रोज़गार समाचार
सदस्य बनें @ 530 रु में और प्रिंट संस्करण के साथ पाएं ई- संस्करण बिल्कुल मुफ्त ।। केवल ई- संस्करण @ 400 रु || विज्ञापनदाता ध्यान दें !! विज्ञापनदाताओं से अनुरोध है कि रिक्तियों का पूर्ण विवरण दें। छोटे विज्ञापनों का न्यूनतम आकार अब 200 वर्ग सेमी होगा || || नई विज्ञापन नीति ||

संपादकीय लेख


volume-48, 2 - 8 March, 2019

 

बेहतर भारत के लिए लैंगिक समानता

श्रेया भट्टाचार्य

मार्च 8 को हम हर वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं. यह दिन महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक उपलब्धियों पर खुशी मनाने, समाज में महिलाओं की स्थिति का मूल्यांकन करने और स्त्री-पुरुष के बीच समानता के मुद्दे पर विचार करने का अवसर प्रदान करता है. इस वर्ष के अभियान का विषय है थिंक इक्वल, बिल्ड स्मार्ट इन्नोवेट फॉर चेंजजो नूतन रास्तों पर केंद्रित है जिसमें हम लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को आगे बढ़ा सकते हैं विशेषकर सामाजिक सुरक्षा प्रणाली, जन सेवाओं तक पहुंच और सतत् अवसंरचना के क्षेत्र में. लिंग संतुलन, दूसरे शब्दों में स्त्री-पुरुष समानता 21 वीं सदी के सबसे प्रमुख सरोकारों में से एक है. इस आलेख का लक्ष्य स्त्री-पुरुष समानता और महिला सशक्तिकरण के मुद्दे तथा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनके विभिन्न पहलुओं पर विचार करना है. 

लिंग

लिंग का संबंध सामाजिक दृष्टि से संरचित पहचानों और महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं के साथ है. ये पहचान व्यक्तिगत पहचान नहीं हैं; बल्कि सामाजिक पहचान हैं. ये पहचान अन्य लोगों के साथ हमारे संबंधों से उत्पन्न होती हैं, और सामाजिक संवाद तथा सामाजिक मान्यता पर निर्भर करती हैं. इस पहचान को बचपन में सामाजिक विकास के साथ समझा जाता है. सामाजिक तौर पर संरचित अंतरों का एक उदाहरण यह है कि विश्वभर में अधिकतर समुदायों में महिलाओं की भूमिका परम्परागत रूप में परिवार और बच्चों की देखभाल से संबद्ध रही है, जबकि पुरुषों की भूमिका घर से बाहर काम करने की रही है, यानी वह परिवार के लिए रोटी कमाने वाला होता है, और इसी लिए परिवार का मुखिया समझा जाता है. परन्तु लिंग संरचनाएं, स्थिर नहीं हैं, बल्कि गतिशील और चलायमान हैं. वे एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में भिन्न हैं और समय के साथ-साथ बदलती रहती हैं. हमारे लिंग से जो अपेक्षा की जाती है उसकी समझ इस बात से होती है कि हमारे माता-पिता ने हमें क्या सीख दी है और साथ ही इससे भी कि हमने स्कूल से, धार्मिक और सांस्कृतिक उपदेशों से, मीडिया से और विभिन्न अन्य सामाजिक संस्थानों से क्या सीखा है. राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य घटक किसी भी समाज में स्त्री-पुरुष के बीच वर्गीकृत संबंध सृजित किए हैं. ऐतिहासिक तौर पर संसाधनों, सत्ता और अधिकारों का वितरण पुरुषों के पक्ष में रहा है, जबकि महिलाएं उपेक्षित रही हैं. वे निर्णय करने की प्रक्रिया से बाहर रही हैं. आदि काल से ही उन्हें शिक्षा और संपत्ति जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखा गया.

गंभीर असमानताएं

लिंग के आधार पर असमानता इतिहास में अन्याय का सबसे अधिक व्यापक रूप है और यह स्थिति लगातार बनी हुई है. दुनिया के हर हिस्से में महिलाएं और लड़कियां भेदभाव और हिंसा का शिकार हो रही हैं. यह असमानता हर क्षेत्र में है.

दक्षिण एशिया में, 1990 में 100 लडक़ों के मुकाबले केवल 74 लड़कियों का प्राथमिक विद्यालय में दाखिला कराया गया.  वर्ष 2012 तक दाखिले का  अनुपात यही था. दुनिया भर में लाखों लड़कियां और महिलाएं स्कूल में पढ़ाई करने की बजाय प्रति दिन 200 मिलियन घंटे पानी ढोने में लगाती हैं. ऐसा करना उनके स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक होता है. 155 देशों में, कम से कम एक ऐसा कानून है जो महिलाओं के लिए आर्थिक अवसरों में बाधा डालता है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में महिलाओं और पुरुषों के वेतन में 160 ट्रिलियन डॉलर का अंतर है. दुनिया भर के राष्ट्रीय सांसदों में केवल 23.7 प्रतिशत महिलाएं हैं. तीन में से एक महिला को अपने जीवनकाल में शारीरिक या यौन हिंसा झेलनी पड़ती है.  अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का अनुमान है कि विश्व स्तर पर 20.9 मिलियन लोग मानव तस्करी की समस्या से पीडि़त हैं, जिनमें से 55 प्रतिशत महिलाएं और लड़कियां हैं.

वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा प्रकाशित जेंडर गैप रिपोर्ट, 2018 के अनुसार राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी के बारे में भी विश्व में अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है. दुनिया के 149 देशों में किए गए आकलन के अनुसार  केवल 17 देशों की प्रमुख महिलाएं हैं और  औसतन केवल 18 प्रतिशत मंत्री और 24 प्रतिशत सांसद ही महिलाएं हैं. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार विश्व में केवल 34 प्रतिशत महिलाएं प्रबंधकीय पदों पर हैं और इनमें से चार देशों (मिस्र, सऊदी अरब, यमन और पाकिस्तान)ें में ऐसी  महिलाओं की संख्या सात प्रतिशत से भी कम है. दुर्भाग्य से, रिपोर्ट में भारत 108 वें स्थान पर है.

स्त्री-पुरुष समानता

समानता का अधिकारबुनियादी मानवाधिकार है. यह किसी समाज के विभिन्न मानव समूहों का वह अधिकार है जो उन्हें एकसमान सामाजिक दर्जे और एक जैसे बरताव का हकदार बनाता है. लिंग के आधार पर समानता न्यायोचित और चिरस्थायी समाज के निर्माण की पूर्वशर्त है. यूनीसेफ ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है:

‘‘स्त्री-पुरुष समानता का मतलब है महिलाओं और पुरुषों तथा लड़कियों और लडक़ों के अधिकार एकसमान हों; उन्हें एक जैसे संसाधन, अवसर और संरक्षण मिलें. इसका मतलब यह नहीं है कि लडक़े और लड़कियां या महिलाएं और पुरुष एक जैसे हो जाएं या उन्हें हर मामले में एक ही मान लिया जाए.’’ 

एबीसी ऑफ  वूमेन वर्कर्स राइट्स एंड जेंडर इक्वेलिटी, आई.एल.ओ., 2000 के अनुसार:

‘‘स्त्री पुरुष समानता, यानी महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता के विचार में यह धारणा निहित है कि सभी मनुष्य, चाहे वे महिला हों या पुरुष हों, अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं के विकास के लिए स्वतंत्र हैं और पूर्वाग्रहों, स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित अलग-अलग भूमिकाओं तथा रूढिय़ों से ऊपर उठ कर निर्णय ले सकते हैं. स्त्री-पुरुष समानता का मतलब यह भी है महिलाओं और पुरुषों के अलग-अलग व्यवहार और उनकी आकांक्षाओं व आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाए, उसे बराबर महत्व दिया जाए और उस पर एक समान तरीके से अनुकूल विचार किया हो. इसका मतलब यह नहीं है कि महिलाएं और पुरुष एक जैसे हो जाएं, बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि उनके अधिकार और दायित्व इस बात पर निर्भर नहीं करेंगे कि वे पुरुष के रूप में जन्मे हैं या स्त्री के रूप में स्त्री-पुरुष समानता का मतलब है महिलाओं और पुरुषों के साथ, उनकी अपनी-अपनी आवश्यकताओं के अनुसार निष्पक्ष व्यवहार. इसमें समानता के व्यवहार के साथ साथ ऐसा बरताव भी शामिल है जो अलग-अलग तो है मगर अधिकार, लाभ, दायित्व और अवसरों की दृष्टि से समतुल्य समझा जाता है.’’

स्त्री-पुरुष समानता का मतलब है अवसरों की समानता, संसाधनों तक एक समान पहुंच और जीवन के तमाम क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों के लिए एक समान प्रतिफल. इस तरह की समानता की स्थिति चार प्रमुख क्षेत्रों-आर्थिक अवसर, राजनीतिक सशक्तीकरण, शैक्षिक उपलब्धियों और स्वास्थ्य एवं जीवन रक्षा के क्षेत्र में प्राप्त की जानी चाहिए. स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण पहलू महिला सशक्तिकरण भी है जिसके तहत अधिकरों में असंतुलन की पहचान करने और इसे दूर करने तथा महिलाओं को अपने जीवन के बारे में खुद फैसला करने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है.

महिला सशक्तिकरण

लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए महिला सशक्तिकरण महत्वपूर्ण है. महिलाओं का यह कौशल उनकी कई गतिविधियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने के लिए है. इसमें बौद्धिक सम्पति, भौतिक संसाधन और यहां तक कि दर्शन पर भी नियंत्रण शामिल है. महिलाओं के लिए रोज़गार के विभिन्न क्षेत्रों में अवसरों की कमी है और उन्हें महिला होने के नाम पर अलग किया गया है. महिलाओं के खिलाफ  गहरा पक्षपात और गंभीर गरीबी असमानता का एक क्रूर चक्र पैदा करती है जो उन्हें अधिकतम संतुष्टि से रोकता है.

सशक्तिकरण महिलाओं को पुरुषों के साथ समानता प्राप्त करने और लिंग के पूर्वाग्रह को कम करने में मदद करता है. महिलाओं की विभिन्न क्षेत्रों के विकास और आर्थिक सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका है. उनका यह योगदान दृश्यमान और अदृश्य दोनों रूप में होता है.  

इस बुरे दौर को हटाने के लिए महिलाओं का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सशक्तिकरण एक साथ करने की आवश्यकता है. इस दौर में भारतीय महिलाओं को बहुत बुरी तरह से फंसाया गया है. वास्तविक सत्य भयानक है, महिलाओं का शोषण किया जा रहा है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों से संबंधित महिलाओं और समाज की वंचित वर्गों की महिलाओं का.

भारत में महिला सशक्तिकरण के लिए संवैधानिक और कानूनी प्रावधान

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं और नेताओं ने पुरुषों के साथ महिलाओं की समान सामाजिक स्थिति को मान्यता दी. भारतीय संविधान लिंग के आधार पर समानता की गारंटी देता है, और वास्तव में महिलाओं को विशेष समर्थन देता है.

अनुच्छेद 14 के अनुसार, सरकार कानून या कानून का समान संरक्षण के तहत किसी भी व्यक्ति को समानता से इनकार नहीं करेगी. अनुच्छेद 15 के अनुसार सरकार लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगी जबकि अनुच्छेद 15 (3) सरकार को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव करने में सक्षम बनाता है. अनुच्छेद 16 रोज़गार के मामलों में अवसर की समानता देता है और निर्देश देता है कि किसी भी नागरिक से लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है.

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के तहत अनुच्छेद 42, राज्य को न्याय और काम के लिए मानवीय हालात और मातृत्व राहत सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान करने का निर्देश देता है. इन सबसे बढक़र, संविधान के अनुच्छेद 51 (ए), (ई) के माध्यम से प्रत्येक नागरिक का एक मौलिक कर्तव्य है की वह महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक व्यवहार नहीं करे.

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने विवाह के लिए आयु निर्धारित की है, एक स्त्री से विवाह और मां की संरक्षकता और विशेष परिस्थितियों में विवाह का अंत करने की अनुमति  प्रदान की जाती है. हिंदू दत्तक ग्रहण और अनुरक्षण अधिनियम 1956 के तहत, एक अविवाहित महिला, विधवा या तलाकशुदा बच्चा गोद ले सकती है.  इसी प्रकार, 1961 का दहेज रोधी अधिनियम कहता है कि कोई भी व्यक्ति जो दहेज देता है या लेता है या दहेज लेने देने में सहयोग करता है, उसे छह महीने तक की कारावास की सजा होगी, या 5000 रुपये जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.

सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कई कदम उठाए हैं. मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों के संरक्षण) 2019  पर दूसरा अध्यादेश हाल ही में फिर से लाया गया है. यह विवाहित मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है और उनके पतियों द्वारा तलाक-ए-बिद्दतसे तात्कालिक तलाक को रोकता है और तलाक-ए-बिद्दतऔर ट्रिपल तालक के पीडि़तों को निर्वाह भत्ता और नाबालिग बच्चों की हिरासत का अधिकार प्रदान करता है. 

कार्यस्थलों पर बेहतर लिंग संतुलन के लिए, सरकार की ओर से कई कानूनी प्रावधान किए गए हैं. कार्यस्थल यौन उत्पीडऩ का सामना करने वालों की मदद करने के लिए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीडऩ (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 में लागू किया गया था. यह कानून यौन समस्याओं के बारे में शिकायतों और यौन संबंधी मांगों के समाधान के लिए प्रत्येक कंपनी को एक अच्छी तरह से प्रलेखित तंत्र तैयार करने का आदेश देता है.

यह अधिनियम प्रत्येक महिला को एक सुरक्षित कार्य वातावरण और किसी भी यौन दुराचार के खिलाफ  कार्रवाई शुरू करने पर दिशानिर्देश प्रदान करता है. अधिनियम में यौन उत्पीडऩ पर कार्यशालाओं और जागरूकता कार्यक्रमों के आयोजन के लिए भी प्रावधान है.

मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 ने मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 में संशोधन किया है, जिसमें कामकाजी महिलाओं को पहले दो बच्चों के लिए मातृत्व अवकाश 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह किया गया है. नए कानून के प्रावधानों के अनुसार, यदि ऐसा करना संभव हो तो नियोक्ता किसी महिला को घर से काम करने की अनुमति दे सकता है.

हाल ही में सरकार द्वारा की गई पहल

हमारा समाज जिस तरह से बालिकाओं को देखता है, उसमें परिवर्तनकारी बदलाव लाने के लिए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ पहल को 2015 में शुरू किया गया था. प्रशिक्षण, संवेदीकरण, जागरूकता लाने और सामुदायिक लामबंदी के माध्यम से लोगों की मानसिकता में बदलाव पर जोर दिया गया है.  इन प्रयासों के कारण, लिंग अनुपात की दृष्टि से संवेदनशील 104 जिलों में जन्म के अनुपात में सुधार हुआ. 119 जिलों ने पंजीकरण की पहली तिमाही में प्रगति की सूचना दी और 146 जिलों में संस्थागत प्रसव में सुधार हुआ है. इन जिलों में इस पहल की सफलता के कारण, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम का विस्तार अब देश के सभी 640 जिलों में कर दिया गया है.

बालिकाओं की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री सुकन्या समृद्धि योजना शुरू की गई थी. नवीनतम आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, खोले गए 1.26 करोड़ से अधिक सुकन्या समृद्धि खातो में लगभग 20,000 करोड़ रुपये जमा किये गए हंै.

महिलाओं और विशेषकर बालिकाओं को हिंसा से सुरक्षित रखने के लिए सरकार ने 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में मौत की सजा का प्रावधान किया है. 16 वर्ष से कम उम्र की लडक़ी के बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा को 10 साल से बढक़र 20 साल किया गया है.

महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के लिए और उन्हें औपचारिक वित्तीय संस्थानों में लाभार्थी बनाने के लिए सरकार ने मुद्रा योजना शुरू की थी. यह उद्यमियों को संपाश्र्विक-मुक्त ऋण प्रदान करता है और उन्हें अपने सपने पूरा करने में मदद करता है. स्टैंड अप इंडिया कार्यक्रम, अजा/अजजा समुदायों की महिला उद्यमियों को 1 करोड़ रुपये तक का ऋण प्रदान करता है.

अब तक 9 करोड़ से अधिक महिलायें संयुक्त रूप से मुद्रा और स्टैंड अप से उद्यमिता ऋण का लाभ उठा चुकी हैं. मुद्रा के लाभार्थियों में 70 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं.

कुपोषण से निपटने के लिए हाल ही में शुरू किया गया पोषण अभियान एक मल्टी-मॉडल  पहल है.  कुपोषण की इस लड़ाई में कई मंत्रालय प्रौद्योगिकी की शक्ति के माध्यम से एक साथ आ रहे हैं. मिशन इंद्रधनुष कार्यक्रम का उद्देश्य गर्भवती महिलाओं और बच्चों के  टीकाकरण के माध्यम से स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है. मिशन के तहत 80 लाख से अधिक गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण किया गया है. प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को आर्थिक सहायता प्रदान करती है. माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए यह समय पर चेकअप सुनिश्चित करता है. गर्भवती या स्तनपान कराने वाली माताओं को बेहतर पोषण देने में मदद करने के लिए इसमें 6,000 रुपये का नकद प्रोत्साहन दिया जाता है. 

पीएमएमवीवाई से हर साल 50 लाख से अधिक महिलाओं को लाभ मिलने की उम्मीद है.

सरकार द्वारा शुरू की गई उज्ज्वला योजना की पहली समय सीमा के पहले ही 5.33 करोड़ से अधिक मुफ्त एलपीजी कनेक्शन दिए जा चुके हैं. इससे महिलाओं को स्वस्थ, धुएं से मुक्त जीवन जीने में मदद मिलती है, साथ ही जलाऊ लकड़ी की तलाश में उनकी समय और ऊर्जा की बचत होती है।

निष्कर्ष

21वीं सदी में महिलाओं का सशक्तिकरण न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है. इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता की पिछले पचास साल में भारत में महिलाओं ने काफी प्रगति की है, लेकिन फिर भी उन्हें पुरुष प्रधान समाज में कई बाधाओं और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ  संघर्ष करना पड़ा है.

महिलाओं के बिना भुगतान के कार्य में कमी करने, सामान रोज़गार के अवसरों तक पहुंच सुनिश्चित करने, संसाधन और वित्त विकसित करने में मदद और लिंग-संवेदनशील बजट प्रक्रियाओं को लागू करने के लिए विभिन्न उपाय करने की आवश्यकता है. सरकार लिंग समानता सुनिश्चित करने के सभी प्रयास कर रही है, लेकिन अकेले वे पहल पर्याप्त नहीं होंगे.  इस मुश्किल काम को पूरा करने के लिए हमें एक समुदाय के रूप में पहल करनी चाहिए और एक ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए जिसमें कोई लैंगिक भेदभाव नहीं हो. जिसमें महिलाएं समानता की भावना के साथ स्वयं निर्णय लेकर देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में भाग ले सकें. यह माना गया है कि किसी देश के लिंग अंतर और उसके आर्थिक प्रगति के बीच मजबूत संबंध होता है.

यदि हम एक राष्ट्र के रूप में निकट भविष्य में विश्व शक्ति बनना चाहते हैं, तो हमें लैंगिक समानता को देश के मानव पूंजी विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने की जरूरत है.

लेखक मुंबई स्थित पत्रकार हैं. ई-मेल: shreyabh. journo@gmail.com

व्यक्त विचार व्यक्तिगत हंै.