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संपादकीय लेख


Issue no 34, 20-26 November 2021

भारत का 2070 तक नैट-ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य

चुनौतियां और प्रभाव

साक्षात्कार

दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के दो सबसे बड़े उत्सर्जक देशों-अमरीका और चीन ने 2020 के दशक में जलवायु परिवर्तन कार्रवाई पर मिलजुल कर काम करने का संकल्प लिया है. उन्होंने यह दुर्लभ घोषणा कर इस आशंका को भी दूर कर दिया है कि इनके बीच तनाव, वास्तविक वैश्विक रणनीति के रास्ते में बाधा बन सकता है. अमरीका और चीन ने 10 नवंबर को संयुक्त घोषणा जारी की, जिसमें कहा गया है कि कॉफ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (कॉप 26), संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन में व्यक्त प्रतिबद्धता की तुलना में, चीन और अमरीका के बीच अधिक समझौता है. इससे पहले, शिखर सम्मेलन की शुरुआत में, भारत ने वर्ष 2070 तक नैट ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य और 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा को अपने ऊर्जा मिश्रण में 500 गीगावाट तक बढ़ाने की अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा की. प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में, इस प्रतिबद्धता को 'पंचामृत की सौगात बताया था. उन्होंने पांच अमृतों की गणना इस प्रकार की:

1.       भारत 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म क्षमता बढ़ाकर 500 गीगावाट करेगा.

2.       भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों का 50 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पूरा करेगा.

3.       भारत 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में से कम से कम एक अरब टन कम करेगा.

4.       भारत देश की कार्बन तीव्रता को 45 प्रतिशत से कम करेेगा.

5.       भारत 2070 तक नैट-ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य हासिल कर लेगा.

इस बीच, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री, श्री भूपेंद्र यादव ने ग्लासगो में कॉप-26 में ब्रिक्स देशों के समूह की ओर से बयान दिया, जिसमें ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन शामिल हैं. उन्होंने पुष्टि की कि समान और सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांतों का प्रभावी रूप से कार्यान्वयन होना चाहिए और कॉप- 26 का उद्देश्य जलवायु वित्त और अनुकूलन पर उच्च वैश्विक महत्वाकांक्षा के साथ-साथ पक्षों की अलग-अलग ऐतिहासिक जिम्मेदारियों और विकासशील देशों के सामने आने वाली विकास संबंधी चुनौतियों को  मान्यता देना भी होना चाहिए,जो कोविड-19 महामारी के कारण और जटिल हो गई हैं.

कॉप-26, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन से पहले, इस बात पर बहस चल रही थी कि क्या भारत और चीन जैसे देश नैट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध होंगे. भारत का पहले का लक्ष्य अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 2030 तक 33-35 प्रतिशत तक कम करना था, जबकि वह 2005 में निर्धारित किए गए स्तर को लक्षित सीमा से पहले ही 2016 तक 24 प्रतिशत तक कम कर चुका है. पश्चिम ने हमेशा भारत को अमरीका और चीन के बाद तीसरे सबसे बड़े उत्सर्जक के रूप में चित्रित किया है, जबकि भारत ने इसे अपेक्षित स्तर पर बनाए रखा है और उसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन, उच्चतम उत्सर्जक के आसपास कहीं नहीं है.

इसके अलावा, भारत को इस साहसिक जलवायु परिवर्तन शमन महत्वाकांक्षा को स्थापित करने के लिए विभिन्न हलकों से प्रशंसा मिल रही है. रोज़गार समाचार ने इस विषय को समझने के लिए दो विशेषज्ञों से बातचीत की. ये हैं- डॉ वैभव चतुर्वेदी, फेलो, ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद ( सीईईडब्ल्यू ) और

डॉ. अंजल प्रकाश, अनुसंधान निदेशक, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस.

प्रश्न 1.  क्या भारत के लिए 2070 तक नैट-ज़ीरो लक्ष्य हासिल करना संभव है? यदि हाँ, तो किस प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता है?

वैभव चतुर्वेदी: 2070 नैट-जीरो की घोषणा एक साहसिक और महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, लेकिन फिर भी इसे हासिल किया जा सकता है. नैट- जीरो केवल एक जलवायु एजेंडा नहीं है, बल्कि यह आवश्यक आर्थिक परिवर्तन के बारे में भी है. इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, भारत को अपनी ऊर्जा आपूर्ति के साथ-साथ मांग के पक्ष में कुछ प्रमुख सुधारों को आगे बढ़ाने की जरूरत है, जिसमें बिजली मूल्य निर्धारण मार्किट, वितरण कंपनियों में सुधार के साथ-साथ पारेषण भी शामिल है.

डॉ अंजल प्रकाश: मेरे विचार से, भारत पहले से ही नेट-जीरो हासिल करने की राह पर है. इस साल फरवरी में, भारत ने यूएनएफसीसीसी को तीसरी द्विवार्षिक रिपोर्ट सौंपी. इसमें दर्शाए गए आंकड़े आशाजनक हैं. 2005 और 2016 के बीच, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता में 24 प्रतिशत तक की कमी आई है. नतीजतन, 2005 के निर्धारित स्तर से सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 20-25 प्रतिशत तक कम करने का स्वैच्छिक लक्ष्य 2020 की समय सीमा से बहुत पहले पूरा कर लिया गया था. इसलिए भारत कई मोर्चों पर, न केवल लक्ष्यों, बल्कि अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के मामले में भी पहले से ही आगे है. प्रधानमंत्री मोदी ने 2070 का लक्ष्य निर्धारित करके भले ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय से समय खरीदा हो, लेकिन मुझे लगता है कि भारत 2070 से पहले ही नैट-जीरो का लक्ष्य हासिल कर सकता है.

प्रश्न 2. उद्योगों और अर्थव्यवस्था पर इस प्रतिबद्धता के संबंध में  विस्तार से बताएं?

डॉ वैभव चतुर्वेदी: पांच में से चार लक्ष्य 2030 के लिए हैं. ये मुख्य रूप से अक्षय ऊर्जा को ग्रिड से एकीकृत करने पर केंद्रित हैं. सौर पैनल तथा पवन टरबाइन निर्माण और स्थापना के साथ, निकट अवधि के अवसर अक्षय ऊर्जा में स्पष्ट रूप से निहित हैं. पांचवां लक्ष्य जो कि अत्यंत महत्वपूर्ण है वह है लंबी अवधि का नैट-ज़ीरो लक्ष्य. यह इस दीर्घकालिक आसन्न भविष्य के लिए रणनीतिक तरीके से योजना शुरू करने और  इस बदलते समय में उपयोग किए जा सकने वाले अवसरों को समझने के लिए अर्थव्यवस्था और उद्योगों के लिए एक महत्वपूर्ण दीर्घकालिक संकेत देता है. लघु अवधि (2030) और लंबी अवधि (2070) लक्ष्य एक ऐसा पैकेज है जो निवेशकों और व्यवसायों को निश्चितता का एक बड़ा एहसास देता है, जिन्हें इस दीर्घकालिक परिवर्तनकाल  की प्रक्रिया में अवसरों का लाभ उठाने के लिए अभी से प्रयास करने चाहिए.

डॉ अंजल प्रकाश: मुझे लगता है कि अगर हम हरित विकास का रास्ता अपनाते हैं तो उद्योगों के लिए योगदान करने के अधिक अवसर होंगे. इसका मतलब होगा कि अंग्रेजी के तीन पी-पीपुल, प्रोफिट और प्लेनेट यानी लोग, लाभ और ग्रह के बीच संतुलन होगा. हालांकि, उद्योगों को विकास के हरित विकास मॉडल के साथ तालमेल बिठाने के लिए अपनी नीतियों की समीक्षा करनी होगी और अपनी रणनीतियों को बदलना होगा. इसे मानव और पर्यावरण संसाधनों के संरक्षण, पोषण और सुधार में निवेश के साथ जोड़ा जाना चाहिए. व्यावसायिक उद्देश्यों और रणनीतियों को भविष्य की मांगों के अनुरूप बनाने के लिए यह प्रक्रिया आवश्यक है. यात्रा, परिवहन, मोटर वाहन और पर्यटन जैसे  क्षेत्रों में इन कदमों का महत्व बढ़ गया है, जो अन्य की तुलना में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं. प्रत्येक उद्योग को अपनी ट्रिपल बॉटम लाइन को समझने तथा प्रबंधित करने और उसके अनुसार कार्य करने के लिए एक आंतरिक रणनीतिक विश्लेषण की आवश्यकता होती है.

नैट-जीरो हासिल करना बिना किसी चुनौती के नहीं होगा. यूएनएफसीसीसी को दिए गए अनुमानों के मुताबिक, भारत को अपनी अनुकूलन योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए 2015 और 2030 के बीच लगभग 206 अरब डॉलर की आवश्यकता होगी. प्रधानमंत्री मोदी ने अनुकूलन और शमन के लिए 1 ट्रिलियन डालर के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की है. इनमें से अधिकांश संसाधन वर्तमान में घरेलू स्रोतों के माध्यम से हैं जिनमें लोग और व्यवसाय कराधान के माध्यम से योगदान करते हैं.

प्रश्न.3. क्या आपको लगता है कि विकसित दुनिया आसानी से एक ट्रिलियन डॉलर और जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रौद्योगिकियां प्रदान करेगी?

वैभव चतुर्वेदी: मुझे नहीं लगता कि विकसित दुनिया वास्तव में इस लक्ष्य को पूरा कर पाएगी, जो दुर्भाग्यपूर्ण होगा.

डॉ अंजल प्रकाश:  उत्तर के देश, नैट-जीरो पर प्रगति दिखाने के लिए कार्बन क्रेडिट के बाजार-आधारित तंत्र जैसे सस्ते विकल्पों की तलाश करते हैं लेकिन प्रौद्योगिकी साझा करने से परहेज करते हैं. अनुकूलन वित्त के नाम पर अधिकांश धनराशि ऋण के माध्यम से है न कि सहायता अनुदान के रूप में. भारत का प्रति व्यक्ति जलवायु उत्सर्जन दुनिया में सबसे कम में से एक है. भारत को विकास और कार्बन मुक्त करने की जरूरत है लेकिन हम इसे अपनी गति से करेंगे क्योंकि भारत की विकास की जरूरतें भी हैं उन्हें भी पूरा किया जाना है. भारत के लिए जलवायु वित्त के बिना नैट-जीरो का रास्ता अपनाना कठिन होगा और इसलिए जवाबदेही दोतरफा प्रक्रिया होनी चाहिए. मुझे लगता है कि  दक्षिण के देशों को आगे आना चाहिए और भारत के साथ गठबंधन बनाना चाहिए ताकि जलवायु वित्त के लिए इस तरह की मांग मिलकर की जा सके.

प्रश्न 4. क्या नौकरी छूटना एक बड़ी चिंता बन जाएगी? क्या नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र उन लोगों को रोज़गार प्रदान करने में सक्षम होगा जो परिवर्तन के कारण अपनी आजीविका खो सकते हैं?

वैभव चतुर्वेदी: निकट भविष्य में, हमें नौकरी छूटने की चिंता नहीं करनी चाहिए, ऐसा नहीं होने वाला है. लंबी अवधि में, कोयला क्षेत्र में नौकरी का नुकसान होगा, लेकिन मुझे 25-30 साल से पहले ऐसा होने की उम्मीद नहीं है. वर्तमान में कार्यरत कई कर्मचारी तब तक सेवानिवृत्त हो जाएंगे. इसलिए बाकी जो अपने कामकाजी जीवन के अंतिम चरण में होंगे, उनकी सहायता के लिए एक सुविचारित योजना बनाना और उनके बच्चे शिक्षित, प्रशिक्षित और अन्य व्यवसायों में लाभकारी रूप से नियोजित हों यह सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है. भारतीय नीति निर्माताओं को इस बदलाव  के लिए योजना बनाने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इस प्रक्रिया में कोई भी कमजोर परिवार छूटे नहीं. लेकिन मेरा मानना है कि अग्रिम रणनीतिक योजना बनाने से नौकरी का नुकसान कम से कम होगा और हम भविष्य की अर्थव्यवस्था बनाने में सक्षम होंगे. इसलिए, नियोजन यहां महत्वपूर्ण शब्द है.

डॉ अंजल प्रकाश: जलवायु परिवर्तन चुनौतियां ला रहा है, लेकिन यह अर्थव्यवस्था के लिए नए क्षेत्रों में विस्तार और विविधता लाने का एक अवसर भी है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में मदद करते हुए लाभदायक साबित हो सकता है. कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां निवेश हो सकता है - नवीकरणीय ऊर्जा, कृषि, वन उत्पाद, संधारणीयता से जुड़े वित्तपोषण, जलवायु सेवाएं, बीमा आदि. अन्य क्षेत्र जलवायु जोखिम से संबंधित उत्पादों, सेवाओं और आपूर्ति शृंखला प्रबंधन जो उपभोक्ताओं तथा शेयरधारकों को लुभाएगा, में नवाचार से संबंधित हो सकते हैं. जलवायु जोखिम भी नए रास्ते और उभरते बाजारों को खोल रहे हैं जिन्हें कोई भी दूरंदेशी कंपनी भुना सकती है. नौकरी की प्रकृति में बदलाव होगा लेकिन मुझे निकट और दीर्घावधि में नौकरी के नुकसान की स्थिति नहीं दिख रही है. इसे एक अलग अभिविन्यास की आवश्यकता है और भारतीय नई स्थिति के अनुकूल होने में बेहतर हैं.

प्रश्न 5. हरित ईंधन में परिवर्तन की प्रक्रिया में कौन से संबद्ध क्षेत्र खुलेंगे और उन क्षेत्रों में रोजगार की क्या संभावनाएं होंगी ?

वैभव चतुर्वेदी: हाइड्रोजन, सौर और पवन मूल्य शृंखला के साथ-साथ विनिर्माण से लेकर स्थापन तथा संचालन तक एक बड़ा रोज़गार सृजन क्षेत्र बनने जा रहा है. इसके अलावा, इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र नौकरी के नजरिए से दिलचस्प होने वाला है. इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा के ग्रिड एकीकरण में सहायता के लिए बैटरी निर्माण क्षेेत्र फल-फूल रहा है. मेरे विचार में ये, अगले तीन दशकों में देखने वाले क्षेत्र होंगे.

प्रश्न 6. कृपया हरित ईंधन के लिए प्रौद्योगिकियों के विकास और आयात में भारत के प्रयासों को विस्तार से बताएं?

वैभव चतुर्वेदी: घरेलू विनिर्माण भारत की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है. प्रौद्योगिकियां आयात करना पसंदीदा विकल्प नहीं है, इसलिए अनुसंधान एवं विकास में निवेश महत्वपूर्ण है. यह तभी संभव है जब इस प्रक्रिया में निजी क्षेत्र की भागीदारी हो. इस दृष्टिकोण से, हाईड्रोजन उत्पादन व्यवसाय के साथ-साथ सौर पैनल निर्माण व्यवसाय में बड़े भारतीय व्यापारिक समूहों के प्रवेश की घोषणा पथप्रदर्शक है. स्वदेश में प्रौद्योगिकी विकास की खोज में भारत के निजी क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण होने जा रही है.

डॉ अंजल प्रकाश: यह पर्यावरण की दृष्टि से अधिक अनुकूल है और इसीलिए इसे हरित ईंधन कहा जाता है. भारत के पास बायोमास आधारित ईंधन के विकास पर आगे काम करने की क्षमता है. हालांकि, अधिक शोध और विकास की जरूरत है. हमें अन्य देशों के साथ सहयोग की भी आवश्यकता है जिनके पास बेहतर तकनीक हो सकती है. जलवायु संवाद में, दक्षिण के देश प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए कह रहे हैं और यदि ऐसा होता है, तो जैव ईंधन या हरित ईंधन एक ऐसा क्षेत्र है जिसका बहुत तेजी से विकास किया जाएगा.

 (साक्षात्कारकर्ता ऋषिकेश कुमार, दिल्ली में पत्रकार हैं जो आर्थिक, रक्षा, सामरिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं, और संबद्ध संस्थानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते.