रोज़गार समाचार
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संपादकीय लेख


Volume-25, 22-28 September, 2018

 
 
कृषि क्षेत्र में रोजग़ार

अनिल गुप्ता

जब आप युवा लोगों के लिये कामकाज के भविष्य के बारे में चिंतन करते हैं तो संभवत: प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ऐसी पहली बातें होती हैं जो मन में आती हैं; कृषि अथवा खेती नहीं. इससे ऐतिहासिक समझ बनती है, क्योंकि जब देश विकास करते हैं तो कृषि श्रमिकों को आश्रय प्रदान करती है. और खाद्य उत्पादन के परंपरागत तरीके विशेष तौर पर आकर्षक नजऱ नहीं आते हैं.
जबकि प्रौद्योगिकी और इंटरनेट से भी कृषि के लिये अवसर खुल रहे हैं, और शहरीकरण तथा बदलते आहार हमारे खानपान की प्रक्रिया, विपणन और उपभोग के नये मार्गों की मांग कर रहे हैं. अत: सवाल यह है कि क्या कृषि युवाओं के लिये रोजग़ार के अवसर उपलब्ध करा सकती है. खेती में कम, परंतु बेहतर रोजग़ार के अवसर मौजूद हैं. सर्वप्रथम, नि:संदेह, खेती संबंधी रोजग़ारों का दायरा सिकुड़ रहा है. यह एक सामान्य बात है. जैसे-जैसे देशों का शहरीकरण होता है और आय बढ़ती है, खाद्य पर होने वाले ख़र्च में कुल व्यय के हिस्से के तौर पर कमी आती है. किसान अपनी अन्य वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिये खेती से हटकर दूसरे रोजग़ार संचालित करते हैं. यह प्रक्रिया केवल तभी बनी रह सकती है जब खेती में श्रम उत्पादकता में नवाचार के साथ-साथ अतिरिक्त उत्पादन की बिक्री के लिये बाज़ारों की बेहतर उपलब्धता के जरिए वृद्धि होती है. वर्तमान में एक प्रमुख उदाहरण हैलो ट्रैक्टरका है जो कि एसएमएस, जीपीएस और स्मार्ट सेंसर्स का प्रयोग करते हुए नाईजीरिया में ट्रैक्टरों की परस्पर भागीदारी के लिये एक अभिनव मंच है. इस उबेर फॉर ट्रैक्टर्ससे छोटे किसानों के द्वार पर स्मार्ट ट्रैक्टर्स की उपलब्धता में सहायता मिली है जिसके परिणामस्वरूप यंत्रीकरण के जरिए उत्पादकता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है. यद्यपि कृषि का यंत्रीकरण ये सुनिश्चित करने का एक अच्छा मार्ग है कि यह क्षेत्र आधुनिक समय के अनुरूप अपने आपको ढाल रहा है, इसकी अपनी तरह की चुनौतियां भी हैं जिनमें समर्थित सेवाओं की समय पर उपलब्धता और मानक अर्जित करने के लिये वित्त की पहुंच शामिल है. 
यंत्रीकरण को सस्ता करने के प्रयास किये जाने चाहियें और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि प्रक्रिया बाज़ारी ताकतों के अनुकूल बनी रहे, जैसा कि कारक मूल्य अनुपात (पूंजी पर श्रम और भूमि पर श्रम) के माध्यम से पता चलता है.
कृषि आधारित रोजग़ार-
अधिकतर नये और अच्छे रोजग़ार कृषि क्षेत्र के अंतर्गत सृजित किये जाने हैं. एकत्रीकरण, भंडारण, प्रसंस्करण, रसद, खाद्य तैयारी, रेस्ताराओं और अन्य संबद्ध सेवाओं के लिये मांग बढऩा महत्वपूर्ण है क्योंकि व्यापक कृषि-खाद्य प्रणालियों में खेती से अलग रोजग़ार के अनेक अवसर उभरकर आयेंगे. जैसा कि हैलो ट्रैक्टर से बड़ी मात्रा में ट्रैक्टर मालिकों, चालकों और अन्य वित्तीय सेवाओं के प्रदाताओं के लिये उच्च गुणवत्ता के रोजग़ार सृजित होते हैं, इन अनुप्रवाह गतिविधियों से रोजग़ार के भी महत्वपूर्ण अवसर खुलेंगे. दक्षिण और पूर्वी अफ्रीका में, आने वाले दशकों के दौरान खेती से संबंधित क्षेत्र में कऱीब एक तिहाई श्रमिकों के समाहित होने का अनुमान है. समस्या यह है कि रोजग़ार अवसरों की दृष्टि से कृषि क्षेत्र में कामकाज को कठिन परिश्रम वाले एक ग़ैर लाभकारी व्यवसाय के तौर पर देखा जाता है जिससे बचा जाना चाहिये. किसान सामान्यत: इसे पूरी तरह भाग्य की बात के तौर पर देखते हैं और अपने बच्चों को इस नियति से सुरक्षित देखना चाहेंगे. कुल मिलाकर वे खेती को मात्र अपने अस्तित्व के स्रोत के तौर पर लेते हैं, कुछ ऐसा जो उन्हें जि़ंदा रखता है.
कोई भी व्यवसाय, यदि इसके ज़्यादातर व्यवहारकर्ताओं की यही धारणा है, विकास नहीं कर सकता. यदि कृषि को लाभप्रद व्यवसाय के तौर पर दर्शाया जाता है तो ज़्यादातर युवा लोग इस व्यवसाय से ज़रूर जुडऩा चाहेंगे. जब तक कि कृषि एक ‘‘उद्योग’’ नहीं बनेगा, यह लाभप्रद नहीं होगा. औद्योगिक संस्कृति कृषि व्यवसाय में अपनाई जानी चाहिये. औद्योगिक संस्कृति में इनपुट्स, प्रक्रिया और आउटपुट्स के लिये स्पष्ट विशिष्टताएं होनी चाहियें; इसमें वित्तीय अनुशासन और लागत चेतना; नियोजन और तार्किक निर्णय करने तथा अंतत:, कार्यनिष्पादन संकेतों की जानकारी अवश्य होनी चाहिये- किसी को भी कार्यनिष्पादन की औद्योगिक मानकों के साथ अवश्य तुलना करनी चाहिये और इनमें बेहतरी के प्रयत्न करने चाहियें. मेरी राय में, कार्यनिष्पादन संकेतक, स्टॉक और मालसूची, लाभ और हानि सहित लेखा-जोखा- ये सब विवरणों का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिये. इनके बग़ैर, कृषि व्यवसाय के प्रदर्शन का पता लगाना संभव नहीं है. अभी तक, हम इस बुनियादी सुविधा के अभाव को नजऱअंदाज करते रहे हैं. उदाहरण के लिये, चारे के भारोत्तोलन के लिये कोई परंपरागत पद्धति या व्यवहार नहीं है जो कि अन्यथा उद्योग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. यह कृषि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन प्रत्येक खेत में सुविधाओं का अभाव है. यह कृषि क्षेत्र के विकास में एक पूर्वापेक्षा है. इस संबंध में ‘‘कार्यबल का कौशल विकास और उत्पादकता’’ पर नीति आयोग की रिपोर्ट से निम्नलिखित टिप्पणियां संगत हैं:
(I) कृषि से ग़ैर कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक बदलाव सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र के योगदान में तीव्र गिरावट देखी गई है जो कि घटकर 16 प्रतिशत हो गई है, लेकिन कार्यबल भागीदारी स्तर में बहुत कम गिरावट है जो कि 48 प्रतिशत आंकी गई है. इसके परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र में उत्पादकता का कम स्तर देखा गया है. सृजित रोजग़ार की प्रकृति अनौपचारिक (कार्यबली का 91 प्रतिशत) और रोजग़ार की स्थिति स्वरोजग़ार की है.  इसके अलावा, आकांक्षा असंतुलन या कौशल असंतुलन के कारण युवाओं के बीच बेरोजग़ारी की उच्च डिग्री है जिससे कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी घट रही है और एक ऐसा आर्थिक वातावरण बन रहा है जिसमें रोजग़ार का सृजन आर्थिक विकास के अनुरूप बहुत कम होता है. रोजग़ार के क्षेत्र और स्थिति से कार्यबल का वितरण दर्शाता है कि कृषि क्षेत्र में, जहां लगभग 32 प्रतिशत स्वरोजग़ार है, अधिकतर संख्या स्वयं-खाता कार्यकर्ता के तौर पर अथवा अवैतनिक सहायक के तौर पर प्रचालन कर रही है;
(ii) कृषि में आकस्मिक श्रम मात्र 17 प्रतिशत है;
(iii) भारत में, 70 प्रतिशत श्रमिक बल ग्रामीण क्षेत्र में निवास करता है और कम उत्पादक कृषि गतिविधियों पर निर्भर करती है, जहां बहुत कम रोजग़ार अवसर हैं, जिससे उत्पादकता का स्तर कम होता है. भारत में गऱीबी से जूझ रही महिलाओं का उच्च अनुपात उनके कम उत्पादक कार्यों में ध्यान लगाने के कारण है.
(iv) माध्यमिक शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम में स्कूली छात्रों के लिये कृषि क्षेत्र से संबंधित विषयों को शामिल करने की आवश्यकता है ताकि युवा कम से कम इस क्षेत्र में कामकाज के अवसरों के प्रति अवगत हो सकें.
(1) ग्रामीण क्षेत्रों में, मनरेगा के जरिए ग्रामीण विकास के लिये निर्धारित प्राथमिकताओं के साथ प्रशिक्षण व्यवस्था का समन्वय करने और ऐसी ग़ैर कृषि गतिविधियों को बढ़ावा देने के प्रयास किये जा रहे हैं जिनसे ग्रामीणों की आय बढ़े और कृषि क्षेत्र में ऋतुकालीन उतार चढ़ावों से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने की कोशिशें की जा रही हैं. नई प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल, वैकल्पिक फसलों और श्रम सघन फसलों के जरिए भी वर्धित उत्पादन व्यवहार भी लघु भूमि धारिता में सकारात्मक आय और रोजग़ार के प्रभाव डाल सकते हैं. इसी प्रकार, यदि हम प्रछन्न बेरोजग़ारी के बारे में बात करते हैं, यह कृषि कार्य में संलग्न अधिकतर ग्रामीण आवासों में मौजूद है. प्रछन्न बेरोजग़ारी वहां मौजूद रहती है जहां श्रम बल का हिस्सा बिना काम के रहता है अथवा अनावश्यक तरीके से काम कर रहा है, जहां श्रमिक उत्पादकता वास्तव में शून्य होती है. यह बेरोजग़ारी ही है जो कि कुल उत्पादन को प्रभावित नहीं करती है. कोई अर्थव्यवस्था उस वक्त प्रछन्न बेरोजग़ारी को प्रदर्शित करती है जब उत्पादकता बहुत कम होती है और बहुत अधिक कामगार कुछेक रोजग़ारों में लगे होते हैं. ऐसे श्रमिक बल को प्रत्यक्ष श्रम से खाद्य प्रसंस्करण जैसी सहायक गतिविधियों की तरफ  मुडऩे के लिये तैयार किया जाना चाहिये. यहां तक कि भारत सरकार ने कृषि की सहायक गतिविधियों को अधिक महत्व देना आरंभ कर दिया है. भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा ‘‘प्राथमिक (शहरी) सहकारी बैंकों के लिये प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण देने पर संशोधित दिशानिर्देशोंपर जारी एक अधिसूचना से निम्नलिखित कुछेक संगत बिंदु हैं:
(i) खाद्य और कृषि प्रसंस्करण इकाइयों को बैंक ऋण कृषि का हिस्सा होंगे.
(ii) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कृषि के बीच मौजूदा अंतर समाप्त कर दिया गया है. इसके अलावा कृषि क्षेत्र को ऋण पुन: परिभाषित किया गया है जिसमें (i) किसानों को अल्पावधि फसल ऋण और मध्यम/दीर्घावधि ऋण शामिल हैं) कृषि ऋण (इसमें अल्पावधि फसल ऋण और किसानों को मध्यम/दीर्घावधि ऋण शामिल हैं) (ii) कृषि अवसंरचना और (iii) सहायक गतिविधियां (iv) सहायक गतिविधियों में शामिल है:
क) एग्रीक्लीनिक्स और एग्रीबिजनेस सेंटरों की स्थापना के लिये ऋण
ख)बैकिंग प्रणाली से प्रति ऋण प्राप्तकर्ता 100 करोड़ की कुल स्वीकृत सीमा तक खाद्य और कृषि प्रसंस्करण के लिये ऋण
(iv) सीमांत और लघु किसानों में निम्नलिखित शामिल होंगे:
*1 हेक्टेयर तक भूमि धारण करने वाले किसानों को सीमांत किसान माना जाता है.
*1 हेक्टेयर से अधिक और 2 हेक्टेयर तक भूमि धारण करने वाले किसानों को लघु किसान माना जाता है.
*भूमिहीन कृषि श्रमिकों, किराये की खेती करने वाले किसानों, मौखिक पट्टेदारों और शेयरक्रॉपर्स यदि हम वैश्विक संदर्भ में किसानों के बीच अंतर के बारे में बात करते हैं, इसमें बहुत से अंतर हैं. आइए भारत और अमरीका का एक उदाहरण लेते हैं. इनमें कुछ भी सामान्य नहीं है, विशेष तौर पर यदि आप भारत में बहुत बड़ी संख्या में निर्वाह किसानों की बात कर रहे होते हैं.
भारतीय किसानों और अमेरिकी किसानों के मध्य निम्नलिखित कुछेक बुनियादी अंतर हैं:
(i) अमरीका में कोई निर्वाह किसान नहीं है.
(ii) यहां तक कि अमरीका के किसान जो कि जानबूझ कर भारतीय किसान की अपेक्षा आधुनिक मशीनरी से परहेज करते हैं. वे भी अधिक प्रभावी तरीके से काम करते हैं; भारतीय खेत और धारित क्षेत्र सामान्यत: कार्यकुशलता के साथ खेती करने के लिये बहुत ही छोटे होते हैं.
(iii) कुल मिलाकर परिणाम यह है कि भारत में किसानों का मानक जीवन स्तर है जो उनके अत्यधिक कम उत्पादकता वाले लोगों की अपेक्षा उचित जीवन के मानदंड रखते हैं.
(ivभारतीय खेत खलिहान छोटे होते हैं जबकि अमरीका में खेत बड़े होते हैं.
कुल मिलाकर, नाईजीरिया में ‘‘हैलो ट्रैक्टर’’ जैसे प्रौद्योगिकीय सुधारों और नवाचारों पर फोकस किया जाना चाहिये. प्रछन्न बेरोजग़ारी की समस्या को उन्हें खाद्य प्रसंस्करण, मात्स्यिकी, पापड़, अचार, चटनी आदि बनाने के कुटीर उद्योगों में सहायक और संबद्ध गतिविधियों में परिवर्तित किया जाना चाहिये.
(लेखक चार्टर्ड लेखाकार हैं) व्यक्त विचार उनके अपने हैं