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संपादकीय लेख


Volume 44

गांधीजी के जीवन से सीख

प्रो. एन. राधाकृष्णन

देशवासियों के बीच बढ़ते मतभेदों और असहिष्णुता के बारे में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ’’मैं अपनी कब्र से निरंतर बोलता रहूंगा’’.

30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की शहादत के साथ धरती पर उनका पड़ाव हालांकि समाप्त हो गया, परंतु मर कर गांधीजी अधिक सशक्त और दुर्जेय होकर उभरे और तब से ही वे मानवता को अलग-अलग ढंग से निरंतर प्रभावित कर रहे हैं. उनकी मृत्यु पर नेहरूजी ने जो भविष्यवाणी की थी, लगता है, वह सत्य सिद्ध हो रही है. नेहरूजी ने कहा था

‘‘...रोशनी बुझ गई है, मैंने यह कहा, पर मैंने गलत कहा. जो रोशनी इस देश में प्रकट हुई थी, वह कोई सामान्य प्रकाश नहीं था. इन अनेक वर्षों में जो रोशनी इस देश को जगमग करती रही, वह आने वाले अनेक वर्षों और उसके बाद भी हजारों वर्षों तक इस देश में और विश्व में देखी जाती रहेगी और वह असंख्य लोगों को सांत्वना देती रहेगी.’’ 

गांधीजी की हत्या के बाद करीब 7 दशक बीत चुके हैं और भारत तथा विदेश में इस बात को लेकर कई तरह से विचार विमर्श किया जा रहा है कि गांधीजी मानवता के लिए क्या छोड़ कर गए और क्या उनकी शिक्षाएं समय की कसौटी पर खरी उतरेंगी.

गांधीजी अपने जीवन के अंतिम दिनों में गहन पीड़़ा और संकट महसूस कर रहे थे. गांधीजी ऐसे अप्रत्याशित घटनाक्रम से अत्यंत आहत थे, जिसकी परिणति उनके प्यारे देश के विभाजन के रूप में हुई, जिसकी आजादी के लिए उन्होंने विदेशी शासकों के खिलाफ अभूतपूर्व और अत्यंत व्यापक पैमाने पर अहिंसक जन आंदोलन किया था. अंतत: जब आजादी मिली, तो उनके लिए यह गहन परेशानी का कारण बनी कि अखंड भारत का उनका सपना चूर-चूर हो गया और उनके सपनों का भारत परस्पर विनाशकारी झगड़े और रक्तपात में लिप्त हो गया.

इन अप्रत्याशित घटनाओं से अविचलित गांधी ने अकेले तीर्थयात्री की भांति भरपूर आशावाद के साथ अपना मार्च शुरू किया. शांति और सद्भाव के लिए उन्होंने अंतिम बड़ी पहल नौआखली के रक्तरंजित क्षेत्र में की, जो उनके इस दृढ़ विश्वास की अभिव्यक्ति थी कि विभाजित समाज, तुच्छ मुद्दों पर लड़ते हुए, किसी भविष्य को प्राप्त नहीं कर सकता. उन्होंने अपने अभियान के जरिए यह संदेश भी दिया कि कोई भी व्यक्ति शांति समर्थक और शांति निर्माता बन सकता है.

शांति, सद्भाव और एकता के लिए गांधीजी ने नौआखली में जो अभियान चलाए, उनसे गुरूदेव टैगोर के एकलो चलोके संदेश और स्वामी विवेकानंद के प्रेरक कथन उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त करने तक मत रुकोकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही थी. उनके आंदोलन ने नए भारत के निर्माण के लिए देश के लोगों को एकजुट करने में नई उम्मीदें और नए संकल्प जागृत किए. गांधीजी का यह मानना था कि 15 अगस्त को राष्ट्र ने जो कुछ हासिल किया, वह ब्रिटिश शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता थी और आर्थिक स्वतंत्रता तथा सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन अवश्य जारी रखना होगा. इससे सद्भाव और सामंजस्य के उनके सुनियोजित संकल्प का पता चलता है.

गांधी परवर्ती युग की घटनाओं का अध्ययन करते समय, गांधीजी के कटु आलोचक भी इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि विश्व के विभिन्न  भागों में गांधीजी द्वारा प्रेरित गतिविधियों की एक शृंखला दिखाई देती है. भले ही बहुत महत्वपूर्ण उपाय के रूप में न सही, लेकिन विश्व के गिने-चुने देश ऐसे होंगे, जहां गांधीजी के नाम पर कुछ न कुछ आयोजित न किया जा रहा हो. संक्षेप में कहें, तो गांधीजी के बाद अहिंसा के प्रति एक वैश्विक जागरूकता दिखाई देती है.

गांधीजी की विरासत का सार
अब यह व्यापक रूप में स्वीकार किया जा रहा है कि मानवता के लिए गांधीजी की विरासत का सार यह है कि उन्होंने हमें यह सिखाया कि सत्य सभी दुनियावी उपलब्धियों से महत्वपूर्ण है और गुलामी, हिंसा, अन्याय और असमानताएं सत्य के प्रतिकूल हैं.

गांधीजी ने जो कुछ कहा, वह सिर्फ सिद्धांतों का पोथा मात्र नहीं है, बल्कि इसके विपरीत उन्होंने एक संघटित, सशक्त और परस्पर मददगार एवं सम्मान पर आधारित स्वतंत्र विश्व व्यवस्था का लक्ष्य भलीभांति विकसित किया था.

सहमति से परिवर्तन
तीन महाद्वीपों (यूरोप, अफ्रीका और एशिया) में गांधीजी के सार्वजनिक जीवन के छह दशक, जिनमें उन्होंने एक ऐसे नए सामाजिक और राजनीतिक परिवेश के लिए विभिन्न  आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसमें सभी स्त्री औेर पुरुष भाई-बहन समझे जाएं, इस बात के द्योतक हैं कि उन्होंने सहमति से परिवर्तन के लिए एक क्रांतिकारी निष्ठा के साथ काम किया. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अभी तक सहमति से परिवर्तन की अवधारणा को अनुभव नहीं किया गया था. सहिष्णुता, सहमति, सुलह-सफाई और सभी सचेतन और अचेतन जीवों की एकता में विश्वास, जैसे मूल्य एक ऐसे विश्व की गांधीजी की परिकल्पना का आधार थे, जिसमें ईश्वर की सभी रचनाओं के बीच सद्भाव से प्रत्येक व्यक्ति में एक अनिवार्य अच्छाई - मूत्र्त रूप में और अमूत्र्त रूप में - सृजित होगी, जो समूची मानवता को एकसूत्र में पिरोएगी. क्या यह सिद्धांत अव्यवहारिक लगता है? हां, बहुत बड़़ी संख्या में लोगों का मानना है कि गांधीजी ने जो नई सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना की थी वह अत्यधिक आदर्शवादी है और एक हासिल न की जा सकने वाली कल्पना है, जो केवल शैक्षिक और शाब्दिक व्याख्याओं के लिए पर्याप्त है.

उभरते परिदृश्य के बारे में गांधीजी की समीक्षा
गांधीजी ने बहुत पहले 1909 में हिंद स्वराजके लिए मूलभूत कार्य करते समय बढ़ते अन्याय और गहराते असंतुलन के प्रति मानवता को आगाह किया था कि सिद्धांतहीन विकास मानवता को विनाश के कगार पर ले जाएगा. उनके इस कथन पर गांधीजी के गहन अनुयायियों ने भी असहमति के संकेत दिए थे.

उनके अनुसार बुनियादी समस्या यह है कि बुराई हमारे भीतर है और हम उसकी अनदेखी करते हैं. असीमित विकास के पक्षकारों द्वारा संपादित नए कोश में आपसी समझ-बूझ, जियो और जीने दो, प्यार करो और प्यार प्राप्त करो, जैसे लक्ष्य पिष्टोक्ति यानी अव्यावहारिक बताए गए हैं. यह तभी संभव है, जब हम जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएं और समानता और न्याय सुनिश्चित करें, जिसमें इस सच्चाई को स्वीकार किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति विशिष्ट है और हमें उसकी निजता का सम्मान करना चाहिए तथा उससे भी यह अपेक्षा करनी चाहिए कि वह हर एक और प्रत्येक की विशिष्टता बनाए रखेगा और जो बात एक व्यक्ति पर लागू होती है, वह एक राष्ट्र पर और वैश्विक स्तर पर भी लागू होनी चाहिए.

गांधीजी ने मानवता को अनेक सामाजिक और राजनीतिक संकटों, पारिस्थितिकी संबंधी विनाश और अन्य मानवीय कष्टों के प्रति भी आगाह किया था. उनका कहना था कि यदि आधुनिक सभ्यता प्रकृति का ध्यान नहीं रखेगी और मानव प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्वक रहने और अपनी इच्छाओं को कम करने का प्रयास नहीं करेगा, तो ये विपत्तियां अवश्य आएंगी. असीमित भोग की प्रवृत्तियां और मूल्यों के प्रति निर्मम उदासीनता मानव को उसकी वांछित शांति की तरफ ले जाने में मदद नहीं करेगी. सभी प्रकार की घृणा और किसी भी प्रकार के शोषण की विद्यमानता के चलते मानवता जीवित नहीं रह सकती. जीवन की बुनियादी लय से अनुकूलता बनाए रखते हुए सादगीपूर्ण जीवन की गांधीजी की विरासत मानवता की सदियों पुरानी बुद्धिमत्ता को व्यक्त करती है. गांधीजी ने मानवता को यह बताने का भी प्रयास किया कि युद्धों से कभी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, इसके विपरीत मेल-मिलाप से मानवता को विभिन्न  समस्याओं के समाधान में मदद मिल सकती है. इस प्रकार, गांधी में, जैसा कि विश्व के विभिन्न  भागों के चिंतकों ने संकेत दिया है, हम एक ऐसा विश्व नेता देखते हैं, जिसने युद्धरहित विश्व का सपना देखा था और जो एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का हिमायती था, जिसमें शोषण और अन्याय प्रमुख प्रवृत्तियों के रूप में नहीं उभर सकते.

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के अनुभव और उनकी सम-सामयिक प्रासंगिकता
दो महत्वपूर्ण घटक ऐसे हैं, जो गांधीजी को करोड़ों लोगों के करीब ले गए. इनमें पहला यह कि उन्होंने स्वतंत्रताप्रेमी नागरिकों को उचित रूप में प्रेरित किया और एक बड़े जन समुदाय के बीच यह भावना पैदा की कि वे किसी व्यक्तिगत या बाहरी इच्छाओं से नहीं, बल्कि सेवा की भावना से प्रेरित होकर काम करते हैं.

दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्षों में उन्होंने जो प्रयोग किए, उनसे उन लोगों में भी गांधीजी को सम्मान प्राप्त हुआ, जो शुरू में उनके विरोधी थे और जो कभी उनसे मिले भी नहीं थे, या उन्हेें जानते तक नहीं थे.

टॉल्सटॉय की यह टिप्पणी कि दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के प्रयास उस समय के विश्व की सबसे महत्वपूर्ण घटना है, इसी बात को सिद्ध करती है.

गांधीजी ने यह दिखाया कि नेता का जीवन पारदर्शी होना चाहिए, वह जन-जन को प्रभावित करने में पर्याप्त सक्षम हो, ताकि लोग अपनी इच्छा से नेता का अनुकरण करें.

गांधीजी ने इन दोनों बातों में उल्लेखनीय सफलता हासिल की, जिसके परिणाम स्वरूप लाखों लोग उनके मतवाले हो गए. गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में दो आश्रम स्थापित किए, फोनिक्स आश्रम और टॉल्सटॉय फार्म. ये दोनों गांधीजी के नेतृत्व के गुणों और कल्पनाकारिता के स्पष्ट साक्ष्य बन गए. उनके इन प्रयासों से 20वीं सदी के शुरू में दक्षिण अफ्रीका में रह रहे सभी मूक भारतीयों और अन्य लोगों के बीच एक समझ, सहानुभूति और उत्साह की भावना पैदा हुई.

नए प्रयोगकर्ता और एक निजी व्यक्ति एवं महान मूल्यों के समर्थक के रूप में उनका जीवन पारदर्शी था. वे इस बात के खिलाफ थे कि किसी व्यक्ति के पास अन्य व्यक्ति से अधिक साजो-सामान हो. आश्रम के सभी सदस्य एक साझा रसोई में भोजन करते थे, खेत में मिल कर काम करते थे, उनके बच्चे सामान्य स्कूल में पढ़ते थे और किसी व्यक्ति को कुछ संचित करने या हासिल करने की अनुमति या इच्छा नहीं थी.

ऐसा नहीं था कि गांधीजी के लिए इसमें सिर्फ फूल ही फूल रहे हों. गांधीजी को इसमें अनेक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा. उनके लिए यहां तक कि स्वयं अपनी पत्नी को भी यह समझाना बड़ा कठिन था कि संचय नहीं करना है. एक बार जब उन्हें यह पता चला कि उनकी पत्नी के पास कुछ चीजें स्वयं की हैं, तो इस पर गांधीजी थोड़े कठोर हो गए थे. गांधीजी के बच्चे भी निराश थे और यहां तक कि वे बेहतर स्कूलों में जाने और उच्चतर शिक्षा के लिए दक्षिण अफ्रीका से बाहर जाने के आकांक्षी थे. गांधीजी ने इन सब प्रयासों का विरोध किया और अपने बच्चों से आग्रह किया कि वे उसी स्कूल में पढ़ें, जहां बस्ती के अन्य सदस्यों के बच्चे पढ़ रहे हैं.

वे खर्च की जाने वाली राशि में पाई पाई का हिसाब रखते थे. यहां तक कि उन्होंने वकील के तौर पर सेवाओं के लिए स्वयं की फीस लेना भी बंद कर दिया था. इन सब बातों ने न केवल उनको अनुयायियों में अधिक प्रिय बनाया, बल्कि यथासंभव उन्हें गांधीजी का अनुसरण करने की प्रेरणा मिली. इसकी स्वाभाविक परिणति यह हुई कि वे जिस उद्देश्य के लिए लड़ रहे थे, उसमें लोगों ने एक तरह की खुशी और इच्छा शक्ति के साथ भाग लिया.

सम-सामयिक परिदृश्य में गांधीवादी सत्याग्रह की प्रासंगिकता
भारत लौटने पर गांधीजी ने जो पहला बड़ा आंदोलन शुरू किया, उसके लिए शाक्यमुनि बौद्ध से जुड़े पवित्र स्थल बोधगया के निकट चम्पारण नामक स्थान को चुना गया. गांधीजी ने इस सुप्त गांव की यात्रा की, जहां उन्होंने अपना प्रथम सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया. उन्होंने देखा कि बड़ी संख्या में लोग उत्साहपूर्वक आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे. उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि यदि उचित कार्य के लिए आह्वान करने पर लोग साथ देते हैं, बशर्ते उन्हें यह समझा दिया जाए कि चुने हुए मुद्दे स्वयं उनके हैं और आंदोलन शुरू करने वाला व्यक्ति प्रेम, सम्मान और समर्पण का स्रोत है. गांधीजी में उनके समर्थकों को ये गुण प्रचुर मात्रा में दिखाई दिए.

अहमदाबाद मिल हड़ताल, नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन - ये सभी ऐसे अवसर थे, जब बड़ी संख्या में लोग अपनी सम्पदा और सुख-सुविधाओं को त्याग कर, असंख्य कष्टों, यातनाओं और बलिदानों की परवाह किए बिना सविनय अवज्ञा आंदोलन में कूद पड़े थे.

इस महान आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों द्वारा गाए गए गीतों ने अभूतपूर्व जन-समर्थन जुटाया था. इन लोगों को आगे बढऩे से कोई रोक नहीं सकता था. कारागार सत्याग्रहियों से भर गए थे और स्कूलों और फैक्ट्रियों को अस्थाई जेलों में परिवर्तित कर दिया गया था. हालत यह हो गई थी कि सरकार के आदेश का उल्लंघन करने वालों की निरंतर बढ़ती संख्या को देखते हुए जेलों में सत्याग्रहियों को रखने की जगह नहीं बची थी. सत्याग्रहियों को मुख्य भूमि से दूर अंडमान निकोबार द्वीप समूह भेजा जाने लगा था. गोलियां और यहां तक कि मौत भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी. एक विश्वास था, और वह भी अटूट विश्वास और साथ ही आगे बढऩे का दृढ़ संकल्प जो उन्हें लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रेरित कर रहा था. यह उनके स्वभाव का हिस्सा बन गया था और इसे किसी भी तरह से उत्तेजक नहीं कहा जा सकता था.

यह उन दिनों की भावना थी. इस महान आंदोलन के केंद्र में वे लोग थे, जिन्होंने न केवल लोगों को प्रेरित किया बल्कि हिस्सा भी लिया. इसमें वे लोग भी थे, जो आत्म-मंथन और दबी हुई अपनी आवाज को बुलंद कर रहे थे, जिनमें गांधीजी और गांधीजी द्वारा प्रेरित व्यक्ति शामिल थे.

ये उल्लेखनीय उपलब्धि इसलिए संभव हुई क्योंकि गांधीजी ने बड़े विश्वसनीय ढंग से अपनी सादगीपूर्ण जिंदगी के जरिए यह सिद्ध किया था कि जन-जन के साथ उनका जुड़ाव पूर्ण और वास्तविक है. उनके विचार अधिकतर मानव स्वभाव की गहरी समझ पर आधारित होते थे और उन्होंने जो अंतर-दृष्टि वैज्ञानिक समझ के साथ किए गए असंख्य प्रयोगों के जरिए विकसित की थी, वह एक दार्शनिक के कथनों में नहीं मिल सकती थी बल्कि एक ऐसे कल्पनाशील व्यक्ति के अनुभव में दर्ज थी, जो मानव व्यवहार के विभिन्न  क्षेत्रों में तनाव कम करने और सद्भाव बढ़ाने के तौर-तरीके तलाश कर रहा था.

पिछली सदी के उत्तरार्ध में हुई विस्मयकारी घटनाएं सिद्ध करती हैं कि गांधीजी सही थे, जैसा कि मार्टिन लूथर किंग ने कहा, ‘‘यदि मानवता को प्रगति करनी है, तो गांधीजी के सिद्धांत अपरिहार्य हैं. उनका जीवन, विचार और कार्य ऐसी मानवता से प्रेरित थे, जो शांति और सद्भावपूर्ण विश्व के विकास के लिए जरूरी है. हम उनकी अनदेखी स्वयं के जोखिम पर ही कर सकते हैं.’’

गांधीजी के वैज्ञानिक मानवतावाद का सार
यदि हम गांधीजी की तुलना किसी ऐसे संत या दार्शनिक से करते हैं, जिसने अलौकिक सत्य की तलाश की हो और ढेर सारी सूक्तियों के रूप में पहेलियां बुझायी हों, तो हम वास्तविक गांधी को नहीं समझ पाएंगे. वे इस अर्थ में क्रांतिकारी थे, कि उनका लक्ष्य सामाजिक और राजनीतिक ढांचों को बदलने का था, लेकिन इसके लिए उन्होंने जो साधन चुने वे क्रांतिकारियों से सम्बद्ध सामान्य हिंसक तौर-तरीकों से भिन्न  थे.
*गांधीजी ने मानवता के विकल्प प्रदान किए
*गांधीजी ने मानवता को विकल्पों के पैकेज प्रदान किए. उनमें हिंसा का विरोध अहिंसा से करना;
*युद्धों की समाप्ति के लिए संवाद, रजामंदी और मेल-मिलाप;
*आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए न्यासिता को अपनाना;
*उपेक्षित वर्गों की प्राप्तियों में सुधार लाने के लिए ऐसे घटकों को समाप्त करना, जो सामाजिक असमानता पैदा करते हैं;
*मानव जाति की संरक्षक के रूप में प्रकृति का सम्मान करते हुए प्रकृति पर मानव का अनाचार समाप्त करने के लिए रचनात्मक उपाय करना और संस्कृति, धर्मों, पद्धतियों और जीवन शैलियों की विविधता को बढ़़ावा देने के लिए बहु-समुदायवादी दृष्टिकोण का अनुपालन करना;

गांधीजी ने आश्रम के अपने अनुभवों से ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों, समुचित प्रौद्योगिकी आदि को प्रदर्शित किया. संक्षेप में सत्य के एक पक्के प्रयोगकर्ता के रूप में गांधीजी ने मानवता को यह दिखाया कि ऐसे व्यावहारिक विकल्प मौजूद हैं, जो रचनात्मक और टिकाऊ सिद्ध होंगे.

कुछ लोगों या सभी लोगों के लिए इसे समझने में मुख्य बाधा यह है कि इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करने के लिए साहस जुटाना पड़ेगा, क्योंकि इसमें स्वयं के लिए और सामूहिक रूप में कुछ तरह के अनुशासन अपेक्षित हैं. इसमें हम जो अपेक्षित त्याग करना चाहते हैं, वह कोई अकारण और दूसरों पर कृपा प्रदर्शन नहीं है बल्कि उपेक्षित देशवासियों और महिलाओं के साथ साझा करने की हमारी इच्छा और सहज तैयारी है, जो हमें तलाश करनी है और एक नई व्यवस्था कायम करने के लिए स्वेच्छा से जिसके लिए काम करना है.

गांधीजी का मानवतावाद प्रतिबंधात्मक नहीं है, बल्कि श्रेष्ठ और वैज्ञानिक है. गांधीजी को धार्मिक पुनरुथानवादी कहना ऐसे लोगों की बंद मानसिकता को व्यक्त करता है जो समस्त सृजन और क्रांतिकारी विचारों तथा प्रयासों को आवरणबद्ध मानते हैं. कुछ हलकों में यह कहा जाता है कि गांधीजी केवल सीमित दायरे में सफल रहे और वह भी यह कि उनका प्रभाव केवल कुछ सांस्कृतिक संदर्भों में देखा जा सकता है.

इस तथ्य से इंकार नही किया जा सकता कि गांधीजी अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं के साथ गहरे जुड़े हुए थे. गांधीजी ने 19वीं सदी के अंतिम दो दशकों में मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए संघर्ष करते हुए सुदूर दक्षिण अफ्रीका में जो महत्वपूर्ण सफलता हासिल की, और बाद में नेल्सन मंडेला द्वारा गांधीवादी तकनीकें अपनाया जाना, भले ही आंशिक रूप में ही सही और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति श्री डी क्लेर्क द्वारा यह रहस्योद्घाटन करना कि वे सुलह सफाई और क्षमा करने का मार्ग अपनाने में गांधीजी से प्रभावित थे, निश्चित रूप से ये सब बातें सिद्ध करती हैं कि दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी द्वारा बिताए गए 21 वर्ष व्यर्थ नहीं गए.

अमरीकी महाद्वीप में, नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए महान लड़ाई लडऩे वाले मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) और स्वयं उनके द्वारा यह स्वीकार किया जाना कि उन्होंने अपनी प्रचालनगत पद्धतियां गांधीजी से ग्रहण कीं, गांधीजी की प्रासंगिकता को सिद्ध करने वाला अकेला उदाहरण नहीं है. ग्रीन्स ने, विशेषकर जर्मनी में जिस तरह से मानवीय चेतना को जगाने के लिए गांधीवादी तकनीकें अपनाईं, और उन्होंने जिस तरह अपनी कार्यनीति को अमली जामा पहनाया, और पेट्राकेली द्वारा की गई स्पष्ट घोषणाएं कि किस तरह वे गांधीजी से प्रभावित हुए, ये सब बातें यह संकेत देती हैं कि किसी निश्चित दर्शन या दृष्टिकोण को प्रभावोत्पादक बनाने में किसी देश या महाद्वीप की सांस्कृतिक परंपराएं नहीं, बल्कि उसे अपनाने के प्रति लोगों की इच्छा और तैयारी महत्वपूर्ण होती है. स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों ने गांधीवादी लक्ष्य और दृष्टिकोण को जिस तरह एक कारगर हथियार के रूप में अपनाया, उसके उदाहरण विश्व के लगभग सभी भागों से दिए जा सकते हैं.

गांधीजी ने किसी भी स्तर पर यह दावा नहीं किया कि वे कोई नई चीज सिखा रहे हैं. वास्तव में उन्होंने एक से अधिक बार स्वयं यह कहा कि वे किसी मिशन में शामिल नहीं रहे हैं. उनका कहना था कि सत्य और अहिंसा पर्वतों की तरह पुराने हैं और उन्होंने केवल इन दोनों की अद्भुत और जादुई शक्ति को पहचानने और समझने का प्रयास किया है. उन्होंने इस सिलसिले में कहा था कि ‘‘हमें सत्य और अहिंसा को सिर्फ व्यक्तिगत इस्तेमाल के मामलों तक सीमित नहीं रखना है, बल्कि समूहों और समुदायों तथा राष्ट्रों द्वारा अपनाए जाने का प्रयास करना है. किसी भी कीमत पर यह मेरा सपना है. मैं इसे हासिल करने के लिए जीवित रहूंगा और मरूंगा. मेरा विश्वास हर रोज नई सच्चाई खोज करने में मेरी मदद करेगा. अहिंसा आत्मा का गुण है, इसलिए इसका इस्तेमाल प्रत्येक व्यक्ति द्वारा जीवन के सभी क्षेत्रों में किया जाना चाहिए.

दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति - भारत में अस्पृश्यता की बुराई सहित शेष विश्व में सामाजिक भेदभाव समाप्त करने का संदेश
यह आश्चर्य की बात है कि यूनेस्को की प्रस्तावना में कही गई इस बात में कि चूंकि युद्ध की शुरूआत मानव मस्तिष्क में होती है, अत: शांति की रक्षा की बात भी मानव मस्तिष्क में ही उपजनी चाहिए-और गांधीजी के इस कथन में समानता है कि विश्व या तो अहिंसा के साथ प्रगति कर सकता है अथवा हिंसा के साथ बर्बाद हो सकता है. दक्षिण अफ्रीका में पूरे 21 वर्ष और भारत में 32 वर्ष तक महात्मा गांधी के महानायक के कार्यों ने मानवता को उन कार्यनीतियों का एक खाका प्रदान किया है, जिन्हें अपनाकर विश्व समाज का रूपांतरण एक ऐसी मानवता में हो सकता है, जहां जीवन के सभी रूपों का सम्मान हो और मानवीय गरिमा, आत्म सम्मान और सहिष्णुता मानवता की प्रगति में मददगार बनें.

दक्षिण अफ्रीका और शेष मानवता ने वर्ष 1994 में गांधीजी की कार्यनीतियों और दर्शन की प्रभावकारिता को प्रत्यक्ष रूप से देखा, जिससे पता चलता है कि गांधीजी ने करीब 100 वर्ष पहले यानी 1903 में दक्षिण अफ्रीका में जो संघर्ष शुरू किया था, उसके फलस्वरूप श्वेत और अश्वेत लोग सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के लिए संतोषजनक समाधान कर पाए और परिणाम स्वरूप चुनावों के बाद डॉ. मंडेला ने सत्ता की बागडोर संभाली.

राजनीति का आध्यात्मिकरण
राजनीतिक जागरूकता में गांधीजी के योगदान और विश्व के विभिन्न  भागों में स्वतंत्रता आंदोलन और अहिंसक नीतियों को अपनाए जाने से विरोधी समूहों को एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करने और दूसरे के विचारों को समझने में मदद मिली है, जो यूनेस्को के उस निर्णय के अनुरूप है, जिसमें मानव अस्तित्व के लिए सहिष्णुता के संदेश का प्रचार करने की बात कही गई है. एशिया और विशेष रूप से अफ्रीकी महाद्वीप महात्मा गांधी के प्रयासों, जिनमें विभिन्न  पद्धतियां शामिल रही हैं, की बदौलत सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण और सामाजिक परिवर्तन के गवाह रहे हैं.

गांधीजी की शिक्षाओं और कार्यनीतियों के अलावा एक महत्वपूर्ण और बेजोड़ बात यह रही है कि गांधीजी स्थायी लक्ष्य हासिल करने के लिए साधनों की पवित्रता पर बल देते थे.

राजनीति को मूल्य आधारित, भ्रष्टाचार मुक्त  और जन-उन्मुखी बनाने के गांधीजी के प्रयास नए विश्व की परिकल्पना का हिस्सा हैं. इस संदर्भ में उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि आध्यात्मिकता और नैतिक मानदंडों से रहित राजनीति मानवता को स्थायित्व प्रदान नहीं कर पाएगी.
(लेखक गांधी पीस मिशन के प्रबंध न्यासी और गांधी मीडिया फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं. ईमेल drnradhakrishnan@gmail.com आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)