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संपादकीय लेख


Issue no 37, 09-15 Dec 2023

डॉ. योगेश गोखले दुबई में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC) का 28वां शिखर सम्मेलन कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP28) 30 नवंबर से प्रारंभ हुआ है. यह सम्मेलन 12 दिसंबर तक चलेगा. समकालीन विश्वव्यापी आर्थिक विकास की प्रक्रिया से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के कारण धरती के तापमान में 1.5 से 3 डिग्री सेल्सियस तक होने वाली बढ़ोतरी दुनिया के सामने बड़ी चुनौती है. इस पृष्ठभूमि में 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के बाद से कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए स्वप्रेरित प्रतिबद्धताओं से लेकर ग्रीन क्लाइमेट फंड और लॉस एंड डैमेड फंड जैसी प्रणालियों में वित्तीय योगदान करके और द्विपक्षीय व बहुपक्षीय चैनलों से आर्थिक मदद देते हुए इस मुद्दे से निपटने की कोशिश की जा रही है. औद्योगिकीकरण के आरंभ से आज तक ऊर्जा की बढ़ी खपत और आर्थिक उद्देश्यों से भूमि के बदलते उपयोगों से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें अत्यधिक मात्रा में जमा हो रही हैं. इसके परिणास्वरूप उत्पन्न जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने और इसके प्रभावों के अनुकूल ढलने जैसी दोहरी रणनीति अपनानी जरूरी है. ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का हिस्सा सर्वाधिक है और इसीलिए यह जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. हालांकि, पेड़ों द्वारा प्रकाश संश्लेषण जैसी प्रक्रियाओं के माध्यम से लंबी अवधि तक CO2 उत्सर्जन पर काबू पाया जा सकता है. अपनी रणनीति के हिस्से के रूप में, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) ने हरित विकास तंत्र (CDM) की पहल के जरिए कार्बन बाजार बनाया है, जो नए जंगल लगाकर और पुराने जंगलों को नया जीवन देकर CO2 में योजनाबद्ध रूप से कमी लाने को प्रोत्साहित करता है. 2001 में स्वीकार किए गए क्योटो समझौते के तहत तय की गई CDM प्रणाली प्रदूषण उत्सर्जन करने वालों को वातावरण में छोड़े गए CO2 की इकाइयों की जिम्मेदारी लेने के लिए पात्र बनाती है. इस प्रणाली को कॉर्बन क्रेडिट नाम दिया गया है. इस पहल के कारण विभिन्न देशों में वनीकरण, पुराने जंगलों के नवीकरण और कायाकल्प (ARR) सीडीएम परियोजनाएं शुरू हुई हैं. 60 वैश्विक AAR परियोजनाओं के साथ भारत और चीन सर्वाधिक योगदान कर रहे हैं. हालांकि यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है, फिर भी कार्बन सोखने वाली परियोजनाओं की वर्तमान संख्या कार्बन में कमी लाने की जरूरतों के हिसाब से कम ही है. एक दर्जन के करीब देशों में राष्ट्रस्तरीय CDM प्रोजेक्ट्स हैं तो वर्ष 2000 के बाद से 60 देशों में निजी जमीनों पर छोटे पैमाने के AAR प्रोजेक्ट्स को बढ़ावा देते हुए स्वैच्छिक कार्बन बाजार आकार ले रहे हैं. इधर, पूरे भारत में करीब 15 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि और 20 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा गैरवन कृषि क्षेत्र फैला है, जो कृषि वानिकी के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है. पौधरोपण और वनीकरण में निवेश करके पूरे देश में 35 करोड़ हेक्टेयर में कृषि वानिकी क्षेत्र तैयार करना संभव है. इससे 2 अरब टन से ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड समइकाइयों (CO2e) का योगदान किया जा सकता है. हर कार्बन क्रेडिट (1 टन CO2e) का मूल्य 6 डॉलर (लगभग 500 रुपये) पड़ता है। इस पौधरोपण के जरिये आने वाले 5-6 साल में देश के भीतर 1000 अरब रुपये की आय ली जा सकती है. यह अतिरिक्त आय खाद्य सुरक्षा से समझौता किए बगैर किसानों को कृषिवानिकी के लिए प्रोत्साहित करेगी. साथ ही, इसमें कई नई प्रजातियों के वृक्षों को भी शामिल किया जा सकता है. इसके साथ ही, स्थानीय स्तर पर लकड़ी उपलब्ध होने से घरेलू टिंबर और फर्नीचर उद्योग को मजबूती मिलेगी. इससे 396 अरब रुपये के सालाना आयात को भी बंद किया जा सकेगा. आयात शुल्क में बचत को घरेलू उद्योग के विकास में निवेश करके घरेलू स्तर पर उगाई गई लकड़ी के लिए उपयुक्त न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली भी स्थापित की जा सकती है. इससे किसानों को बाजार मूल्य के उतार-चढ़ाव से सुरक्षा भी मिलेगी. वर्ष 2007 से बाली एक्शन प्लान (BAP) शुरू किए जाने के साथ ही भूमि उपयोग और भूमि उपयोग बदलावों के संदर्भ में वनों की कटाई और उनके क्षय (REDD) के कारण हो रहे उत्सर्जन को घटाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है. इसका उद्देश्य था, प्राकृतिक वनों से कार्बन क्रेडिट उत्पन्न करना. वर्ष 2010 की कैन्कन (मेक्सिको) बैठक में REDD+ प्रस्ताव को अंगीकार किया गया ताकि जलवायु परिवर्तन कम करने के लिए वनों की भूमिका का विस्तार किया जा सके. इस विस्तार में वन कार्बन भंडार के संरक्षण, सतत वन प्रबंधन और वन कार्बन भंडार को बढ़ावा देना शामिल था. REDD+ की संकल्पना एक स्वैच्छिक और राष्ट्र प्रेरित प्रणाली के रूप में की गई थी ताकि निम्न और मध्य आय देशों (UNFCCC के नॉन एनेक्स 1 में उल्लेखित) को वन से होने वाले उत्सर्जन घटाने के बदले क्षतिपूर्ति देने के लिए उच्च आय देशों (UNFCCC के एनेक्स 1 में उल्लेखित) को प्रोत्साहित किया जा सके. UNFCCC अब REDD+ प्रोजेक्ट भी शुरू करने पर काम कर रहा है. इसी बीच स्वैच्छिक कार्बन बाजार वनों की कटाई और उनका सिकुड़ना रोकने के लिए सक्रियता से विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग करते हुए कार्बन क्रेडिट उत्पन्न करने में मदद दे रहे हैं. इसके बावजूद विभिन्न क्षेत्रीय मुद्दे, प्राथमिकताएं और पारिस्थितिकी स्थितियां इन विविध प्रणालियों के क्रियान्वयन और REDD+ परियोजनाओं के लिए प्लेटफॉर्म तैयार करने की राह में चुनौतियां पेश कर रही हैं. दक्षिण-पूर्वी एशिया में वर्षा वनों को पॉम तेल के वृक्षों या अन्य वाणिज्यिक वृक्षों के जंगलों में बदला जा रहा है तो अमेजन वन अपने अस्तित्व के संकट से दो-चार हैं. इसके बावजूद वनों की कटाई के इन कारकों से REDD+ संकल्पना के जरिये निपटा जा रहा है. ब्राजील, इक्वाडोर, चिली, पराग्वे, कोलंबिया, अर्जेंटीना, कोस्टारिका और इंडोनेशिया जैसे देश विविध वित्तीय प्रणालियों के जरिये REDD+ में पर्याप्त निवेश के गवाह बने हैं. इसके अतिरिक्त, नेपाल और भारत जैसे देशों में REDD+ परियोजनाओं की प्रयोग के तौर पर शुरुआत हुई है. भारत में REDD+ को अपनाने के संभावित लाभ व्यापक हैं. भारत में चार जैव विविधता हॉटस्पॉट पाए जाते हैं- पश्चिमी घाट, हिमालय, इंडो-बर्मा और सुंदालैंड. भारतीय जंगलों और जैव विविधता को वनों की कटाई के बजाय क्षरण का खतरा है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य औषधीय पौधों के महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता हैं. लेकिन आज पर्यावरणरोधी तरीकों से इन प्रजातियों के पेड़ों की बागवानी के कारण वन क्षरण का गंभीर खतरा पैदा हो रहा है. इस तरह के क्षरण से न केवल प्रजातियों की आबादी पर असर पड़ता है बल्कि बसाहट के बिखरने, पारिस्थितिकीजन्य सेवाओं को नुकसान होने के साथ आजीविका के स्थानीय साधन खतरे में पड़ जाते हैं. इन चुनौतियों का सामना करने वाले क्षेत्र REDD+ परियोजनाओं को विकसित करने के लिए आदर्श उदाहरण हैं, जहां उचित लक्ष्यों, उत्पादन और नतीजों के साथ लक्षित हस्तक्षेप करके वन क्षरण की रफ्तार को पलटा जा सकता है. 2021 की भारत वन स्थिति रिपोर्ट में 2007 से लेकर अब तक बेहद घने जंगल (Very Dense Forest-VDF) के लगातार घटते जाने के साथ मध्यम घने (Moderately Dense-MDF) और खुले वन क्षेत्रों में निरंतर बढ़ोतरी पर प्रकाश डाला गया है. इस वन क्षरण का मुख्य कारण 30 करोड़ से अधिक स्थानीय निवासियों की आजीविका से जुड़ी गतिविधियां हैं. वे मुख्य रूप से जलाऊ लकड़ी और चराई के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. वैसे भारत सुदृढ़ वन प्रशासन नीतियों और नियमन प्रणालियों के जरिए गैरकानूनी कटाई से निपटता है. वनों की कटाई के संदर्भ में अब भी जैव विविधता और समृद्ध पारिस्थितिकी और उनसे मिलने वाली सेवाओं का संरक्षण सर्वोच्च प्राथमिकता है. समुदाय-आधारित संरक्षण, वन्य प्राणियों के साथ सह-अस्तित्व और वन संसाधनों के उपयोग में स्व-नियमन भारतीय वन कथाओं के अभिन्न पहलू रहे हैं. 2 लाख से ज्यादा पवित्र उपवन देश के वनक्षेत्र का लगभग 2 फीसदी क्षेत्र हैं. ये आस्थावन खासतौर पर पश्चिमी घाट और हिमालयी क्षेत्र में जैव विविधता के हॉट स्पॉट हैं. स्थानीय समुदायों को प्रोत्साहित करके मानवजनित प्रभावों से बचने के लिए, इन पवित्र उपवनों की विशिष्ट पहचान को मान्यता देने और उनके प्रबंधन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है. भारत ने 2006 में 2.3 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र में संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) कार्यक्रम शुरू किया था. इसका लक्ष्य समुदायों द्वारा प्रशासित साझा वन प्रबंधन है. हालांकि, पूरे भारत में जेएफएम की लघु योजनाओं को वित्तीय सहयोग की कमी से स्थानीय निवासी निराश हुए हैं. 2006 में ही भारत ने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को वनक्षेत्रों पर उनके पारंपरिक कब्जे के अधिकारों को मान्यता देते हुए ऐतिहासिक विनियमन पेश किया था. इससे 30 करोड़ से अधिक वनवासियों को लाभ हुआ. 10 लाख हेक्टेयर से अधिक सामुदायिक वन रिजर्व (CFR) क्षेत्रों को स्वीकार किया गया है, जिसमें 3 करोड़ हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र शामिल है. इस इलाके का सामुदायिक वन संसाधन (CFR) के रूप में प्रबंधन किया जा सकता है. ग्राम सभाओं से अपेक्षा की गई है कि वे अपने लिए पारंपरिक रूप से आजीविका के लिए आवश्यक सीएफआर क्षेत्रों के लिए प्रबंधन योजनाएं विकसित करें. सामुदायिक वन संरक्षण की मौजूदा संस्थागत प्रणालियां REDD+ परियोजनाओं के विकास के लिए आदर्श खाका पेश करती हैं. कार्बन वित्त प्रणाली समुदाय आधारित वन संरक्षण का अधिकतम क्षमताओं के उपयोग का रास्ता साफ करने के लिए उसके सामने पेश वित्तीय अभाव के मुद्दे को सुलझाने में अहम भूमिका अदा कर सकती है. भारत के प्राकृतिक वन एक आदर्श कामकाजी परिदृश्य (BAU) में औसतन सालाना 0.8 टन प्रति हेक्टेयर तीन टन CO2e को सोख सकते हैं. वन क्षरण के कारकों से निपटते हुए अधिकाधिक कार्बन संग्रहण और वन क्षरण पर काम करके कार्बन क्रेडिट अर्जित करना संभव है. पवित्र उपवनों (10 लाख हेक्टेयर), साझा वन प्रबंधन (JFM) क्षेत्रों (2.3 करोड़ हेक्टेयर) और सामुदायिक वन अधिकार (CFR) इलाकों (1.1 करोड़ हेक्टेयर) जैसे उदाहरणों में ध्यान में रखते हुए भारत के पास हर साल 10.5 करोड़ टन CO2e सोखने के लिए 3.5 करोड़ हेक्टेयर प्राकृतिक जंगल मौजूद हैं. पांच साल के अंतराल में कार्बन क्रेडिट व्यापार (carbon credit trading) के जरिये समुदाय आधारित संरक्षण से कार्बन क्रेडिट के रूप में 40 अरब रुपये अर्जित किए जा सकते हैं. इसे सारे भारत में आजीविका के वैकल्पिक साधनों के विकास के साथ संरक्षण और पारिस्थितिकी सेवा के विस्तार में निवेश किया जा सकता है. आज जबकि भारत अपनी राष्ट्रीय REDD+ रणनीति पेश कर चुका है, हमें अब भी सुदृढ़, सामाजिक निगरानी सहित पर्यावरण सुरक्षा प्रणाली का विकास करना बाकी है. भारत को अब भी अपनी और अन्य देशों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले आंचलिक प्रोजेक्ट विकसित करने के लिए REDD+ की व्यापक तस्वीर पेश करने की जरूरत है. ऐसे में कृषिवानिकी खेती पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर 70 फीसदी से ज्यादा किसानों को अतिरिक्त आजीविका उपलब्ध करा सकती है. नए वृक्षारोपण से उत्पन्न लकड़ी की कीमतों, लकड़ी केंद्रित उद्योगों के विकास और कार्बन क्रेडिट अर्जित करके ये नवीन आजीविकाएं उत्पन्न की जा सकती हैं. स्थानीय समुदायों के सहयोग से REDD+ परियोजनाओं पर अमल करके 30 करोड़ से ज्यादा वनवासियों के लिए वैकल्पिक आजीविकाएं उत्पन्न की जा सकती हैं. यह दृष्टिकोण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रस्तुत भारतीय जीवनशैली के माध्यम से 'मिशन लाइफ' दृष्टिकोण की भावना के अनुसार भारतीय वन संसाधनों को अतिरिक्त CO2 सोखने के लिए भरोसेमंद वैश्विक संपत्ति की भूमिका में रखता है. (लेखक द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (TERI) में सीनियर फेलो हैं. इस लेख पर प्रतिक्रियाएं feedback.employmentnews@gmail.com पर भेजी जा सकती हैं.) व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं. इनसेट ------- पीएम मोदी ने किया Green Credit Initiative की पहल के साथ COP33 की मेजबानी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुबई में COP28 के अपने उद्घाटन भाषण में हरित क्रेडिट पहल (the Green Credit Initiative) का एलान किया. यह दूरदर्शी संकल्पना सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए कार्बन शोषक प्रणाली तैयार करके जनता को पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय रूप से योगदान के लिए साथ लाती है. यह घोषणा जलवायु संबंधी मुद्दों के सतत और समुदायों से प्रेरित निराकरण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है. इसके अतिरिक्त पीएम मोदी ने 2028 में भारत में COP33 की मेजबानी का प्रस्ताव करके वैश्विक जलवायु संवाद और पर्यावरण क्षेत्र का नेतृत्व करने में भारत की ओर से अहम भूमिका निभाने का संकल्प भी जताया. प्रधानमंत्री ने इन मुद्दों पर जोर दिया... - दुनिया की 17 फीसदी आबादी होने के बावजूद वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत का हिस्सा 4 फीसदी से भी कम है. - भारत ने उत्सर्जन सघनता लक्ष्य तय समयसीमा से 11 साल पहले ही हासिल कर लिए हैं. - देश पेरिस समझौते में लिए गए संकल्प के अनुपालन में निर्धारित राष्ट्रीय योगदान लक्ष्य हासिल करने की राह पर है. - भारत गैर जीवाश्म ईंधन का हिस्सा बढ़ाकर 50 फीसदी करते हुए 2030 तक उत्सर्जन 45 फीसदी तक घटाने की दिशा में काम कर रहा है. - दुनिया के कल्याण के उद्देश्य से भारत हर व्यक्ति के हितों की सुरक्षा करते हुए समुदाययों को शामिल करते हुए साझा प्रयासों पर जोर दे रहा है.