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संपादकीय लेख


Volume-36, 2-8 December, 2017

 
विद्यार्थियों में तनाव : व्यावसायिक परामर्शदाताओं के समक्ष चुनौती

निधि प्रसाद

आज हम नये सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की ओर बढ़ रहे हैं और यह समय है कि हम इस चुनौती का सीधा सामना करें. पिछली चुनौतियों के साथ-साथ इस तरह की नयी चुनौतियां और लक्ष्य सामने आ रहे हैं.
ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन में बच्चों को लेकर जो कुछ कहा गया है वह चौंकाने वाला है. इसमें बताया गया है कि भारत में नौवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा में पढऩे वाला हर पांचवां बच्चा डिप्रेशन यानी अवसाद का शिकार है. किशोरावस्था मनुष्य के जीवन में विकास का दौर है और शारीरिक तथा मानसिक विकास के संक्रमण का समय है. आज हम तेजी से बदल रहे टेक्नोलॉजी के युग में रह रहे हैं जिसमें सबकुछ बड़ी तेजी से बदल रहा है. इस बदलाव का असर इंसानों पर भी पड़ रहा है. लोगों की महत्वाकांक्षाएं बढ़ रही हैं और वे अपने सामाजिक दर्जे के साथ-साथ खुशहाली के लिहाज से भी जीवन में अधिक स्थिरता की उम्मीद करने लगे हैं. इसके लिए प्रयास करते हुए वे ऐसी स्थितियों में फंस जाते हैं जो बेहद असुविधाजनक होती है. इसका कारण सहपाठियों या सहकर्मियों का दबाव हो सकता है या फिर परिवार और समाज की ओर से पडऩे वाला दबाव भी हो सकता है जिसका उनके समग्र विकास पर असर पड़ता है. इतना ही नहीं इस दबाव की वजह से वे अवसाद की स्थिति में पहुंच सकते हैं.
इस तरह की अवसादकारी स्थितियों के सामाजिक प्रभाव, खास तौर पर विद्यार्थी समुदाय पर इसके असर का पता लगाने के लिए हमने नौवीं से बारहवीं कक्षाओं के बच्चों का एक सर्वेक्षण किया. बड़े आश्चर्य की बात है कि डिप्रेशन यानी अवसाद सबसे बड़े सरोकारों में से एक के रूप में उभरकर सामने आया. तसल्ली की बात सिर्फ  यह रही कि सर्वेक्षण में उत्तर देने वालों में से 73 प्रतिशत का मानना था कि अवसाद के मामलों में नियमित रूप से विशेषज्ञ से परामर्श लेना स्वस्थ और सामान्य बात है. यह भी देखा गया कि बदलते समय के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव हुए हैं. चाहे विज्ञान हो या कला हर क्ष़ेत्र में परम्परागत अवसरों के साथ-साथ अनगिनत विकल्प हैं. इन विकल्पों से जहां विद्यार्थी भौंचक्के रह जाते हैं वहीं उनके माता-पिता पूरी तरह भ्रमित हो कर रह जाते हैं. अच्छेकालेज में प्रवेश के लिए अधिक अंक पाने की होड़ में विद्यार्थियों की क्षमताएं कहीं खो जाती हैं और उन्हें दिन-रात जूझना पड़ता है. उन पर लगातार दबाव डाला जाता है और अनजाने में खास तौर पर माता-पिता और जीवन में महत्व रखने वाले अन्य लोगों द्वारा दबाव का माहौल बनाया जाता है.        
इसलिए व्यावसायिक परामर्शदाता/ मनोवैज्ञानिक के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती बच्चों की योग्यता, क्षमता, कौशल और बुद्धि का मूल्यांकन करके वैश्वीकरण के युग में उभरते व्यवसायों के बारे में उन्हें जानकारी देने की ही नहीं है, बल्कि उन्हें यह बताना भी जरूरी है कि उन्हें कौन से कौशल, शिक्षा और प्रशिक्षण की जरूरत है. स्थिति इतनी चिंताजनक हो चुकी है कि आज यह महसूस किया जाने लगा है कि बच्चों की बजाय उनके माता-पिता को इस बारे में सलाह देने की अधिक जरूरत है. तभी बच्चों और उनके माता-पिता को तनाव और अवसाद से बचाया जा सकता है. दुर्भाग्य से शिक्षक भी इसका शिकार हो रहे हैं, उनपर भी इस बात का जबरदस्त दबाव रहता है कि कैसे बच्चों से बेहतर कार्यनिष्पादन लिया जाए. अनजाने में शिक्षक और माता-पिता अपना दबाव अपने विद्यार्थियों पर डाल देते हैं जिससे बच्चे और भी ज्यादा दबाव में आ जाते हैं.
सर्वेक्षण से यह बात भी सामने आयी है कि जैसे ही बच्चा नौवीं कक्षा में पहुंचता है बोर्ड की परीक्षा के भूत को उनके ऊपर छोड़ दिया जाता है और बिना यह सोचे कि बच्चे को ट्यूशन की जरूरत वास्तव में है भी या नहीं, उसे ट्यूशन पढऩे भेज दिया जाता है. जिन बच्चों को ट्यूशन की जरूरत नहीं है उन्हें भी जबरन ट्यूशन पढऩे पर मजबूर कर दिया जाता है क्योंकि माता-पिता के मन में यह धारणा बन गयी है कि एक्स्ट्रा क्लास से ज्यादा अंक आएंगे. उन्हें इस बात का अहसास तक नहीं होता कि ऐसा करके वे बच्चे का भला नहीं कर रहे हैं बल्कि उसे नुकसान पहुंचा रहे हैं.
हमारा कहने का आशय यह नहीं है कि आज के भारी प्रतिस्पर्धा के युग में बच्चे को पढ़ाई में अतिरिक्त सहायता या मार्गदर्शन नहीं मिलना चाहिए. मगर यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि क्या इस तरह की सहायता की सचमुच उन्हें जरूरत है. अगर जरूरत है तो यह पता लगाया जाना चाहिए कि यह मदद किस विषय में चाहिए और किस तरह से चाहिए.
बच्चे को ट्यूशन की जरूरत है या नहीं इसका पता लगाना बड़ी समस्या है क्योंकि इससे हम बोर्ड परीक्षा का हौवा खड़ा करने की बजाय हम उसे किसी विशेषज्ञ व्यावसायिक परामर्शदाता/मनोवैज्ञानिक के पास भेजेंगे जो उसकी योग्यता, कौशल, क्षमता, सामथ्र्य, बुद्धि और रुझान का पता लगाकर बताएगा कि वह किस विषय में और बेहतर कर सकता है. परामर्शदाता अपने अनुभव से बच्चे में आत्मविश्वास और साहस भी पैदा करेगा जिससे बच्चा खुद यह फैसला करने में सक्षम हो सकेगा कि उसने जिन्दगी में क्या करना है और कैसे करना है. इससे उसे अपने बारे में जानने का मौका मिलेगा. हमने इस बारे में खुद को जानोनाम का एक कार्यक्रम भी शुरू किया है जिससे उसे भविष्य में प्रतियोगिताओं से निपटने में मदद मिलेगी. इससे वह नौवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते सही विषयों का चयन कर सकेगा और ग्यारहवीं कक्षा में पहुंच कर जिस भी विषय में आगे बढऩा चाहता है उसमें विश्वास के साथ आगे बढ़ सकेगा.
एक आम धारणा (जो कुछ मामलों में बड़ी खतरनाक है) यह है कि बच्चों का परामर्श देना और उनका मार्गदर्शन करना बड़ा आसान है. निस्संदेह ऐसा कोई भी कर सकता है. मगर व्यावसायिक परामर्शदाता/ मनोवैज्ञानिक के पास इसके लिए सही तरह का कौशल और ज्ञान होता है जिससे वह इस कार्य को बेहतर तरीके से कर सकता है. इस तरह सही समय पर विशेषज्ञ के मार्गदर्शन से बच्चे को न सिर्फ  अवसाद और तनाव से छुटकारा मिलेगा बल्कि उसकी समझने की क्षमता भी बढ़ेगी. इससे उसके व्यक्तित्व का समग्र रूप से विकास होगा और वह प्रतिस्पर्धी विश्व की चुनौतियों का मुकाबला कर सकेगा. वक्त आ गया है जब विद्यार्थियों, माता-पिता, अध्यापकों और परामर्शदाताओं को बच्चों में अवसाद की समस्या से निपटने के लिए मिलकर कार्य करना है. यह एक आम बीमारी है मगर हमें इसे महामारी बनने से रोकना होगा.
(लेखिका सलाहकार परामर्शदाता है. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं. ई-मेल : nidhiprasadcs@gmail.com)
चित्र: गूगल के सौजन्य से