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संपादकीय लेख


Editorial Article Volume-20

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के भूले-बिसरे नायक 

भारत ने विदेशी शासन से अपने को मुक्त कराने के लिए जो दीर्घकालीन संघर्ष किया, वह राष्ट्रीय वीरता की एक बेजोड़ गाथा है। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों के कष्टों और उत्पीडऩों की अनकही दास्तान, स्व-शासन के लिए संकल्प और तड़प की पूर्ण गाथा का एक गौरवशाली हिस्सा रही है। यह युद्ध सिर्फ  राजनीतिक अधिकारों के लिए नहीं था, बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में विदेशी शासन के दमन से मुक्ति पाने का माध्यम था। स्वाधीनता आंदोलन के वर्षों में देश के कोने-कोने में संघर्ष की भावना लोगों के दिलो-दिमाग में घर कर गई थी। जाति और संप्रदाय, क्षेत्र और धर्म से ऊपर उठ कर देश के सभी भागों से इस आंदोलन को शक्ति प्राप्त हुई।

हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के सर्वोच्च बलिदान और नि:स्वार्थ भावना ने इतिहास के पन्नों पर अपनी पहचान दर्ज की है।

हमारा स्वतंत्रता आंदोलन लिखित इतिहास का एक हिस्सा है, परंतु असंख्य ऐसे नि:स्वार्थ, साहसी स्वतंत्रता सेनानी भी रहे हैं, जिनका योगदान उजागर नहीं हुआ या जिनकी अनदेखी की गई। इन भूले-बिसरे नायकों को याद किए बिना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी को पूर्ण रूप नहीं दिया जा सकता। भारत की स्वतंत्रता के 70 वर्ष पूरे करने के अवसर पर हम देश के उन महान सपूतों और वीरांगनाओं को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

पिंगली वेंकैया: पिंगली का जन्म 2 अगस्त, 1876 को आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में भटलापेनीमारू गांव में हुआ था। वे कई मोर्चों पर एक संपूर्ण व्यक्ति थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में एंग्लो-बोएर युद्धों में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सेवा की। उसी दौरान वे महात्मा गांधी के संपर्क में आए और उनकी विचारधारा से अभिभूत हो गए। काकिनाडा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान, उन्होंने सुझाव दिया था कि हमारा स्वयं का एक ध्वज होना चाहिए। गांधीजी ने इस विचार का समर्थन किया और कहा कि वे स्वयं ऐसे ध्वज का डिजाइन तैयार करें। विजयवाड़ा में राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान उन्होंने तिरंगे झंडे का प्रस्ताव पेश किया, जिसके मध्य में चरखा बना हुआ था। गांधी जी ने ध्वज को पसंद किया और बाद में यही ध्वज भारत का राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया, जिसके मध्य में अशोक चक्र को रखा गया। 4 जुलाई, 1963 को पिंगली वेंकैया का निधन हो गया।

मोजे रीबा: वे राष्ट्रभक्त थे और भारत माता के महानतम सपूतों में से एक थे। वे परोपकार के लिए जाने जाते थे। लोग उन्हें प्यार से अबोह नईजी के नाम से पुकारते थे। अंग्रेजों ने 1947 में उन्हें उस समय गिरफ्तार किया, जब वे गोपीनाथ बोरदोलोई के समर्थन में आलो, बसार और पासीघाट क्षेत्र में कांग्रेस के लिए अभियान चला रहे थे और तत्संबंधी पर्चे वितरित कर रहे थे। वे अरुणाचल प्रदेश से ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 15 अगस्त, 1947 को दीपा गांव में राष्ट्रीय ध्वज फहराया। उनके बलिदान और स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने 1974 में उन्हें ताम्रपत्र प्रदान किया।

चापेकर बंधु: स्वतंत्रता सेनानी दामोदर हरी चापेकर और उनके भाई बालकृष्ण और विनायक चापेकर का जन्म चिनेहवाड, जिला पुणे, महाराष्ट्र में हुआ। तीनों बंधुओं ने 22 जून, 1897 को ब्रिटिश अधिकारी वाल्टर चाल्र्स रैंड को मारने की योजना बनाई, जो पुणे में प्लेग से निपटने में कोताही बरत रहे थे। बालकृष्ण चापेकर ने एक अन्य पुलिस अधिकारी लेफ्टिनेंट चाल्र्स अयरेस्ट को भी मार दिया, जो पास से गुजर रहे थे। अंतत: दामोदर, उसके दोनों भाई और उनके मित्र महादेव रानाडे को गिरफ्तार कर लिया गया और सूली पर चढ़ा दिया गया।

वनचिंतन: उनका जन्म शेनकोट्टई, तिरूनेलवेल्ली जिला, तमिलनाडु में हुआ। वनचिंतन उर्फ  संकर अय्यर, श्रीरघुपति अय्यर के पुत्र थे। वनचिंतन ने प्राथमिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त की और वन विभाग में काम पर लग गए। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया। उन्होंने भारत माता संगम नाम की एक सोसायटी का गठन किया, जिसका लक्ष्य भारत में सभी अंग्रेज अधिकारियों को मारना था।

उन्होंने जून 17, 1911 को तिरुनेलवेल्ली के कलेक्टर मिस्टर अशे पर हमला किया और उन्हें मार डाला। जब अंग्रेजों ने उन पर दबाव डाला तो उन्होंने आत्महत्या करते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान कर दिया।

पीर अली खान: उनका जन्म 1812 में पटना, बिहार में हुआ। वे एक पुस्तक विक्रेता थे। खान ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जुलाई, 1857 में अपने जिले में प्रमुख भूमिका अदा की थी। विद्रोही सेनाओं की पराजय के बाद अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार किया। उन्हें फांसी की सजा दी गई।

राउत बाजी: राउत का जन्म 1926 में ओडिशा के ढैनकनाल जिले के गांव निकंतनपुर में हुआ। उनके पिता का नाम श्री हरि राउत बाजी था, जो ढैनकनाल स्टेट में एक नाविक थे और प्रजा मंडल के कार्यकर्ता थे। 1938 में जब सरकारी अधिकारियों ने लोगों पर आतंक का साम्राज्य कायम कर रखा था, तब उन्होंने ब्राहमिनी नदी पर निकंतपुर घाट के पास राज्य पुलिस और सैनिकों की गतिविधियों पर नजर रखने का काम शुरू कर दिया। अक्तूबर 10, 1938 की एक रात के समय अनेक पुलिसकर्मियों और सैनिकों ने उनसे जबरन कहा कि वे अपनी नाव पर बिठा कर उन्हें नदी पार करा दें। 12 वर्षीय बच्चे ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और उनसे कहा कि वे लोगों के दुश्मन हैं। एक सैनिक ने बंदूक की बट से उनके सिर पर वार किया जिससे उसकी खोपड़ी में चोट आई। अपनी गंभीर क्षति की परवाह न करते हुए उसने शोर मचाना शुरू कर दिया और सैनिकों और पुलिसकर्मियों के पहुंचने के बारे में लोगों को सचेत कर दिया। अत्यधिक रक्त बह जाने से उसी रात उनकी मृत्यु हो गई। आसपास के गांवों से भीड़ घाट पर एकत्र हो गई, जिसने सैनिकों को नदी पार करने से रोकने की कोशिश की। सैनिकों की गोलीबारी से कई ग्रामवासी मारे गए। नन्हें बाजी राउत की बहादुरी और राष्ट्रभक्ति को प्रसिद्ध ओडिय़ा कवि, साची राउतरे द्वारा बोट मैनकविता में मूत्र्त रूप दिया।

रानी गैडिंलू: वे एक नागा आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थीं, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया और वे नागा धर्म के अनुयायियों को इसाई बनाने के भी सख्त खिलाफ थीं। 13 वर्ष की आयु में वे हेराका धार्मिक आंदोलन में शामिल हो गईं, जिसकी शुरुआत उनके चचेरे भाई ने की थी। बाद में इस आंदोलन ने राजनीतिक आंदोलन का रूप ले लिया, जिसके जरिए अंग्रेजों को मणिपुर तथा आसपास के नागा क्षेत्रों से भगाने का प्रयास किया गया। गिरफ्तारी के समय उनकी आयु 16 वर्ष थी। अंग्रेजों ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी। 5 वर्ष बाद 1937 में नेहरू जी उनसे मिलने गए और वायदा किया कि वे उन्हें कारगार से मुक्ति दिलाएंगे। उन्होंने उन्हें रानी का खिताब दिया। 1947 में उन्हें रिहा कर दिया गया और उसके बाद वे अपने समुदाय के लिए काम करती रहीं। रानी गैडिंलू को पद्मभूषण से भी अलंकृत किया गया।

सूर्य सेन: उन्हें मास्टर दा के नाम से भी जाना जाता था। सेन का जन्म 18 अक्तूबर, 1893 को नौपाड़ा, चिटगोंग, बंगाल (वर्तमान में बांग्लादेश) में हुआ था। वे श्री राजमणि सेन के पुत्र थे। सेन 1918 में रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुए थे। उन्होंने 1921 में असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। वे उस क्रांतिकारी संगठन के नेता बन गए, जिसने 23 दिसंबर, 1923 को पहरटैली रेलवे कार्यालय में एक राजनीतिक डकैती को अंजाम दिया था। वे गिरफ्तारी से बच निकले और भूमिगत हो गए। उन्होंने असम-सिल्चर, करीमगंज, गुवाहाटी, शिवसागर आदि क्षेत्रों के चाय बागानों में क्रांतिकारी केंद्र स्थापित किए। 1924 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और बिना मुकदमा चलाए 4 वर्ष तक बंद रखा गया। सेन ने अप्रैल 18, 1930 को चटगोंग में ब्रिटिश शस्त्रागार पर छापा मारने की योजना बनाई और उसे अंजाम दिया। उन्होंने शस्त्रागार पर हमले का नेतृत्व भी किया और मैग्जीन्स और गार्ड रूम पर कब्जा कर लिया। अप्रैल 22, 1930 को उन्होंने जलालाबाद हिल पर ब्रिटिश सैनिकों से युद्ध भी किया। वे पुलिस की गिरफ्तारी से बचते रहे और अपने गुप्त ठिकाने से क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहेे। जून 13, 1932 को जब वे पटिया में साबित्री चक्रबर्ती के घर पर छिपे हुए थे, तो सेना के एक दस्ते ने उनकी घेराबंदी कर ली। एक संक्षिप्त मुठभेड़ के बाद वे सेना को चकमा देकर बच निकले। फरवरी 16, 1933 को एक बार फिर पुलिस और सैनिकों ने गोइराला में सेन की घेराबंदी कर दी। उन्होंने कड़ा मुकाबला किया लेकिन उनके परिवार को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने उनकी बुरी तरह पिटाई की और उत्पीडि़त किया। उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 11 जनवरी, 1934 को चिटगोंग जेल में उन्हें फांसी दे दी गई।

सुरेन्द्र साई: कुछ अन्य सहयोगियों के साथ पश्चिम ओडिशा को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने में महत्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद सुरेन्द्र साई का जीवन गुमनामी के अंधेरे में खोया रहा। 1827 में महाराजा साई की मृत्यु के बाद वे संबलपुर के सिंहासन के उत्तराधिकारियों में सर्व प्रमुख थे। परंतु, उन्होंने लोगों की भाषा और संस्कृति के विकास को प्रोत्साहित करते हुए संबलपुर में निचले वर्ग के जनजातीय लोगों की अंग्रेजों से हिफाजत करने का प्रयास किया। तलवार का धनी होने के कारण लोगों उन्हें प्यार से बीर कहते थे। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में विरोध करना शुरू किया और उसके बाद करीब 17 वर्ष जेल में बिताए। 1862 तक उन्होंने अपना विरोध जारी रखा और फिर हथियार डालते हुए जेल चले गए। आत्मसमर्पण करने के बाद वे  20 वर्ष तक जेल में रहे। शाही रजवाड़े को छोड़ कर संबलपुर देश का आखिरी भाग था, जिस पर अंग्रेज कब्जा नहीं कर पाए थे। इसका अधिकतर श्रेय साई के प्रयासों को जाता है।

वेलु नचियार: उनका जन्म 3 जनवरी, 1730 को तमिलनाडु में रामनाथपुरम में हुआ था। वेलु नचियार ऐसी पहली रानी थीं, जिन्होंने सिपाही विद्रोह से पहले अनेक वर्षों तक औपनिवेशक शासकों के खिलाफ संघर्ष किया। हैदरअली और गोपाला नायकर के सहयोग से उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ा और विजयी रहीं। अंतत: उन्होंने पहले मानव बम की परिकल्पना की और सन 1700 के उत्तराद्र्ध में प्रशिक्षित महिला सैनिकों की पहली सेना का गठन किया था।

पीर बख्श: पीर दिल्ली के निवासी थे। उन्होंने दिल्ली में ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी। विद्रोही सेनाओं की पराजय के बाद पीर जयपुर प्रांत की तरफ चले गए। उसके बाद अंग्रेजों ने जिला सवाई माधोपुर, राजस्थान में हिंडन के निकट उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हिंडन स्थित जयपुर स्टेट आर्मी के सैनिकों ने अंग्रेजों से विद्रोह करते हुए पीर को मुक्त कराया। ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें फिर से पकड़ लिया और आगरा में कैद कर लिया। इस बार पीर को मौत की सजा सुनाई गई और 1857 में आगरा में उन्हें फांसी दे दी गई।

पोट्टि श्रीरामलु: पोट्टि का जन्म 16 मार्च, 1901 को हुआ था। वे एक भारतीय क्रांतिकारी थे। पोट्टि महात्मा गांधी के समर्पित अनुयायी, कट्टर समर्थक और शिष्य थे। उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और तीन बार जेल गए। 15 दिसंबर, 1952 को उनका निधन हो गया।

मनीराम देवन: उनका जन्म 17 अप्रैल, 1806 में रंगपुर असम (अब बांग्लादेश में) में हुआ था। वे असम के महानतम स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वे असम में चाय बागान स्थापित करने वाले प्रथम व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने ही अंग्रेजों को सिंगफो लोगों द्वारा असम में चाय उगाए जाने की जानकारी दी थी, जिसकी जानकारी उस समय तक विश्व में किसी को नहीं थी। शुरू में अंग्रेजों के साथ उनके संबंध मैत्रीपूर्ण थे। वे असम में प्राइवेट चाय बागानों की स्थापना में रुचि रखते थे। वे असम में अहोम शासन बहाल करने के इच्छुक थे। उन्हें भारत के प्रथम स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेने के अवसर नजर आए। उन्होंने पियाली बरुआ जैसे अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर अंग्रेजों को भगाने की एक योजना बनाई। परंतु, उनकी योजना का पता चल गया और अन्य नेताओं के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। मनीराम ब्रिटिश विरोधी षडयंत्र की योजना बनाने के दोषी पाए गए। उन्हें पियाली बरुआ के साथ फरवरी 26, 1858 को जोरहाट जेल में सार्वजनिक तौर पर फांसी दे दी गई।

बसावन सिंह: उनका जन्म 23 मार्च, 1909 को जमालपुर, हाजीपुर, बिहार में हुआ। वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक कार्यकर्ता थे और उपेक्षित, औद्योगिक श्रमिकों तथा खेतिहर मजदूरों के अधिकारों के लिए आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने ब्रिटिश भारत में करीब साढ़े 18 वर्ष जेल में बिताए। लाहौर षड्यंत्र मामले के बाद वे फरार हो गए। वे भुसावल, काकोरी, तिरहट और डेलोहा षड्यंत्र मामलों में सह-अभियुक्त थे। 7 अप्रैल, 1989 में उनकी मृत्यु हो गई।

वीर नारायण सिंह: उनका जन्म 1795 में सोनाखर, जिला रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ था। वे एक भू-स्वामी थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ में 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था। अंग्रेजों ने 1856 में एक व्यापारी का अनाज का भंडार लूटने के आरोप में गिरफ्तार किया, जिसे उन्होंने लूट कर भीषण अकाल के वर्ष में निर्धनों में बांट दिया था। 1857 में ब्रिटिश सेना के सैनिकों की मदद से वे जेल से बच निकले। वे सोनाखर पहुंचे और 500 लोगों की एक सेना का गठन किया। स्मिथ के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना का एक शक्तिशाली दस्ता सोनाखर सेना को दबाने के लिए भेजा गया। वे ब्रिटिश सैनिकों की ज्यादतियों और विध्वंसकारी गतिविधियों से आहत हो गए और उन्होंने लोगों की जान बचाने के लिए अपने को ब्रिटिश सेना के सुपुर्द कर दिया। उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया और मौत की सजा सुनाई गई। 10 दिसंबर, 1857 को उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई।

पंडित नेकी राम शर्मा : शर्मा का जन्म 5 सितंबर, 1887 को कालेंगा, रोहतक जिला, हरियाणा में हुआ था। वे एक महान वक्ता थे। स्वतंत्रता आंदोलन छोडऩे के लिए तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें 600 एकड़ जमीन देने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था।  वे पहली बार 1915 और 1918 में क्रमश: महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से मिले और उनके आंदोलन में बढ़ चढ़ का हिस्सा लिया। पहली बार 1919 में रोलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया। इसके बाद असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह और व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी उन्हें गिरफ्तार किया गया। स्वाधीनता आंदोलन में वे 9 बार जेल गए और 250 दिन के सश्रम कारावास को भुगता। उन्होंने अम्बाला डिविजनल पोलिटिकल कांफ्रेंस का गठन किया, जिसमें महात्मा गांधी ने मुख्य अतिथि के रूप में हिस्सा लिया। इस कांफ्रेंस की विशेषता यह थी कि यह बिना कुर्सियों का पंडालथा, जिससे गांधी जी प्रभावित हुए और उसके बाद से उन्होंने कांग्रेस के जितने भी सम्मेलन बुलाए, उनमें कुर्सियों का इस्तेमाल नहीं किया। पंडित नेकी राम शर्मा ने अस्पृश्यता, बाल विवाह, पर्दा प्रथा और दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों का कड़ा विरोध किया।

पंडित प्रेम नाथ डोगरा: उन्होंने जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण के लिए काम किया। उन्हें शेर-ए-डुग्गर के नाम से भी जाना जाता है। 1947 में बलराज मधोक के साथ मिल कर उन्होंने प्रजा परिषद पार्टी का गठन किया और शेख अब्दुल्ला की नीतियों का विरोध किया।

के. केलाप्पन: केलाप्पन का जन्म 24 अगस्त, 1889 को हुआ। वे नायर सर्विस सोसायटी के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष भी थे। वे एक समाज सुधारक स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद् और पत्रकार थे। उन्हें केरल के गांधी के नाम से भी जाना जाता है। एक तरफ उन्होंने समाज सुधारों के लिए संघर्ष किया, तो दूसरी तरफ ब्रिटिश शासन का विरोध किया। 7 अक्तूबर, 1971 को उनकी मृत्यु हुई।

बिरसा मुंडा: बिरसा का जन्म 15 नवंबर, 1875 में उलिहातू, रांची जिला, झारखंड में हुआ। वे एक किसान थे। उन्होंने 1895 से 1900 तक ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी आंदोलन का संचालन और नेतृत्व किया। 3 फरवरी, 1900 को उन्हें गिरफ्तार किया गया और 3 जून, 1900 को कारागार में उनकी मृत्यु हो गई। मुंडा युवा के रूप में उन्होंने भू-स्वामियों और ब्रिटिश शासकों के दमन और शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। ब्रिटिश शासक आमतौर पर भू-स्वामियों का पक्ष लेते थे। आज रांची जिले के मुंडा और अन्य जनजातीय लोग बिरसा को भगवान की तरह मानते हैं। वे उन्हें बिरसा भगवान कहते हैं। बिरसा ने अपने समुदाय के सदस्यों को प्रेरित किया और उनमें क्रांति की मशाल जलाई।

कित्तूर चेन्नम्मा: उनका जन्म काक्ती बेलगावी, कर्नाटक में 23 अक्तूबर, 1778 को हुआ। वे कित्तूर की रानी थीं। वे पहली भारतीय महिला शासक थीं, जिन्होंने 1824 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। जब अंग्रेजों ने कित्तूर का खजाना और हीरे-जवाहरात जब्त करने की कोशिश की, तो एक युद्ध भडक़ उठा जिसमें ब्रिटिश सैनिकों के साथ एक कलेक्टर भी मारा गया। दो ब्रिटिश अधिकारियों को बंधक बनाया गया। दूसरे हमले में चेन्नम्मा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया, जहां उनकी मृत्यु हो गईं।

तिरोत सिंह: वे 18वीं सदी में खासी समुदाय के प्रमुखों में से एक थे। उनका जन्म नोंगखलाव, पश्चिम खासी हिल्स, मेघालय में हुआ। वे सिमलिह वंश से सम्बद्ध थे। उन्होंने खासी हिल्स पर नियंत्रण करने के अंग्रेजों के प्रयासों का विरोध किया। उन्होंने केवल तलवार और ढाल जैसे देसी हथियारों से लड़ाई की, लेकिन 17 जुलाई, 1835 को वे अंग्रेजों की गोली का शिकार हो गए।

तांतिया मामा: वे भारत के रॉबिन हुड थे। उनका जन्म बदादा, खंडवा, मध्य प्रदेश में 1842 को हुआ। 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन द्वारा किए गए कड़े उपायों को देखते हुए उन्होंने अपने कॅरियर की शुरुआत की। वे महान क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने 12 वर्ष तक ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ा और विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के अपने अदम्य साहस और विश्वास की बदौलत वे जन-जन के प्रिय हो गए। वे जनजातीय और सामान्य लोगों की भावनाओं का प्रतीक बन गए थे। वे ब्रिटिश सरकार के खजानों और अंग्रेजों के चापलूसों का धन लूट कर गरीब और जरूरतमंद लोगों में बांट देते थे। वे गुरिल्ला युद्ध में निपुण थे। अंतत: उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जबलपुर कारागार में लाया गया, जहां ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें अमानवीय यातनाएं दीं। 19.10.1889 को उन्हें मृत्युदंड के रूप में फांसी पर लटका दिया गया।

करतार सिंह सराभा: उनका जन्म 24.05.1896 को लुधियाना में हुआ था। वे भारतीय सिख क्रांतिकारी थे, जो लाहौर षडय़ंत्र ट्रायल में सर्वाधिक प्रसिद्ध अभियुक्तों में से एक थे। गदर पार्टी के चमकते सितारे के रूप में करतार सिंह को फरवरी, 1915 में हुए गदर षडय़ंत्र में उनकी भूमिका के लिए उन्हें नवंबर, 1915 को लाहौर में फांसी दे दी गई।

विजय सिंह पथिक: वे प्रसिद्ध देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका जन्म 27.02.1882 को बुलंदशहर, अजमेर, राजस्थान में हुआ था। वे किशोरावस्था में ही क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए थे और उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष में सक्रिय भूमिका अदा की। उनका असहयोग आंदोलन इतना कामयाब था कि लोकमान्य तिलक ने महाराणा फतेह सिंह को पत्र लिखा था कि उन्हें बिजोलिया आंदोलनकारियों की मांग स्वीकार करनी चाहिए। गांधीजी ने अपने सचिव महादेव देसाई को इस आंदोलन का अध्ययन करने के लिए भेजा था। पथिक जी ने ही अखंड राजस्थान के उद्देश्य के लिए संघर्ष किया था।

मगनभाई पटेल: उनका जन्म मटवाड मोखाला फलिया, जिला सूरत, गुजरात में हुआ था। जब वे तीसरी कक्षा के विद्यार्थी थे तब उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। 22 अगस्त, 1942 को हुई पुलिस की गोलीबारी में वे घायल हो गए और उसी दिन उनकी मृत्यु हुई।

 

(रोजगार समाचार द्वारा संकलित)