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संपादकीय लेख


Vol.27, 2017

कौशल विकास और गांधीवादी सरोकार

पंकज चौबे

युवाओं के लिए कौशल विकास वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है.
      कौशल विकास के लिए आवश्यक है कि हमारी शिक्षा पद्धति उसके अनुरूप हो. वर्तमान शिक्षा पद्धति का जोर सिर्फ अक्षर ज्ञान तक सिमट कर रह गया है. आज यह पड़ताल करने की जरूरत है कि वह कौन-सी शिक्षा पद्धति अपनाई जाए जो युवाओं को अक्षर ज्ञान के साथ-साथ हाथों को हुनरमंद बनाए.
आज भारत में शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक बदलाव आने लगा है. आजादी के बाद से अब तक वह व्यवस्था नहीं बन पाई है जिससे विद्यार्थी पढ़ाई के साथ-साथ हुनर भी सीख सकें. दरअसल हमारी शिक्षा व्यवस्था ने ऐसे विद्यार्थियों को पढ़ाया और आगे बढ़ाया जो सिर्फ अक्षरज्ञान के लिए हुए थे. महात्मा गंाधी के विचारों के अनुरूप उनकी शिक्षा नहीं हुई. तात्पर्य यह है कि समाज में ऐसे युवाओं की संख्या बढ़ी है जो डिग्री तो धारण करते हैं परंतु व्यवस्था के अनुरूप उनकी शिक्षा नहीं हो पायी. आज देश में ऐसीे शिक्षा की जरूरत है जिसमें श्रम और बु़िद्ध का समन्वय हो. सिर्फ अक्षर ज्ञान पर आधारित युवा समाज और आर्थिक व्यवस्था को संबल नहीं दे सकते हैं.
शिक्षा की आवश्यकता सिर्फ अक्षर ज्ञान आधारित डिग्री हासिल करना नहीं है बल्कि रोज़गार परक होना है. बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ उनके हाथों को हुनरमंद बनाना जरूरी है. अक्षर ज्ञान मुनष्य को एक समझ देता है वहीं हुनर का ज्ञान मनुष्य को सफल और सार्थक जीवन देता है जो अपने पैरों पर खड़े होकर, समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकेंगे. गांधी इस तरह की शिक्षा पद्धति के सबसे बड़े पैरोकार थे. उन्होंने बुनियादी शिक्षा की अवधारणा विकसित की थी. गांधी दक्षिण अफ्रीका से ही इस पद्धति को आजमाने लगे थे. भारत आकर उन्होंने आश्रम को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास किये. जब व्यक्ति के हाथों में कौशल हो तभी आत्मनिर्भरता आती है इस दिशा में गांधी ने खादी को अनिवार्य किया. अपने आश्रमों में उन्होंने कई कड़े नियम लगाये कि प्रत्येक व्यक्ति चरखा चलायेगा और अपने हाथ कते सूत से बने कपड़े को ही धारण करेगा. शुरूआत में लोगों ने इसे काफी अनमने ढंग से लिया. धीरे-धीरे आश्रमवासी इसका महत्व समझने लगे थे. उन्होंने अपनी स्वेच्छा से खादी धारण करना स्वीकार कर लिया. दरअसल खादी का अपना एक अर्थशास्त्र है. स्वावलंबन और स्वदेशी की मजबूत भावना इसके साथ जुड़ी हुई है. बाद के दिनों में खादी और चरखा आजादी का प्रतीक बन गया. गंाधीजी कहते हैं- ‘‘मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूं, उतनी ही बार भारत के गरीबों का विचार करता हूं.’’ गंाधी ने खादी और चरखे के साथ अंतिम जन को जोड़ा. गांधी इसके आर्थिक पहलू से भी वाकिफ  थे. गंाधीजी कहते हैं- मेरा पक्का विश्वास है कि हाथ-कताई और हाथ-बुनाई के पुनरूजीवन से भारत के आर्थिक और नैतिक पुनरुद्धार में सबसे बड़ी मदद मिलेगी. ‘‘चरखे और खादी का मुकाबला उस समय अंग्रेजी सरकार के साथ था. आजादी की लड़ाई में खादी के प्रति लोगों की भावना ऐसी जुड़ी कि वह आजादी का पोषाक बन गया.
वर्ष १९३७ में जब वर्धा में अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलनआयोजित हुआ. इस सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गंाधी ने की. इस सम्मेलन में भाग लेने वाले महानुभावों में थे- विनोबा भावे, काका कालेकर तथा जाकिर हुसैन जैसे विद्वान और शिक्षाशास्त्री. इस सम्मेलन के उपरांत एक प्रस्ताव पास किया गया. इस प्रस्ताव में मोटा-मोटी तीन बिन्दुओं पर अधिक जोर दिया गया-बच्चों को 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी, नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाए, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो, सबसे महत्वपूर्ण बात थी-इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केन्द्रित हो. अन्य सभी योग्यताओं विकास, जहां तक संभव हो, बच्चों के पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बालक द्वारा चुनी हुई हस्तकला से संबंधित हो. महात्मा गंाधी इस शिक्षा पद्धति को सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ समाज के नव निर्माण का सबसे प्रमुख आधार मानते थे. नयी तालीम का विचार न सिर्फ भारत के संदर्भ में प्रासंगिक रहा बल्कि दुनिया को भाईचारे शांति और मानव समाज के कल्याण के लिए आवश्यक रहा. गांधी की शिक्षा पद्धति में आध्यात्मिकता, नैतिकता, सत्यनिष्ठा का समावेश था. गांधीजी बच्चों को स्वावलम्बी बनाने के साथ-साथ, एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे कि बेसिक स्कूल भी इस सीमा तक स्वावलम्बी हो जाएं कि अध्यापकों का वेतन, विद्यालयों में बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचकर दिया जा सके. एक ऐसी व्यवस्था बने जिसमें सभी स्तर पर स्वावलम्बन हो.
दुनिया के सामने गांधीजी के बताये रास्ते पर चलने के सिवाय कोई और मार्ग नहीं. वजह साफ है कि पिछले लगभग सौ वर्षों में पूरी दुनिया के साथ-साथ हमने विकास का जो प्रारूप अपनाया है उसने दुनिया के सामने एक संकट उत्पन्न किया है. यह संकट है बेरोज़गारी का. आबादी बढ़ती जा रही है और बेरोज़गारी का स्तर भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है. जिस पूंजीवादी व्यवस्था को हमने अपनाया, इस व्यवस्था में सभी के लिए रोज़गार सृजन की क्षमता नहीं थी. दरअसल शिक्षित युवाओं को काम नहीं मिल पा रहा है. इसकी वजह तलाशने पर समझ आता है कि अक्षर ज्ञान में तो हमारे युवा शिक्षित हैं पर हाथों में हुनर का ज्ञान नहीं. ऐसे में हमारे युवा सिर्फ डिग्रीधारी बनकर रह गये हैं. गांधीजी कहते हैं-‘‘उद्योग, हुनर, तन्दुरूस्ती और शिक्षा इन चारों का सुंदर समन्वय करना चाहिए. नई तालीम में उद्योग और शिक्षा, तन्दुरूस्ती और हुनर का सुन्दर समन्वय है. इन सबके मेल से मां के पेट मे आने के समय से लेकर बुढ़ापे तक का एक खूबसूरत फूल तैयार होता है. यही नई तालीम है. इसलिए मैं शुरू में ग्राम-रचना के टुकड़े नहीं करूंगा, बल्कि यह कोशिश करूंगा कि इन चारों का आपस में मेल बैठे. इसलिए मैं किसी उद्योग और शिक्षा को अलग नहीं मानूंगा, बल्कि उद्योग को शिक्षा का जरिया मानंूगा और इसीलिए ऐसी योजना में नई तालीम को शामिल करूंगा.’’
भारत में पिछले कुछ वर्षों से हमने यह समझ लिया कि जिस शिक्षा पद्धति के आधार पर हम आगे बढऩे का दंभ भर रहे हैं वह लम्बे समय तक हमारी अर्थव्यवस्था को स्पोर्ट नहीं कर सकती. इस पद्धति ने एकांकी पद्धति को बढ़ावा दिया जबकि जरूरत थी गांधीजी के मॉडल को अपनाने की. अब धीरे-धीरे हम उस मार्ग की तरफ  बढऩे लगे हैं. हाथ को काम नहीं मिलने पर युवाओं में भटकाव की संभावना बढ़ती जाती है, जो एक अराजक समाज का निर्माण करेंगे. आज भारत में 35 वर्ष से कम आयु के 65 प्रतिशत के लगभग युवाओं की संख्या है. अगर हम इनमें कौशल विकास की बात करें तो इसका प्रतिशत 2 है. यह आंकड़ा बहुत ही निराशाजनक है. इसका तात्पर्य है इतने कम प्रतिशत कौशल के बल पर हम रोज़गार कैसे दें सकते हैं. अकुशल युवाओं की फौज बनती जा रही है. इसको देखते हुए पिछले वर्षों में सरकार ने कौशल विकास का प्रयास तेज कर दिया है. युवाओं के कौशल विकास में अंतर्राष्ट्रीय मानकों को भी ध्यान में रखकर, इस दिशा में काम किया जा रहा है. इस काम में हमारी मदद आस्ट्रेलिया और सिंगापुर कर रहे हैं. हम उनकी सहायता से अपने युवाओं को अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुरूप, उनका कौशल विकसित कर रहे हैं ताकि वे न सिर्फ भारत में ही रोज़गार प्राप्त कर सकेंगे या स्वावलंबी बन सकेंगे बल्कि दुनिया के किसी भी देश में रोज़गार प्राप्त कर लेंगे. इससे भारत आर्थिक रूप से मजबूत बनेगा. आज विकसित देशों में कुशल कारीगरों की संख्या घटती जा रही है. यह हमारे लिए एक अवसर है कि हम अपने युवाओं को गांधीजी के बताये रास्ते के अनुसार वर्तमान संदर्भ में उनको प्रशिक्षित करें. इस दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं. हमारे माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने कहा कि ‘‘रोज़गार से जुड़ी योजनाओं में ट्रेनिंग के तरीके मे 21वीं सदी की आवश्यकताओं के अनुसार मानव संसाधन के विकास के लिए भारत सरकार ने उनके लिए नई योजनाएं हाथ में ली हैं.’’ राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन के तहत देश में दक्ष एवं कुशल श्रमशक्ति की कमी को देखते हुए प्रधानमंत्री ने 15 जुलाई, 2015 को पहले विश्व युवा कौशल दिवस के अवसर पर इस मिशन का उद्घाटन किया. इस योजना के तहत वर्ष 2022 तक 40 करोड़ युवाओं को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है. प्रधानमंत्री कहते हैं-‘‘एक बात निश्चित है कि इनोवेशन है तो जीवन है, अगर इनोवेशन नहीं है तो एक ठहराव है और जहां भी ठहराव है वहां गंदगी है।’’ आगे वे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं-‘‘अगर कोई हैंडीक्राफ्ट बनाने वाले को कोई नई टेक्नोलॉजी के साथ, ग्लोबल आवश्यकता के अनुसार, उस हैंडीक्राफ्ट को आधुनिक समय में मॉडिफाई करने के लिए उसको सिखाना है क्या? अगर वे ट्रेनिंग भी साथ-साथ करता है तो हम हमारे सामान्य गरीब व्यक्ति को जो हैंडीक्राफ्ट के क्षेत्र में काम करता है, उसका एक प्रकार से वोकेशनल टे्रनिंग कहो, स्किल ट्रेनिंग कहो, टेक्नोलॉजिकल ट्रेनिंग कहो, उसको मार्केट की समझ कैसी है, उसको समझाया तो वो थोड़ा बढ़ाकर देता है.’’ आज हमारा देश 21वीं सदी के अनुसार अपने युवाओं को शिक्षित करने का प्रयास कर रहा है. यह प्रशिक्षण या शिक्षा पद्धति न सिर्फ  युवाओं को स्वावलम्बी बना रहा है बल्कि देश को मजबूत करने का काम करेगा. कौशल विकास की यह पद्धति समाज के गैरबराबरी को कम करेगी.
इससे एक ऐसी व्यवस्था बनेगी जिसमें धन का विकेन्द्रीकरण होगा. गांव में स्वरोज़गार की संभावना बढ़ेगी. हुनर के आधार पर हम शहर के साथ-साथ गांवों में भी रोज़गार सृजन करेंगे. आज रोज़गार के लिए युवाओं का एक बड़ा तबका शहरों की तरफ  पलायन करता है. पलायन करने वालों में दो तरह के लोग होते हैं एक वह वर्ग है जो स्थायी रूप से रोज़गार शहर में पाना चाहता है. यह वर्ग शिक्षित होता है. दूसरा वर्ग है खेती किसानी करने वाले मजदूरों का. यह वर्ग खेती का मौसम समाप्त होते ही शहर की तरफ  पलायन करता है. इसमें अधिकांशत: अशिक्षित होते हैं. अत: इनको मजदूरी का काम मिल पाता है. और ये अकुशल मजदूर होते हैं. इन दोनों तरह के पलायन करने वाले समूह में एक बात सामान्य होती है वह है कौशल विकास की कमी. अगर हम कुशल बने तो हमें गांवों या अपने आस-पास ही रोज़गार के अवसर मिल सकते है. आज जरूरत है गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की.
गांधीजी ग्रामोद्योग के संदर्भ में कहते हैं-‘‘ग्रामोद्योगों की योजना के पीछे मेरी कल्पना तो यह है कि हमें अपनी रोज़मर्रा की आवश्यकताएं गांवों की बनी चीजों से ही पूरी करनी चाहिएं, और जहां यह मालूम हो कि अमूक चीजें गांवों में मिलती ही नहीं, वहां हमें यह देखना चाहिए कि उन चीजों को थोड़ा परिश्रम से बना कर गांव वाले उनसे कुछ मुनाफा उठा सकते हैं या नहीं. मुनाफे का अंदाजा लगाने में हमें अपना नहीं, किन्तु गांव वालों का ख्याल रखना चाहिए. संभव है कि शुरू में हमें साधारण भाव से कुछ अधिक देना पड़े और चीज हल्की मिले. पर अगर हम उन चीजों के बनाने वालों के काम में कसाले और आग्रह रखें कि वे बढिय़ा से बढिय़ा चीजें तैयार करें, और सिर्फ  आग्रह ही नहीं रखें बल्कि उन लोगों को पूरी मदद भी दें, तो यह हो नहीं सकता कि गांव वालों की बनी चीजों में दिन-दिन तरक्की न होती जायें।’’ गांधीजी गांव के संपूर्ण विकास के प्रति सजग थे. उनको पता था कि भारत की आत्मा गांव में बसती है. गांव के विकास के बिना भारत को मजबूत राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता. व्यक्ति का स्वावलंबन, ग्राम स्वावलंबन और देश का स्वावलंबन ही भारत को महान राष्ट्र बना सकता है. इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी शिक्षा पद्धति में 21वीं सदी के अनुरूप बदलाव लायें. गांधीजी कहते हैं-‘‘मेरी राय में तो इस देश में, जहां लाखों आदमी भूखे मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक शिक्षा है. ...अक्षर ज्ञान हाथ के शिक्षा के बाद आना चाहिए. हाथ से काम करने की क्षमता-हस्त कौशल ही तो वह चीज है, जो मनुष्य को पशु बल से अलग करती है. लिखना-पढऩा जाने बिना मनुष्य का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर ज्ञान से जीवन का सौन्दर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता.’’ 
21वीं सदी में गांधी के बताये रास्ते पर चल कर ही हम सतत विकास को पा सकते हैं. अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को कम कर सकते हैं. सबको सम्मान जनक जीवन जीने का अवसर मिलेगा. आज गांधीवादी दृष्टि से हम यह सीख सकते हैं कि समाज की सबसे छोटी इकाई से लेकर राष्ट्र को कैसे सशक्त बनाया जा सकता है. इनकी शिक्षा पद्धति में श्रम और बुद्धि का सुंदर समन्वय है. 
लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं और गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति से जुड़े हैं.
कौशल विकास और गांधीवादी सरोकार
पंकज चौबे
यु      वाओं के लिए कौशल विकास वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है.
      कौशल विकास के लिए आवश्यक है कि हमारी शिक्षा पद्धति उसके अनुरूप हो. वर्तमान शिक्षा पद्धति का जोर सिर्फ अक्षर ज्ञान तक सिमट कर रह गया है. आज यह पड़ताल करने की जरूरत है कि वह कौन-सी शिक्षा पद्धति अपनाई जाए जो युवाओं को अक्षर ज्ञान के साथ-साथ हाथों को हुनरमंद बनाए.
आज भारत में शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक बदलाव आने लगा है. आजादी के बाद से अब तक वह व्यवस्था नहीं बन पाई है जिससे विद्यार्थी पढ़ाई के साथ-साथ हुनर भी सीख सकें. दरअसल हमारी शिक्षा व्यवस्था ने ऐसे विद्यार्थियों को पढ़ाया और आगे बढ़ाया जो सिर्फ अक्षरज्ञान के लिए हुए थे. महात्मा गंाधी के विचारों के अनुरूप उनकी शिक्षा नहीं हुई. तात्पर्य यह है कि समाज में ऐसे युवाओं की संख्या बढ़ी है जो डिग्री तो धारण करते हैं परंतु व्यवस्था के अनुरूप उनकी शिक्षा नहीं हो पायी. आज देश में ऐसीे शिक्षा की जरूरत है जिसमें श्रम और बु़िद्ध का समन्वय हो. सिर्फ अक्षर ज्ञान पर आधारित युवा समाज और आर्थिक व्यवस्था को संबल नहीं दे सकते हैं.
शिक्षा की आवश्यकता सिर्फ अक्षर ज्ञान आधारित डिग्री हासिल करना नहीं है बल्कि रोज़गार परक होना है. बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ उनके हाथों को हुनरमंद बनाना जरूरी है. अक्षर ज्ञान मुनष्य को एक समझ देता है वहीं हुनर का ज्ञान मनुष्य को सफल और सार्थक जीवन देता है जो अपने पैरों पर खड़े होकर, समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकेंगे. गांधी इस तरह की शिक्षा पद्धति के सबसे बड़े पैरोकार थे. उन्होंने बुनियादी शिक्षा की अवधारणा विकसित की थी. गांधी दक्षिण अफ्रीका से ही इस पद्धति को आजमाने लगे थे. भारत आकर उन्होंने आश्रम को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास किये. जब व्यक्ति के हाथों में कौशल हो तभी आत्मनिर्भरता आती है इस दिशा में गांधी ने खादी को अनिवार्य किया. अपने आश्रमों में उन्होंने कई कड़े नियम लगाये कि प्रत्येक व्यक्ति चरखा चलायेगा और अपने हाथ कते सूत से बने कपड़े को ही धारण करेगा. शुरूआत में लोगों ने इसे काफी अनमने ढंग से लिया. धीरे-धीरे आश्रमवासी इसका महत्व समझने लगे थे. उन्होंने अपनी स्वेच्छा से खादी धारण करना स्वीकार कर लिया. दरअसल खादी का अपना एक अर्थशास्त्र है. स्वावलंबन और स्वदेशी की मजबूत भावना इसके साथ जुड़ी हुई है. बाद के दिनों में खादी और चरखा आजादी का प्रतीक बन गया. गंाधीजी कहते हैं- ‘‘मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूं, उतनी ही बार भारत के गरीबों का विचार करता हूं.’’ गंाधी ने खादी और चरखे के साथ अंतिम जन को जोड़ा. गांधी इसके आर्थिक पहलू से भी वाकिफ  थे. गंाधीजी कहते हैं- मेरा पक्का विश्वास है कि हाथ-कताई और हाथ-बुनाई के पुनरूजीवन से भारत के आर्थिक और नैतिक पुनरुद्धार में सबसे बड़ी मदद मिलेगी. ‘‘चरखे और खादी का मुकाबला उस समय अंग्रेजी सरकार के साथ था. आजादी की लड़ाई में खादी के प्रति लोगों की भावना ऐसी जुड़ी कि वह आजादी का पोषाक बन गया.
वर्ष १९३७ में जब वर्धा में अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलनआयोजित हुआ. इस सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की. इस सम्मेलन में भाग लेने वाले महानुभावों में थे- विनोबा भावे, काका कालेकर तथा जाकिर हुसैन जैसे विद्वान और शिक्षाशास्त्री. इस सम्मेलन के उपरांत एक प्रस्ताव पास किया गया. इस प्रस्ताव में मोटा-मोटी तीन बिन्दुओं पर अधिक जोर दिया गया-बच्चों को 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी, नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाए, शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो, सबसे महत्वपूर्ण बात थी-इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केन्द्रित हो. अन्य सभी योग्यताओं विकास, जहां तक संभव हो, बच्चों के पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बालक द्वारा चुनी हुई हस्तकला से संबंधित हो. महात्मा गंाधी इस शिक्षा पद्धति को सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ समाज के नव निर्माण का सबसे प्रमुख आधार मानते थे. नयी तालीम का विचार न सिर्फ भारत के संदर्भ में प्रासंगिक रहा बल्कि दुनिया को भाईचारे शांति और मानव समाज के कल्याण के लिए आवश्यक रहा. गांधी की शिक्षा पद्धति में आध्यात्मिकता, नैतिकता, सत्यनिष्ठा का समावेश था. गांधीजी बच्चों को स्वावलम्बी बनाने के साथ-साथ, एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे कि बेसिक स्कूल भी इस सीमा तक स्वावलम्बी हो जाएं कि अध्यापकों का वेतन, विद्यालयों में बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचकर दिया जा सके. एक ऐसी व्यवस्था बने जिसमें सभी स्तर पर स्वावलम्बन हो.
दुनिया के सामने गांधीजी के बताये रास्ते पर चलने के सिवाय कोई और मार्ग नहीं. वजह साफ है कि पिछले लगभग सौ वर्षों में पूरी दुनिया के साथ-साथ हमने विकास का जो प्रारूप अपनाया है उसने दुनिया के सामने एक संकट उत्पन्न किया है. यह संकट है बेरोज़गारी का. आबादी बढ़ती जा रही है और बेरोज़गारी का स्तर भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है. जिस पूंजीवादी व्यवस्था को हमने अपनाया, इस व्यवस्था में सभी के लिए रोज़गार सृजन की क्षमता नहीं थी. दरअसल शिक्षित युवाओं को काम नहीं मिल पा रहा है. इसकी वजह तलाशने पर समझ आता है कि अक्षर ज्ञान में तो हमारे युवा शिक्षित हैं पर हाथों में हुनर का ज्ञान नहीं. ऐसे में हमारे युवा सिर्फ डिग्रीधारी बनकर रह गये हैं. गांधीजी कहते हैं-‘‘उद्योग, हुनर, तन्दुरूस्ती और शिक्षा इन चारों का सुंदर समन्वय करना चाहिए. नई तालीम में उद्योग और शिक्षा, तन्दुरूस्ती और हुनर का सुन्दर समन्वय है. इन सबके मेल से मां के पेट मे आने के समय से लेकर बुढ़ापे तक का एक खूबसूरत फूल तैयार होता है. यही नई तालीम है. इसलिए मैं शुरू में ग्राम-रचना के टुकड़े नहीं करूंगा, बल्कि यह कोशिश करूंगा कि इन चारों का आपस में मेल बैठे. इसलिए मैं किसी उद्योग और शिक्षा को अलग नहीं मानूंगा, बल्कि उद्योग को शिक्षा का जरिया मानंूगा और इसीलिए ऐसी योजना में नई तालीम को शामिल करूंगा.’’
भारत में पिछले कुछ वर्षों से हमने यह समझ लिया कि जिस शिक्षा पद्धति के आधार पर हम आगे बढऩे का दंभ भर रहे हैं वह लम्बे समय तक हमारी अर्थव्यवस्था को स्पोर्ट नहीं कर सकती. इस पद्धति ने एकांकी पद्धति को बढ़ावा दिया जबकि जरूरत थी गांधीजी के मॉडल को अपनाने की. अब धीरे-धीरे हम उस मार्ग की तरफ  बढऩे लगे हैं. हाथ को काम नहीं मिलने पर युवाओं में भटकाव की संभावना बढ़ती जाती है, जो एक अराजक समाज का निर्माण करेंगे. आज भारत में 35 वर्ष से कम आयु के 65 प्रतिशत के लगभग युवाओं की संख्या है. अगर हम इनमें कौशल विकास की बात करें तो इसका प्रतिशत 2 है. यह आंकड़ा बहुत ही निराशाजनक है. इसका तात्पर्य है इतने कम प्रतिशत कौशल के बल पर हम रोज़गार कैसे दें सकते हैं. अकुशल युवाओं की फौज बनती जा रही है. इसको देखते हुए पिछले वर्षों में सरकार ने कौशल विकास का प्रयास तेज कर दिया है. युवाओं के कौशल विकास में अंतर्राष्ट्रीय मानकों को भी ध्यान में रखकर, इस दिशा में काम किया जा रहा है. इस काम में हमारी मदद आस्ट्रेलिया और सिंगापुर कर रहे हैं. हम उनकी सहायता से अपने युवाओं को अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुरूप, उनका कौशल विकसित कर रहे हैं ताकि वे न सिर्फ भारत में ही रोज़गार प्राप्त कर सकेंगे या स्वावलंबी बन सकेंगे बल्कि दुनिया के किसी भी देश में रोज़गार प्राप्त कर लेंगे. इससे भारत आर्थिक रूप से मजबूत बनेगा. आज विकसित देशों में कुशल कारीगरों की संख्या घटती जा रही है. यह हमारे लिए एक अवसर है कि हम अपने युवाओं को गांधीजी के बताये रास्ते के अनुसार वर्तमान संदर्भ में उनको प्रशिक्षित करें. इस दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं. हमारे माननीय प्रधानमंत्री महोदय ने कहा कि ‘‘रोज़गार से जुड़ी योजनाओं में ट्रेनिंग के तरीके मे 21वीं सदी की आवश्यकताओं के अनुसार मानव संसाधन के विकास के लिए भारत सरकार ने उनके लिए नई योजनाएं हाथ में ली हैं.’’ राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन के तहत देश में दक्ष एवं कुशल श्रमशक्ति की कमी को देखते हुए प्रधानमंत्री ने 15 जुलाई, 2015 को पहले विश्व युवा कौशल दिवस के अवसर पर इस मिशन का उद्घाटन किया. इस योजना के तहत वर्ष 2022 तक 40 करोड़ युवाओं को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है. प्रधानमंत्री कहते हैं-‘‘एक बात निश्चित है कि इनोवेशन है तो जीवन है, अगर इनोवेशन नहीं है तो एक ठहराव है और जहां भी ठहराव है वहां गंदगी है।’’ आगे वे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं-‘‘अगर कोई हैंडीक्राफ्ट बनाने वाले को कोई नई टेक्नोलॉजी के साथ, ग्लोबल आवश्यकता के अनुसार, उस हैंडीक्राफ्ट को आधुनिक समय में मॉडिफाई करने के लिए उसको सिखाना है क्या? अगर वे ट्रेनिंग भी साथ-साथ करता है तो हम हमारे सामान्य गरीब व्यक्ति को जो हैंडीक्राफ्ट के क्षेत्र में काम करता है, उसका एक प्रकार से वोकेशनल टे्रनिंग कहो, स्किल ट्रेनिंग कहो, टेक्नोलॉजिकल ट्रेनिंग कहो, उसको मार्केट की समझ कैसी है, उसको समझाया तो वो थोड़ा बढ़ाकर देता है.’’ आज हमारा देश 21वीं सदी के अनुसार अपने युवाओं को शिक्षित करने का प्रयास कर रहा है. यह प्रशिक्षण या शिक्षा पद्धति न सिर्फ  युवाओं को स्वावलम्बी बना रहा है बल्कि देश को मजबूत करने का काम करेगा. कौशल विकास की यह पद्धति समाज के गैरबराबरी को कम करेगी.
इससे एक ऐसी व्यवस्था बनेगी जिसमें धन का विकेन्द्रीकरण होगा. गांव में स्वरोज़गार की संभावना बढ़ेगी. हुनर के आधार पर हम शहर के साथ-साथ गांवों में भी रोज़गार सृजन करेंगे. आज रोज़गार के लिए युवाओं का एक बड़ा तबका शहरों की तरफ  पलायन करता है. पलायन करने वालों में दो तरह के लोग होते हैं एक वह वर्ग है जो स्थायी रूप से रोज़गार शहर में पाना चाहता है. यह वर्ग शिक्षित होता है. दूसरा वर्ग है खेती किसानी करने वाले मजदूरों का. यह वर्ग खेती का मौसम समाप्त होते ही शहर की तरफ  पलायन करता है. इसमें अधिकांशत: अशिक्षित होते हैं. अत: इनको मजदूरी का काम मिल पाता है. और ये अकुशल मजदूर होते हैं. इन दोनों तरह के पलायन करने वाले समूह में एक बात सामान्य होती है वह है कौशल विकास की कमी. अगर हम कुशल बने तो हमें गांवों या अपने आस-पास ही रोज़गार के अवसर मिल सकते है. आज जरूरत है गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की.
गांधीजी ग्रामोद्योग के संदर्भ में कहते हैं-‘‘ग्रामोद्योगों की योजना के पीछे मेरी कल्पना तो यह है कि हमें अपनी रोज़मर्रा की आवश्यकताएं गांवों की बनी चीजों से ही पूरी करनी चाहिएं, और जहां यह मालूम हो कि अमूक चीजें गांवों में मिलती ही नहीं, वहां हमें यह देखना चाहिए कि उन चीजों को थोड़ा परिश्रम से बना कर गांव वाले उनसे कुछ मुनाफा उठा सकते हैं या नहीं. मुनाफे का अंदाजा लगाने में हमें अपना नहीं, किन्तु गांव वालों का ख्याल रखना चाहिए. संभव है कि शुरू में हमें साधारण भाव से कुछ अधिक देना पड़े और चीज हल्की मिले. पर अगर हम उन चीजों के बनाने वालों के काम में कसाले और आग्रह रखें कि वे बढिय़ा से बढिय़ा चीजें तैयार करें, और सिर्फ  आग्रह ही नहीं रखें बल्कि उन लोगों को पूरी मदद भी दें, तो यह हो नहीं सकता कि गांव वालों की बनी चीजों में दिन-दिन तरक्की न होती जायें।’’ गांधीजी गांव के संपूर्ण विकास के प्रति सजग थे. उनको पता था कि भारत की आत्मा गांव में बसती है. गांव के विकास के बिना भारत को मजबूत राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता. व्यक्ति का स्वावलंबन, ग्राम स्वावलंबन और देश का स्वावलंबन ही भारत को महान राष्ट्र बना सकता है. इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी शिक्षा पद्धति में 21वीं सदी के अनुरूप बदलाव लायें. गांधीजी कहते हैं-‘‘मेरी राय में तो इस देश में, जहां लाखों आदमी भूखे मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक शिक्षा है. ...अक्षर ज्ञान हाथ के शिक्षा के बाद आना चाहिए. हाथ से काम करने की क्षमता-हस्त कौशल ही तो वह चीज है, जो मनुष्य को पशु बल से अलग करती है. लिखना-पढऩा जाने बिना मनुष्य का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर ज्ञान से जीवन का सौन्दर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता.’’ 
21वीं सदी में गांधी के बताये रास्ते पर चल कर ही हम सतत विकास को पा सकते हैं. अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को कम कर सकते हैं. सबको सम्मान जनक जीवन जीने का अवसर मिलेगा. आज गांधीवादी दृष्टि से हम यह सीख सकते हैं कि समाज की सबसे छोटी इकाई से लेकर राष्ट्र को कैसे सशक्त बनाया जा सकता है. इनकी शिक्षा पद्धति में श्रम और बुद्धि का सुंदर समन्वय है. 
लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं और गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति से जुड़े हैं.