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संपादकीय लेख


Volume-37, 9-15 November, 2017

बैंकों का पुन: पूंजीकरण विकास को बढ़ावा देने
वाला कदम

डॉ. रणजीत मेहता और
महालक्ष्मी विश्वनाथ

पिछले कुछ वर्षों में बैंक वसूले न जा सकने वाले ऋणों की गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं. जब बैंक किसी को उधार देते हैं तो उनके द्वारा दी जाने वाली कर्ज की राशि को बैंक के एसेट यानी आस्तियों में शामिल किया जाता है क्योंकि इस पर वे कर्जदार से सूद लेते हैं और मूलधन की वापसी की भी उम्मीद करते हैं. कोई ऋण बैंक के लिए उस समय नॉन परफार्मिंग एसेट यानी अनर्जक आस्ति (एनपीए) बन जाता है जब उधार लेने वाला वापसी में नौ महीने से ज्यादा का विलंब कर देता है. जब बैंक अपने एनपीए को बट्टे खाते में डालते हैं तो इससे बैंकों की पूंजी कम होती है जिससे उनकी उधार देने की क्षमता भी कम हो जाती है.
किसी अर्थव्यवस्था में क्रेडिट यानी साख की उपलब्धता बनाए रखने के लिए सुव्यवस्थित तरीके से पूंजीकृत बैंकिंग प्रणाली होना बहुत जरूरी है और यह तभी संभव है जब बेसेल-तृतीय मानदंडों के अंतर्गत विनियामक शर्तें पूरी हों और बैंकों की डूब रही आस्तियों के लिए प्रावधान किये जाएं. 2008 में बैंकों को वैश्विक वित्तीय संकट की चपेट में आने से बचाने के लिए कॉमन इक्विटी टीयर यानी स्तरीकृत साझा इक्विटी के लिए मजबूत कदम उठाये गये. कॉमन इक्विटी टीयर के अंतर्गत बैंक की मूल पूंजी यानी उसके अपने शेयर, साझा शेयर जारी करने से बचे अधिशेष शेयर, प्रतिधारित आमदनी, अनुषंगी कंपनियों द्वारा जारी साझा शेयर, तृतीय पक्ष के पास रखे गये शेयर शामिल है और अन्य संचित आय शामिल है. विश्वव्यापी और एशियाई आर्थिक संकट के बाद बैंकों के
पुन:पंूजीकरण से यह बात रेखांकित हो जाती है कि साख में वृद्धि और पूंजी आर्थिक पुनरुद्धार की पूर्वशर्त हैं.
बहरहाल, भारतीय बैंकिंग प्रणाली, खास तौर पर सार्वजनिक बैंकों में आर्थिक मंदी और आस्तियों की गुणवत्ता की दृष्टि से बीते वर्षों में पूंजी का लगातार क्षरण हुआ है. 
मार्च 2017 में भारतीय बैंकिंग प्रणाली में जोखिम वाली आस्तियां निवल अग्रिम राशि के 12 प्रतिशत के बराबर थीं. अनर्जक संपत्तियों की सफाई के लिए 2015 में आस्ति गुणवत्ता समीक्षा की शुरूआत की और दिवालियापन तथा अशोधन क्षमता संहिता 2016 पर अमल शुरू किया. इस उपाय नेे बैंकों को अपनी लेखा बहियों को वास्तविकता के स्तर पर भरने को प्रोत्साहित किया जिससे उनके पास पूंजी की कमी उजागर हुई.
जहां तक 2016-17 का सवाल है भारतीय बैंकों के डूबने वाले ऋण करीब 10 लाख करोड़ के स्तर पर पहुंच गये हैं जो कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद से कहीं ज्यादा हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को इससे जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपाई उन्हें और पूंजी उपलब्ध कराकर किया जा सकती है. सरकार इस योजना के जरिए यही करने की आशा कर रही है. उसे उम्मीद है कि इससे बैंक अपने डूबते हुए ऋणों के एक हिस्से को बट्टे खाते में डाल सकेंगे जिससे उनके तुलनपत्र में सुधार होगा.     
वित्त मंत्रालय ने 24 अक्तूबर 2017 को डूबने वाले कर्ज की समस्या का सामना कर रहे सरकारी बैंकों के लिए 2.11 ट्रिलियन रुपये लागत की रीकैपिटलाइजेशन यानी पुन:पूंजीकरण योजना की घोषणा की. इसका उद्देश्य बैंकों की साख के प्रवाह को बढ़ाकर निजी निवेश में तेजी लाना था. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि सरकार के इस कदम से प्रामाणिक उधार लेने वालों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन मिल सकेंगे जिससे साख बढ़ेगी और रोजग़ार के नये अवसर पैदा होंगे.     
यह घोषणा ऐसे समय हुई है जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी की भारी किल्लत से जूझना पड़ रहा है और अनर्जक आस्तियां उनके लिए बड़ा बोझ बन गयी हैं. जून 2017 को समाप्त हुई तिमाही में 5.7 प्रतिशत की विकास दर वाली भारतीय अर्थव्यवस्था में नयी जान फूंकने के लिए सरकार निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने के प्रयास कर रही है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि अगले दो वर्षों में बैंकिंग क्षेत्र में 2.11 लाख करोड़ रुपये पूंजी का निवेश होगा. यह तीन चरणों में होगा: सरकार बैंकों के शेयर खरीद कर उन्हें 18,000 करोड़ रुपये सीधे तौर पर देगी. वह बैंकों को बाजार से 58,000 करोड़ रुपये जुटाने को भी प्रोत्साहित करेगी. लेकिन ज्यादातर राशि, जो करीब 1.35 लाख करोड़ रुपये के बराबर होगी, पुनर्पूंजीकरण बांडों के माध्यम से जुटाई जाएगी. सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर बैंकों को पूंजी की आवश्यकता विनियामक न्यूनतम पूंजी जरूरतों को पूरा करने के लिए है, बल्कि बैंकों के तुलनपत्र को सही करने के लिए भी इसकी आवश्यकता है. इससे उन पर अपनी डूब रही रकम की भरपाई करने के लिए धन आबंटित करने का दबाव भी बनेगा.     
पुनर्पूंजीकरण से सूझबूझ के साथ एक नीति बनायी जा सकेगी जिसके तहत जिन बैंकों ने तुलनपत्र से संबंधित मसलों को बेहतर तरीके से निपटाने की कोशिश की है और तत्काल साख निर्माण के लिए नयी पूंजी के इस्तेमाल की स्थिति में हैं उन्हें प्राथमिकता दी जा सकती है. जबकि दूसरे बैंकों को इसी स्थिति में आने के लिए नयी पूंजी दी जाएगी. इस तरह सार्वजनिक पुनर्पूंजीकरण कार्यक्रम में इसी तरह के पिछले कार्यक्रमों के मुकाबले कुछ बेहतर बाजार अनुशासन लाया जा सकेगा. भली भांति पूंजीकृत बैंकिंग और वित्तीय मध्यस्थ प्रणाली स्थिर आर्थिक विकास की पूर्व शर्त है. इतिहास से बार-बार यह बात साफ हो गयी है कि सिर्फ  अच्छी आर्थिक स्थिति वाले बैंक ही अच्छी स्थिति वाली फर्मों और उधार लेने वालों को कर्ज दे सकते हैं. इस तरह से निवेश और रोजग़ार सृजन का एक स्वस्थ चक्र तैयार होगा.  
इस निधि से बैंकों के जोखिम और पूंजी साख से संबंधित आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकेगा. इन कदमों से निजी भागीदारी को भी बढ़ावा मिलेगा जिससे विकास को और तेज किया जा सकेगा. बुनियादी ढांचे पर जोर दिये जाने से अन्य कई संबद्ध क्षेत्रों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऊपर से नीचे तक असर डालने वाले अच्छे प्रपातन प्रभाव की भी उत्पत्ति होगी और सभी प्रतिभागियों को सुखद अहसास होगा. भारी भरकम कारपोरेट ऋणों की मांग कम होने से पिछली कुछ तिमाहियों में बैंकिंग प्रणाली में साख में बढ़ातरी बहुत धीमी रही है और यह बैंकों की कमजोर पूंजीगत स्थिति का एक कारण है. क्योंकि इससे बैंकों की कर्ज देने की क्षमता सीमित हो जाती है. भारतीय रिज़र्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार इस समय बैंकिंग क्षेत्र की साख की विकास दर साल दर साल 7 प्रतिशत बनी हुई है. उद्योग के विशेषज्ञों का मानना है कि बैंकों को बजट में जो राशि आबंटित की जा रही है उन्हें उसके मुकाबले कहीं अधिक धन की आवश्यकता है. मूडीज इनवेस्टर्स सर्विस के अनुसार राज्यों के स्वामित्व वाले 11 बड़े बैंकों को मार्च 2019 तक 70,000 से 95,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी जबकि बजट आबंटन से उन्हें 20,000 करोड़ रुपये ही मिल पाएंगे. विशेष रीकैपिटलाइजेशन बॉण्ड के जरिए बैंकों को नयी पूंजी देने के तरीके का उपयोग सरकार ने 1980-1990 के दशक में भी किया था. 1985-1999 के दौरान सरकार ने 204 अरब रुपये रीकैपिटलाइजेशन बांडों के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में लगाये.      
भारत के सभी बैंकों पर 10 ट्रिलियन रुपये की फंसी हुई आस्तियों का बोझ है जिससे उनकी नये ऋण देने की क्षमता पर बुरा असर पड़ा है. इसमें से सकल अनर्जक आस्तियां 7.7 ट्रिलियन रुपये के बराबर हैं और बाकी पुनर्गठित ऋण हैं. कुछ विशेषज्ञों के अनुसार सरकार की मौजूदा वित्तीय स्थिति और बैंकों की रीकैपिटलाइजेशन की भारी मांग को देखते हुए नयी पूंजी लगाने का यह तरीका शायद सबसे अच्छा विकल्प है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक ऐसी स्थिति में हैं कि वे अपनी आस्तियों का गुणवत्ता के आधार पर बाजार का फायदा उठा सकते हैं.  
वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार सरकार वित्तीय घाटे के संदर्भ में निर्धारित मार्ग का अनुसरण करेगी और वित्तीय स्थिति पर रीकैपिटलाइजेशन बॉण्ड का असर इस बात पर निर्भर करेगा कि इसका कानूनी स्वरूप क्या है और जारी करने वाली एजेंसी कौन है. इस वित्त वर्ष में बजट में वित्तीय घाटे का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद के 3.2 प्रतिशत के बराबर करने का लक्ष्य रखा गया है. बैंकिंग विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि समस्याग्रस्त आस्तियों वाले बैंकों में और अधिक पूंजी लगाना सकारात्मक कदम है. लेकिन यह कितना अच्छा है, यह शायद कोई नहीं जानता. दूसरी ओर, अनुमानों के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अपनी कार्यकुशलता और बैंकिंग प्रणाली में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए बेसेल तृतीय मानदंडों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 2.3 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी. ऐसी उम्मीद की जाती है कि इस बारे में जो स्वैच्छिक मानदंड हैं उन्हें 2019 तक पूरा कर लिया जाएगा.
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की संधियों के अनुसार रीकैपिटलाइजेशन बॉण्ड वित्तीय घाटे के हिसाब में शामिल नहीं किये गये हैं क्योंकि इनके बदले में बैंकों के शेयर खरीदे जा रहे हैं. लेकिन अतीत में भारत में उन्हें हिसाब में लिया जाता रहा है क्योंकि सरकार को बॉण्डों पर ब्याज देना होगा और समूची राशि की अदायगी करनी होगी. श्री जेटली के अनुसार इनसे सरकार का घाटा बढ़ेगा या नहीं, यह सवाल इस बात पर निर्भर करेगा कि बॉण्डों को कौन जारी करेगा और ये किस तरह के होंगे. इस सवाल का जवाब अभी दिया जाना बाकी है. जो भी हो, बॉण्डों पर चुकाये जाने वाले ब्याज को उनकी खरीद के तुरंत बाद घाटे में शामिल कर लिया जाएगा क्योंकि ब्याज का भुगतान सरकार को करना है. 
रीकैपिटलाइजेशन से बैंकों के तुलनपत्रों में भी बड़ी मदद मिली है और उनके लिए अपने शेयरों का विनिवेश करना अधिक आसान हो गया है. इसके अलावा यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि बैंकों के पुन: पूंजीकरण से अपना कारोबार सुधारने में मदद मिलेगी जिससे मुनाफा बढ़ेगा. इसके परिणामस्वरूप सरकार को बैंकों में लगायी जाने वाली पूंजी पर ज्यादा लाभांश मिलेगा जिससे रीकैपिटलाइजेशन बॉण्ड पर देय ब्याज के बोझ को कम करने में मदद मिलेगी. बहरहाल, अगर बॉण्ड जारी करने का उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली को मजबूत करना है तो यह अर्थव्यवस्था के व्यापक हित में ही होगा. 
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के अनुसार वित्तीय क्षेत्र की नीतियों से वित्तीय स्थिरता बनाए रखने के साथ-साथ विकास में भी मदद मिलनी चाहिए. भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से मैं इसी दिशा में साहसिक कदम उठाने के लिए सरकार की सराहना करता हूं जिनकी शुरूआत दिवालियेपन और ऋणशोधन अक्षमता के बारे में कानून पर अमल से हुई है. इससे कंपनियों का बोझ कम करने में मदद मिली है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को नयी पूंजी उपलब्ध कराने के लिए की गयी घोषणा भी इन्हीं कदमों की अगली कड़ी है.  
अनुमान है कि बैंकों में नयी पूंजी लगाने से अर्थव्यवस्था को फायदा होगा. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बैंकों को 700-800 अरब रुपये विकास पूंजी के रूप में मिल जाएं और बैंकों का ऋण व इक्विटी का फायदेमंद अनुपात आठ-नौ गुना हो तो उपलब्ध विकास पूंजी से बैंक 5.8 से 6.5 ट्रिलियन मूल्य के अतिरिक्त ऋण दे सकेंगे (जो उनकी अप्राप्त ऋण राशि के 7.3 से 8.3 प्रतिशत के बराबर है).
कुल मिलाकर बैंकों को नयी पूंजी उपलब्ध कराना विकास की दृष्टि से सकारात्मक कदम है. भले ही पूंजीगत खर्च की कमजोरी जरूरत से ज्यादा ढील बरतने से हो रही हो (रीकैपिटलाइजेशन में इस पर गौर किया जाता है), समय के साथ-साथ क्षमता के उपयोग में सुधार से निजी निवेश में तेजी आनी चाहिए. इसे मौद्रिक नीति के प्रति भी निरपेक्ष होना चाहिए क्योंकि इससे विकास की संभावनाओं और मुद्रा के संचार में सुधार होता है. असल में कच्चे तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में उतार-चढ़ाव और विश्व व्यापार के विस्तार जैसी अन्य घटनाओं का भी बॉण्ड से होने वाली प्राप्तियों पर असर पड़ सकता है. वैश्विक स्तर पर निवेशक भारतीय बॉण्डों को लेकर बड़े आशान्वित हैं क्योंकि इनसे वास्तविक प्राप्ति की दर काफी ऊंची हो सकती है. अगले कुछ महीने बड़े महत्वपूर्ण रहने वाले हैं क्योंकि सरकार अपने अनुमानित वित्तीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए खर्चों पर कड़ा नियंत्रण रखेगी.
लेकिन कुछ निर्णयों जैसे ऋण माफी और ब्याज दर में रियायत की समूची सोच पर ही नये सिरे से विचार की आवश्यकता है. राज्य मुआवजा दे सकते हैं मगर जब ऋण की अदायगी न करने की संस्कृति को आधिकारिक स्वीकृति मिलने लगती है तो बैंकिंग की बुनियादी धारणा चरमरा जाती है भले ही इस तरह की स्वीकृति समाज के किसी भी वर्ग के लिए क्यों न हो. दिलचस्प बात है कि मार्च 2017 को सरकारी बैंकों की अनर्जक आस्तियों में प्राथमिकता-क्षेत्र का हिस्सा काफी ज्यादा था- करीब 30-40 प्रतिशत तक. जहां इस तरह के कर्ज के समर्थन में तर्क दिये जाते हैं, वाणिज्यिक दृष्टि से ऐसे ऋण अत्यधिक जोखिम वाले साबित होते हैं. जब विनियमन से इस तरह के कर्ज देना अनिवार्य बना दिया जाता है तो इसी तर्क के आधार पर बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए भी ऐसे ऋणों का विस्तार कर दिया जाता है जिससे जोखिम और भी बढ़ जाता है.
अगर इस पर दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो कुल मिलाकर यह एक स्वागत योग्य कदम है. भारतीय रिजर्व बैंक के आक्रामक रवैये के कारण मुद्रा स्फीति 4-5 प्रतिशत के आदर्श स्तर पर रहेगी जिससे सरकारी प्रतिभूतियां और आकर्षक हो जाएंगी. लेकिन योजना की सख्त निगरानी की आवश्यकता है ताकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की सोच में बदलाव सुनिश्चित किया जा सके और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी लगाकर उनके रीकैपिटलाइजेशन का उद्देश्य पूरा हो सके. अगर ऐसा नहीं हुआ तो सरकारी खजाने पर दबाव बढ़ सकता है और बैंकों द्वारा कर्ज पर दी जाने वाली राशि असंतुलित रूप से बढऩे से अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में नयी पूंजी लगाकर उनके पुनर्पूंजीकरण के लिए तैयार किये गये समग्र पैकेज से बैंकों से कर्ज प्राप्त करने वालों, खास तौर पर छोटे और मझौले उद्यमियों के लिए एक ऐसा ऋण चक्र प्रारंभ होने की संभावना है जिससे रुके हुए निजी निवेश में नयी चेतना का संचार होने और अल्पावधि और दीर्घावधि में रोजग़ार के अवसर उत्पन्न होने की संभावना है.  
(रंजीत मेहता पंजाब, हरियाणा, दिल्ली चैम्बर्स आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री (पीएचडीसीसीआई), नई दिल्ली के प्रधान निदेशक हैं. उनका ई-मेल पता है: ranjeetmehta@gmail.com महालक्ष्मी विश्वनाथ लोकनीति विषय की लेखिका हैं. ई-मेल पता है :mahalaxmi.vishwanath@gmail.com इस लेख में व्यक्त विचार लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं.)
चित्र: गूगल के सौजन्य से