष्ट्र 11.85 मिलियन के साथ सबसे ऊपर के स्थान पर है और इसके बाद आंध्र प्रदेश (10.19), पश्चिम बंगाल (6.42 मिलियन), उत्तर प्रदेश (6.24 मिलियन), तमिलनाडु (5.80 मिलियन), मध्य प्रदेश (5.69 मिलियन), कर्नाटक (3.29 मिलियन), राजस्थान (2.07 मिलियन), छत्तीसगढ़ (1.90 मिलियन), रा.रा.क्षे. दिल्ली (1.79 मिलियन), गुजरात (1.68 मिलियन), हरियाणा (1.66 मिलियन), ओड़ीशा (1.56 मिलियन), पंजाब (1.46 मिलियन) और बिहार (1.24 मिलियन) आदि हैं.
भारत की कऱीब 37 प्रतिशत झुग्गी-झोपड़ी की जनसंख्या लाखों में शहरों में निवास करती है. समूचे देश की 7.95 प्रतिशत स्लम जनसंख्या मुंबई में है और इसके बाद हैदराबाद (3.49 प्रतिशत), दिल्ली (2.47 प्रतिशत), कोलकाता (2.15 प्रतिशत), चेन्नई (2.05 प्रतिशत) और नागपुर (1.31 प्रतिशत) है. धारवी (मुंबई) के बाद भारत में कुछ अन्य प्रमुख झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्र हैं-भलस्वा (दिल्ली), नाचिकुप्पम (चेन्नई), राजेंद्र नगर (बंगलुरू), बसंती (कोलकाता), इंदिरामा नगर (हैदराबाद), मेहबुल्लापुर (लखनऊ), सरोज नगर (नागपुर), परिवर्तन (अहमदाबाद) और सतनामी नगर (भोपाल).
कऱीब आधे स्लम आवासों में एक कमरा था यद्यपि अन्य सामान्य सुविधाएं कुछ हद तक बेहतर पाई गईं. कऱीब 79 प्रतिशत में स्थाई आवास, 90 प्रतिशत में बिजली की सुविधा, 66 प्रतिशत में लेट्रीन की सुविधा और 67 प्रतिशत में बाथरूमों की सुविधा थी. अन्य अवसंरचना सुविधाएं और सामान्य नागरिक सुविधाएं नगण्य स्थिति में पाई गईं, जिनमें पेयजल, पथ प्रकाश, कचड़ा निपटान, ड्रेनेज लाइनें, सार्वजनिक उद्यान, स्वास्थ्य और स्वच्छता सुविधाएं, स्कूल, कानून एवं व्यवस्था, सामाजिक सुरक्षा, परिवहन, बैंक और डाकघर तथा दूरसंचार आदि शामिल है.
सारणी 1
दस लाख से अधिक आबादी वाले प्रमुख शहरों में स्लम और गैर स्लम जनसंख्या (2011)
क्रम सं.
1
शहर का नाम
जबलपुर
कुल जनसंख्या
10,81,677
स्लम जनसंख्या
4,83,626
गैर स्लम जनसंख्या
5,98,051
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
44.71
क्रम सं.
2
शहर का नाम
विशाखापत्तनम
कुल जनसंख्या
17,28,128
स्लम जनसंख्या
7,70,971
गैर स्लम जनसंख्या
9,57,157
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
44.61
क्रम सं.
3
शहर का नाम
ग्रेटर मुंबई
कुल जनसंख्या
1,24,42,373
स्लम जनसंख्या
52,06,473
गैर स्लम जनसंख्या
72,35,900
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
41.84
क्रम सं.
4
शहर का नाम
मेरठ
कुल जनसंख्या
13,05,429
स्लम जनसंख्या
5,44,859
गैर स्लम जनसंख्या
7,60,570
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
41.74
क्रम सं.
5
शहर का नाम
रायपुर
कुल जनसंख्या
10,27,264
स्लम जनसंख्या
4,05,571
गैर स्लम जनसंख्या
6,20,693
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
39.58
क्रम सं.
6
शहर का नाम
विजयवाड़ा
कुल जनसंख्या
11,43,232
स्लम जनसंख्या
4,51,231
गैर स्लम जनसंख्या
6,92,001
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
39.47
क्रम सं.
7
शहर का नाम
नागपुर
कुल जनसंख्या
24,05,665
स्लम जनसंख्या
8,59,487
गैर स्लम जनसंख्या
15,46,178
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
35.73
क्रम सं.
8
शहर का नाम
आगरा
कुल जनसंख्या
15,85,704
स्लम जनसंख्या
5,33,554
गैर स्लम जनसंख्या
10,52,150
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
33.65
क्रम सं.
9
शहर का नाम
ग्रेटर हैदराबाद
कुल जनसंख्या
69,93,262
स्लम जनसंख्या
22,87,014
गैर स्लम जनसंख्या
47,06,248
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
32.70
क्रम सं.
10
शहर का नाम
कोटा
कुल जनसंख्या
10,01,694
स्लम जनसंख्या
3,19,309
गैर स्लम जनसंख्या
6,82,385
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
31.88
क्रम सं.
11
शहर का नाम
कोलकाता
कुल जनसंख्या
44,96,694
स्लम जनसंख्या
14,09,721
गैर स्लम जनसंख्या
30,86,973
शहर की कुल आबादी में से स्लम जनसंख्या का प्रतिशत
31.35
भारत में झुग्गी-झोपडिय़ां, विशेषकर मुंबई में धारवी फिल्म और वृत्तचित्र निर्माताओं के लिये आकर्षण का केंद्र रहा है। इनमें डैनी बोयल्स की प्रसिद्ध मूवी ‘स्लमडॉग मिलेनियर (2008), चक्र (1981), कथा (1983), मशाल (1984), अंकुश (1986), सलाम बाम्बे (1988), परिंदा (1989), सलीम लंगड़े पे मत रो (1989), धारवी (1991), सत्य (1998), बाम्बे ब्वायज (1998), चांदनी बार (2001), कंपनी (2002), डी (2005), टैक्सी नं. 9211 (2006) और धोबी घाट (2010) शामिल हैं.
नीतिगत पहलें
सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों और 2015-उपरांत सतत विकास लक्ष्य विकास एजेंडा (एसडीजी) में अन्य बातों के साथ-साथ झुग्गी झोपडिय़ों में रहने वाली शहरी जनसंख्या की स्थितियों में सुधार पर ज़ोर दिया गया है. एसडीजी के लक्ष्य-11 में कहा गया है कि शहरी और मानवीय बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, टिकाऊ और स्थाई बनाया जाना है. दरअसल किसी भी स्मार्ट सिटी के सूरत की पहचान स्लम विकास के आकलन से की जाती है. 1972 में भारत सरकार ने शहरी झुग्गी झोपडिय़ों के पर्यावरण सुधार पर कार्यक्रम के जरिए स्लम विकास के लिये एक गंभीर नीतिगत पहल की है. पांचवी पंचवर्षीय योजना के दौरान विश्व बैंक की सहायता से स्लम उन्नयन कार्यक्रम कार्यान्वित किया गया. 1985 में भारत के ज्यादातर शहरों में शहरी बुनियादी सेवाएं कार्यक्रम कार्यान्वित किया गया. 1986 में राष्ट्रीय स्लम विकास कार्यक्रम आरंभ किया गया. हाल के वर्षों में ‘एकीकृत आवास एवं स्लम विकास कार्यक्रम कार्यान्वित किया गया. अन्य कुछेक योजनाएं जैसे कि-एकीकृत कम लागत स्वच्छता (1980-81), स्वर्ण जयंती शहरी रोजग़ार योजना (1997), वाल्मीकि अम्बेडकर आवास योजना (2001), जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरणीय मिशन-जेएनएनयूआरएम (2005), राजीव आवास योजना (2011), और साझेदारी में किफायती आवास (2013) को भी कार्यान्वित किया गया. राज्य सरकारों के सक्रिय सहयोग के साथ प्रतिस्पर्धात्मक पद्धति पर देश भर में 100 सर्व सुविधा संपन्न शहरों के नवीनीकरण और विकास के लिये 25 जून, 2015 को स्मार्ट सिटी कार्यक्रम शुरू किया गया. जून, 2015 में भारत सरकार ने ‘सब के लिये 2022 तक आवास‘ मिशन की शुरूआत की. इस मिशन का मुख्य घटक संसाधन के तौर पर भूमि का उपयोग करके और कमजोर वर्गों के लिये ऋण से जुड़ी सब्सिडी के जरिये किफायती आवास को बढ़ावा देकर प्राइवेट डेवलपर्स की साझेदारी में झुग्गी वासियों का पुनर्वास करना है.
मुंबई जैसे प्रमुख शहरों ने अपनी प्रशासनिक संस्था-झुग्गी पुनर्वास प्राधिकरण, जिसे अफजलपुकार समिति की सिफारिशों पर 1995 में गठित किया गया था, के जरिए स्लम विकास के लिये कुछ विशिष्ट प्रयास किये हैं. इस प्राधिकरण का निर्माण महाराष्ट्र झुग्गी क्षेत्र (सुधार एवं पुनर्विकास) अधिनियम, 1971 में एक संशोधन के जरिए किया गया था. इस पर झुग्गियों की निगरानी करने और झुग्गियों में रहने वालों के पुनर्वास की जिम्मेदारी है. कुछेक अन्य शहरों जैसे कि अहमदाबाद, पुणे, दिल्ली, विशाखापत्तनम और बंगलुरू ने भी कुछ प्रयास किये हैं.
झुग्गी-झोपड़ी मुक्त भारत की दिशा में
भारत को पूरी तरह झुग्गी मुक्त बनाना वास्तव में एक अत्यंत कठिन कार्य है. परंतु वर्तमान अराजक स्थिति को एक समग्र और समन्वित परिप्रेक्ष्य योजना के साथ बदला जा सकता है. ब्राजील के सिडाडे डी ड्यूस, रियो दि जेनेरियो और थाईलैंड में पेमामबुको, बान मानकोंग तथा निकरागुआ में प्रोडेल और यहां तक कि मुंबई में धारवी में सफल कहानियों ने सिद्ध कर दिया है कि स्लम पुनर्वास एक संभव काम है.
सुझाव:
सर्वप्रथम और सबसे महत्वपूर्ण चीज़ शहरों में झुग्गी-झोपडिय़ों की बेतहाशा वृद्धि के कारणों की पहचान करना है. गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता, मज़बूरन विस्थापन, सामाजिक भेदभाव और निष्प्रभावी नगरीय प्रशासन इसके कुछेक मूल कारण हैं. अधिकतर झुग्गी बस्तियों के निवासी वे दिहाड़ी श्रमिक, बंदरगाह कर्मी, मछली पकडऩे वाले, नौकर, फैक्टरी कामगार, हॉकर्स, कचड़ा छंटाई करने वाले, रिक्शा चालक, दस्तकार, पेंटर और निजी क्षेत्र के असंगठित कामगार आदि हैं जो कि गांवों से अपनी आजीविका की तलाश में शहरों में आये हैं. उनकी अपने गांव में कोई ज़मीन नहीं है अथवा उनके पास परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिये पर्याप्त जमीन नहीं है अथवा उपजाऊ भूमि नहीं है. इनमें से अधिकतर समाज के पिछड़े वर्गों से आते हैं. उन्हें सबसे पहले काम के अधिकार, शरण लेने के अधिकार और खाद्य के अधिकार की जरूरत है. नगर योजना और नगर नागरिक सुविधाओं के लिये जिम्मेदार एजेंसियों को अपनी ड्यूटी प्रभावी तरीके से और समन्वय के दृष्टिकोण के साथ निभानी चाहिये. तीसरा नियोक्ताओं को अपने कामगारों को संरक्षा प्रदान करने के लिये जिम्मेदार बनाया जाना चाहियें यदि उनके पास कर्मचारियों की संख्या पांच से अधिक है. मुद्दे के हल के लिये प्रत्येक वैधानिक कस्बे में ट्रांजिट हॉस्टल के तौर पर सामूहिक और सार्वजनिक आवास उपलब्ध कराये जाने चाहियें. झुग्गी-झोपडिय़ां, जो कि दशकों से मौजूद हैं उन्हें वोट-बैंक की राजनीति और पेशेवर रैली दर्शक, अपराधियों, राजनीतिक पार्टी कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं सहित विभिन्न क्षेत्रों की मानवशक्ति आपूर्ति के कारण आसानी से परिवर्तित नहीं किया जा सकता.
चौथा, सरकार को प्राइवेट बिल्डर्स और रियल एस्टेट डेवलपर्स के साथ-साथ सरकारी एजेंसियों, जैसे कि विकास प्राधिकरणों और आवास बोर्डों द्वारा निर्मित आवासों में गरीब लोगों के लिये किफायती आवासों की संख्या का हिस्सा या प्रतिशतता अवश्य निर्धारित करनी चाहिये. समाज के प्रत्येक हिस्से के लिये प्रौद्योगिकीय प्रगति और आधुनिक नागरिक सुविधाओं का लाभ उठाने के लिये देश में जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश के लिये कार्य करने का समय है. चूंकि प्राकृतिक संसाधन काफी कम मात्रा में हैं और चिरस्थाई नहीं हैं, इसलिये उपभोक्ताओं की संख्या को नियंत्रित करना और संसाधनों का किफायती और नीतिपरक इस्तेमाल करना ही एकमात्र मार्ग है.
लेखक: मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान में लोक प्रशासन में प्रोफेसर हैं. ई-मेल: Skkataria64@rediffmail.com