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संपादकीय लेख


Volume 49

भविष्य के परिपथ पर महिलाएं

डॉ. रमा शर्मा

ठीक ही कहा गया है, किसी राष्ट्र की प्रगति अप्रत्याशित रूप से इस बात में निहित होती है कि समाज में उसकी महिलाओं को कितनी आज़ादी प्राप्त है. स्वतंत्रता के तुरंत बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह बयान ‘‘आप महिलाओं की स्थिति देखकर किसी राष्ट्र की स्थिति को बता सकते हैं‘‘, भारतीय राष्ट्र में महिलाओं के लिये उस दृष्टिकोण को परिलक्षित करता है कि जो हमारे राष्ट्र निर्माता अपने मन में आज़ाद भूमि पर मौजूद महिलाओं के बारे में रखते थे. इसमें भारतीय संविधान में डा. बाबासाहेब अम्बेडकर का दृष्टिकोण झलकता है जिसमें महिलाओं के लिये पुरुषों के बराबर अधिकार दिये जाने की मांग की गई है. यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी महिलाओं के लिये शीर्ष स्थान प्रदान किया जाता था और ये कहा गया कि परमात्मा उसी घर में खुशहाली प्रदान करते हैं जहां महिलाओं का ख्याल रखा जाता है. लेकिन समय बीतने के साथ-साथ विकृतियां और झूठ मनुष्य के मन में घर कर गईं और शायद इनमें से कुछेक बुराइयों ने उनके लिये अधम की स्थिति बना दी जिनसे महिलाओं को पूर्व की स्थितियों में जा धकेला. अतीत में ही बने रहना और महिलाओं के प्रति अन्याय को लेकर पश्चाताप करते रहना हमारे लिये अच्छा नहीं है. महत्वपूर्ण है इस बात को स्वीकार करना कि आज़ादी के बाद से राष्ट्र के विकास के साथ, भारतीय महिलाओं को राष्ट्र की प्रगति और विकास में समान भागीदार बनने के लिये अधिकारों और अवसरों की प्राप्ति हुई है. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि महिलाएं दुनिया को यह दर्शाने में कभी पीछे नहीं रहीं हैं कि वे भी महान कारनामों को कर दिखाने में सक्षम हैं. सावित्रीबाई फुले, कस्तूरबा गांधी, सरोजिनी नायडू, आनंदीबाई गोपालराव जोशी से लेकर इंदिरा नुई, सायना नेहवाल, टीना डबि जैसी हस्तियों के रूप में महिलाओं ने सार्वजनिक और निजी जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी शूरवीरता का परिचय दिया है. नई शताब्दी में भारत में महिलाएं अपनी स्वयं की विशिष्ट पहचान के साथ मुक्त और स्वतंत्र व्यक्तित्व के तौर पर समाज द्वारा उन्हें सौंपी गई अविभाज्य साथी की और विनम्र भूमिकाओं से ऊपर उठकर आई हैं. उनकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक भूमिकाओं में आये बदलाव और सरकारी नीतियों ने महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक भागीदारी के अवसर प्रदान किये हैं. वह अब पूर्व की भांति पूरी तरह चूल्हा और रसोई में ही नहीं लगी रहतीं. वे अब स्वयं और सभी मानवजाति के लिये नये संसार में विश्वास की नई ऊंचाइयों के लिये उड़ान भर रही हैं.

भारत में महिलाएं

जैसा कि अन्यथा कोई भी जानता है, आधुनिक भारत में महिलाओं की स्थिति विरोधाभासी है. एक तरफ उन्होंने कौशलों के साथ स्वयं को सज्जित कर लिया है और सीधे रोज़मर्रा के जीवन में सामाजिक प्रतिबंधों, धार्मिक चारदीवारियों और सांस्कृतिक जकडऩों के विरुद्ध सीधे जंग के मैदान में कूद पड़ी हैं, वे पुरुषों के साथ हरेक क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. साथ ही देश में महिलाओं का एक बड़ा वर्ग है जिनका जीवन गऱीबी और निरक्षरता की दलदल में फंसा है. उनके मार्ग में अब भी बहुत बाधाएं हैं. यह अनिवार्य है कि हम ये जानें कि सशक्तिकरण बहुआयामी और बहुविषयक विचार है. महिलाओं के सशक्तिकरण का अर्थ है शक्तिविहीन व्यवस्था से शक्तिवान की स्थिति की तरफ बढऩा. इसके लिये महिलाओं को राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन के सभी क्षेत्रों में भागीदारी के लिये प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है. इससे उनमें बेहतर समझ के साथ-साथ सही अर्थों में आर्थिक भागीदार बनाने की स्थिति में सुधार आयेगा. हालांकि यह कार्य कभी भी आसान नहीं है. भारत एक अत्यधिक जटिल स्थितियों वाला राष्ट्र है जिसके लिये समाज कल्याण के लिये बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है. भौगोलिक रूप से बहुत बड़ा भूभाग होना भी दूरदराज के क्षेत्रों में स्थित लोगों को सरकार द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही विभिन्न सुविधाओं और राहतों में बाधा बन जाता है. हमारे लोगों का एक बड़ा हिस्सा अब भी जनजातीय और आदिवासी के तौर पर रह रहा है. उनके द्वारा सरकारी कल्याणकारी उपायों को स्वीकार किया जाना भी अपने आप में सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती है. ऐसे क्षेत्रों में महिलाओं के पास यहां तक कि सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं हैं और आधुनिक विश्व की अवधारणाएं उनके लिये आसमान से परी उतरने वाली बात के समान है. इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने संघर्ष को छोड़ दिया है. पूर्व में महिलाओं के जीवन पर एक नजऱ डाल लेना ही हमारे लिये यह जानने के लिये काफी है कि समाधान निश्चित तौर पर पीछे हटने और हार मान लेने में नहीं है बल्कि आगे कदम बढ़ाने में है.

उन्नीसवीं सदी में भी महिलाएं परंपरा और नैतिक सद्गुण के नाम की बेडिय़ों के कारण अपने घर की चारदीवारी से बाहर पांव रखने को कोई जगह नहीं होती थी. यहां तक कि घर के भीतर भी वह अपने परिवार और पति से ड्यूटियों के नाम पर बंधक का जीवन जीती थीं. वह पढ़-लिख नहीं सकती थीं और ज्ञान अर्जित नहीं कर सकती थीं क्योंकि इसे उनकी नैतिक भावना के प्रति हानिकारक समझा जाता था. तत्कालीन समाज सुधारकों के प्रयासों से लोगों के मन में बदलाव आया और महिलाओं की शिक्षा के द्वार खोल दिये गये. महिलाओं की शिक्षा और महिलाओं की स्थिति में संपूर्ण सुधार को बढ़ावा दिये जाने के लोगों द्वारा जैसे कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर, रमाबाई रानाडे, ढोंडो केशव कार्वे, ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले और अन्यों द्वारा किये गये शुरूआती प्रयासों से महिलाओं के प्रति पुरुर्षों के रवैये में व्यापक बदलाव आया. भारत में महिलाएं राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका में रहीं. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आज़ादी का उनका उत्साह पुरुषों से किसी भी तरह से कम नहीं था. झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट, अरूणा आसफ अली और विजय लक्ष्मी पंडित ऐसे कुछेक नाम हैं जिनकी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में अग्रणी भूमिका थी. महिला सशक्तिकरण का विचार, विशेषकर भारत में, इन वीरांगनाओं से प्रेरणास्वरूप आया जिन्होंने न केवल भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका को उजागर किया बल्कि महिलाओं के उत्थान और उनकी प्रगति और विकास के लिये उन्हें समान अवसर उपलब्ध करवाने  के वास्ते सरकारी नीतियों के लिये इसे केंद्रीय विषय बनाया. इसकी प्रमुखता में, महिला सशक्तिकरण महिलाओं को उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों का अहसास कराता है. यह समाज में लिंग आधारित हिंसा को समाप्त करने के राष्ट्र के लक्ष्य को भी संदर्भित करता है. इन सब ने महिलाओं को चूल्हा चौके से ऊपर उठकर अपने क्षितिज के विस्तार के लिये अवसर प्रदान किये. महिलाओं ने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा. नये युग में, उन्होंने राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उस समय से लेकर आज तक महिलाओं ने सती, बाल विवाह, दहेज, कन्या भू्रण हत्या आदि गंभीर सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ा है और यह निश्चित रूप से एक लंबी और कठिन यात्रा रही है. महिलाओं के प्रति इन सुपरिचित बुराइयों के उन्मूलन के अलावा भारतीय कानून निर्माता महिलाओं के स्वतंत्र और परिपूर्ण जीवन जीने के अधिकारों का अहसास कराने के लिये अग्रणी भूमिका में रहे हैं.

इतिहास में पिछले दो दशक जैसा समय कभी नहीं रहा. वर्ष 1995 को दुनिया भर में महिलाओं के लिये अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया जिससे समाज में महिलाओं की स्थिति और उनकी भूमिका के बारे में व्यापक जागरूकता पैदा हुई. खेल क्षेत्र से लेकर, व्यावसायिक उद्यमशीलता, राजनीति और अर्थव्यवस्था तक उन्होंने सभी क्षेत्रों में उपलब्धियां हासिल कीं. आंकड़े दर्शाते हैं कि शिक्षा में लड़कियां अक्सर लडक़ों से बाज़ी मारती हैं और उनमें से अनेक स्वयं को महान शिक्षक बनने के लिये चली जाती हैं. हालांकि यह भी सही है कि दूरदराज के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में हमारी लड़कियां अब भी शिक्षा और स्कूल जाने के अवसर से वंचित हैं. यह ग्रामीण इलाकों में सामाजिक, आर्थिक और सांस्थानिक सुविधाओं की अनुपलब्धता सहित विभिन्न कारणों से है. यह वही क्षेत्र है जिसमें सरकार को ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. सरकार ने बालिकाओं के बचपन से लेकर किशोरावस्था तक संपूर्ण कल्याण सुनिश्चित करने के वास्ते बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु बालिका समृद्धि योजना, उज्ज्वला, किशोरियों के सशक्तिकरण के लिये योजना, और बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसी कई योजनाओं की पहले ही शुरूआत की हुई है. इनमें स्वास्थ्य देखभाल, साफ-सफाई, शिक्षा और महिलाओं के प्रति सामाजिक परिदृश्य में संपूर्ण बदलाव लाये जाने की नीतियां शामिल हैं.

जैसा कि एक पुरानी कहावत है, यदि आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो आप संपूर्ण परिवार को शिक्षित करते हैं. दुर्भाग्यवश, समाज और परिवार के सामाजिक ढांचे में व्यापक परिवर्तनों की भावना के बावजूद परंपरागत मनोवृत्तियों में बदलाव लाना आसान नहीं है. पुराने जम़ाने की बातें अब बदल चुकी हैं और उनमें बेहतरी के लिये अब भी बदलाव हो रहा है, लेकिन यह एक लंबी यात्रा है.

अर्थव्यवस्था और राजनीति में महिलाएं

राष्ट्र के आर्थिक जीवन में महिलाओं को किसी भी तरह से पीछे नहीं छोड़ा जा सकता. इन दिनों सकल घरेलू उत्पाद में उनके योगदान की दृष्टि से वे पर्याप्त भूमिका में जुटी हैं. आने वाले दिनों में जो देश दुनिया का नेतृत्व करने का उद्देश्य रखता है, वह देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को नजऱअंदाज करने की बात को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता. यह देखकर खुशी हो रही है कि इंद्रा नोयि जैसे महिलाओं ने बड़े व्यावसायिक कंपनियों के संगठन के युग में महिलाओं की भूमिका को पुन:परिभाषित किया है. उन्नीसवीं सदी के शुरू से वैश्विक अर्थव्यवस्था की तेजी के युग में बहुत सी महिलाओं ने अपने को सफल उद्यमियों के तौर पर साबित किया है.

राजनीति में महिलाएं लंबे समय से सक्रिय रही हैं. हालांकि तब भी उन्हें नेतृत्व करने की अनुमति नहीं दी जाती थी. लेकिन भारत ऐसा पहला देश था जिसकी प्रधानमंत्री एक महिला बनी. यहां तक कि अमरीका भी अपने देश के सर्वोच्च पद के लिये किसी महिला का चुनाव नहीं कर पाया है. वर्तमान परिदृश्य में हमारी महिला राजनीतिज्ञ किसी भी तरह से पीछे नहीं हैं. सर्वेक्षणों और रिपोर्टों के अनुसार महिलाएं वंचित लोगों के प्रति उनकी संवेदना के कारण विधायकों, सांसदों और अफसर के तौर पर बेहतर काम करती हैं. वे कड़ी मेहनत करती हैं और आसानी से लक्ष्य को नहीं छोड़ती हैं.

महिलाएं और हिंसा

पिछले कुछ वर्षों की घटनाएं दर्शाती हैं कि लिंग-आधारित हिंसा ऐसे प्रमुख मुद्दों में से एक है जिसने हमारे देश की नाक में दम कर रखा है. बाल अपराध, तस्करी और घरेलू हिंसा से लेकर कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ तक महिलाओं को मानसिक और शारीरिक हिंसा दोनों का सामना करना पड़ रहा है. दिसंबर 2012 में एक युवती के साथ क्रूर गैंग-रेप और हत्या के बारे में उसके गंभीर चिकित्सा अध्ययनों के खुलासे ने मामले को केंद्र बिंदु में ला खड़ा किया और यह संपूर्ण राष्ट्र का प्रमुख मुद्दा बन गया. हालांकि संविधान में महिलाओं के लिये सुरक्षा सुनिश्चित करने की इसकी प्रतिबद्धता स्पष्ट है, लेकिन लिंग-आधारित मामलों के तीव्र समाधान में बाधाएं हैं. हाल के वर्षों में नये कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों से आशय है कि महिलाओं को अब शिकायत पर कार्रवाई के लिये पुलिस अथवा अदालत का दरवाजा खटखटाने अथवा सहानुभूति के अभाव में अधिकारियों से संपर्क करते हुए डरने की आवश्यकता नहीं है जो कि कुछ समय के पहले के मामलों में होता था. इक्कीसवीं सदी मेें आधुनिक प्रकृति के बावजूद महिलाओं की भूमिका और प्रतिष्ठा के संबंध में भारतीय पुरूषों में पक्षपात की जड़ें बहुत गहरी रही हैं. दिसंबर 2012 की घटना के बाद बड़े पैमाने पर हुए प्रदर्शनों से सरकार को प्रगामी नीतियां तैयार करनी पड़ीं और कानूनी सुधार करने पड़े जिसने महिलाओं को बड़ी राहत प्रदान की.

महिलाएं इस बात से अवगत हैं कि ये कुछ बाते हैं जिन्हें ठीक करने की जरूरत है. वैश्विक स्तर पर महिलाओं के अधिकारों की परिभाषा में बेहतरी के लिये महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं. यह प्रसन्नता की बात है कि भारतीय अदालतों ने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामलों में तेज़ी से न्याय सुनिश्चित करने के लिये व्यवस्था को मज़बूती के साथ लगाया है.

नतीजे और चुनौतियां

नीलसेन का एक सर्वेक्षण दर्शाता है कि भारतीय महिलाएं विश्व में 87 प्रतिशत के साथ सर्वाधिक तनाव में हैं जो कि अमेरिकी महिलाओं के लिये 53 प्रतिशत के आंकड़े से कहीं ज्यादा है. इसके लिये कारण, जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, भारतीय समाज में महिलाओं की गंभीर प्रकृति हो सकता है. तनाव के संकेतक शायद कामकाजी महिलाओं के लिये उच्चतर हैं जो कि कार्यस्थल पर लिंग-आधारित भेदभाव का सामना करती हैं जबकि पुरुष अभी भी वर्चस्व का दावा करते हैं. इसका रास्ता महिलाओं के मूल्यों की पहचान करना और पुरुषों के दबदबे को कम करना है. दूसरा, वे घर, बच्चों, त्वरित काम करने की बहुत सी जिम्मेदारियों में हाथ बंटाती हैं. महिलाओं को भी यह स्वीकार करना चाहिये कि उन्हें अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूरा करने में समर्थ होनेे का सुपरमानव बनने की जरूरत नहीं है. यद्यपि, पुरूष ने भी महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना और बदलते विश्व में गृह कार्य तथा बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया है, परंतु मार्ग अभी लंबा है. महिलाओं को अभी अंधेरे से बाहर निकलने के लिये समर्थन की आवश्यकता है जिसे उन्हें सदियों तक अपने आगोश में कैद कर रखा था.

निष्कर्ष
   ‘‘इतिहास की पुस्तकें भिन्न हो जाती हैं जब उनमें महिलाओं के योगदान को शामिल किया जाता है ’’
-राष्ट्रीय महिला इतिहास परियोजना

आनंदीबाई गोपालराव जोशी भारत में पहली महिला भौतिकीविद थी. उसने अमेरिका में अध्ययन के लिये अपने घर, अपने देश और अपने पति की सीमाओं को त्याग दिया. यह वह समय था जब भारत में हिंदू विश्वास करते थे कि किसी को समुद्रपारीय यात्रा नहीं करनी चाहिये और विवाहित महिलाओं से  केवल अपने घर और बाल बच्चों की देखभाल करने की आशा की जाती थी. उन्नीसवीं सदी में डॉक्टर की डिग्री हासिल करने में उसने सामाजिक प्रतिबंधों और व्यक्तिगत परेशानी का बहादुरी के साथ मुकाबला किया. यद्यपि आनंदी जोशी का जीवन और विदेश में चिकित्सा अध्ययन के लिये उनका अवस्थान चिकित्सकीय परेशानियों के कारण छोटा हो गया, उसने दुनिया को ये दिखा दिया कि महिलाएं यदि ठान लें तो वह सब कुछ हासिल कर सकती हैं. वे और उस समय की कई अन्य महिलाएं परपंरा और पक्षपात के कारण महिलाओं के रास्ते में आने वाली बाधाओं को तोडऩे के अपने विकल्पों से समाज में बदलाव लेकर आईं और उभरते नये विश्व में महिलाओं के लिये नये लक्ष्य निर्धारित किये.

महिलाओं की समानता एक ऐसा विचार है जिसका समय आ चुका है. भारत समूचे विश्व के सामने महिलाओं के लिये शीशे की दीवार को ढहाने और समाज में महिलाओं को एक ऐसी महिला के तौर पर प्रस्तुत करने के रूढि़वादी मार्ग से नई दिशा प्रदान करने की भूमिका के लिये उदाहरण पेश कर रहा है, जो कि घर की चारदीवारी के भीतर तक सीमित करके रखी गयी थींजो कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और स्थाई अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभायें. भारतीय परिकल्पना में नारी वंशवृद्धि का भी प्रतीक है. वह जीवनदायिनी धरती मां की प्राचीन भावना की संतति है. हम उसकी देवी दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती आदि के तौर पर पूजा करते हैं. हमारे देश में महिलाओं के कंधों पर राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर को धारण करने और सार्वजनिक और राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में सक्रिय भागीदारी निभाने की भी दोहरी जिम्मेदारी है.

प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक वर्जिनिया वोल्फ को विश्वास था कि अधिकतर इतिहास के लिये महिला गुमनाम थीं. वे भी भूतपूर्व, वर्तमान और भविष्य की मानवजाति का हिस्सा थीं. प्रतिष्ठा और समानता के लिये महिलाओं के संघर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वे बगैर डर के दुनिया में अपनी प्रतिभा का प्रचार कर सकती हैं. सच में कोई भी कह सकता है कि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें भारतीय महिलाओं का योगदान नहीं रहा है. स्वाभाविक है कि विकास के मार्ग पर अकेले एक पहिए के साथ यात्रा नहीं की जा सकती है. पुरुषों और महिलाओं दोनों को एक दूसरे के काम की कीमत समझनी चाहिये और एक गाड़ी के दो पहियों की तरह आगे बढऩा चाहिये.

यह कहा जाता है कि महिलाएं आधे आकाश को धारण करती हैं. वे संपूर्ण समाज की संस्कृति और बदलाव का भंडार हैं. जैसा कि हम एक और अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की तैयारी कर रहे होते हैं, हमें महिलाओं के संघर्ष के इतिहास को नहीं भूलना चाहिये जो अनगिनत महिलाओं से जुड़ा है जिन्होंने पुरुषों के साथ मिलकर हमारे समाज की बुराइयों को मिटाने के लिये अथक काम किया और अधिकार तथा आत्मसम्मान अर्जित किया, जो उन्हें मिलना चाहिये था. यह कभी भी आसान नहीं था. यद्यपि यह महिलाओं के काम तथा समाज में महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार करने की शुरूआत मात्र है. जी हां, अभी बहुत से मील के पत्थरों को पार करना बाकी है.

(लेखक: हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में स्थानापन्न प्रधानाचार्य हैं) ई-मेल: drrama1965@gmail.com

 

चित्र: गूगल के सौजन्य से