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संपादकीय लेख


Editorial Volume-27

गांधीजी, स्वच्छता और सामाजिक उद्यम

सुदर्शन अयंगर

1990 में, भारत सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में शामिल हो गया था। उसके बाद से देश ने स्वास्थ्य और स्वच्छता में सुधार लाने के क्षेत्र में सामान्य रूप से बेहतर कार्य किया है। पेयजल और स्वच्छता के बारे में यूनिसेफ की 2014 की प्रगति रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत ने 1990 और 2012 के बीच सफाई सुविधाओं के कवरेज में उचित सुधार किया है। 1990 में शहरी भारत की स्थिति स्वच्छता सुविधाओं को लेकर बेहतर थी, परंतु इस दृष्टि से ग्रामीण भारत की स्थिति अच्छी नहीं थी। 1990 में शहरी भारत में 50 प्रतिशत आबादी की पहुंच परिष्कृत स्वच्छता सुविधाओं तक थी और 2012 में ये सुविधाएं 60 प्रतिशत आबादी को प्राप्त हुईं। ग्रामीण क्षेत्रों में परिष्कृत स्वच्छता सुविधाएं 1990 में मात्र 18 प्रतिशत आबादी को उपलब्ध थीं, जो 2012 में बढ़ कर 36 प्रतिशत आबादी को मुहैया हुईं। शहरी भारत की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों का निष्पादन अधिक प्रभावशाली रहा है। फिर भी हमें विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करना होगा कि भारत को इस दिशा में अभी बहुत लंबा सफर तय करना है। भारत अभी भी एक ऐसा देश है, जहां बड़ी संख्या में लोग खुले में शौच जाते हैं।

भारत के प्रधानमंत्री ने इस समस्या की ओर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया और नए सिरे से कार्रवाई प्रारंभ की। इस संदर्भ में हमें यह स्मरण करना चाहिए कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी संभवत: ऐसे पहले नेता थे, जिन्होंने स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधी समस्या पर जीवनभर ध्यान केंद्रित किया। इस आलेख में भारत में स्वच्छता एवं सफाई की स्थिति में सुधार लाने के बारे में गांधीजी के विचारों और उनकी भूमिका पर संक्षेप में विचार किया गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में युवाओं, विशेषकर ऐसे युवा जो किसी लाभप्रद रोजगार में नहीं हैं, के लिए स्वास्थ्य एवं स्वच्छता कार्यों में सामाजिक नवाचार और उद्यमिता की संभावनाओं पर भी एक नजर डालने का प्रयास किया गया है।

गांधीजी का सरोकार और कार्य

गांधीजी ने किसी भी सभ्य और विकसित मानव समाज के लिए स्वच्छता के उच्च मानदंडों की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने इस बारे में पश्चिमी समाज से जानकारी प्राप्त की। उन्होंने कहा कि पश्चिमी जगत ने साफ-सफाई सुविधाओं के लिए एक कार्पोरेट विज्ञान विकसित कर लिया है। देश को नगरीय स्वच्छता विज्ञान का पाठ अवश्य सीखना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका में बिताए गए समय से लेकर भारत में समूची जिंदगीभर, गांधीजी निरंतर और अथक रूप से स्वच्छता के संदेश का प्रचार करते रहे। गांधीजी के लिए स्वच्छता सर्वाधिक महत्वपूर्ण सार्वजनिक मुद्दों में से एक था। 1895 में जब दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश सरकार ने व्यापार क्षेत्र में अस्वच्छता के आधार पर भारतीय और एशियाई व्यापारियों के बीच भेदभाव करने की कोशिश की, उसके विरोध के साथ शुरुआत करते हुए अपनी शहादत से एक दिन पहले, 29 जनवरी, 1948 तक वे सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के मुद्दे पर निरंतर बल देते रहे। कांग्रेस का स्थान लेने के लिए बनाए जा रहे लोक सेवक संघ के संविधान के मसौदे में उन्होंने जनसेवक के दायित्वों में निम्नांकित बात शामिल की, ‘‘वह गांव के लोगों को स्वच्छता और स्वास्थ्य के बारे में शिक्षित करेगा और उनमें खराब स्वास्थ्य और बीमारियों की रोकथाम के लिए सभी उपाय करेगा’’

इसके साथ ही, गांधीजी ने देश में अस्पृश्यता के अभिशाप के प्रति भी चिंता प्रकट की। उनके लिए अस्पृश्यता दूर करना एक व्यक्तिगत सामाजिक और धार्मिक लक्ष्य था। उनके लिए स्वच्छता सिर्फ साफ और स्वास्थ्यकर शौचालयों, गलियों और कचरे के निपटान तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे सफाई करने वालों और अन्य समुदायों को समाज की मुख्यधारा से जोडऩा चाहते थे, जिन्हें भारतीय समाज में सदियों से अस्पृश्य समझा जा रहा था। धरती पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और समानता, गांधीजी के लिए सबसे महत्वपूर्ण मूल्य थे। उनके विचार में, यदि अस्पृश्यता को समाज से पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाएगा, तो अस्वच्छता बनी रहेगी। अत: गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि हम एक समाज के रूप में अस्वच्छता और अस्पृश्यता की बुराइयों को पूरी तरह समाप्त नहीं कर देते। गांधीजी ने इस मुद्दे पर न केवल एक बौद्धिक रवैया अपनाया, बल्कि वे भावात्मक दृष्टि से इसके प्रति वचनबद्ध थे और उन्होंने इस कलंक को मिटाने के लिए अपना जीवन लगा दिया। वे रूढि़वादी लोगों को जागरूक बनाना चाहते थे और अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों को गले लगाते थे।

दक्षिण अफ्रीका में स्वच्छता के मुद्दे पर गांधीजी ने इसलिए बल दिया, क्योंकि अंग्रेज स्वच्छता के पैमाने का इस्तेमाल करते हुए भारतीय समुदाय के व्यापारिक एवं व्यवसायिक प्रयासों को दुष्प्रभावित करना चाह रहे थे। गांधीजी इस बात को भलीभांति समझते थे कि किसी भी समुदाय में अत्यधिक भीड़-भाड़ अस्वच्छ स्थितियों के मुख्य कारणों में से एक है। दक्षिण अफ्रीका के कुछ इलाकों में भारतीय समुदायों के लिए समुचित स्थान आवंटित नहीं किया गया था और बुनियादी सुविधाएं प्रदान नहीं की गई थीं। गांधीजी ने इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से ध्यान आकर्षित किया। उनका यह उचित विश्वास था कि नगर निकाय का यह दायित्व है कि स्वच्छ स्थितियों में रहने के लिए वह लोगों को स्थान और ढांचा उपलब्ध कराए। वे लोगों में स्वच्छता की आदत विकसित करने के लिए भी उन्हें प्रेरित करते थे। उन्होंने समुदाय से कहा था कि समाज के निम्नतम व्यक्ति को भी स्वच्छता और स्वास्थ्य के महत्व की जानकारी होनी चाहिए। अत्यधिक भीड़ को दूर किया जाना चाहिए। लोगों को स्वास्थ्य के नियमों का स्वयं पालन करना चाहिए, जो उन्हें हमेशा बेहतर स्थिति में बनाए रखने के लिए जरूरी हैं।

1915 में दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटने पर, गांधीजी ने थर्ड क्लास रेल डिब्बों का इस्तेमाल करते हुए व्यापक यात्राएं कीं। वे रेलगाडिय़ों, जहाजों, धार्मिक स्थानों और पास-पड़ोस में अस्वच्छ स्थितियों से दुखी होते थे; गांव स्वच्छता की दृष्टि से वास्तव में नरक बने हुए थे। 1915 और 1925 के बीच गांधीजी ने अनेक जनसभाओं को संबोधित किया। अनेक नगर पालिकाओं ने उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया। वे अपने संबोधन में हर मौके पर स्वच्छता संबंधी मुद्दों को उठाते थे। नवजीवन और यंग इंडिया में गांधीजी ने स्वच्छता के बारे में बार-बार लिखा। कांग्रेस के लगभग सभी बड़े अधिवेशनों में वे अपने भाषण में स्वच्छता के मुद्दे की चर्चा जरूर करते थे। गांधीजी के लिए अस्वच्छता एक बुराई थी। कलकत्ता (अब कोलकाता) में 25 अगस्त, 1925 को एक भाषण में उन्होंने ग्राम स्तरीय रचनात्मक कार्यकर्ताओं से कहा था कि वे गांवों में जाकर झाड़ू, कुनैन, अरंडी के तेल और चरखे का प्रचार करें, जो उनके लिए स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई और ग्राम उद्योग के प्रतीक थे। गांधीजी बल प्रयोग की अनुशंसा नहीं करते थे, परंतु स्वच्छता के मामले में उन्होंने यह देखा कि समूचे देश में एक कोने से दूसरे कोने तक अस्वच्छता का स्तर बेहद दु:खद बना हुआ था। अत: उन्होंने अस्वच्छता समाप्त करने के महत्वपूर्ण मामले में बाध्यता की लगभग अनुशंसा की थी।

गांधीजी ने प्राथमिक विद्यालय से ही स्वच्छता शिक्षा का सुझाव दिया था। उन्होंने कहा था कि शिक्षा का अर्थ सिर्फ तीन आर’ (लिखना, पढऩा और गणित) नहीं हैं। तीन आरकी दीक्षा देने से पहले शिष्टाचार और स्वच्छता तथा अस्पृश्यता दूर करने की शिक्षा देना अपरिहार्य प्राथमिकताएं हैं। गांधीजी का यह दृढ़ विश्वास था कि स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान रखना प्रत्येक व्यक्ति का कार्य है। उन्होंने प्रत्येक स्वयंसेवक और रचनात्मक कार्यकर्ता से कहा था कि वे सफाईकर्मी बनें ताकि हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त हो जाए। वे जानते थे कि सफाईकर्मी उपेक्षितों की सूची में सबसे पीछे हैं।

गांधीजी एक कर्ता भी थे। दक्षिण अफ्रीका में फोनिक्स आश्रम और टॉल्सटाय फार्म में सभी सदस्य बारी-बारी से सफाई कार्य करते थे। अनेक प्रयोग किए गए और मानव मल को उर्वरक में बदला गया और महत्वपूर्ण समझा गया। भारत में कोचर्ब, साबरमती और सेवाग्राम आश्रमों में भी सभी सदस्यों द्वारा सफाई कार्य किया जाता था।  गांधीजी और आश्रम के सदस्यों के वैज्ञानिक ढंग से स्वच्छता का संचालन सभी व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है और सभी को इन पद्धतियों का पालन करना चाहिए। ऐसा करने से अमानवीय मैला ढोने और अस्पृश्यता की समस्याएं भी समाप्त होंगी।

सामाजिक नवाचार और उद्यम

देश में युवाओं को स्वच्छता के मुद्दे पर नए ढंग से सोचने और इसे नवाचार तथा सामाजिक उद्यमशीलता के ऐसे अवसर के रूप में समझने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए, जिससे आर्थिक लाभ उठाए जा सकें। स्वच्छता के क्षेत्र में नवाचार और उद्यमशीलता का एक शानदार उदाहरण सुलभ इंटरनेशनल है। ऐसी ही एक संस्था सुगाढ़, गांधीनगर, गुजरात में सेनिटेशन एंड एन्वायरनमेंट इंस्टिट्यूट के रूप में काम कर रही है। इन दोनों संस्थाओं के संस्थापक गांधीजी और उनके प्रयासों से प्रेरित थे। लेकिन, देश के लिए ऐसे एक या दो संस्थान पर्याप्त नहीं हैं। देश में स्वच्छता की समस्या को एक अवसर में बदलने की व्यापक संभावनाएं हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति ऐसे अवसरों को प्रेरित और प्रोत्साहित कर सकती है। भारत के जो युवा सफाई कार्य को उद्यम के रूप में शुरू करना चाहें, उन्हें सहायता एवं प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए और उनका सम्मान एवं प्रशंसा की जानी चाहिए। 2016 के मेग्सेसे पुरस्कार विजेता बेज़वाड़ा विल्सन को हाथ से मैला ढोने वाले लोगों के परिष्कार और पुनर्वास के लिए किए गए उनके कार्यों की बदौलत पुरस्कृत और सम्मानित किया गया। उनके अनुसार अभी भी देश में करीब दो लाख ऐसे लोग हैं, जो हाथ से मैला ढोने का काम करते हैं। युवाओं को आगे आना चाहिए और उन लोगों को इस अमानवीय व्यवसाय से छुटकारा दिलाने के लिए कार्यक्रम तैयार करने चाहिए।

इस काम के दो पहलू हैं। पहला यह कि ऐसे परिवारों को शौचालयों का निर्माण करने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित और बाध्य किया जाना चाहिए, जो हाथ से मैला ढोने के लिए काम का अवसर छोड़ते हैं। ऐसी ग्राम पंचायतों और नगर निकायों को दंडित किया जाना चाहिए, जिनके अधिकार क्षेत्र में हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा को अंजाम दिया जा रहा हो। उनके अनुदान सशर्त होने चाहिए। दूसरा पहलू यह है कि सफाईकर्मी समुदाय के सदस्यों को प्रशिक्षित किया जाए और वैकल्पिक व्यवसाय उपलब्ध कराया जाए। प्रत्येक स्तर की सरकार को स्वच्छता में योगदान  के इच्छुक युवाओं की सहायता के लिए विशेष कार्यक्रम लेकर आगे आना चाहिए। स्वच्छता और पर्यावरण संस्थान और प्रमाणित सक्षमता एवं प्रतिबद्धता वाले ऐसे ही अन्य संस्थानों को कार्यक्रम की आयोजना, प्रशिक्षण और निगरानी के लिए नोडल एजेंसियां बनना चाहिए।

खुले में शौच जाने की समस्या ग्रामीण भारत में अधिक प्रचलित है, जिसे गंदा और घृणित समझा जाता है। सरकार को उपचारित मानव मल को एक कार्बनिक खाद के रूप में मान्यता देनी चाहिए और उसकी वसूली के लिए प्रोत्साहक मूल्य समर्थन देना चाहिए। गांवों के युवाओं को वैज्ञानिक एवं स्वास्थ्यकर ढंग से मानव मल के निपटान का कौशल प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। ग्राम स्तर पर मानव मल उपचार संयंत्रों की स्थापना का समर्थन किया जाना चाहिए। दो गड्ढों से जुड़े घरेलू शौचालयों को छोटे उपचार संयंत्र बनाया जा सकता है और उनके इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शौचालय निर्माण और मानव मल का उपचार एवं उपचारित मल के वैज्ञानिक तरीके से इस्तेमाल को गांधीजी के आधुनिक रचनात्मक कार्य समझा जा सकता है।

ग्रामीण और शहरी भारत में परिवारों को भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए (यदि आवश्यक हो, तो दंड के प्रावधान के साथ बाध्य भी किया जाना चाहिए), कि वे परिवार इकाई के स्तर पर कचरे को पृथक करें। कचरे का संग्रहण, प्रोसेसिंग, री-साइकलिंग और निपटान एक सामाजिक उद्यम समझा जाना चाहिए, जिसके लिए युवाओं को पर्याप्त सहायता और अपेक्षित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। उन्हें इस कार्य में भागीदारी के लिए प्रेरित भी किया जाना चाहिए। एक बार युवाओं के इस कार्य में शामिल होने के बाद बेहतर परिचालन और निपटान के लिए नवाचार का प्रयोग होने लगेगा। केंद्र बिंदु अभी भी यह है कि हमें कीचड़, गंदगी और अस्वच्छता के प्रति घृणा रखनी चाहिए, लेकिन सफाई और निपटान करने वाले उन लोगों से प्रेम और सहानुभूति रखनी चाहिए, जो अलग-थलग पड़े हुए हैं। हमें गांधीजी के आह्वान के अनुसार काम करना चाहिए।

 

(लेखक गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद के पूर्व कुलपति हैं। (ईमेल: sudarshan54@gmailcom)