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संपादकीय लेख


Editorial Volume-29

पेरिस समझौते को भारत का समर्थन

एम.. हक

सितंबर, 2016 में भारत ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते का अनुमोदन करने का निर्णय किया। भारत ने 2 अक्तूबर 2016 को गांधी जयंती के अवसर पर पुष्टि संबंधी दस्तावेज संयुक्त राष्ट्र को सौंप दिए। इस तथ्य का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस दिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में भी मनाया गया।

भारत समझौते की पुष्टि करने वाला 62वां देश बना। यह समझौता ऐसे 55 देशों द्वारा पुष्टि किए जाने के एक महीने बाद प्रभावी होना है, जो वैश्विक उत्सर्जन में 55 प्रतिशत योगदान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक बयान में कहा गया कि ‘‘भारत, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 4.1 प्रतिशत योगदान करता है, द्वारा समझौते की पुष्टि किए जाने के साथ 55 प्रतिशत उत्सर्जन की दहलीज पर पहुंचने के लिए समझौते को 3 प्रतिशत अंकों से मामूली अधिक अंक और चाहिए।’’ सितंबर में कुल उत्सर्जन में करीब 40 प्रतिशत योगदान करने वाले अमरीका और चीन आधिकारिक रूप से समझौते में शामिल हो गए थे। भारत द्वारा पुष्टि किए जाने के कुछ ही दिन बाद समझौते को प्रभावी बनाने के लिए अपेक्षित उत्सर्जन सीमा पार हो गई। आमतौर पर यह सोचा जा रहा था कि भारत पुष्टि करने में हिचकिचाएगा, क्योंकि समझौते की पुष्टि करने से भारत की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी, जिससे उसकी विकास प्रक्रिया में कमी आने की आशंका है। यह सच है, क्योंकि विकास के लिए ऊर्जा की उपलब्धता आवश्यक है और वर्तमान में 60 प्रतिशत से अधिक बिजली भारत में कोयले से बनती है। 2015 के दौरान कोयला आधारित बिजली उत्पादन करीब 167 गीगावाट था।

आमतौर पर जलवायु परिवर्तन को जलवायु प्रणाली में दीर्घावधि को ध्यान में रख कर विचार किए जाने वाले सांख्यिकीय गुणों में परिवर्तन के रूप में (मुख्य रूप से उनके न्यूनतम और प्रसारित) परिभाषित किया जाता है। कुछ दशकों से कम अवधि में उतार-चढ़ाव, जैसे अलनीनो, को जलवायु परिवर्तन नहीं समझा जाता है। यदि हम जलवायु परिवर्तन के प्रति नीति का इतिहास देखें, विशेषकर दीर्घावधि के लिए जबकि वैज्ञानिक इस बात पर एकमत नहीं थे कि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता है। ऐसा इस बात के बावजूद था कि धरती का तापमान बढऩे और नतीजतन जलवायु परिवर्तन होने की धारणा कोई अद्यतन खोज नहीं है। 19वीं सदी के अंत में वैज्ञानिक ग्रीनहाउस प्रभाव के साक्ष्य प्रदान करने लगे थे। आज जलवायु परिवर्तन नृवैज्ञानिक वैश्विक चेतावनी का पर्याय बन गया है।

धरती का तापमान बढऩे का अर्थ है, उसकी सतह के तापमान में वृद्धि, जबकि जलवायु परिवर्तन के अंतर्गत वैश्विक तापमान में वृद्धि और वह सब कुछ शामिल है, जो ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी के कारण दुष्प्रभावित होता है। सूरज से धरती तक पहुंचने वाली ऊर्जा की दर और अंतरिक्ष में उसके खो जाने की दर तापमान की समतुल्यता और धरती की जलवायु का निर्धारण करती है। यह ऊर्जा पवन, समुद्र के वेग और अन्य व्यवस्थाओं के जरिए समूची धरती पर वितरित होती है और विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु को आकार प्रदान करती है। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ी हुई मात्रा अंतरिक्ष में ऊर्जा की सामान्य वापसी को प्रभावित करती है, जिससे धरती का तापमान बढ़ता है।

जब यह बात सिद्ध हो गई कि ग्रीन हाउस गैसों के वायुमंडल में संचयन से धरती का तापमान बढ़ रहा है, तो समूचे विश्व ने इसे रोकने अथवा कम से कम इसकी प्रक्रिया को धीमी करने का संकल्प लिया। जलवायु परिवर्तन के बारे में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) का गठन हुआ, जिसमें करीब 196 पक्ष सार्वभौमिक सदस्य हैं। यह 1997 क्योटो प्रोटोकोल की मूल संधि है। क्योटो समझौते की पुष्टि यूएनएफसीसीसी के सभी 192 सदस्यों द्वारा की गई है। क्योटो समझौते की पहली प्राथमिकता अवधि में 37 उच्च कोटि के औद्योगिक राष्ट्र और कुछ ऐसे राष्ट्र जो बाजार अर्थव्यवस्था में रूपांतरण की प्रक्रिया के अधीन थे, शामिल थे। ये राष्ट्र उत्सर्जन को सीमित करने और उसमें कमी लाने के प्रति कानूनी रूप में बाध्य थे, क्योंकि वे ग्रीन हाउस गैसों के वर्तमान उच्च स्तरों के लिए ऐतिहासिक दृष्टि से जिम्मेदार थे। साझा परंतु अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धांत पर आधारित समझौता 16 फरवरी, 2005 से लागू हुआ था। दोहा में क्योटो समझौते से सम्बद्ध देशों के 18वें सम्मेलन में नवंबर-दिसंबर, 2012 में समझौते में एक संशोधन का प्रस्ताव पारित किया गया, ताकि समझौते की अवधि 2020 तक बढ़ाई जा सके। यह समझौता 2012 में खत्म होने जा रहा था। इस तरह द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि निर्धारित की गई। लेकिन, इसमें कनाडा, जापान, रूस, बेलारूस, यूक्रेन, न्यूजीलैंड और अमरीका शामिल नहीं थे। एक अन्य मुद्दा यह था कि चीन, भारत और ब्राजील जैसे

विकासशील राष्ट्र समझौते के अधीन किसी प्रकार से उत्सर्जन में कमी के अधीन नहीं थे। तदनुरूप विश्वभर में केवल 15 प्रतिशत कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन का समाधान हो रहा था। अभी भी ग्रीन हाउस गैसों को वायुमंडल में एक ऐसे स्तर पर स्थिर करने का अंतिम लक्ष्य बकाया था, जिससे जलवायु प्रणाली में इन गैसों की अधिकता रोकी जा सके। क्योटो समझौते के अंतर्गत कार्बन डाइआक्साइड पर जोर दिया गया था, क्योंकि यह स्वीकार कर लिया गया था कि मानव द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइआक्साइड मुख्य रूप से दोषी है।

उससे पहले, कोपनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का आयोजन दिसंबर, 2009 में किया गया था, उसमें जलवायु परिवर्तन नीति को उच्च प्राथमिकता नहीं दी गई थी। इस उच्च स्तरीय सम्मेलन में विश्व के करीब 115 नेताओं ने हिस्सा लिया था। कोपनहेगन समझौते में कुछ महत्वपूर्ण तत्व शामिल किए गए, जिनके बारे में विचारों में सुदृढ़ समाभिरूपता थी। इस बात पर सहमति हुई थी कि दीर्घावधि में अधिकतम वैश्विक औसत तापमान वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 सेंटीग्रेड से अधिक नहीं होनी चाहिए, जिसकी समीक्षा 2015 में की जानी थी। समझौते में तापमान वृद्धि को 15 सेंटीग्रेड से नीचे सीमित रखने पर बल दिया गया था, जो कई विकासशील देशों की एक प्रमुख मांग थी। परंतु, इसे हासिल कैसे करें, इस बारे में कोई समझौता नहीं किया गया था। यूएनएफसीसीसी ने भी शीघ्र ही यह स्पष्ट कर दिया था कि कोपनहेगन समझौते की कोई ‘‘कानूनी वैधता’’ नहीं है। कार्यकारी सचिव ने कहा था कि समझौते के प्रावधान ‘‘यूएनएफसीसीसी प्रक्रिया के भीतर कोई कानूनी स्तर नहीं रखते हैं।’’

इन परिस्थितियों में पेरिस सम्मेलन आयोजित किया गया। समूचा विश्व सम्मेलन पर निगाह लगाए हुए था, क्योंकि इसका विफल होना महा-विपत्तिकारक हो सकता था। भारत नियमित रूप से अपने लिए और कई अन्य देशों के लिए इस बात की अनुशंसा करता रहा है कि उनकी विकास संबंधी जरूरतों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। दलील यह थी कि जो वर्तमान स्थिति है, वह विकसित देशों की गलतियों का परिणाम है। उसके लिए अन्य देशों को दंडित नहीं किया जाना चाहिए। आश्चर्यजनक ढंग से 12 दिसंबर, 2015 को 190 देशों ने सर्वाधिक महत्वाकांक्षी जलवायु परिवर्तन समझौते को पारित किया। पेरिस जलवायु समझौता  ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों में कमी लाने के लिए एक टिकाऊ वैश्विक फ्रेमवर्क प्रदान करता है।

 पहली दफा यह हुआ कि सभी देशों ने निरंतर और महत्वाकांक्षी उपाय अपनाने के प्रति वचनबद्धता व्यक्त की, जो राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु लक्ष्य निर्धारित करने से सम्बद्ध थी और तत्संबंधी प्रगति की रिपोर्ट विश्व के समक्ष पेश की जानी थी। समझौते में विकासशील देशों को आश्वासन दिया गया है कि अगर वे स्वच्छ और जलवायु की दृष्टि से लचीला दृष्टिकोण अपनाएंगे, तो उन्हें सुदृढ़ सहायता प्रदान की जाएगी। समझौते में तापमान बढऩे की प्रक्रिया 2 सेंटीग्रेड से कम रखने सहित कई लक्ष्य शामिल किए गए थे। समझौते में इस बात पर भी सहमति व्यक्त की गई कि तापमान में बढ़ोतरी की सीमा 1.5 सेंटीग्रेड तक सीमित रखने के लिए प्रयास जारी रखे जाएं। यह लक्ष्य रखा गया है कि सभी राष्ट्र ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर यथासंभव अंकुश लगाएंगे। इस बात के प्रावधान किए गए कि राष्ट्र 2020 से प्रारंभ करते हुए हर 5 साल बाद अपने लक्ष्यों की जानकारी देंगे। लक्ष्यों को अंतिम रूप दिए जाने से 9 से 12 महीने पहले अवश्य जमा कराया जाएगा, ताकि अन्य देशों और नागरिक समाज के समक्ष आवश्यकतानुसार  स्पष्टीकरण दिया जा सके। समझौते में एक व्यवस्था शामिल की गई जिसमें 2018 से प्रारंभ करते हुए एक वैश्विक कार्रवाई के रूप में सामूहिक प्रगति का मूल्यांकन किया जाएगा और इसे हर 5 वर्ष बाद दोहराया जाएगा।

समझौते की पुष्टि करते हुए भारत ने यह महसूस किया है कि उसे अपने ऊर्जा उत्पादन में व्यापक परिवर्तन लाने होंगे और उत्सर्जन निगरानी प्रणाली को सुदृढ़ करना होगा। शायद यही वजह है कि समझौते की पुष्टि करते समय भारत ने इस बात पर जोर दिया है कि प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का हमारा  लंबा इतिहास और परंपरा रही है। महात्मा गांधी के शब्दों में हम प्राकृतिक संसाधनों के केवल न्यासी या ट्रस्टी मात्र हैं और हमें उनके अत्यधिक दोहन का कोई अधिकार नहीं है। परंतु यह बात भी रेखांकित की गई है कि समग्र दायित्व विकसित देशों का है। जहां तक भारतीय स्थिति का संबंध है, भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2010 में केवल 1.56 मीट्रिक टन था, जबकि अनेक विकसित देशों में यह दर 7 से 15 मीट्रिक टन के बीच रही है। भारतीय आमतौर पर महात्मा गांधी की उस शिक्षा का अनुपालन करते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘हमें विश्व का ध्यान अवश्य रखना है, अन्यथा हम उसे देख नहीं पाएंगे।’’ दिलचस्प बात है कि 2005 से 2010 के दौरान भारत के सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन सघनता में 12 प्रतिशत की कमी आई, जिसकी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने सराहना की।

समझौते की पुष्टि करते समय भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वैश्विक प्रयासों में यह सुनिश्चित करना अनिवार्य होना चाहिए कि अनुकूलन, उपशमन, वित्तीय, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, क्षमता निर्माण और पारदर्शिता सहित सभी तत्वों का समाधान किया जाना चाहिए। इसमें विकासशील देशों की उचित आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि वे स्थायी विकास और गरीबी दूर करने के लक्ष्य हासिल कर सकें। भारत जैसे देशों के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती है, जिनमें बड़े पैमाने पर जलवायु संबंधी विभिन्नताएं पाई जाती हैं। देश की बड़ी आबादी की कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भरता, इसके विस्तृत तटवर्ती क्षेत्र और हिमालयी क्षेत्र तथा द्वीप समूहों को देखते हुए विरले ही ऐसे देश हैं, जो भारत के समान हों। इस बात पर भी जोर दिया गया है कि भारत के पास विश्व के स्थल क्षेत्र का मात्र 2.4 प्रतिशत है, परंतु वह विश्व की 17.5 प्रतिशत जनसंख्या का भरण पोषण करता है। 0.586 मानव विकास सूचकांक और विश्व में 135वें स्थान पर होने के साथ, भारत को अपने लोगों को बहुत कुछ प्रदान करने की आवश्यकता है।

ऊर्जा विकास का एक महत्वपूर्ण निवेश है। यही वजह है कि भारत ऊर्जा की मांग पूरी करने के लिए दोतरफा दृष्टिकोण अपना रहा है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन में न्यूनतम वृद्धि शामिल है। भारत नवीकरणीय स्रोतों, मुख्य रूप से सौर और पवन ऊर्जा पर अधिक बल दे रहा है। इसके समानांतर कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के लिए सुपर क्रिटिकल प्रौद्योगिकियों को प्राथमिकता दी जा रही है। नए और विस्तृत कोयला आधारित थर्मल प्लांटों का प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना होगा। पुराने बिजली घरों के आधुनिकीकरण और जीर्णोद्धार की प्रक्रिया भी शुरू की गई है। कोयला बेनिफिसिएशन अब अनिवार्य है। थर्मल प्लांटों के लिए कड़े उत्सर्जन मानक लागू करने पर भी विचार किया जा रहा है। ये और इसी तरह के अन्य उपायों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में निश्चित रूप से कमी आएगी। ऊर्जा का सक्षम उपयोग भारत के लिए एक अन्य प्राथमिकता क्षेत्र है।

 

(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। ईमेल: asrarulhaque@hotmail.com)