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संपादकीय लेख


volume-43, 26 - 1 February January 2019

भारतीय गणतंत्र के 70 वर्ष

बेहतर भविष्य की और अग्रसर

मनिंदर एन ठाकुर

स वर्ष भारतीय गणतंत्र 70वें वर्ष में प्रवेश कर गया है. उन तमाम संदेहों के विपरीत, जो कि हमारी आज़ादी के समय दुनिया के मन में बने हुए थे, भारत सबसे जीवंत लोकतंत्रों में से एक बनकर उभरा है. क़रीब सत्तर वर्ष पहले एक नये स्वतंत्र देश के तौर पर, हम अनेक चुनौतियों का सामना कर रहे थे. हमारी अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक शोषण से बुरी तरह प्रभावित थी, हमारा समाज औपनिवेशिक शक्ति की फूट डालो और राज करो की नीति के कारण खंडित था, बिना सोचे समझे हमारी संयुक्त विरासत के दो राष्ट्रों में टुकड़े कर दिये गये, जिससे अप्रत्याशित हिंसा और विकृत इतिहास की रचना हुई और इन सबसे ऊपर भारत एक समाज के रूप में विशाल हीन भावना से पीड़ित हो रहा था. अब, हमारी आज़ादी के सत्तर वर्षों के बाद, हम वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एक मज़बूत राष्ट्र के तौर पर खड़े हैं, तथाकथित प्रथम पंक्ति की दुनिया को चुनौती देने के लिये तैयार हैं; सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ एक जीवंत लोकतंत्र; दुनिया को बड़ी संख्या में सॉफ्टवेयर पेशेवरों की आपूर्ति करने वाले देश और इससे भी अधिक हम अनेक क्षेत्रों में अग्रणी बने हुए हैं.  हम दुनिया के सबसे अधिक युवा देशों में से एक हैं जो इस बात का संकेत है कि भविष्य हमारा है, हमारे भीतर एक नई सुपरपावर के तौर पर उभरने का भरोसा है. यह कोई छोटी यात्रा नहीं है. भारत ने बड़ी कठिनाइयों और अनेक चुनौतियों का अभिनव तरीके से सामना करते हुए एक सफल कहानी की रचना की है. यह समय अपनी उपलब्धियों का उत्सव मनाने का है, लेकिन, यह उन परीक्षाओं के बारे में चिंतन करने का भी समय है जिनका हम अपने लोकतंत्र की रक्षा करने के लिये सामना कर रहे हैं.

भारत के समक्ष पहली और सबसे महत्वपूर्ण चुनौती एक संविधान लिखने की थी. भारत एक राजनीतिक इकाई के तौर पर पूर्व-आधुनिक काल में बहुत भिन्न था और यह औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र राष्ट्र बनने के संक्रमण का साक्षी था. साथ ही यह पूर्व-आधुनिक से आधुनिक समाज में परिवर्तन का भी सामना कर रहा था. इन प्रक्रियाओं में, हमारे संस्थापकों ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई. यह प्रतीत होता है कि उनमें एक तरह की दिव्य चेतना थी क्योंकि वे उपनिवेशवाद और सामंतवाद के निहितार्थ से मुक्त एक नये भारत की कल्पना करने में सक्षम थे. संविधान सभा की चर्चाएं उनके संकीर्ण पारलौकिक दृष्टिकोण की अपेक्षा सार्वभौमिक मानवीय मुक्ति की अवधारणा की असाधारण प्रतिबद्धता का अच्छा सबूत हैं. फलस्वरूप, उनके द्वारा तैयार किया गया संविधान न केवल हमारे राष्ट्र-राज्य के शासन के लिये नियमों और विनियमों का एक दस्तावेज है बल्कि भारत को एक निष्पक्ष और समतावादी समाज में बदलने में सक्षम एक सर्वाधिक मौलिक दस्तावेज है. यह एक बहुमूल्य दस्तावेज है जिसे भारत ने अपने लोगों और दुनिया के लोगों को उपहार के तौर पर प्रदान किया है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले सत्तर वर्षों में हमारा संविधान परीक्षा की घड़ी में दृढ़ता के साथ खड़ा रहा है, लेकिन, हम अभी तक इसे जन चेतना नहीं बना पाये हैं. आगे चुनौती इसे हर घर का एक पाठ बनाने की है, जिसे हर कोई एक पवित्र ग्रंथ की तरह पढ़े और सम्मान के साथ इसका पालन करे. भारत की सरल कहानियों और दृष्टांतों के जरिए जटिल दर्शन सम्प्रेषित करने की महान परंपरा रही है. क्या हम अपने संविधान के साथ इस तरह का एक प्रयोग कर सकते हैं, जो कि एक जटिल कानूनी दस्तावेज है? अन्य शब्दों में, हमें अपनी कथा वर्णन की महान परंपरा के जरिए संवैधानिक नैतिकता को भारतीय लोगों  का सामान्य बोध बनाने की आवश्यकता है. 

दूसरी चुनौती जिसका हमने सामना किया, अर्थव्यवस्था को लेकर थी, क्योंकि उपनिवेशवाद ने उन तमाम सुविधाओं को नष्ट कर दिया था जो कि हमारे पास औपनिवेशिक काल से पहले थीं, जब विश्व व्यापार में हमारी एक बड़ी हिस्सेदारी हुआ करती थी. भारतीय अर्थव्यवस्था को औपनिवेशिक सत्ता की अर्थव्यवस्था के अधीन कर दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप हमारे देश का धन बाहर चला गया. भारत में एक के बाद एक शासकों ने आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी शुरू करते हुए अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की दिशा में काम किया. दूरदर्शी राजनीतिक नेताओं, प्रतिबद्ध नौकरशाही, सक्षम प्रौद्योगिकीविदों की पीढ़ियों के विकासात्मक दृष्टिकोण ने अर्थव्यवस्था के निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया. हमने उद्योगों, परिवहन, संचार प्रणालियों, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, उच्चतर शिक्षण संस्थानों, प्रौद्योगिकी संस्थानों, आयुर्विज्ञान संस्थानों और ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में अनुसंधान संस्थानों को विकसित किया. इन सभी ने एक साथ मिलकर भारत को एक कमज़ोर अर्थव्यवस्था से वैश्विक शक्ति में बदल दिया. अब हम एक तेज़ी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था बन चुके हैं और हमारे वित्तीय संस्थान इसके लिये धन्यवाद के पात्र हैं कि दुनिया में व्यापक मंदी के बावजूद हमने वृद्धि दर को बनाये रखा है.

नव स्वतंत्र राष्ट्र के समकक्ष तीसरा प्रश्न यह था कि अपने पड़ौसियों, विशेषकर चीन और पाकिस्तान से कैसे निपटा जाये. चीन की एक सुपरपावर बनने की महत्वाकांक्षा थी और वह क्षेत्र में दबदबा बढ़ाने की दिशा में अग्रसर हो रहा था. बंटवारे के बाद, पाकिस्तान ने भारत को दुश्मन समझना शुरू कर दिया था और सौहार्दपूर्ण भाईचारे के संबंधों के लिये तमाम प्रयासों के बावजूद हम बुरी तरह असफल रहे. उपनिवेश विरोधी संघर्ष के बाद एक राष्ट्र के तौर पर उभरकर आया भारत अब भी यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भी आदर्शवादी दर्शन का पालन कर रहा था, जबकि इसके मुश्किल पड़ौसी कट्टर यथार्थवादी थे. भारत अब भी पांच तत्वों: एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और संप्रभुता के लिये पारस्परिक सम्मान करना, परस्पर अनाक्रमण, परस्पर एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखलंदाज़ी नहीं करना, परस्पर लाभ के लिये समानता और सहयोग तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, के साथ पंचशील की बहु प्रतीक्षित नीति का पालन कर रहा था. भारत स्वतंत्रता संघर्ष के मानवीय आदर्शों में इतना लिप्त था कि यह पड़ौसियों के गलत इरादों को भी महसूस नहीं कर पाया, जिसके परिणामस्वरूप इसे कई लड़ाइयों का सामना करना पड़ा. सौभाग्य से, शांति के प्रति हमारी प्रतिबद्धता के बावजूद, हम युद्ध के लिये बग़ैर तैयारी के नहीं थे और हम अपने पड़ौसियों को यह सबक सिखाने में कामयाब रहे कि हम अपनी सीमाओं की रक्षा करने के लिये पर्याप्त रूप से मज़बूत हैं. अब, हमारी बढ़ती ताकत के साथ, पड़ौसी देश असुरक्षित हो रहे हैं. इनसे निपटने के लिये भारत को क्षेत्रीय राजनीति के व्यवस्थापन के लिये एक सुविचारित कूटनीति विकसित करने की आवश्यकता है.

 हमारे चीन के साथ बढ़ते व्यापारिक संबंध हैं, परंतु, चीन की आक्रामक सीमा नीति के कारण हमें डोकलाम में गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ा था. हमें करगिल में परेशानी उठानी पड़ी थी क्योंकि पाकिस्तान ने अघोाषित युद्ध छेड़ रखा था. नेपाल को यदि भारत पर्याप्त सहायता प्रदान करने में विफल रहता है तो वह चीन के नज़दीक जाने की चेतावनी देता रहता है. इन सबके बावजूद, भारत ने क्षेत्र में शांति बनाये रखी ताकि यह पुन: किसी बड़े युद्ध में उलझने से बच सके. युद्ध से बचना भारत की आर्थिक प्रगति का सिलसिला बनाये रखने की बहुत आवश्यकता है, जो भारत ने पिछले कुछ दशकों में हासिल की है. और, भारत ने अपनी चाल अच्छे से चली है. पिछले दशकों में इसने अपने पड़ौसियों को इस बात के लिये सहमत किया है कि उसका विस्तार करने का कोई इरादा नहीं है और क्षेत्र में शांति बनाये रखने से उनको भी भारत के विकास का लाभ मिलेगा.

जैसा कि हम जानते हैं कि भारत में पूर्व-आधुनिक समाज अनुक्रम के कई स्वरूपों पर आधारित था और संस्थापकों के लिये जो कि समतावाद के लिये प्रतिबद्ध थे, यह एक बड़ी चुनौती थी. संविधान सभा की चर्चाएं सहूलियत के उच्च नैतिक आधार बिंदुओं का सबूत हैं जहां से भारत के भविष्य के बारे में सोच विचार कर रहे थे. जाति आधारित भेदभाव के लिये, उन्होंने एक सांस्थानिक व्यवस्था की खोज़ की थी जिससे सामाजिक न्याय सुनिश्चित हुआ और पिछले सत्तर वर्षों में, हमने इसे बहुत हद तक हासिल कर लिया है. भारतीय राजनीति निचले तबके की मांग के प्रति उत्तरदायी रही है और समय के साथ आरक्षण की व्यवस्था में सुधार हुआ है. इस नीति ने व्यापक मध्यमवर्ग को धर्मनिरपेक्ष बनाने में मदद की है जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ दशकों में हासिल की है. अब भारतीय मध्यम श्रेणी न केवल उच्च जाति के हिंदुओं से गठित है बल्कि पर्याप्त संख्या में विभिन्न निचली जातियों से लोग और अल्पसंख्यक समुदाय भी

शामिल हुए हैं. ऐसी बहु-जाति और बहुसंस्कृति की मध्यम श्रेणी के गठन से इन समुदायों की चारदीवारी बनने से राष्ट्र और मज़बूत हुआ है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत पिछले सत्तर वर्षों में एक मज़बूत अर्थव्यवस्था, जीवंत लोकतंत्र, क्षेत्रीय शक्ति और कुल मिलाकर अधिक समतावादी समाज के तौर पर उभरा है. लेकिन हमने जो कुछ हासिल किया है उसे बनाये रखने के लिये हमें आगे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. हमें जनसंख्या का लाभ प्राप्त है क्योंकि हमारे यहां युवा लोग कई अन्य देशों की तुलना में काफी अधिक हैं. इस युवा जनसंख्या का फायदा उठाते हुए हमें उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर बहुत निवेश करने की आवश्यकता है. राष्ट्र को उन्हें आजीविका उपलब्ध कराने के लिये और अधिक रोज़गारों का सृजन करना होगा. शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश करना होगा ताकि वे बेहतर नागरिक तथा अधिक उत्पादक मानव संसाधन बन सकें. जब तक हम उन्हें आजीविका और उचित शिक्षा प्रदान नहीं करते हैं यह अनुकूल परिस्थिति राष्ट्र के लिये एक बड़े दायित्व की तरफ मुड़ सकती है. पिछले सत्तर वर्षों में, राज्य-वित्तपोषित सार्वजनिक शिक्षा ने दुनिया में कहीं भी काम करने के लिये तैयार एक गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधन का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भारत में सेवा क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि इसका परिणाम है. निजी क्षेत्र का विकास और इसकी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की क्षमता एक स्वागत योग्य विकास हो सकता है परंतु किसी भी तरह यह शिक्षा के लिये सरकारी वित्तपोषण का विकल्प नहीं बन सकता क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों के लिये इसकी पहुंच नहीं हो सकती. इसी तरह बढ़ती जनसंख्या के साथ भारत को स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में भी व्यापक निवेश करना होगा. जरूरतमंद लोगों की मांग को पूरा करने के लिये एक मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली होनी चाहिये. पुन:, निजी क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में जबर्दस्त वृद्धि हुई है परंतु यह उतनी ज्यादा भारतीय जनसंख्या की पहुंच में नहीं है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकारी सहायता से स्वास्थ्य बीमा का प्रावधान किया जाना स्वास्थ्य सुरक्षा के प्रति एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन यह सही ढंग से संचालित सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के लिये विकल्प कतई नहीं हो सकता है.

इस तथ्य के बावजूद कि हम बड़े वैश्विक आर्थिक संकट से बच निकले हैं और कुछ हद तक विकास दर को बनाये रखा है, हम विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि हमारी अर्थव्यवस्था संकट से पूरी तरह मुक्त है

भारत का संविधान

इंडिया, अर्थात भारत राज्यों का एक संघ है. यहा संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता सम्पन्न समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य है. यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है जिसे संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत किया तथा जो 26 जनवरी 1950 को प्रवृत्त हुआ.

संविधान में सरकार के संसदीय स्वरूप की व्यवस्था की गई है जिसकी संरचना, कतिपय एकात्मक विशिष्टताओं सहित, संघीय हो. संघीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति है. भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्द्रीय संसद की परिषद में राष्ट्रपति तथा दो सदन हैं जिन्हें राज्यों की परिषद (राज्य  सभा) तथा लोगों का सदन (लोक सभा) के नाम से जाना जाता है. संविधान की धारा 74 (1) में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा, राष्ट्रपति सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्पादन करेगा. इस प्रकार वास्तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद में निहित है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है.

            (स्रोत- www.india.gov.in)

 उन संस्थानों में प्रमुख सुधारों की आवश्यकता है जो कि आज़ादी के तुरंत बाद अर्थव्यवस्था की स्थिति की देख-रेख के लिये बनाये गये थे. यद्यपि, सुधार संविधान की प्रस्तावना में प्रलेखित संस्थापकों के बुनियादी विचारों के विरुद्ध नहीं होने चाहियें. आधुनिक समय में हम जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं उनसे निपटने के लिये एक सुविचारित रणनीति विकसित किये जाने की आवश्यकता है. एक प्रमुख चुनौती जिसका भारत सामना कर रहा है, वह किसानों की ख़राब होती जा रही स्थितियां हैं. हमारे कृषि क्षेत्र का खून बह रहा है क्योंकि किसानों की आत्महत्या की बढ़ती संख्या समाधान खोजने की दिशा में एक चुनौती बनती जा रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकारें किसानों के लिये ऋण माफ करने की नीतियां ला रही हैं, कोई भी इस बात से जरूर सहमत होगा कि यह मुश्किल ही दीर्घकालिक समाधान हो पायेगा. एक तरफ कृषि में बढ़ती लागत ने इसे एक पूंजी सघन गतिविधि बना दिया है और दूसरी तरफ  बाज़ार अस्थिरता तथा उत्पाद की कम कीमत ने उनके लिये संकट को गहरा दिया है. किसानों की आय बढ़ाने के लिये खेती प्रबंधन के लिये एक नीतिगत पहल खोज़नी होगी.

हमारा लोकतंत्र सत्तर वर्ष से जिन प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से एक व्यक्ति और समुदाय के बीच अधिकारों की दुविधा है. संस्थापकों ने शायद ये कल्पना की थी कि आने वाले दशकों में व्यक्ति पर समुदाय की पकड़ नागरिकता के व्यापक विचार की कल्पना में बदल जायेगी. लोग कम से कम तर्कहीन सामुदायिक नियमों को स्वयं अस्वीकार कर देंगे, जब वे प्रबुद्ध हो जायेंगे और अधिक तर्कसंगत रूप से सोचना शुरू कर देंगे. लेकिन यह प्रक्रिया बहुत अधिक काम नहीं कर पाई क्योंकि हरेक आये दिन पैशाची सामुदायिक नियमों को लागू किये जाने के बारे में समाचार मिलते रहते हैं. वास्तव में वर्षों से पहचान आधारित राजनीति का पुनरुत्थान हो रहा है और इसके प्रभाव के तहत लोग इन सामुदायिक कानूनों का मूल्यांकन करने के बजाय तर्कसंगत रूप से उनके बारे में भावुक हो जाते हैं. जैसा कि हम जानते हैं, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन इन अतार्किक सामुदायिक नियमों को लेकर गहनता के साथ चिंतित था, ये अधिकतर मौलिक प्रतिबद्धताओं पर आधारित हैं.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने इसे दूर करने के लिये कई सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत की थी. हालांकि आजादी के बाद उनमें से ज़्यादातर को पृष्ठभूमि से हटा दिया गया, क्योंकि हमने सोचा था कि आधुनिक कल्याणकारी राज्य हमारे जीवन से जुड़ी प्रथाओं में सुधार की जिम्मेदारी संभाल लेंगे. हम जानते हैं कि ऐसा नहीं हो पाया है. संभवत: इन समुदायों को आने वाले दशकों में स्वयं के भीतर से सुधार करने की इस सामाजिक जिम्मेदारी को लेना होगा.

संक्षेप में, सत्तर वर्ष में भारत पूरी ऊर्जा और नये वादों से परिपूर्ण है. हमारे लोग राष्ट्र को एक ऐसी नई दुनिया में आगे ले जाने के लिये तैयार हैं जहां सत्ता की धुरी एशिया की तरफ  बढ़ रही है. भारत एक राष्ट्र के तौर पर इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिये हर रोज़ मज़बूती से आगे बढ़ रहा है. तमाम बाध्यताओं के बावजूद भारतीय लोकतंत्र दुनिया के सबसे जीवंत लोकतंत्रों में से एक के तौर पर उभरा है और इसके लिये भारत के लोगों को अवश्य बधाई दी जानी चाहिये. भारतीयों की नई पीढ़ी उन संस्थापकों के सपनों को आगे बढ़ाने के लिये तैयार है जिन्होंने एक स्वतंत्र समतावादी समाज के लिये संघर्ष में अपना जीवन व्यतीत कर दिया. यही वे कारण हैं जिनसे यह आशा की जा सकती है कि भारत आने वाले समय में दुनिया भर में लोकतंत्रों के लिये एक अनुकरणीय लोकतंत्र के तौर पर उभरेगा.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में राजनीतिक विज्ञान पढ़ाते हैं, ई-मेल आईडी: manindrat@gmail.com)

ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं.