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संपादकीय लेख


Issue no 31, 30 October - 5 November 2021

सरदार पटेल

भारतीय एकता के सूत्रधार

एस बी सिंह

भारत 3१ अक्टूबर को 'राष्ट्रीय एकता दिवस मनाता है, यह देश के विभाजन और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र-निर्माण के बहु-आयामी कार्य में सरदार पटेल के चिर-स्मरणीय योगदान पर फिर से विचार करने का एक उपयुक्त समय है. आज हम जिस भारत को एक पृथक भौगोलिक इकाई के रूप में जानते हैं, वह पटेल की देन है. जब हम कहते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, भारत एक है, तो हम अनिवार्य रूप से पटेल को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने भारत को एकजुट करने के कठिन कार्य का नेतृत्व किया था. यदि गांधीजी ने भारत को विदेशी शासन से मुक्त करने के लिए अपना नेतृत्व दिया, तो पटेल ने इसके एकीकरण का नेतृत्व किया. एक अखंड भारत के बिना, हम राष्ट्र की स्वतंत्रता के पूरे अर्थ को खो देते.

अंग्रेजों ने जब भारत छोड़ा, तो हमारे नेताओं के सामने खंडित भूगोल में एकता स्थापित करने का कार्य था. 565 बड़ी और छोटी रियासतों को एकीकृत करना एक कठिन काम था, जिसके लिए उच्च कोटि की दूरदर्शिता, दृढ़ता और राजनीतिक कौशल की आवश्यकता थी. पटेल इस दृष्टि से उपयुक्त व्यक्ति थे, और भारत का पहला गृहमंत्री बनने के लिए एक स्वाभाविक पसंद थे, इससे उन्हें भारत की आंतरिक सुरक्षा को सुदृढ़ करने और एक मजबूत तथा एकजुट भारत का निर्माण करने का अवसर मिला. पटेल संविधान सभा की दो महत्वपूर्ण समितियों- सलाहकार समिति और प्रांतीय संविधान समिति के अध्यक्ष भी थे. इस प्रकार, किसानों का नेतृत्व करने और भारत के संविधान को तैयार करने में भूमिका के कारण उनकी साख काफी अच्छी थी. सभी के मन में यह बात स्पष्ट थी कि रियासतों का एकीकरण केवल पटेल ही कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने निर्णायक होने और किसी भी चुनौतीपूर्ण स्थिति से सख्ती से निपटने  वाले नेता के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित की थी. यह कल्पना करना कठिन था कि पटेल जैसे बड़े नेता के बिना रियासतों को एक राष्ट्र के रूप में एकीकृत किया जा सकता है. भारत वास्तव में भाग्यशाली था कि उसके पास पटेल जैसी शख्सियत थी और उन्होंने यह उसी तरीके से किया जैसे किया जाना चाहिए था.

भिन्न कार्य: भिन्न नेता

राष्ट्र निर्माण कोई व्यक्तिगत परियोजना नहीं है. ठोस नींव पर राष्ट्र के निर्माण के जटिल कार्य को पूरा करने के लिए एक से अधिक निर्माताओं की आवश्यकता होती है. पहला काम यानी ब्रिटिश शासन से आजादी हासिल करना महात्मा गांधी पर छोड़ दिया गया था. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ एक शक्तिशाली अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया, अंतत: उन्हें देश को स्वतंत्र करने और भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया. इसके बाद जब रियासतों को एकजुट करने का मुद्दा आया और पटेल ने इसे मज़बूती से संभाला. तीसरा कार्य एक तर्कसंगत विदेश नीति के माध्यम से लोकतांत्रिक संस्थानों, आधुनिक उद्योगों का निर्माण करना और शेष दुनिया के साथ भारत को अच्छी तरह से जोड़ना था, यह ऐसा काम था जिसके लिए नेहरू उपयुक्त व्यक्ति थे.

एक बार स्वतंत्रता हासिल करने के बाद राष्ट्र- निर्माण का कार्य बिना किसी देरी के शुरू करना पड़ा क्योंकि विभाजन ने देश पर गहरा निशान छोड़ा था. कई कारणों से रियासतों को अलग-अलग इकाइयों के रूप में रहने का विकल्प नहीं दिया जा सकता था. रियासतों के अस्तित्व के कई निहितार्थ थे. एक, भारत का भूगोल छोटी-छोटी रियासतों के रूप में बिखर जाता. दूसरा, इन रियासतों से सुरक्षा की चिंता उत्पन्न हो रही थी, क्योंकि यहां से भारत विरोधी गतिविधियों की योजना बनाई जा सकती है और उन्हें अंजाम दिया जा सकता है. तीन, रेलवे, सड़क, बांध आदि जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे का निर्माण, अलग-अलग संस्थाओं के रूप में मौजूद रियासतों के साथ मुश्किल था. सरदार पटेल के रहते, वास्तव में इनका अलग अस्तित्व संभव नहीं था, और इसीलिए या तो बातचीत से और अनुनय  से या, यदि आवश्यक हो, तो बलपूर्वक, रियासतों को भारत के साथ एकीकृत किया जाना था. रियासतों के एकीकरण का विवरण रियासतों से निपटने के लिए तत्कालीन गृह विभाग में पटेल के सचिव वी पी मेनन की पुस्तक 'द स्टोरी ऑफ इंटीग्रेशन ऑफ प्रिंसली स्टेट्स में वर्णित है।

 

कांग्रेस और देशी रियासतें

हमें रियासतों के प्रति ब्रिटिश और कांग्रेस दोनों की नीतियों को संक्षेप में समझना चाहिए. 1857 से पहले, अंग्रेज रियासतों के विरोध में थे. भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने के लिए, उन्होंने बेरहमी से रियासतों पर कब्जा कर लिया या उनसे कुख्यात सहायक गठबंधन पर हस्ताक्षर करा लिए, जिससे रियासतें अंग्रेजों के वास्तविक शासन के अधीन आ गईं. हालांकि, यह शत्रुतापूर्ण रवैया 1857 के बाद बदल गया, और रियासतों को अंग्रेजों का अधीनस्थ भागीदार बना दिया गया, बशर्ते वे ब्रिटिश सर्वोपरिता स्वीकार करें. इस सर्वोपरिता ने रियासतों के शासकों को बाहरी मामलों पर स्वतंत्र निर्णय लेने से वंचित कर दिया. हालांकि, अंग्रेजों ने 18 जुलाई, 1947 को 'भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत रियासतों पर अपनी सर्वोच्चता समाप्त करने की घोषणा की. इसने रियासतों को तीन विकल्प दिए, एक- वे भारत में शामिल हो सकते थे, दो- वे पाकिस्तान में शामिल हो सकते थे, और तीन- वे स्वतंत्र रह सकते हैं. इससे काफी पहले कांग्रेस ने भी रियासतों के मुद्दे पर अपना फैसला लिया था. कांग्रेस पहले इसे रियासतों का आंतरिक मामला बताते हुए यहां के लोगों के हितों के लिए लड़ने की इच्छुक नहीं थी, लेकिन उसने 1937 में अपने त्रिपुरी अधिवेशन में रियासतों के प्रति अपनी नीति में बदलाव किया. नई नीति ब्रिटिश प्रांतों और रियासतों के बीच के अंतर को समाप्त करने की थी और अब आजादी की लड़ाई का मतलब रियासतों के लोगों के लिए लड़ाई भी था. दूसरे शब्दों में, केवल एक स्वतंत्र भारत की परिकल्पना की गई थी. वास्तव में, भारत छोड़ो आंदोलन ने रियासतों के उद्देश्य को स्पष्ट रूप से अपनाया.

पटेल और राष्ट्रीय एकता

 पटेल को भारत के विभाजन के बाद की स्थिति की स्पष्ट समझ थी. अखंड, एकल भारत के अपने अभियान में, उन्होंने एक सच्चे नेता के योग्य कार्रवाई का मार्ग अपनाया. जुलाई 1947 में सर्वोपरिता समाप्त होने के बाद, कई रियासतों ने भारत में शामिल होने का विकल्प चुना. लेकिन अभी भी कई ऐसे शासक थे जो अनिर्णय की स्थिति में थे या स्वतंत्र रहना चाहते थे या पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे. इस कष्टप्रद मुद्दे को हल करने के लिए पटेल ने चतुराई और निपुणता से काम लिया. महान वार्ताकार होने के नाते, उन्होंने राजाओं से रियासतों के  भारत में विलय के लिए व्यक्तिगत रूप से अपील की, उन्हें इससे होने वाले लाभ के बारे में आश्वस्त किया. पटेल ने उन्हें उनकी और उनकी आने वाली पीढ़ी की वित्तीय जरूरतों का ख्याल रखने के लिए प्रिवी पर्स के साथ प्रोत्साहित किया. वह उन्हें दिल्ली में अपने आधिकारिक आवास पर आमंत्रित करते थे और उन्हें दोपहर के भोजन तथा चाय पर बातचीत में शामिल करते थे. उनके मन में केवल एक ही उद्देश्य था कि  भारत की एकता को कैसे सुरक्षित किया जाए. वह पूरी तरह से यथार्थवादी थे. वह आधुनिक कौटिल्य थे, लेकिन एक अंतर था, वह था - यथार्थवादी शासन संचालन के उनके ईमानदार, नैतिक तरीके का.

 

शासकों को विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करने में काफी हद तक, सफल रहे. जैसा कि सर्वविदित है, तीन राज्य-जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर विलय के मुद्दे पर टाल-मटोल कर रहे थे. पाकिस्तानी आक्रमण के कारण कश्मीर पूरी तरह से अलग स्थिति में आ गया था. जूनागढ़ का पाकिस्तान से मोहभंग हो गया और उसने इसमें विलय करने का फैसला किया. पटेल ने भारतीय सेना को जूनागढ़ में स्थानांतरित कर दिया, एक जनमत संग्रह का आदेश दिया जो भारत के पक्ष में गया. उन्होंने हमेशा साजिश रचने वाले हैदराबाद के निजाम का भी सामना किया, जो सांप्रदायिक दंगे भड़काने के लिए अपने रजाकार मिलिशिया का इस्तेमाल कर रहा था, और भारतीय सैनिकों ने हैदराबाद पर नियंत्रण कर लिया. पटेल के ज्ञान और इच्छाशक्ति के उल्लेखनीय प्रदर्शन ने भारत को एकीकृत कर वह कर दिखाया जो पहले कभी नहीं हुआ.

 

भारत का प्रशासनिक एकीकरण

सरदार पटेल रियासतों का विलय करके केवल भारत के भौगोलिक एकीकरण से संतुष्ट नहीं थे. स्वयं एक महान प्रशासक के रूप में, उन्होंने प्रसिद्ध अखिल भारतीय सेवा बनाने की ठानी और इसके लिए नेहरू की दलीलों को खारिज कर दिया. नेहरू को आईसीएस (भारतीय सिविल सेवा) के अपने अनुभव को देखते हुए एक मजबूत अखिल भारतीय सेवा पर संदेह था, लेकिन पटेल अपनी बात पर अड़े रहे और अपनी राह पर रहे. उन्होंने अखिल भारतीय सेवा का एक मजबूत और योग्यता-आधारित कैडर बनाया, जिसे संवैधानिक संरक्षण प्राप्त था. इस तरह उन्होंने 'अखिल भारतीय सेवाओं के जनक की उपाधि अर्जित की.  इस सेवा का गठन करने का उनका लक्ष्य, केंद्र और राज्य सरकारों दोनों की सेवा करने वाले मेधावी सिविल सेवकों के एक सामान्य पूल द्वारा भारत के प्रशासनिक एकीकरण का था. अखिल भारतीय सेवाओं के समर्थन में, उन्होंने कहा था - इस प्रशासनिक प्रणाली का कोई विकल्प नहीं है ... यदि आपके पास अच्छी अखिल भारतीय सेवाएं नहीं हैं तो संघ चला जाएगा ... उन्हें हटा दें तो मुझे पूरे देश में केवल अराजकता की तस्वीर दिखाई देती है. कोई आश्चर्य नहीं कि सिविल सेवकों को पटेल के संबोधन की याद में 21 अप्रैल को सिविल सेवा दिवस मनाया जाता है. अपनी तमाम भ्रांतियों के बावजूद अखिल भारतीय सेवा ने पटेल की परिकल्पना के अनुरूप राष्ट्रीय एकता का कार्य किया है. यह सेवा न केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने में मददगार है बल्कि आधुनिक भारत में कल्याणकारी और विकासात्मक कार्यों को करने वाली लोकतांत्रिक संस्थाओं को चलाने में भी योगदान देती है.

 

सरदार पटेल ने राष्ट्रीय एकता की ज्वाला प्रज्ज्वलित की. गृह विभाग का नेतृत्व करने वाले और भारत के पहले उप प्रधानमंत्री होने के नाते, पटेल ने अपने सभी कार्यों में खुद को पूरी तरह से झोंक दिया. पटेल और उनकी दूरदृष्टि के संदर्भ में राष्ट्रीय एकता, भारतीय राष्ट्रीय परियोजना का प्रमुख लक्ष्य बनी हुई है. सरदार पटेल ने हमें एक एकीकृत भारत दिया है, लेकिन इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता. सांप्रदायिकता, अलगाववाद और क्षेत्रीय संकीर्णतावादी ताकतें राष्ट्रीय एकता को चुनौती दे रही हैं. उनकी इस परिकल्पना को आगे ले जाने के लिए हमें उन मूल्यों को आत्मसात करके उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की जरूरत है, जिन्होंने उनका मार्गदर्शन किया. उसके लिए, हमारे राजनीतिक और सामाजिक नेताओं को बहुल भारत के निर्माण के लिए स्वार्थ से ऊपर उठने की जरूरत है, जो अब भी प्रगति पर है. सरदार पटेल को सच्ची श्रद्धांजलि, उनकी हार्दिक इच्छा-एकीकृत भारत के उद्देश्य को बढ़ावा देना होगी.

 

(लेखक शिक्षाविद और स्तंभकार हैं. उनका ईमेल है- sb_singh2003@ yahoo.com )

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं.

चित्र साभार: पीआईबी