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संपादकीय लेख


Volume-30, 21-27 October, 2017

बच्चों की परवरिश की चुनौती से अपनी तरह से निपटें

कर्नल (डॉ.) पी.के. वैद्य

हर व्यक्ति के जीवन के बाद के वर्षों में एक ऐसा दौर आता है जब वह अपने बच्चों के आधार पर अपनी सफलता का आकलन करता है. अगर बच्चे अपने उन लक्ष्यों को प्राप्त कर लेते हैं जो वे हासिल करना चाहते थे तो व्यक्ति अपने आप को सफल समझता है. अपने अच्छे कार्य से उपलब्धियों की सीढ़ी के आखिरी पायदान तक पहुंचने में व्यक्ति को चाहे जितना सुख मिला हो, लेकिन जो आनंद अनुशासित, उत्तरदायी, लगनशील और प्यारे बच्चे होने से होता है उससे बढक़र कोई और सुख नहीं हो सकता क्योंकि ये सब अच्छे इन्सान की खूबियां हैं.
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चों के व्यक्तित्व के निर्माण में माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. किसी ने सही कहा है, ‘‘जटिल स्वभाव वाले बच्चे नहीं होते, वरन माता-पिता होते हैं.’’ यह बात उन माता-पिता पर खास तौर पर लागू होती है जो समझते हैं कि उनकी जिम्मेदारी बच्चों को खिलाने-पिलाने, उन्हें कपड़ा-लत्ता मुहैया कराने, स्कूल में उनका एडमिशन कराने और उन्हें कोचिंग क्लास में भेज देने भर से पूरी हो जाती है. आज के जमाने में माता-पिता पर काम का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया है, खास तौर पर अगर माता और पिता में से दोनों ही नौकरीपेशा हों तो यह इस कदर बढ़ जाता है कि उन्हें अपने बच्चों से बातचीत करने तथा कुछ क्षण उनके साथ बिताने तक का मौका नहीं मिल पाता. बहुत से बच्चे तो पूरी तरह नौकर-नौकरानियों और देखभाल करने वालों के भरोसे ही पलते-बढ़ते हैं. जरूरत इस बात की है कि माता-पिता अपने व्यस्त जीवन में कुछ क्षण बच्चों के साथ बातचीत के लिए निकालें. अगर रोजाना नहीं तो कम से कम 3-4 दिन में उन्हें ऐसा करना ही चाहिए. माता-पिता के लिए यह बात समझना बहुत जरूरी है कि इसका असर बच्चों के समग्र विकास पर पड़ता है.
बच्चे अपने माता-पिता की हर गतिविधि को बड़े गौर से देखते हैं और चुपचाप उनका ही अनुकरण करते हैं. इसलिए माता-पिता को बच्चों के साथ बेहद सतर्क रहना चाहिए. उन्हें अपने लिए निश्चित नियम और दिशानिर्देश बना लेने चाहिएं और दैनिक दिनचर्या में इनका पालन करना चाहिए. इसका कारण यह है कि जो कुछ भी माता-पिता बच्चों की मौजूदगी में करते हैं, वह बच्चों की स्मृति में आने वाले कई वर्षों के लिए अंकित हो जाता है.
युवा माता-पिता में कभी-कभी तकरार हो जाती है और वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारू हो जाते हैं. वे एक दूसरे को ताने मारते हैं और उनके मन में अहंकार इतना हावी हो जाता है कि वे चेहरे पर बिना किसी मुस्कुराहट के मौन रहते हैं. बच्चों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ता है.
घर के तनावपूर्ण/उबाऊ/नीरस वातावरण का  प्रतिकूल असर बच्चों में घुटन महसूस करने के रूप में सामने आता है. माता-पिता के आचरण और व्यवहार का बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास और व्यवहार पर गहरा असर पड़ता है. शैशवावस्था में बच्चों और माता-पिता के बीच बातचीत और व्यवहार से बच्चों में सामाजिक मूल्यों की बुनियाद पड़ती है. घर में बच्चा जो महसूस करता है उसी से इस बात का निर्धारण होगा कि वह आत्मनिर्भर, मुखर, प्रतियोगी, विनम्र, स्नेहिल, हिम्मती और उदार होगा या फिर दूसरों पर आश्रित रहने वाला, आक्रामक, दब्बू और दबाव व विपरीत स्थितियों में घबरा जाने वाला बन जाएगा.
   इसलिए माता-पिता को घर में हंसी-खुशी वाला, मधुर और अनुकूल माहौल बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए. मैं इस बात का आश्वासन दे सकता हूं कि अगर माता-पिता ऐसा माहौल बना पाते हैं तो बच्चों की परवरिश का आधा काम संपन्न हो गया. निम्नलिखित गतिविधियों/सुझावों से माता-पिता को अनुकूल माहौल बनाने में मदद मिलेगी.
बच्चों की भोजन, कपड़े, आराम और मनोरंजन की बुनियादी जरूरतें पूरी की जानी चाहिएं. पूरी नींद न ले पाने से बच्चा चिड़चिड़ा हो सकता है. नींद की कमी से बच्चों को ध्यान केन्द्रित करने में मुश्किल आ सकती है जिससे उनकी पढ़ाई पर असर पड़ सकता है. इसलिए घर में हंसी-खुशी और तालमेल का वातावरण और माता-पिता व बच्चों के बीच स्नेहमय संबंध रहने चाहिएं. देखा गया है कि सुखी परिवार के बच्चे दूसरों के साथ बड़ी आसानी से एडजस्ट हो जाते हैं. ऐसे बच्चे अधिक सामाजिक और बहिर्मुखी भी होते हैं. सुखी बच्चे ज्यादा जोशीले होते हैं और उनमें बेहतर प्रदर्शन करने की भावना होती है.
माता-पिता को अपने बच्चों के प्रति पूरी तरह से निष्पक्ष और न्यायपूर्ण रहना चाहिए. बच्चों को आजादी देने, उन पर पाबंदी लगाने और उन्हें विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध कराने में उम्र या लिंग संबंधी भेदभाव नहीं करना चाहिए. बच्चों के लिए अलग-अलग नियम नहीं होने चाहिएं.
सशस्त्र सेनाओं में एक कहावत प्रचलित है जिसके अनुसार टोह लेने में जो समय लगाया जाता है वह कभी बर्बाद नहीं जाता. इसी तरह बच्चों के साथ बिताया गया वक्त भी कभी जाया नहीं होता, इससे आपको फायदा जरूर मिलेगा. जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ खेल रहे होते हैं तो बच्चों को यह अहसास होता है कि माता-पिता उनसे प्यार करते हैं और वे उनके लिए अहमियत रखते हैं. बच्चों के लालन-पालन में सफलता का यह एक महत्वपूर्ण पहलू है जिससे अच्छे स्वास्थ्य के साथ-साथ स्वस्थ मानसिक दृष्टिकोण का भी विकास होता है. किसी ने सही कहा है कि आपके बच्चों को आपके माता-पिता की बजाय आपके साथ की अधिक आवश्यकता है. माता-पिता के सहारे की जरूरत की अहमियत फुटबॉल के स्टार खिलाड़ी रोनाल्डो की उस टिप्पणी से लगाया जा सकता है जो उन्होंने हाल में खेल-कूद की एक वैबसाइट को दी. इसमें उन्होंने कहा था कि उनके लिए वह दिन सबसे बड़ा दिन था जब उनकी मां और बहिन, जो पहले फुटबॉल में दिलचस्पी नहीं लेती थीं, स्कूल में उनका मैच देखने पहुंचीं’. माता-पिता का सहयोग बच्चों के लिए अनमोल है. बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधु की मां अच्छी खासी तनख्वाह वाली अपनी नौकरी छोडक़र बेटी का हौसला बढ़ाने को आगे आयीं.
बच्चा जब भी तारीफ के लायक कोई काम करे, उसकी तारीफ की ही जानी चाहिए. हमें अपने बच्चे के मन में उसके भले होने का अहसास जगाना चाहिए, तभी वह जीवन में अच्छा प्रदर्शन कर सकेंगे. बच्चे के कंधे पर माता-पिता का शाबाशी का हल्का सा हाथ बेहतर कर दिखाने के उसके हौसले और भरोसे को कई गुना बढ़ा सकता है. उसे लगता है कि उसके माता-पिता उस पर भरोसा करते हैं. बार-बार प्रशंसा तो उत्प्रेरक का काम करती है जिससे उसका मन और ऊंचे संकल्प लेने को उद्यत होता है तथा उसके शरीर में नयी ऊंचाइयां छूने के लिए नया जोश जागता है.    
यह जरूरी नहीं कि बच्चों की गतिविधियों पर चौबीसों घंटे और सातों दिन लगातार निगरानी रखी जाए, जरूरत इस बात की है कि बच्चों और माता-पिता के बीच भरोसा हो. बच्चों को लगना चाहिए कि उनके माता-पिता हमेशा उनके साथ हैं और जरूरत पड़ी तो उनका हाथ थाम लेंगे. अगर इस तरह का विश्वास हो जाए तभी बच्चे अपनी समस्याएं लेकर उन पर चर्चा/समाधान के लिए माता-पिता के पास पहुंचेंगे.
पिटाई करना, झापड़ मारना और चिल्लाना: यह देखा गया है कि माता-पिता में से दोनों ही या कोई एक कभी कभी अपनी बात मनवाने के लिए बच्चे की पिटाई, उसे झापड़ मारने और उस पर चिल्लाने जैसे तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. माता-पिता सही और गलत के बीच अंतर समझाने के शॉर्ट कटनुस्खे   के रूप में इस तरीके को अपनाते हैं. लेकिन जब बच्चे की पिटाई होती है तो उसका मस्तिष्क और उसका वह हिस्सा जो सीखने व समझने की प्रक्रियाओं पर नियंत्रण करता है तत्काल चेतावनी वाले मोडमें चला जाता है. बच्चे का मस्तिष्क खतरे को भांपकर उसी के अनुसार प्रतिक्रिया करता है. बच्चे के लिए छोटा होने की वजह से ताकतवर के आगे असहाय होने की स्थिति होती है. इस हालत में बच्चे के मस्तिष्क का तर्क और निर्णय करने वाला हिस्सा काम करना बंद कर देता है. इसलिए पिटाई के दौरान और उसके बाद बच्चे का व्यवहार विचारशील व्यवहार नहीं होता, बल्कि यह डर की प्रतिक्रिया की वजह से प्रतिक्रियाशील व्यवहार होता है. इसका सही और गलत की समझ से कोई लेना-देना नहीं होता. असल में इससे बच्चे के मन में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि जो व्यक्ति उसे इतना प्यार करता है क्यों उसकी पिटाई कर रहा है?   
अगर बच्चे की पिटाई लगातार होती है तो बच्चे और माता-पिता के बीच डर और नाराजगी का एक व्यवधान उत्पन्न हो जाता है और उसका व्यवहार और भी अधिक प्रतिक्रियाशील हो जाता है जिससे एक ऐसा दुश्चक्र उत्पन्न होता है जिसमें भयभीत बच्चा या तो आक्रामक हो जाता है या फिर एकदम चुप रहने लगता है. हालांकि बहुत से माता-पिता महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता ने भी उनकी पिटाई की थी और इसमें कुछ भी खराब/चिंताजनक बात नहीं है, इसलिए पिटाई के खिलाफ जो बातें कही जा रही है वे सब बकवास हैं. लेकिन कई देशों में हुए विस्तृत अनुसंधान और अध्ययनों से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी है कि बच्चों पर पिटाई का बुरा असर पड़ता ही है. एक अध्ययन में तो यह निष्कर्ष निकाला गया है कि बच्चों की जितनी पिटाई होती है उतनी ही संभावना उनके द्वारा दूसरों से उसी तरह का व्यवहार करने की होती है. यानी वे अपने सहपाठियों, भाई-बहनों और बड़ा होने पर अपने जीवन साथी के साथ भी उसी तरह से मारपीट कर सकते हैं. मैं समझता हूं यह बात बजाय करने के कहना कहीं अधिक आसान है, लेकिन बच्चों के व्यापक हित में माता-पिता को बच्चों की परवरिश करते समय इस खामी का ध्यान रखना चाहिए.
कुछ उपयोगी सुझाव:
माता-पिता में कुछ अच्छे गुण होने चाहिएं जिन्हें उनके बच्चे देखकर सीख सकें. माता-पिता के नाते कुछ अनिवार्य जीवन मूल्य जो हम अपने बच्चों में देखना चाहेंगे नीचे दिये गये हैं. ये प्राथमिकता के क्रम में नहीं हैं और इन्हें एक दिन में उत्पन्न नहीं किया जा सकता. इनमें से कुछ के विकास में तो समूचा जीवन ही लग सकता है:
*अगर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों में विनम्रता हो, तो उन्हें खुद भी बच्चों के प्रति विनम्र होना चाहिए ताकि बच्चे अपने संपर्क में आने वालों के साथ उसी तरह का व्यवहार करना सीख सकें.
*आजकल बच्चे किताबें पढऩा पसंद नहीं करते, उन्हें टेलीविजन देखना ज्यादा पसंद है. अगर माता-पिता पुस्तकें पढऩे में अपनी रुचि फिर से जगा सकें तो बच्चों पर इसका अवश्य असर पड़ेगा.
*अगर बच्चों में किताबें पढऩे की आदत डलवानी है तो उन्हें खुद भी जमकर पढऩा चाहिए.
*बच्चों से बातचीत करते समय माता-पिता को ऐसी भाषा का उपयोग करना चाहिए जिसमें ईमानदारी और सम्मान झलकता हो. बच्चा माता-पिता के साथ तब और अधिक सहयोग करेगा जब वे उससे धमकी वाले अंदाज में नही बल्कि शांतिपूर्वक बातचीत करें. माता-पिता को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि बच्चों के साथ उसी लहजे में बातचीत करनी चाहिए जिस लहजे में हम दूसरों से अपने साथ बात करने की उम्मीद करते हैं.   
*माता-पिता को घर में ऐसा माहौल बनाना चाहिए जिसमें परिवार में जो कुछ उनके पास है उसके लिए कृतज्ञ महसूस करे और जो नहीं है उसकी परवाह न करे. कृतज्ञता का यह ज्ञापन दिनचर्या का एक हिस्सा होना चाहिए. माता-पिता को बच्चों को रोजमर्रा के सामान्य कामकाज के लिए भी धन्यवादकहने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए भले ही ऐसे कार्य कितने ही महत्वहीन क्यों न हों. जब बच्चे एक दिन में कई बार धन्यवादकहते हैं तो उनके लिए आभार व्यक्त करना बड़ा आसान हो जाता है.
*माता-पिता के रूप में हमें अपने व्यवहार में बड़ी एहतियात बरतनी चाहिए ताकि घर में ईमानदारी का माहौल बने और बच्चे घर से बाहर होने वाली बेईमानी से सोच-समझकर बचें. माता-पिता को बार-बार ऐसे अवसरों की तलाश करनी चाहिए जिसमें वे ईमानदारी और बेईमानी को लेकर बच्चों से चर्चा कर सकें. उदाहरण के लिए माता-पिता स्कूल की पीटीएम (माता-पिता अध्यापक बैठक) में अपने बच्चे को बचाने की कोशिश में कोई बहाना बनाकर उसे बेईमानी सिखा रहे हैं.
*बच्चों को अपने माता-पिता में वह दृढ़ निश्चय दिखना चाहिए जिससे वे प्रेरणा ग्रहण कर सकें. जब कभी कोई बच्चा फिसलता है तो माता-पिता को मदद के लिए आगे आकर उसका हाथ थाम लेना चाहिए ताकि वह फिर से खड़ा हो सके. बच्चों के साथ यह चर्चा की जानी चाहिए कि जिंदगी कामयाबियों और नाकामयाबियों का खेल है और जीवन में सफलता हासिल करने के लिए गिरने के बाद इंसान के पास फिर से उठ खड़ा होने का संकल्प होना चाहिए.     
*माता-पिता को बच्चे को अपने साथ बातचीत के लिए प्रेरित करना चाहिए. उसे मुखर बनने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए. उसे सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उसकी जिज्ञासाओं का समाधान मजाकिया अंदाज में गंभीरता से देना चाहिए. बच्चे को अपने माता-पिता के साथ किसी भी मुद्दे पर बातचीत की खुली छूट होनी चाहिए ताकि उसे इसके लिए किसी और के पास जाने की आवश्यकता न पड़े. किशोरावस्था में बच्चों को माता-पिता के फैसलों पर प्रश्न करना शुरू कर देना चाहिए और उनके सवालों का माता-पिता को सकारात्मक तरीके से जवाब देना चाहिए क्योंकि यह बच्चों में सोचने और तक्र करने की क्षमता के विकास का लक्षण है.
*अपने बच्चे को गलती करने का मौका भी देना चाहिए अन्यथा वह कभी जोखिम नहीं उठाएगा जोकि प्रतिभा की पहचान के लिए जरूरी है.
वर्जनाओं से मुक्ति:
*कुछ ऐसी वर्जनाएं होती हैं जिनका बच्चे के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इस तरह की कुछ वर्जनाएं इस प्रकार हैं:
*माता-पिता को अपने बच्चों से सर्वगुणसंपन्न होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. उनके लिए वास्तविक और युक्तिसंगत लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिएं वरना बच्चों को जिन्दगी में निराशा और अप्रसन्नता का सामना करना पड़ेगा. कोई बच्चा जिसका हौसला पस्त हो चुका है, कभी खुश नहीं हो सकता और न ही वह पढ़ाई या किसी अन्य कार्य में अच्छा प्रदर्शन ही कर सकता है. ऐसे में बच्चे का विकास अवरुद्ध हो सकता है. 
*माता-पिता को साथियों, रिश्तेदारों और बुजुर्गों आदि के साथ नकारात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिए. बच्चे इस तरह के नकारात्मक दृष्टिकोण, भावनाओं, हाव-भाव  आदि को बड़ी आसानी से भांप जाते हैं. देर-सबेर माता-पिता को भी अपने बच्चों की तरफ से इसी तरह के व्यवहार को झेलना पड़ सकता है.
*बच्चों को उनके साथियों के सामने कभी अपमानित नहीं किया जाना चाहिए. बच्चों को कुछ भी भला-बुरा कहने से पहले समय और स्थान का पूरा ध्यान रखना चाहिए. ऐसी नौबत आने पर बेहतर यही होगा कि उसके साथ एकांत में बात की जाए. माता-पिता को बच्चों पर कटाक्ष करने या ताने मारने से बचना चाहिए क्योंकि इससे उसका हौसला कम होता है और उनके आत्मसम्मान में कमी आती है.
*दो बच्चों के बीच कभी तुलना नहीं की जानी चाहिए क्योंकि हर बच्चा जीव वैज्ञानिक और आनुवंशिक दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न हो सकता है. इसके अलावा उनमें शारीरिक, बौद्धिक तथा व्यवहार और व्यक्तित्व के विकास संबंधी विभिन्नताएं हो सकती हैं. आप अपने बच्चे को उसके पिछले कार्यनिष्पादन से तुलना करके अंतर को स्पष्ट करने में मदद कर सकते हैं.
*कभी-कभी देखा गया है कि बच्चे के व्यवहार और आचरण के बारे में माता और पिता का आकलन अलग-अलग हो सकता है. लेकिन उन्हें इस अंतर के बारे में बच्चे के सामने चर्चा नहीं करनी चाहिए बल्कि उन्हें एक-दूसरे के दृष्टिकोण का समर्थन करना चाहिए. उन्हें बच्चे के बारे में अलग से चर्चा करनी चाहिए और संयुक्त फैसले और साझा राय कायम करते हुए समस्या का समाधान करना चाहिए. ज्यादातर स्थितियों में माता-पिता बच्चे से संबंधित किसी मसले पर साझा राय कायम कर सकते हैं और कोई ऐसा बीच का रास्ता निकाल सकते हैं जो बच्चे को स्वीकार्य है.
माता-पिता को यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं. उनकी आंखें चीजों को बड़े ध्यान से देखती हैं, कान एकाग्र होकर सुनते हैं और उनका मस्तिष्क परिवेश से मिलने वाली जानकारियों का गौर से विधायन करता है. बचपन में प्राप्त अनुभव बच्चों पर जीवन पर्यन्त प्रभाव छोड़ते हैं. माता-पिता के नाते हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि हमने अपने बच्चों को जो सिखाया उसे वे हमेशा के लिए भले ही याद न रखें, वे यह अवश्य याद रखेंगे कि हम कैसे थे. इसलिए माता-पिता को अपने बच्चों के व्यापक हित में काम के भारी बोझ वाली अपनी व्यस्त दिनचर्या और माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारियों के बीच संतुलन कायम करते हुए अपने बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारियों से निपटने का रास्ता अपनी तरह से निकालना चाहिए.         
(लेखक अभिप्रमाणित प्रशिक्षक हैं.) इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं.
चित्र: गूगल के सौजन्य से