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संपादकीय लेख


Volume-5

शिक्षा और जागरूकता: बाल मजदूरी का
अभिशाप दूर करने की कुंजी

डॉ. श्री नाथ सहाय

बाल मजदूरी को औद्योगिक क्रांति का नतीजा समझा जाता है। उस समय कई उभरते हुए उद्योगों और पूंजीपति मालिकों ने सस्ती मजदूरी को ध्यान में रख कर अपने उद्योगों में बच्चों को कम दिहाड़ी पर रखना शुरू कर दिया, ताकि अधिक मुनाफा कमाया जा सके। उस समय लोग बाल मजदूरी के मूल्य के प्रति जागरूक नहीं थे। निरक्षर होने के कारण वे पूरी तरह मालिक की इच्छा के अधीन थे।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने मजदूरी के सबसे खराब स्वरूप के बारे में 1999 में एक संधिपत्र पारित किया। इस संधिपत्र की एक धारा के अंतर्गत बालिकाओं की विशेष स्थितियों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिनसे बाल मजदूरी कराई जाती थी। इस समस्या के तीन
पहलू थे:-
(क)बड़ी संख्या में बालिकाओं को बाल मजदूर के रूप में काम पर लगाया जाता था;
(ख)उनके द्वारा किए गए कार्य का बड़ा हिस्सा अप्रकट और अदृश्य रहता था;
(ग)इनमें से 50 प्रतिशत से अधिक बालिकाएं जोखिमपूर्ण कार्यों में लगाई जाती थीं।
भारत में बच्चों की कुल संख्या 25 करोड़ 96 लाख 40 हजार है, जिनमें करीब 4 करोड़ 30 लाख 50 हजार बाल श्रमिक हैं।
घरेलू नौकर
बड़ी संख्या में बच्चे, जिनमें ज्यादातर लड़कियां शामिल हैं, घरों में नौकर के रूप में नियोजित की जाती हैं, जहां उन्हें सभी प्रकार के शारीरिक श्रम कार्य जैसे घरों में झाड़ू-पोछा और बर्तन साफ करना, चाय बनाना, भोजन बनाना, कपड़े धोना और घरेलू सामान खरीदने जाना आदि करने पड़ते हैं। इन कार्यों में लडक़ों की तुलना में लड़कियों को अधिक रखा जाता है।
अदृश्य कार्य
जहां बालिकाओं को घर से बाहर पूर्णकालिक काम में नहीं लगाया जाता है, वहां उन्हें स्वयं अपने घरों में खेती और उद्योग क्षेत्रों में काम करने जाने से पहले घर का पूरा काम करना पड़ता है। स्वयं के घर में बालिकाएं जो काम करती हैं, उसकी न तो कहीं गणना होती है और न ही वह दिखाई देता है। वास्तव में ऐसे पारिवारिक कार्य जो नन्हीं बालिकाएं अपने घरों में करती हैं, वह सही अर्थों में आर्थिक दृष्टि से सक्रिय कामकाज हैं और उनकी गणना बाकायदा सेवाके अंतर्गत उसी तरह की जानी चाहिए, जैसे बाहर काम करने वाली लड़कियों की, की जाती है और उसके लिए उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए। ये बालिकाएं शिक्षा से वंचित रह जाती हैं और उन्हें कोई अवकाश नहीं मिलता है। वे लडक़ों की तुलना में अधिक घंटे काम करती हैं।
कानूनी प्रतिबंध 5 से 14 वर्ष की आयु समूह के अंतर्गत किसी बच्चे को जबरन काम पर लगाना बाल मजदूरी कहलाता है। उन्हें आमतौर पर निम्नांकित श्रेणियों के कार्यों में लगाया जाता है:-
(क)माता-पिता के साथ काम में मदद करना;
(ख)अन्य घर में जाकर काम में हाथ बंटाना (नौकर);
(ग)चाय की दुकानों, सडक़ किनारे ढाबों और भोजनालयों, रेस्त्राओं और होटलों, रिजॉट्र्स और स्पा, मनोरंजन केंद्रों आदि में काम पर रखना।
(घ)भवन निर्माण स्थलों, विनिर्माण केंद्रों, खानों और उद्योगों में काम पर रखना।
बाल श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम 1986 बच्चों (5 से 14 वर्ष की आयु के) को मजदूर के रूप में नियोजित करने पर पाबंदी लगाता है। इस प्रावधान का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ अदालती और दंडात्मक कार्रवाई की जाती है। भारत ने आईएलओ कन्वेंशन 138 (1973) और 192 (1999) तथा बच्चों के अधिकारों से संबंधित कन्वेंशन (1989) की धारा 32(1) की पुष्टि की है। ये समझौते बच्चों को जोखिमपूर्ण कार्य, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति खतरनाक कार्यों और अन्य ऐसे कार्यों जो उनके शैक्षिक, सामाजिक और नैतिक विकास में रुकावट डालते हों, में नियोजित करने से रोकते हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 24 भी 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को मजदूरों के रूप में काम लेने से रोकता है।
परंतु, निवारक कानूनी उपायों के बावजूद बड़ी संख्या में बच्चे आज भी उद्योगों में काम पर रखे जा रहे हैं, जहां उनसे जोखिमपूर्ण, थकाऊ और परेशानी वाले कार्य कराए जाते हैं। भदोही (मिर्जापुर) के गलीचे उद्योग, वाराणसी के हथकरघा उद्योग, जम्मू कश्मीर में दरी उद्योग, फिरोजाबाद की कांच फैक्टरी, मुरादाबाद का पीतल बर्तन उद्योग, अलीगढ़ का ताला उद्योग, मार्कपुर (आंध्र प्रदेश) का स्लेट उद्योग और बहुत सारे ऐसे अन्य उद्योग हैं, जो कम दिहाड़ी पर मजदूरों के रूप में बच्चों को काम पर रखते हैं। घरेलू क्षेत्र जैसे घरों, आभूषण और वस्त्र तैयार करने वाली दुकानों, ऑटो रिपेयर वर्कशापों में भी बच्चों से काम लिया जाता है।
जब कोई परिवार नौकरी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है, तो बच्चे भी उनके साथ जाते हैं और उन्हें निर्माण स्थलों, ईंटों के भट्ठों, अभ्रक और पत्थर की खदानों आदि में उनके माता पिता के साथ मजदूरों की तरह काम पर लगाया जाता है। इस तरह छोटी आयु में बच्चों को इन स्थानों पर कष्टपूर्ण जीवन जीना पड़ता है।
अभ्रक की खानों में श्रमिक
बिहार और झारखंड में बड़ी संख्या में बच्चे अवैध खदानों में अत्यंत जोखिमपूर्ण कार्यों में श्रम बढ़ाते हैं। रंजीत कुमार (एक पूर्व बाल श्रमिक) को 2010 का एक डरावना सपना आज भी याद है, जब वह कोडरमा जिले में चानाको गांव में एक मुक्त गर्त खदान में काम कर रहा था। वह बताता है, ‘‘मैं खान के भीतर हूं और मैं अभ्रक का चमकीला टुकड़ा देख रहा हूं। मैं उसे पाने की कोशिश करता हूं, लेकिन वह मेरी पहुंच से दूर चला जाता है। मैं उसकी तरफ बढ़ता हूं पर वह और दूर चला जाता है और फिर खान ढह जाती है।’’ उस समय रंजीत की आयु आठ वर्ष की थी, वह कुछ समय मलबे में घुटता रहता है, जब तक कि बचाव टीम आकर उसे बाहर नहीं निकालती।
अभ्रक क्षेत्र चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है, जहां करीब 500 गांव उस पर निर्भर हैं और करीब 60,000 बच्चे अभ्रक के इस जोखिमपूर्ण कार्य में लगे हुए हैं। बड़ों के लिए यह परिवार की जीविका का साधन है। बच्चों के लिए यह जोखिमपूर्ण कार्य है, जिसमें उन्हें हेड इंजुरी, सिलिकोसिस और क्षय रोग जैसी बीमारियों का सामना करना पड़ता है।
बीड़ी बनाना
इसी प्रकार दिहाड़ी रोजगार परिवार से सम्बद्ध कुंती की कहानी भी निराश करने वाली है। उसे बहुत छोटी आयु में कम से कम दो घंटे सुबह के समय और फिर शाम को तीन घंटे बीड़ी बनाने के काम में लगाने होते हैं। उसे अन्य कार्यों के साथ हर रोज 500-600 बीडिय़ां बनानी होती हैं। इसके बदले अल्प राशि प्राप्त होती है, जो उसके परिवार की आय में पूरक भूमिका अदा करती है। वह स्कूल जाना चाहती है, लेकिन उनकी मां कहती है, उसकी किताबें हमें रोटी नहीं देंगी। उसे अधिक धन कमाने के लिए अधिक बीडिय़ां बनानी चाहिएं ताकि वह अपने विवाह के लिए पैसे जोड़ सके और अंतत: उसे स्कूल से हटा दिया जाता है, ताकि पूरे समय बीड़ी बनाने का कार्य कर सके। इस तरह की स्थितियों का सामना करने वाली कुंती अकेली नहीं है। उसके साथ बड़ी संख्या में लड़कियां इस काम को अंजाम देती हैं, जहां उनका बचपन नष्ट हो जाता है। विषाक्त उत्पादों के साथ काम करने के कारण उन्हें श्वसन संबंधी बीमारियों, स्किन एलर्जी और टीबी जैसी बीमारियों का जोखिम उठाना पड़ता है।
श्रमिक से बंधुआ श्रमिक तक
मजदूरों को काम की तलाश में अपने पैतृक स्थानों से दूर दराज के जिलों में जाना होता है। वे बच्चों सहित पूरे परिवार को स्थानांतरित करते हैं और अपनी सुविधा के लिए निर्माण स्थलों पर ही रहने लगते हैं। उन्हें मामूली दर से दिहाड़ी दी जाती है और वह भी 15 दिन बाद। बीमारी आदि आकस्मिकताओं के समय उन्हें अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। नियोक्ता स्थिति का शोषण करते हैं। उन्हें ऊंची ब्याज दर पर धन देते हैं, अपने रजिस्टरों में उनकी उधारी की गलत प्रविष्टियां करते हैं, जिसकी जानकारी निरक्षर मजदूरों को नहीं होती है। कर्ज की राशि बढ़ती जाती है और अंतत: मजदूर उसे लौटाने में असमर्थ हो जाते हैं। इस तरह अंतत: श्रमिक अपने मालिकों के बंधुआ श्रमिक बन जाते हैं। वे हमेशा के लिए नियोक्ता के यहां काम करने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। 1976 में बंधुआ मजदूर प्रणाली (समाप्ति) अधिनियम बनाया गया। यह अधिनियम बंधुआ मजदूरी को गैर-कानूनी घोषित करता है और जिला मजिस्ट्रेट को अधिकार देता है कि वह बंधुआ मजदूरी समाप्त कराए और बंधुआ मजदूरी प्रणाली से प्रभावित व्यक्तियों का पुनर्वास करे।
बाल अधिकार कार्यकर्ता और नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का मानना है कि राष्ट्र का उज्ज्वल और समृद्ध भविष्य बच्चों की समुचित परवरिश और उनके विकास पर निर्भर करता है। वे इस संदर्भ में ‘6 आपात स्थितियोंकी चर्चा करते हैं, जिनसे बाल श्रमिकों की समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है:
(1)शैक्षिक आपातकाल: उनका कहना है ‘‘शिक्षा और बाल मजदूरी का उन्मूलन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’’ निरक्षर बच्चों को बाल मजदूरी में धकेलना आसान होता है। हमें शिक्षा पर खर्च बढ़ाना चाहिए। व्यापार घरानों को भी बच्चों की शिक्षा के लिए योगदान करना चाहिए।
(2)प्रवर्तन आपातकाल: बाल मजदूरी की वर्तमान स्थिति के लिए यह जरूरी है कि जबरन बाल मजदूरी, गुलामी और बच्चों को घरों में काम पर रखने के खिलाफ बनाए गए कानूनों का कार्यान्वयन प्रभावकारी ढंग से किया जाए। ऐसे बच्चों को उनके परिवारों के साथ समाज की मुख्य धारा में लाने की आवश्यकता है।
(3)रोजगार आपातकाल और
(4)आर्थिक आपातकाल: ये दोनों परस्पर सम्बद्ध स्थितियां हैं, क्योंकि रोजगार से आमदनी बढ़ती है और आमदनी परिवार के जीवन और जीवन स्तर को ऊंचा उठाती है। इस तरह परिवार का आर्थिक उत्थान बाल मजदूरी को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
(5)पारिस्थितिकी संबंधी आपातकाल: जलवायु परिवर्तन की समस्या सबसे ज्यादा गरीब देशों पर दुष्प्रभाव डाल रही है। इससे उनका जीवन और जीवन स्तर घटता जा रहा है। ऐसे परिवारों के बच्चों को बाल श्रमिक बनना पड़ता है। उन्हें बचाने की आवश्यकता है।
(6)नैतिक आपातकाल: कानूनी और न्यायिक पहलू अकेले बाल मजदूरी की समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस समस्या को नैतिक और व्यावहारिक स्तर पर सामाजिक और सामूहिक तौर पर हल करने की आवश्यकता है।
समूची स्थिति का विश्लेषण करते हुए देखें तो बाल मजदूरी आर्थिक की बजाए एक सामाजिक समस्या अधिक है। हमें जमीन आधारित सामंती समाज विरासत में मिला है। हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से जमीन पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिसंख्य लोग भूमिहीन हैं, जबकि गिने चुने कुछ परिवारों के पास भूमि और संसाधनों का नियंत्रण है, जिसका इस्तेमाल वे खेती के लिए करते हैं। भूमिहीन निर्धन बहुसंख्यक हैं और निरक्षर होने के कारण सश्रम और घटिया व्यवसायों को अपनी जीविका का साधन बना लेते हैं। वे अधिकतर जमींदारों के अंतर्गत दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं और उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। जीविका की तलाश में बाहरी स्थानों पर जाने पर उन्हें अपने बच्चे साथ ले जाने होते हैं और उन्हें अपने साथ कमाई पर लगाना पड़ता है। इस तरह बच्चे अपने माता पिता की आर्थिक और सामाजिक कमजोरी की कीमत चुकाते हैं।
प्रमुख अर्थशास्त्री वार्नर का कहना है कि बाल मजदूरी का प्रमुख कारण बच्चे की निरक्षरता है। निरक्षर बच्चे गरीबी, उच्च जन्मदर और परिवार के आकार तथा निम्नतर आर्थिक विकास का कारण बनते हैं। उनका यह भी कहना है कि बाल मजदूरी आभिजात्य वर्ग के अंतर्निहित स्वार्थों और निर्धन अभिभावकों के कारण सृजित होती है, क्योंकि वे इस बुरी प्रणाली से अधिक कमाना चाहते हैं। बाल मजदूरी की कुप्रथा को शिक्षा और जागरूकता के प्रसार से दूर किया जा सकता है।
(लेखक एक शिक्षाविद् हैं और सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर लिखते हैं।)
चित्र: गूगल के सौजन्य से