रोज़गार समाचार
सदस्य बनें @ 530 रु में और प्रिंट संस्करण के साथ पाएं ई- संस्करण बिल्कुल मुफ्त ।। केवल ई- संस्करण @ 400 रु || विज्ञापनदाता ध्यान दें !! विज्ञापनदाताओं से अनुरोध है कि रिक्तियों का पूर्ण विवरण दें। छोटे विज्ञापनों का न्यूनतम आकार अब 200 वर्ग सेमी होगा || || नई विज्ञापन नीति ||

संपादकीय लेख


Issue no 08, 22 - 28 May 2021

जल संचयन : मुद्दे, नीति और अवरोध

ए. के. सिंह एवं डी. दिनेश

कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश, जहां समग्र विकास, गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा के लिए संधारणीय कृषि का विकास आवश्यक है, वहां जल संसाधनों का संरक्षण और कुशल प्रबंधन किया जाना आवश्यक है.

नदियां, झीलें और भू-जल मानव जाति के लिए जल के प्राथमिक स्रोतों में शामिल हैं. हालांकि, ये किसी भी काल में पृथ्वी पर उपलब्ध पानी की कुल मात्रा के एक प्रतिशत से भी बहुत कम अंश रहे हैं. इस तरह के दुर्लभ संसाधन का प्रबंधन करने की समस्या बहुत जटिल है और वर्षा की अनिश्चिताओं के कारण यह और भी विकराल रूप धारण कर लेती है. इसके परिणामस्वरूप बाढ़ और सूखे की स्थितियां उत्पन्न होती हैं. सूखे की स्थिति में कमी लाने/इसकी विकटता को कम करने के लिए अतीत में लोगों ने भंडारण संरचनाओं में इस कीमती संसाधन का सफलतापूर्वक संचयन और संरक्षण किया. इस प्रकार का भंडारण कुओं के समान भूमिगत हो सकता है, तालाबों और जलाशयों जैसा सतही हो सकता है तथा धाराओं से नहरों आदि के जरिए सीधे काफी दूरी तक ले जाया जा सकता है.

जल प्रबंधन के मुद्दे वर्षा वाले भू-भाग की विशेषताओं और लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से भिन्न होते हैं. लिहाजा, भारत के भीतर उत्तर और दक्षिण के बीच इन मुद्दों में भिन्नता है. उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र बारहमासी नदियों से आच्छादित हैं जो वर्षा के मौसम में मानसून का पानी और गर्मियों में पिघलती बर्फ को उपजाऊ जलोढ़ मैदानों के माध्यम से बहा ले जाती हैं. इसलिए जल आपूर्ति में सुधार लाने के लिए नदियों द्वारा पोषित नहरों का निर्माण किया गया. क्षेत्र में भू-आकृतिक स्थितियों के कारण कुओं का निर्माण करना भी आसान था और इस तरह हमें वैदिक काल से ही इस क्षेत्र में कुओं या 'कूपोंÓ का संदर्भ मिलता है. इसी तरह, पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों ने पहाड़ी धाराओं या झरनों के पानी का उपयोग किया है, जिसे 'कुहलÓ के नाम से जाना जाता है, जिनकी लंबाई 1 किमी से लेकर 15 किमी तक की होती है और मेघालय में इनका बहाव 15 से 100 लीटर/सेकंड होता है, 'बांसÓ के उपयोग से झरनों के पानी से पौधों की सिंचाई की पद्धति आज भी मौजूद है. इसके विपरीत, पश्चिमी, मध्य और दक्षिण भारत में, नदियों के मौसमी होने और वर्षा कम होने के कारण, सतही भंडारण बनाने के लिए वर्षा जल का संचयन तटबंधों और टैंकों/झीलों में बड़े पैमाने पर किया जाता था. इसका आंशिक कारण कठोर ग्रेनाइट और शैल की उपस्थिति के कारण सिंचाई कूप विकसित करने में रुकावट होना भी था.

इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि भारतीयों ने सदियों से- वर्षा, धारा, नदी और बाढ़ से मिलने वाले जल के प्रत्येक संभावित स्वरूप का संचयन करने के लिए कई तकनीकें विकसित की हैं. शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में प्रचलित कुछ लोकप्रिय प्रणालियों का वर्णन नीचे किया गया है. शुष्क क्षेत्रों में नाड़ी, टांका, कुंडी, खड़ीन, टैंक, एनीकट और झीलों जैसी भंडारण संरचनाओं के रूप में जल संचयन इंजीनियरिंग के ठोस सिद्धांतों पर आधारित पारंपरिक प्रथा रही है.

नाड़ी

नाड़ियां (ग्रामीण पोखर) वर्षा ऋतु में जलग्रहण क्षेत्रों से होने वाले जल अपवाह का भंडारण करने के लिए धाराओं पर मिट्टी के बांधों (या मेड़ों) के माध्यम से बनाई जाती हैं. इन परम्परागत नाड़ियों की क्षमता उनकी प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थितियों और वर्षा के अनुसार 1200 से 15000 घन मीटर होती है. पश्चिमी भाग में, नाड़ियां मुख्य रूप से घरेलू जलापूर्ति और मवेशियों के लिए उपयोग में लायी जाती हैं.

टांका

भारतीय शुष्क क्षेत्र में टांका वर्षा जल संचयन की सबसे आम प्रणाली है और यह ढके हुए भूमिगत टैंक को दिया गया एक स्थानीय नाम है, जिसे आमतौर पर सतह के अपवाह के साथ-साथ छत के पानी के संचयन के लिए बनाया जाता है. जल संचयन की यह प्रणाली एक प्राचीन पद्धति है और व्यक्तियों के साथ ही साथ समुदायों की घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इसे जारी रखा गया है.

खड़ीन

खड़ीन वर्षा जल संचयन और नमी का संरक्षण करने की बेंच टेरेस कंजर्वेशन से मिलती-जुलती एक विलक्षण पद्धति है. ऊंची और चट्टानी सतहों से होने वाले अपवाह को 3 मीटर ऊंचाई और लंबाई वाली मिट्टी की मेड़ के पीछे 100 से 200 मीटर विस्तार तक इकट्ठा किया जाता है. मानसून के दौरान खड़े पानी से प्रभावित नहीं होने वाले ऊंचाई वाले क्षेत्र में खरीफ मौसम में फसल उगाई जाती है और रबी के दौरान संग्रहित नमी का उपयोग करने वाले जलमग्न क्षेत्र में. इस तरह की पद्धतियां मध्य प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में भी मौजूद हैं और 'बंधी और 'आहर के रूप में जानी जाती हैं.

एनिकट

यह छोटी धाराओं/नालों के पार निकास मार्ग से युक्त पत्थरों से संरक्षित एक संरचना होती है. वर्षा की अवधि के दौरान यह संरचना पानी को ऊर्ध्व प्रवाह या अपस्ट्रीम साइड पर रोक कर रखती है. रोका गया पानी मृदा में रिसता रहता है और निकट अवस्थित कुओं के पुनर्भरण में मदद करता है. भंडारण क्षेत्र जब खड़े हुए पानी से मुक्त होता है तो सर्दियों में उसमें फसलों का उत्पादन किया जाता है.

टैंक और झीलें

टैंक और झीलें सामान्य तौर पर सतही प्रवाह को रोकने के लिए समुचित जलग्रहण क्षेत्रों सहित छोटी धाराओं या नालों पर बनाए जाते हैं. संचित किए गए जल का उपयोग रिसाव के माध्यम से पूरी तरह भूमिगत जल पुनर्भरण के लिए तथा अनुप्रवाह या डाउनसट्रीम में फसलों की सिंचाई के लिए भी किया जाता है. इन टैंकों ने गांवों को सूखे और बाढ़ से संरक्षण उपलब्ध कराने के अलावा भोजन के संबंध में भी आत्मनिर्भर बनाया. तीन चौथाई कूएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उन पर निर्भर रहते हैं. संक्षेप में कहें तो ये टैंक लोगों के जीवन का आधार रहे हैं.

जल विस्तार

जल विस्तार एक ऐसी पद्धति है, जहां बाढ़ के पानी को किसी बड़े क्षेत्र या धारा स्रोतों से सावधानीपूर्वक एकत्र किया जाता है और उसकी राह बदलते हुए अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में बड़े बांधों का निर्माण करके एक पतली परत के रूप में उसका विस्तार कर दिया जाता है. जल विस्तार पद्धतियों को चारागाहों की स्थिति में सुधार लाने अथवा अवक्रमित भूमि में नमी की समग्र स्थितियों को संवर्धित करने के लिए भी अपनाया जाता है. इस प्रकार संरक्षित नमी सिंचाई के बगैर भी मानसून के पश्चात फसल सुनिश्चित करती है.

उप-सतही अवरोध या उप-सतही जल संचयन

उप-सतही जल संचयन प्रणालियों को मिट्टी, पत्थर की चिनाई, पॉलीथीन शीट, ईंट सीमेंट आदि में से किसी का उपयोग कर उप सतही अवरोध (एसएसबी) का निर्माण करके डिज़ाइन किया जाता है, ताकि सतही प्रवाह को ऊर्ध्व प्रवाह या अपस्ट्रीम साइड पर संग्रहीत किया जा सके और अपस्ट्रीम के साथ ही साथ अनुप्रवाह या डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों में भू-जल स्तर में सुधार लाया जा सके. ये प्रणालियां सामान्य उपयोग के लिए गुणवत्तापूर्ण जल का स्रोत प्रदान करती हैं तथा वाष्पीकरण पूरी तरह रोके जा सकने के कारण इसके उपयोग की दक्षता में सुधार लाती हैं.

इंजेक्शन वेल्स

जलग्रहण क्षेत्र से एकत्र किए गए अपवाह जल से खुले साथ ही साथ बोरवेल कुओं का भरण किया जाता है ताकि खाली हो चुके हुए जलभृतों को फिर से भरा जा सके. यह पनुर्भरण तात्कालिक होता है और इसमें किसी भी तरह की अपवाहन और वाष्पीकरण की हानि नहीं होती. अत्यधिक खंडित कठोर चट्टान और कार्स्टिक चूना पत्थर के मामले में यह पद्धति बहुत प्रभावी है.

छत (रूफटॉप) जल संचयन

छत (रूफटॉप) जल संचयन प्रणाली शुष्क क्षेत्रों में सामान्य बात रही है जहां भू-जल की आपूर्ति अपर्याप्त है और सतही स्रोतों का या तो अभाव है या वे नगण्य हैं. इस प्रणाली में जलग्रहण क्षेत्र के रूप में जीआई शीट, एल्यूमीनियम क्ले फाइल, एस्बेस्टस शीट या कंक्रीट की छत शामिल होती है, जिसे फिल्टर करने वाले उपकरण के माध्यम से पाइपों द्वारा भंडारण पात्र से जोड़ा जाता है.

बड़े बांध

जिन स्थानों पर टैंक बनाना संभव नहीं है और जलाभाव प्रवण क्षेत्रों में, जिन्हें लंबी दूरी से अपवाहित किए बिना जल उपलब्ध नहीं कराया जा सकता, वहां नदी के पार बड़े जलाशयों का निर्माण आवश्यक है और नियोजित विकास की अवधि के दौरान इसे महत्वपूर्ण समझा गया है. अतीत में ऐसे जलाशयों के निर्माण ने 86.12 मिलियन हेक्टेयर सिंचाई क्षमता का सृजन किया. यूं तो इन संरचनाओं को हमारी जल संबंधी आवश्यकताओं के लिए रामबाण माना जाता है, लेकिन इन्होंने समस्याओं को सुलझाने की जगह और ज्यादा कठिनाइयां उत्पन्न कीं. इस कारण इनसे जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए रणनीतियां बनाना आवश्यक हो गया.

भू-जल का मुद्दा

जलाभाव की समस्या का एक अन्य समाधान भू-जल का दोहन है, जिसे गुजरात, राजस्थान और तमिलनाडु के शुष्क क्षेत्रों में आजमाया गया है. हालांकि, इसने भू-जल स्तर के पुनर्भरण की संभावना से परे की हद तक नीचे चले जाने और इसके उपयोग में प्रतिकूल आर्थिक स्थितियों जैसी अप्रत्याशित समस्याओं और परिणामों को जन्म दिया है.

परिदृश्य

यह उस कला और विज्ञान का यथेष्ट प्रमाण है, जो अतीत में प्रचलित मृदा एवं जल संरक्षण का आधार रहे हैं. आज इन प्रणालियों में से कुछेक ही अस्तित्व में हैं. ज्यादातर मामलों में जलग्रहण क्षेत्र या तो अतिक्रमण या बड़े पैमाने पर खनन के द्वारा, वनों की कटाई और रख-रखाव के अभाव तथा सहायक नदियों (फीडर चैनल्स) में तलछट जमा होने के कारण नष्ट हो चुके हैं. इसके परिणामस्वरूप अपवाह में तेजी आई है, जिसके कारण क्षरित मृदा में वर्षा जल के रिसने की गुंजायश बहुत कम रह जाती है. इसके फलस्वरूप दो स्थितियां उत्पन्न होती हैं - पहली, धाराओं के आधार प्रवाह की अवधि घट जाती है और दूसरी भू-जल स्तर में गिरावट आ जाती है. पहली स्थिति में, अपेक्षाकृत छोटी अवधि में अपवाह की बड़ी मात्रा उपलब्ध होती है, जिससे उन संरचनाओं को नुकसान पहुंच सकता है, जिनका उचित रख-रखाव न किया गया हो. 1950 के दशक में बाढ़ के कारण प्रभावित होने वाला 6.86 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में 1980 के दशक में बढ़कर 16.57 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र तक पहुंच गया, जो उपर्युक्त का यथेष्ट प्रमाण है. कर्नाटक में सिंचाई टैंकों की स्थिति भी उपर्युक्त घटना को उद्घाटित करती है. जलग्रहण क्षेत्र के कुप्रबंधन के कारण राज्य के 40,012 टैंकों में से लगभग 31 प्रतिशत (12,512) उपयोग में नहीं थे. शेष 10,086 टैंकों का किसी प्रकार का कोई व्यवस्थित प्रबंधन नहीं किया जा रहा था. इन टैंकों के अंतर्गत सिंचाई का सकल संभावित क्षेत्र लगभग 0.79 मिलियन हैक्टेयर था और जो उपर्युक्त परिस्थितियों के परिणामस्वरूप घटकर 0.24 मिलियन हैक्टेयर रह गया है. दूसरी स्थिति में, जल कम अवधि के लिए उपलब्ध है और/या उसे पम्प करने या निकालने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास किए जाने की जरूरत है. शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्र में यह घटना जीवन की हकीकत है.

प्राकृतिक संसाधनों के अवक्रमण को रोकने के लिए मृदा एवं जल संरक्षण कार्यक्रम हालांकि प्रथम पंचवर्षीय योजना में आरंभ किए गए थे, लेकिन समस्त भूमि उपयोगों और जल संसाधन विकास सहित जल संभर प्रबंधन पर बल देते हुए छठी पंचवर्षीय योजना तक इन्हें विकसित किया गया. वर्तमान में संधारणीय विकास के बारे में विचार करने और उसकी योजना बनाने के लिए सरकार द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर जितना ध्यान दिया जा रहा है, उतना पहले कभी नहीं दिया गया. परिणामस्वरूप, जहां एक ओर सरकार के निवेश और कार्यक्रमों का लक्ष्य भूमि और जल संरक्षण है तथा प्रबंधन को बढ़ाया गया है वहीं दूसरी ओर, इन कार्यक्रमों का एकीकरण करने तथा स्थानीय लोगों की भागीदारी के साथ उन्हें कार्यान्वित करने के लिए व्यापक प्रयास किए जा रहे हैं.

हालांकि, ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि क्षेत्र का विकास करते समय विकासात्मक कार्यक्रमों में वहां की मूल जल संचयन प्रणालियों और उनकी उपयोगिता का ध्यान नहीं रखा गया. जिसके परिणामस्वरूप अनेक प्रणालियां या तो काम नहीं कर रही हैं अथवा जल संभरण आधार पर क्षेत्र के समग्र विकास के साथ एकीकृत नहीं किए जाने के कारण बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं.

कर्नाटक जल संभर विकास (केएडब्ल्यूएडी) की जल संसाधन लेखा परीक्षा (2000) में मौजूदा स्थिति के लिए जो कुछ अन्य कारक उत्तरदायी पाए गए थे, वे निम्नलिखित हैं:

·         जलमार्गों के साथ व्यक्तियों की जरूरत को पूरा करने के लिए अपवाह जल का संग्रह करने हेतु चिनाई के उपायों के माध्यम से गहन ड्रेनेज लाइन ट्रीटमेंट के कारण प्रवाह में कमी आना. इन संरचनाओं की क्षमता कम है, लेकिन मानसून के दौरान 2 से 3 गुना भर जाती हैं, जिससे टैंक में पानी की मात्रा प्रभावित होती है.

·         भू-जल संग्रह का अतिशय दोहन, सिंचित क्षेत्र में वृद्धि, ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच और उपयुक्तता के दृष्टिकोण से सकारात्म्क प्रतीत होता है, लेकिन इस अतिशय दोहन ने क्षेत्र में जलीय प्रवणता (हाइड्रोलिक ग्रेडीएंट) बढ़ा दी है और भू-जल स्तर में कमी ला दी है, जिससे अपवाह के टपकने में वृद्धि हुई है और टैंक में उसका प्रवाह बाधित हुआ है.

·         टैंक के प्रबंधन में हाल के हस्तक्षेप ने पूर्ववर्ती रूप से होने वाले टैंक के सामुदायिक प्रबंधन को समाप्त कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप टैंकों की मरम्मत और रख-रखाव के काम में लापरवाही हुई.

·         टैंक पंचायतों की विफलता - परम्परागत रख-रखाव के दायित्व को लागू करने में स्थानीय समुदाय के सहयोग और उत्साह के अभाव के कारण अथवा कुछ अन्य कारणों से टैंक पंचायते चरमरा गईं.

·         जन भागीदारी - परम्परागत जल संचयन प्रणाली की मौजूदा लापरवाही मोटे तौर पर यही कारण है कि ग्रामीण समुदाय सामान्य संपत्ति संसाधन के तौर पर इन जल संसाधनों को अपना नहीं मानता.

उपर्युक्त तथ्य के कारण बड़ी संख्या में जल संसाधन अब या तो त्याग दिए गए हैं या उनमें से अनेक अपनी भंडारण क्षमता खो चुके हैं.

अपेक्षित नीतिगत हस्तक्षेप

1. पारिस्थितिकी तंत्र सेवा के लिए देख-रेख में सुधार लाना 

प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण पर उभरते दबाव जनसंख्या से प्रेरित हैं. यह स्पष्ट हो चुका है कि भूमि उपयोग की आवश्यकताओं के भूमि की गुणवत्ता से मेल नहीं खाने के परिणामस्वरूप कृषि और गरीबी ही वे मुख्य कारक हैं, जो पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बनाने और अपकर्षण परिणामों का कारण बनते हैं. जलग्रहण क्षेत्र के अपकर्षण के कारण न केवल ऊर्ध्व प्रवाह या अपस्ट्रीम भूमि की उत्पादक क्षमता में कमी आई है, बल्कि अनुप्रवाह या डाउनस्ट्रीम पर जल स्रोतों का आर्थिक जीवन भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है. जल स्रोतों के जलग्रहण क्षेत्रों में सामान्य लोगों और विशेषकर भूमिहीन लोगों की सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के संबंध में उचित वनस्पतियां उगाने की आवश्यकता है, ताकि गाद रहित जल का प्रवाह सुनिश्चित किया जा सके. इस तरह विकसित होने वाले जल स्रोत अनुकूल माइक्रो-क्लाइमेट स्थापित करने में मददगार होंगे और जल की आवश्यकताओं में कमी लाएंगे, उप मृदा में नमी की स्थिति में सुधार लाएंगे, जिसकी अंतिम परिणति उचित बायो-मास उत्पादन में होगी और इस प्रकार सहायक व्यवसायों के माध्यम से ग्रामीण आजीविका के अतिरिक्त अवसरों का सृजन होगा.

2. नदी बेसिन/जलग्रहण क्षेत्रों में पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित दृष्टिकोण अपनाना

भूमि का उपयोग सभ्यता का वास्तविक सूचकांक है, क्योंकि भूमि, सभ्यता के उत्थान और पतन की मूक साझेदार रही है. पिछले चार दशकों के अनुभवों ने दर्शाया है कि किस प्रकार फसल उत्पादन पद्धतियों और संसाधनों की विशेषताओं के बेमेल होने से उर्वरता द्वारा वितरित जल संतुलन तथा कीटों और रोगों के पनपने के कारण मृदा की गहराई में कमी आई है. सीमांत भूमि पर कृषि-वानिकी और कृषि-बागवानी प्रणालियों के साथ भूमि के वैकल्पिक उपयोगों का रुख करने पर पानी की मांग में कमी आएगी और यह समान रूप से लाभकारी रहेगी, जिससे पारिस्थितिकीय संतुलन स्थापित होगा. कृषि योग्य  खेती के लिए उपयुक्त क्षेत्रों में आवश्यकता पर आधारित खेती के स्थान पर विज्ञान आधारित खेती करना आवश्यक होगा, जो मृदा एवं उर्वरता का निर्माण करने वाली गतिविधियों पर जोर देती है.

3. जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के समान बंटवारे के लिए लोगों को सशक्त बनाना

अतीत के जल प्रबंधन विवरण से यह उद्घाटित होता है कि जब तक लाभार्थी और स्थानीय निकाय जल संसाधनों के विकास और रख-रखाव में शामिल नहीं होंगे, तब तक संधारणीयता हासिल करना संभव नहीं होगा. परम्परागत प्रणालियों में आमतौर पर उच्च पैमाने की पारिस्थितिकीय अनुकूलता की विशेषता होती है, जिससे इनमें प्रौद्योगिकी की आवश्यकता बहुत कम होती है और इसलिए लोगों के एक बड़े वर्ग द्वारा इन पर विश्वास करना और इन्हें स्वीकार करना आसान हो जाता है. यह याद रखना उपयुक्त होगा कि ऐसी आजमायी हुई और परखी जा चुकी परम्परागत प्रणालियां वर्तमान विकास कार्यक्रमों में एकीकृत कर दिए जाने के कारण अब खतरे में हैं.

जल संसाधनों की मात्रा चूंकि उनकी मांग की तुलना में कम है, इसलिए यह आवश्यक होगा कि सामाजिक पाबंदियों के अलावा नवाचारी प्रौद्योगिकियां आरंभ कर संसाधनों के बंटवारे में सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए ज्यादा हितधारकों को शामिल कर विवेकपूर्ण उपयोग के माध्यम से उसे विशाल क्षेत्र में वितरित किया जाए. जहां एक ओर सतही जल भंडारण को सामुदायिक संसाधन माना जाता है, वहीं भू-जल को वैयक्तिक संपत्ति माना जाता है और उसके पुनर्भरण के बारे में किसी तरह का सोच-विचार किए बगैर उसका अतिशय दोहन किया जा रहा है. इसके परिणामस्वरूप भू-जल स्तर में पुनर्भरण से परे गिरावट आती जा रही है और सतही भंडारणों को भी खतरा हो गया है. उपर्युक्त परिस्थिति पर काबू पाने के लिए जल प्रबंधन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में नवाचारी पहल और नवाचारी चिंतन की आवश्यकता है. संधारणीयता के अलावा समानता स्थापित करने के लिए जलवायु, भू-विज्ञान और मृदा के संबंध में किसी क्षेत्र में कुओं के घनत्व को सीमित करने से संबंधित पहल. जल उपयोगकर्ता रिंग्सम/एसोसिएशन्स के संदर्भ में नवाचारी चिंतन ताकि सहकारी कृषि की स्थापना के द्वारा उसके विकास और जलसंभर आधार पर उपयोग को समन्वित किया जा सके, जिससे जल की प्रत्येक बूंद से ज्यादा उपज हासिल की जा सके. यहां तक कि जलग्रहण किसानों के लाभ के लिए, जहां भी संभव हो, संसाधन के रख-रखाव में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करते हुए लिफ्ट सिंचाई शुरु किए जाने की जरूरत है.

4. जल की बर्बादी में कमी लाने और प्रणालियों की रक्षा करने के प्रति जागरूकता बढ़ाना और मानव व्यावहार में बदलाव लाने की क्षमता को मजबूत बनाना

ग्रामीण समुदायों को आधुनिक विकास की प्रक्रिया के साथ अधिक घनिष्ट रूप से एकीकृत करने तथा सहकारी प्रयास करने की आवश्यकता है, ताकि जल स्तर और पेयजल की उपलब्धता बनाए रखने के लिए, विशेषकर जल संरक्षण और प्रबंधन के क्षेत्र में अधिक जन भागीदारी और कार्यक्रम का बेहतर कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जा सके. अब तक समस्त जल संभर विकास कार्यक्रमों में पेय जलापूर्ति और उसके संरक्षण पर एक महत्वपूर्ण संघटक के तौर पर विचार नहीं किया गया. जल संरक्षण को कृषि योग्य भूमि में महत्व दिया गया है, लेकिन उस क्षेत्र में नहीं, जहां उसको लेकर अभ्यस्तहता है. पुनर्भरण और साथ ही साथ घरेलू और लाभकारी उपयोग के लिए वर्षा जल और अपशिष्ट जल का अलग-अलग संचयन करके जन कल्याण के लिए पर्याप्त मात्रा में जल संचयन और उसका प्रबंधन किया जा सकता है. ऐसे संसाधन की निरंतरता के लिए सामुदायिक भागीदारी का महत्व निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होता है, जैसलमेर क्षेत्र में सालाना 100 मिमी वर्षा होने के बावजूद, संचित जलसाल भर सभी तरह के उपयोग के लिए पर्याप्त रहता है, जबकि चेरापूंजी क्षेत्र को पृथ्वी का सबसे अधिक वर्षा वाला स्थान होने के बावजूद जल के अभाव यहां तक कि पेयजल के अभाव (कभी-कभी) का सामना करना पड़ता है. विकास का सबसे महत्वपूर्ण कारक व्यक्ति या समूहों को बदलती परिस्थितियों के अनुकूल स्वयं को ढालने की योग्यता तथा समस्याओं का समाधान करने और उचित उपायों की पहचान और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए खुद को व्यवस्थित करने में सक्षम बनाना है. संसाधनों के प्रबंधन में शामिल स्थानीय और तकनीकी जनशक्ति का प्रशिक्षण आवश्यक है ताकि समस्या की उचित समझ और समस्या पर काबू पाने के विकल्प का चयन सुनिश्चित किया जा सके. संसाधन प्रबंधन और संचालन के महत्व को रेखांकित करने के लिए समय-समय पर जल उपयोगकर्ताओं/ हितधारकों के लिए खेत पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए.

5. जल संसाधन प्रबंधन को बेहतर बनाने की प्रौद्योगिकी विकसित करना और उसे साझा करना

टिकाऊ भूमि उपयोग मॉडल और जल प्रबंधन प्रणालियां स्थापित करने के लिए इंजीनियरों, कृषिविदों, मृदा वैज्ञानिकों और किसानों के सम्मिलित कार्य के माध्यम से जलवायु, मृदा जल, फसल प्रबंधन और आवश्यक इनपुट की तकनीक का एकीकृत अनुप्रयोग किया जाना बहुत आवश्यक है. कुछ मुद्दे जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वे निम्नलिखित हैं:

·         जल संभर विकास योजना तैयार करते समय यह आवश्यक है कि बांधों की पुन:स्थापना और टैंक के तल से गाद हटाने पर ध्यान दिया जाए तथा जलग्रहण क्षेत्र पर वन रोपण को भी समान महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे वह मिट्टी के कटाव में कमी आती है, लेकिन यह जल संचयन संरचनाओं में पर्याप्त जल प्रवाह को जाने देता है.

·         विभिन्न उद्देश्यों के लिए कमान क्षेत्र में पानी के वितरण की मौजूदा प्रणाली की जांच करना, जल संरक्षण के लिए क्षेत्र की पहचान करना और आबादी की सामाजिक-आर्थिक जरूरतों को समझना.

·         अब इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि जल संभर आधार पर वर्षा जल संचयन के लिए स्थान विशिष्ट एकीकृत विकास पैकेज विकसित किया जाए.

·         जल संसाधनों की गुणवत्ता, मात्रा और व्यवहार्यता के आधार पर वर्षा, सतही और भू-जल के संयुक्त उपयोग के प्रयास किए जाने चाहिए.

·         वर्षा जल संचयन के साथ सिंचाई के तहत अधिक क्षेत्र को कवर करने के लिए विशेष रूप से रोपण फसल के लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी कुशल जल अनुप्रयोग विधियों को अपनाया जाना चाहिए.

·         कुछ क्षेत्रों में, स्थानीय रूप से उपलब्ध चिकनी मिट्टी जैसी सामग्री के माध्यम से उप सतही अवरोधों द्वारा धाराओं के तल पर मृदा के भीतर जल संचयन किया जा सकता है, यह प्रणाली वाष्पीकरण और गहरे रिसाव के नुकसान पर अंकुश लगाएगी.

·         नलिका से पहुंच उपलब्ध कराने के जरिए खाली हो चुके हुए जलभृतों में कम गाद भार वाले पानी को सीधे पहुंचाने के संबंध में इंजेक्शन वेल्स पर विचार किया जा सकता है या निष्क्रिय कुओं के माध्यम से कृत्रिम पुनर्भरण विधि द्वारा वर्षा जल को भूमि में संरक्षित किया जा सकता है.

6. राजनीतिक इच्छा शक्ति का सृजन और सुशासन

जल संचयन कार्यक्रमों का निर्माण जनता के कार्यक्रम के रूप में किया जाना चाहिए, जिसमें सरकार को भाग लेना चाहिए. यह केवल ग्राम स्तरीय समितियों के गठन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है ताकि संचित जल संसाधनों का उचित उपयोग, तथा जलग्रहण क्षेत्र का संरक्षण और कमान क्षेत्र का विकास सहित प्रणाली का उचित रख-रखाव और परिचालन सुनिश्चित किया जा सके.

ग्रामीण विस्तार सेवा, ग्रामीण सूचना प्रणाली और ग्रामीण वित्तीय प्रणाली जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं में एक साथ सुधार के साथ-साथ जिस स्तर पर समस्या महसूस की जा रही हो, उसके प्रयासों के पुन: आबंटन सहित विकेन्द्रीकृत लोक प्रशासन संरचना.

अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि संधारणीयता प्राप्त करने के लिए संसाधनों के प्रबंधन में अपार संभावनाएं मौजूद हैं, लेकिन हमें केवल कड़ी मेहनत से अवसरों का सृजन की जरूरत है.

(लेखक भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान केंद्र (आईसीएआर) वसाड, आणंद, गुजरात से संबद्ध हैं)

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं.

(चित्र: गूगल के सौजन्य से)