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संपादकीय लेख


Issue no 27, 02-08 October 2021

इंडिया @75 गांधीजी की

सर्वकालिक प्रासंगिकता

 

प्रोफेसर एन राधाकृष्णन

 

आप इस तथ्य से क्या समझेंगे और इस पर क्या प्रतिक्रिया देंगे कि दिल्ली में राजघाट स्थित गांधी स्मारक हर रोज करीब 30,000 से अधिक लोगों को आकर्षित करता है, जहां गांधीजी की अंत्येष्टि की गई थी? यहां आने वालों में पुरुष और महिलाएं, बच्चे, युवा, दिव्यांगजन, सभी धर्मावलंबी, राजनयिक, विदेशी राष्ट्राध्यक्ष और जीवन के सभी क्षेत्रों से संबद्ध व्यक्ति शामिल हैं. वे पर्यटकों की तरह नहीं आते बल्कि शांति और सद्भाव के तीर्थ यात्रियों की तरह आते हैं. शांति के पैगंबर को सम्मान देने के लिए संगमरमर के स्लैब के चारों ओर घूमते हुए कई लोगों की आंखों से आंसू बहते हैं. एक बार जब इन पंक्तियों के लेखक ने कुछ तीर्थयात्रियों से यह पूछने का साहस किया कि महात्मा के अंतिम विश्राम स्थल पर आने से पर उन पर क्या प्रभाव पड़ा, तो बिहार के सुदूर गांवों से आए दो युवकों ने कहा, 'वे हमारे लिए शहीद हो गए. यह हमारे लिए प्रेरणा और आत्मनिरीक्षण का स्थल है.

 

इन युवकों पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है. गांधी युद्धरत समुदायों और समूहों के बीच एक प्रहरी की तरह खड़े थे. सांप्रदायिक सद्भाव की वेदी पर अपना खून बहाकर, गांधी ने एक युद्धविराम को अंजाम दिया, जिसने एक सुदृढ़ बल  की तरह काम किया. गांधीजी ने सिखाया कि हिंसक व्यवहार से और भी बड़ी हिंसा होती है. गांधी ने नोआखली और अन्य जगहों पर, जहां मानव जानवरों से भी बदतर हो गए थे, अहिंसा के बल पर जो चमत्कार किया वह, इतिहास का हिस्सा है और उनका नेतृत्व भारतीय जनमानस के साथ-साथ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, स्वतंत्रता सेनानियों और वैकल्पिक जीवन शैली और पारिस्थितिकी संरक्षण की तलाश करने वालों के एक बड़े हिस्से को सदैव प्रेरित करता रहेगा. गांधी वैश्विक मानस पर जो गहरी छाप छोड़ने में सक्षम थे, वह भी अद्वितीय है.

 

ढांचा गत हिंसा को बढ़ावा देने वाले कारकों का उन्मूलन अत्यन्त महत्वपूर्ण है. आज भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के संदर्भ में सम-सामयिक चुनौतियों पर विचार करते समय हम यह महसूस करते हैं कि अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई के अवशेषों को एकबारगी और हमेशा के लिए समाप्त करना, लैंगिक असमानता, सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना और लाखों युवाओं को रोज़गार के अवसर प्रदान करना, गांधीवादी एजेंडे के अधूरे कार्य हैं.

 

गांधी के सपनों का भारत

देश की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर चिंतन करते समय, हमारे समक्ष, अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद से, अपनी उपलब्धियों पर गर्व महसूस करने के अनेक कारण विद्यमान हैं.

 

भारत के प्रति अपने विजन के बारे में महात्मा गांधी ने लिखा था कि  'मैं एक ऐसे भारत के लिए काम करूंगा जिसमें सबसे गरीब महसूस करेगा कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसकी महत्वहपूर्ण भूमिका है; एक ऐसा भारत जिसमें कोई उच्च वर्ग और निम्न वर्ग नहीं होगा; एक ऐसा भारत जिसमें सभी समुदाय सद्भाव से रहेंगे. महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होंगे ... विदेशी हों या स्वदेशी,  सभी के ऐसे हितों का ईमानदारी से सम्मान किया जाएगा, जो करोड़ों मौन लोगों के हितों के विपरीत नहीं होंगे. मुझे विदेशी और स्वदेशी के बीच भेद से नफरत है.

 

देश को आजादी दिलाने के अतिरिक्त, महात्मा गांधी की सबसे बड़ी सौगात, 18 सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम है, जिसे उनके देशवासियों ने भी लापरवाही से लिया है. जिस जुनून के साथ गांधी ने इन कार्यक्रमों की तरफदारी की थी, उसमें समग्र विकास की वह गांधीवादी दृष्टि निहित है, जिसमें करुणा के साथ विकास और विनाश रहित विकास महत्वपूर्ण है. राष्ट्र को पंचायती राज लागू करने में 46 साल लगे - जो उस क्रांति के दूसरे चरण की रूपरेखा है, जिसकी गांधीजी ने कल्पना की थी. पंचायती राज, जब इसे पहली बार लागू किया गया था, तो वह गांधीजी की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यह हमारी प्रणाली के हिस्से के रूप में मौजूद है. यह वास्तव में  लोगों के सशक्तिकरण और विकेंद्रीकरण की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि और एक निश्चित कदम था.

 

निचले स्तर पर आयोजना का गांधी का विजन

गांधीजी ने न केवल प्रत्येक गांव की जरूरतों को, बल्कि स्थिति की वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए स्थानीय जरूरतों पर आधारित विकास की प्रक्रिया में निचले स्तर पर आयोजना, लोगों के सशक्तिकरण और लोगों की भागीदारी के सिद्धांत का प्रतिपादन किया. गांधीजी का यह सपना अगर साकार हो, तो इससे समाज को आर्थिक आधार और व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करने, जैसे दोनों लक्ष्यं हासिल किए जा सकते हैं. गांधीजी ने जिन सतत् विस्ताररित सर्कलों की बात की, वे स्वयं जीवन को स्थायी और प्रगतिशील स्वरूप प्रदान करेंगे. यह आशा की जाती है कि हमारी स्वतंत्रता के पिछले 74 वर्षों के दौरान, हमारे गांव जो अपेक्षाकृत  समृद्ध और अस्वच्छ शहरों और कस्बों के पिछले आंगन बने रहे, वे स्थानीय नियोजन लागू होने से, शहरों और कस्बों पर निर्भर नहीं रहेंगे और गांव के युवाओं, किसानों, महिलाओं, शिल्पकारों और कारीगरों को अपने ही गांवों में लाभकारी रोज़गार प्रदान करने में सक्षम होंगे. गांधी ने खेती पर उचित ध्यान देने का अनुरोध किया. कृषि से यहां का तात्पर्य व्यावसायिक खेती से नहीं है, बल्कि वह खेती है जो ग्रामीणों को भोजन के मामले में आत्मनिर्भर बनाएगी. यह बाजारोन्मुखी नहीं होनी चाहिए. इसका प्राथमिक उद्देश्य अनाज उत्पादकों को भोजन देना होना चाहिए. इस बारे में जापान में फुकुओका का उदाहरण हमारे समक्ष एक मॉडल होना चाहिए. सभी छोटे जोत वाले किसानों को 'प्राकृतिक खेती के लिए कुछ खेत उपलब्ध कराने होंगे. इस प्राकृतिक खेती में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों आदि की आवश्यकता नहीं होगी, जो लंबे समय में मिट्टी की गुणवत्ता और उर्वरता को नष्ट कर देते हैं. प्राकृतिक खेती को अपनाकर हम मिट्टी को स्वास्थ्य और आराम दोनों देंगे ताकि वह अपनी उर्वरता को फिर से हासिल कर सके. फुकुओका की वन स्ट्रॉ रिवोल्यूशन अपनाने से हमारे समक्ष अपार संभावनाएं पैदा हो सकती हैं.

 

गांधी ने इंगित किया था कि यदि प्रत्येक गांव में  रोज़गार के पर्याप्त अवसर पैदा नहीं किए जाते, तो हम, जल्द ही एक ऐसी स्थिति का सामना करेंगे, जो न केवल भीड़भाड़, प्रदूषण, बढ़ते अपराधों, झुग्गी-झोपड़ियों से बोझिल शहरी जीवन का निर्माण करेगी, बल्कि बेचैनी की प्रवृत्ति भी पैदा करेगी. बेरोज़गार युवाओं के उन लोगों के हाथों में पड़ने की आशंका रहेगी, जो तत्काल 'क्रांति और सीमा पर आतंकवाद और अन्य दुस्साहसिक रास्तों की पेशकश करते हैं. हमें उस घटनाक्रम से पर्याप्त सबक सीखना चाहिए, जब कुछ साल पहले दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में ट्रक मालिक, दूध आपूर्तिकर्ता और सब्जी उत्पादक अलग-अलग मौकों पर अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए थे. इन वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के अलावा जीवन लगभग ठहराव पर आ गया, जिसने आम जनता को सब्जियों और दूध के बिना रहने के लिए मजबूर कर दिया, जिससे चारों ओर सदमे की लहर दौड़ गई. यह एक तथ्य है कि शहर भोजन की किसी भी आवश्यक वस्तु का उत्पादन नहीं करते हैं; वे गांवों पर निर्भर हैं और जब गांवों में उत्पादित वस्तुएं शहरी केंद्रों तक नहीं पहुंचती हैं, तो शहरी और ग्रामीण दोनों केंद्रों को नुकसान होता है.

 

चरखा और खादी के 100 वर्ष

राष्ट्र ने हाल ही में गांधी के चरखे और खादी की 100वीं वर्षगांठ विचारपूर्वक मनायी. जब गांधीजी ने चरखे और कताई का प्रतिपादन किया, तो उन्होंने इसे एक जादू की छड़ी के रूप में नहीं माना, जो एक झटके में भारत की गरीबी को दूर कर देगी, और न ही उन्होंने इसे अनिवार्य रूप से एक ऐसी चीज के रूप में देखा जो कताई करने वालों की सभी आर्थिक जरूरतों को पूरा करेगी. इसमें निश्चित रूप से एक आर्थिक विषयवस्तु थी, लेकिन समाज के आमूल परिवर्तन के लिए व्यक्तिगत सुधार और राष्ट्रीय चरित्र को आकार देने की इसकी क्षमता अधिक महत्वपूर्ण थी, जहां शोषण अभी भी किसी न किसी रूप में मौजूद था. इनमें से किसी से भी अधिक, गांधीजी को उम्मीद थी, इससे सादगीपूर्ण, सरल और ईमानदार जीवन का संदेश वापस आएगा. यह हमारे समाज को एक अहिंसक, वर्गहीन और समतावादी समाज में बदलने का एक साधन होगा; यह स्व-निर्भर स्वस्थ सामाजिक जीवन के रूप में मुक्ति के साधन और भीतर से समाज के पुनर्निर्माण के साधन के रूप में भी कार्य करेगा.

 

आज हम इस सपने से कितने दूर हैं? यह प्रश्न हम में से प्रत्येक को पूछना है. चरखे का उपहास करने वालों को एक विकल्प पेश करने में सक्षम होना चाहिए. यह ध्यान दिया जा सकता है कि आज तक कोई भी चरखे का विश्वसनीय विकल्प पेश नहीं कर पाया है. यहीं से चरखे की प्रासंगिकता सामने आती है.

 

'गांधी ने 1 सितंबर, 1946 को हरिजन में लिखा था, वास्तव में, मेरा मानना है कि स्वतंत्र भारत केवल एक सरल लेकिन समृद्ध जीवन अपनाकर, अपने हजारों कुटीर उद्योगों को विकसित करके और दुनिया के साथ शांति से रहकर कराहती दुनिया के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकता है. उच्च विचार जटिल भौतिक जीवन के साथ असंगत है, जो मैमन वर्शिप यानी धन की पूजा द्वारा हम पर उच्च गति थोपी गई है. जीवन की समस्त अनुकंपा तभी संभव है जब हम नेक जीवन जीने की कला सीखें.

 

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आश्चर्यजनक घटनाओं, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के मद्देनजर, जिस तरह से सामाजिक संरचनाएं बदल रही हैं, यह अद्भुत, और शायद खतरनाक है, जिसने पूरी मानवता के लिए नई चिंताओं को जोड़ा है. ये घटनाएं पूरे भारत में भी बड़े पैमाने पर हो रही हैं. सभी अर्थों में, एक नई सभ्यता, एक नई विश्व व्यवस्था, एक नई जीवन शैली, लगभग स्थापित हो गई है, चाहे कोई इसे पसंद करे या नहीं. गांधी के योगदान या प्रासंगिकता को इन उभरते हुए परिदृश्यों के साथ-साथ जीवन की मूल लय के आलोक में देखने की जरूरत है. कुछ लोगों के लिए, गांधी एक स्वप्नद्रष्टा, यूटोपियन शांतिवादी थे, जिनके सूत्र अव्यावहारिक हैं. हालांकि, यह मानने वालों की संख्या बहुत बड़ी है कि वे बेहद व्यावहारिक थे. गांधी खुद मानते थे कि वह एक व्यावहारिक 'आदर्शवादी थे.

भारत को आधुनिक राष्ट्र बनाना

गांधीजी ने इस 'जातीय संग्रहालय को जातीय और भाषाई पहचानों की भीड़ से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में बुना, जिन्होंने न्याय के लिए खड़े होने और लड़ने का साहस खो दिया था. उन्होंने भारतीयों में खुद को खोजने और डर को दूर करने के लिए साहस का संचार किया. इस प्रक्रिया में, वह बेजुबानों की आवाज बन गए और एक गुलाम राष्ट्र को अचानक अपनी आवाज बुंलद करते हुए देखा और उन्होंने स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों की एक नई पीढ़ी को ढाला, जो यातना, जेल या मौत से नहीं डरते थे. उन्होंने एक विश्वसनीय अहिंसक विकल्प की भी पेशकश की, और एक तरह से, वे उन सभी को चुनौती दे रहे थे जिन्होंने उनका उपहास किया और एक नई सभ्यता के उभरने का मार्ग प्रशस्त किया.

 

अब यह हम पर है कि हम उनसे सबक लें और अपने भाग्य को आकार दें. क्या हममें हिम्मत है? जब हम अपनी मेहनत से जीती आजादी की 75वीं वर्षगांठ में प्रवेश कर रहे हैं, तो यह हम में से प्रत्येक के लिए एक बड़ा सवाल है. देश को इस बात का पता लगाने के लिए एक ईमानदार आत्मनिरीक्षण की जरूरत है कि हम कहां गलत हुए हैं और सड़ांध को जड़ से खत्म करने के लिए क्या किया जा सकता है. आत्मनिरीक्षण समय की मांग है. हमें अपने समाज के नैतिक कायाकल्प के लिए काम करने की जरूरत है. इस पर भी बहस हो सकती है कि बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के आलोक में सादा जीवन पर गांधी के आग्रह की क्या प्रासंगिकता है. क्या गांधी बदलते समय के अनुरूप नहीं हैं या वे हमें प्रकृति के नियम की याद नहीं दिला रहे हैं?

 

(लेखक गांधी शांति मिशन के अध्यक्ष हैं. उनसे drnradhakrishnan@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

ये लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं.

चित्र साभार: gandhi.gov.in